गुरुवार, 5 अगस्त 2010

बिखरे सितारे भाग ३ गर्दिशमे क़िस्मत.

बिखरे सितारे भाग ३ गर्दिशमे क़िस्मत.

(गतांक: बेवफाई?..मै बेतहाशा रोने लगी...इस तरह का इलज़ाम मेरी कल्पना के परे था..क्या से क्या हो गया था..जिस परिवार के ख़ातिर ,बच्चों की ख़ातिर मै हर तकलीफ़ सह गयी,उनमे से कोई मेरे पास न था..क्या करूँ? क्या करूँ? कहाँ  जाऊं? कौनसी ऐसी जगह थी इस दुनियामे,जिसे मै अपना कह सकती थी? जहाँ से निकल जाने के लिए मुझे कोई न कहता? मेरी बेटी के ससुरालवाले क्या सोचेंगे..?

यहभी नही जानती थी,की,यह तो एक भयानक सिलसिले की शुरुआत भर है....अब आगे पढ़ें.)

पता नहीं कैसे,पर यह ख़बर माँ को भी मिली..वो भी आ गयीं..एक दिन के लिए बेटा,अमन भी आया..गौरव ने ज़ाहिर है,उसे भी बताया..मै बेहद अपमानित महसूस कर रही थी..जानती थी,की, गौरव अक्सर अपनी बात इस तरह पेश करता है,की, सामने वाला उस वक्तव्य को सच समझ  लेता है... उसकी इस आदत से परिचित लोग भी उसकी बातों में आ जाते हैं.....

मैंने अमन से  पूछा:" अमन, तुझे विश्वास होता है की, मै सच कह रही हूँ? मै अपने आपको पुन: स्थापित करना चाह रही हूँ..लोग जानकारी के लिए फोन करते हैं..मिस कॉल के मै जवाब भी देती हूँ..ऐसे नंबर याद रखना मेरे बसकी बात नही.."
अमन: " पता नही...क्या देर  रातको बात करना ज़रूरी है? ऐसी कौनसी आफत थी,की, रात को बात करनी पड़े?"
अमन का जवाब सुन मुझे सख्त चोंट पहुँची..गौरव ने अपनी पत्नी के बारेमे, अपनी ही औलाद को क्या बताया होगा? मुझे अधिक बहस में पढ़ना नही था..मेरी गरिमा के खिलाफ था..

बरसों बंजारों की तरह दिन काटे थे..कोई गिला शिकवा नही था..गौरव की सेवा निवृत्ती के बाद मैंने सोचा था, मै अपने कितने ही छंद दोबारा शुरू कर सकती हूँ..घर से दूर रह नौकरी करने का निर्णय गौरव का था..गाडी की सर्विसिंग, पूरे घरमे आए दिन होनेवाले मरम्मत के काम, कभी तरखान खोजना है,तो कभी  प्लंबर..सारा ज़िम्मा मुझ पे था..और  ऐसा अविश्वास?

ऐसा नही की, गौरव का यह रूप मुझे पता ही नही था..उसके सामने गर कोई मेरी तारीफ़ कर देता तो ,मै कुछ कहूँ,उससे पहले,वह खुद हँसते,हँसते कह देता," अरे भाई टाइम पास तो करना होता है न! "
अन्यथा मेहमानों को दीवारें चद्दरें आदि की ओर इंगित कर ,मेरी तारीफों के पुल भी बाँध लेता! लोगबाग कह उठते,कितना अभिमान है इसे अपनी पत्नी का! उसके रहते,किसी के सामने ,मै अपनी कला या काम के बारे में मूह खोलती ही न थी..पर यह इलज़ाम तो सारी हदें पार कर गया था..

गुज़रे सालों में मै कई नाकाम कोशिशें कर चुकी थी,की, कमसे कम हफ्ते में एकबार हम सब इकट्ठे बैठ, अपने,अपने मन की बातें एक दूसरे से साझा करें..लेकिन हर बार हश्र यह होता,की, गौरव छोड़ अन्य कोई बात ही न कर पाता..किसी और की बात को तवज्जो देना उसके मिज़ाज में ही नही था..इस हदतक की, गर उसके दोस्त या सहकर्मी मेरे पास कुछ मेसेज छोड़ते तो मुझे उसके मूड की प्रतीक्षा करनी पड़ती या,कागज़ पे लिख उसके PA के पास मै पुर्ज़ा पहुँचा देती..अवकाश प्राप्ती के बाद भी उसके पास सब्र न होता की, मेरी बात सुने..दो तीन बार हताश,हो मैंने इ-मेल लिख दी थी..आपसी संपर्क सहजता से बनाये रखने के मेरे सारे यत्न हमेशा असफल हुए..

