मंगलवार, 25 जनवरी 2011

दीपा 7

इस कड़ी की देरीके लिए शर्मिंदा हूँ....तहे दिल से माफी चाहती हूँ.बेटे का ब्याह था...उसमे दिन रात का कोई होश नही रहा.
(गतांक: अबतक मुझे उसपे विश्वास हो गया था और मैंने अपने हालात उसके सामने खुलके बता दिए.

एक रोज़ हम चारों सिनेमा देखने गए थे. फिल्म के दौरान अचानक से उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया. मै रोमांचित हो उठी! फिल्म ख़त्म होने के बाद जब हम घर लौटे तो उसने मुझ से कहा,मै तुम से शादी करना चाहता हूँ. तुम्हारे बच्चों में भी मेरा मन रम गया है.....
मै दंग रह गयी!"......अब आगे.)

दीपा बता रही थी और मै सुन रही थी. आगे की बातें जान लेने का कौतुहल था...जिज्ञासा थी.
मै: "ओह! तो ?"
दीपा: " मै सुन के ख़ुश तो बहुत हुई. हम दोनों तथा बच्चे जब कभी इकट्ठे घूमने जाते या फिल्म देखने जाते तो मुझे एक सम्पूर्ण परिवार होने का एहसास हुआ करता. सिनेमा हॉल में वो घंटो मेरा हाथ पकडे रखता और मै रोमांचित हो उठती. एक पुरुष का स्पर्श कैसा होता है,इसका मैंने पहली बार अनुभव किया. हम बहुत करीब आ रहे थे. वो भी मेरे तथा बच्चों के साथ पूरी तरह घुलमिल गया था. मेरे जीवन की खलने वाली,अखरने वाली और फिर निराश करनेवाली कमी उसने दूर कर दी थी. मुझे अपने स्त्रीत्व का एहसास हो रहा था.
उसी साल ज़िद करके मैंने अजय को ब्याह के लिए राज़ी कर लिया था. उसने मेरी बात मान के ब्याह तो कर लिया लेकिन भावनात्मक तौर से वो अब भी मुझसे जुड़ा हुआ महसूस किया करता. उसके ब्याह के बाद  स्वयं मुझे बेहद अकेलापन महसूस हुआ.....एक नितांत खाली पन,जिसे नरेंद्र ने अपने वजूद से भर दिया. अजय की विरह वेदना मै भूल चली. "

मै:" लेकिन उसके सवाल का क्या जवाब दिया?"

दीपा:" बहुत मोह हुआ.होना कुदरती भी था.इस बंदी शाला से मुक्ती की एक हल्की-सी उम्मीद किरन बनके चमकने लगी.  मैंने उस दिशामे सोचना शुरू कर दिया. मेरे पति महोदय कभी कबार आ जाया करते. उन्हें किसी बात की भनक नही पडी. लेकिन एक साल होने के पश्च्यात उन्हों ने हमें वापस पुणे ले जानेका निर्णय ले लिया.
मै मनही मन उनसे डिवोर्स लेनेकी दिशामे विचार करना शुरू किया. नरेंद्र के प्यार में एक मदहोशी थी. मुझे हर मुश्किल आसान लग रही थी.बड़े दुखी मन से नरेंद्र से विदा ली. मैंने उसे विश्वास दिलाया की,मै उस दिशामे ठोस क़दम उठा लूँगी."

मै:" और तुम लोग पुणे लौट आए...उफ़! फिर उसी नरक में!!"

दीपा :" तो और क्या कर सकते थे?फिलहाल तो मै अपने पति की बंधक ही थी! लेकिन पुणे पहुँच के हम दोनों में बहुत अनबन हुई. वही मार पीट. मै अपने बच्चों समेत अहमदनगर चली आयी,जहाँ मेरे पिता की पोस्टिंग थी. पिताजी ने बच्चों का वहीँ के स्कूल में दाखिला करवा दिया. नरेंद्र से खतोकिताबत जारी थी. उसके फोन भी आया करते. वो हमेशा मेरा धाडस बंधाता. हमारे रिश्ते को दो साल हो गए थे. अहमदनगर में रहते,रहते एक साल बीत गया. और पारिवारिक ज़ोर ज़बरदस्ती के कारण मुझे दोबारा पुणे लौटना पडा.

अब मै निराश होने लगी. इस जीवन को छोड़ नरेंद्र के साथ उर्वरित ज़िंदगी बिताना मुश्किल नज़र आने लगा. सब से अधिक चिंता मुझे बच्चों की होती...खासकर बिटिया की. बच्चों को समाज में ताने सुनने पड़ेंगे...स्कूल में अपमानित होंगे. बड़े होने बाद बिटिया के ब्याह में मुश्किलें आ सकती थीं. समाज को किस मूह से असलियत बताती? और जहाँ जनम देनेवालों ने विश्वास नही किया वहाँ समाज क्या विश्वास करता? मै बदचलन कहलाती. लोगों ने कहना था,ये अपनी हवस का शिकार हो गयी...बच्चों के बारेमे भी नही सोचा...कलको शायद मेरे बच्चे भी यही कहते!!क्या करूँ? क्या न करूँ??

और फिर नरेंद्र से बात होती. उसके ख़त मुझे एक सहेली के पते पे आते. उन्हें पढ़ती...उसकी बातें सुनती,तो सारा डर...अनिर्णय की अवस्था हवा हो जाती...लगता,उसके प्यार में वो शक्ती है,जिसके सहारे मै कठिन से कठिन समय का, मुसीबतों का मुकाबला कर सकती हूँ....यही आभास,यही विश्वास मेरे जीने का सहारा बन रहा था. नरेंद्र से दूर रहते हुए भी ज़िंदगी नरेंद्र से जुड़ गयी थी. नरेंद्र मेरा इंतज़ार कर रहा था....और कहता,की,ता-उम्र करेगा! और मुझे उसपे पूरा विश्वास था!उसका ख़याल आते ही मनसे सारी दुविधा दूर हो जाती. एक नयी फुर्ती नस नसमे दौड़ जाती...."
क्रमश:

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

दीपा 6

(गतांक: मेरे बारे में ये बात मेरी उस सहेली ने मेरे बचपन के दोस्त,अजय को भी बता दी. अजय ने ब्याह नही किया था. वो अचानक एक दिन मेरे पास पहुँचा और कहने लगा, तुम अपने बच्चों को लेके इस घर से निकल पड़ो. छोड़ दो ऐसे आदमी को...अलग हो जाओ...मै तुम से ब्याह करूँगा....अब तो मेरे पास अच्छी खासी नौकरी भी है. तुम्हारे बच्चों को पिता का प्यार भी मिलेगा....!"
मै:" ओह! अजय ने तो सच्चा प्यार निभाया! तुम्हारे साथ  को परे कर खड़ा हो गया! आगे क्या हुआ?"
दीपा:" बताती हूँ...बताती हूँ...!"
अब आगे....)

दीपा प्रसंगों का नाट्यमय रीती से बयान कर रही थी.  मै एकाग्रता से सुन रही थी. कैसी अजीबोगरीब ज़िंदगी थी....!
दीपा: " अजय ने मुझ से बहुत इसरार किया की,मै उसके साथ चल पडूँ.  अजीब मन:स्थिती हो रही थी मेरी! एक ओर मोह हो रहा था की,सबकुछ छोड़,अपने बच्चों के साथ चली जाऊं. दूसरी ओर ये भी समझ में आ रहा था,की, ये सब इतना आसान नही.
अजय ने अपने घर पे केवल उसकी भाभी को बताया था,पर भाभी ने अन्य सदस्