माँ को तो मुझपे पूरा विश्वास हुआ..की, जोभी हुआ वो केवल एक हादसा था..मेरी बहन बहनोई उसी शहर में थे जहाँ गौरव को नौकरी मिली थी..अफ़सोस! जो बहन अपने जीजा को अच्छी तरह जानती थी, वो भी उसके झासे में आ गयी..बहन, जो मेरी सबसे अज़ीज़ सहेली थी..

मुझे याद नही,की मै किस तरह दिन काट रही थी..सोचने की शक्ती जवाब दे गयी..यह बात तो माँ ने कही:" इस हदतक जाने की गौरव को सूझी कैसे? "
कुछ हफ़्तों पहले की एक घटना,जिसे मैंने क़तई तूल नहीं दिया,था,याद आई..जूली, मेरी निरक्षर नौकरानी, जिसकी बेटी के पढाई लिखाई.....और बाद में ब्याह का ज़िम्मा मैंने ले रखा था...जो एक विधवा थी....जिसकी गलतियों पे मै अक्सर पर्दा डाल देती थी..के उसे डांट न पड़े..मेरे  पास कॉर्ड लेस फोन ले आई. घुस्से में थी, की,वो शख्स ठीक से अपना परिचय नही दे रहा था..

दूसरी ओरसे,एक व्यक्ती पूछना  चाह रहा था,की, क्या  मै, शहर से काफ़ी दूर बने उसके फार्म हाउस का landscaping कर सकती हूँ?
पल भर सोच,मैंने कहा:" मै डिज़ाइन तो बना दे सकती हूँ..लेकिन मेरे पास अपनी टीम नहीं है...फिलहाल मेरा काम सुझाव तक सीमित है.."
उसने कहा:" गर मै आपको एक टीम बना दूँ,तो आप कभी कभार supervion कर सकती हैं?"
मै:" गर आप मुझे अपना नंबर दें,तो मै कलतक सोच के बता दूँगी...माफी चाहती हूँ,की,तुरंत नही बता सकती..!"

मैंने बात ख़त्म की ही थी,की, माँ का फोन आ गया..मैंने ही उठा लिया और हम दोनों बातें करने लगी...जूली दो तीन बार मुझ से कहने आई की, मै खाना खा लूँ..मै हरबार इशारे से ,'बस पाँच मिनट', जताती रही..
माँ से बातचीत ख़त्म कर मै बाथरूम में हाथ धोने चली गयी...मुझे पहले तो फोन बजने की आवाज़ आई..और फिर जूली के अलफ़ाज़ कान पे पड़े:" मैडम बाथरूम में हैं.."
कुछ पलके बाद:" हाँ..यह फोन बिजी था...वो किसी साहब का फोन था.. हमेशा आता है..ठीक से नाम नही बताता .."
इससे पहले की,मै उसके हाथ से रिसीवर लेलूँ,उसने रख दिया था..मैंने चिढ के  कहा" जूली....! क्या बकवास कर रही है..अव्वल तो मै माताजी से बात कर रही थी..और तुझे क्या ज़रुरत पडी है किसी को यह सब बताने की?"

जूली:" साहब का फोन था..वो पूछ रहे थे,की फोन engage क्यों आ रहा था..तो मैंने बता दिया,की.."
मै:" तू क्या बदतमीज़ी कर रही,है,तुझे कुछ पता भी है?"
उसने मेरे साथ बहस करनी चाही, पर तबतक मैंने पलटके गौरव को फोन लगाया..उसकी आवाज़ परसे ही पता चला की वह बहुत घुस्सेमे है.." मै तुमसे बाद में बात करूँगा',कह उसने उधर से फोन रख दिया..
अचानक मुझे महसूस हुआ,की, हो न हो, इस तरह की गलत फहमी में अबके जूली का भी हाथ है..
पर क्या सिर्फ उसका था?

इस प्रसंग से तो मै किसी तरह उभरी..मेरे भाई और बहनोई,दोनों ही ने गौरव को काफ़ी समझाया..इतने सालों में पहली बार,मेरे भाई  ने अपना मूह खोला था..मुझे अपने घर और जीवन से रफा दफा करने की बात उस समय तो गौरव ने नही दोहराई....क्या ख़बर थी,की,एक और,इससे कहीँ अधिक  भयानक प्रसंग मेरे इंतज़ार में था..??
क्रमश:

4 टिप्‍पणियां:

उम्मतें ने कहा…

हां ये अंश मेरे लिए पुनरावृत्ति हैं ! अफसोसनाक !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

संस्मरण शृंखला बहुत अच्छी चल रही है!

बेनामी ने कहा…

lekh kaafi acha laga aapka...

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HBMedia ने कहा…

bahut achha..aage ka intjaar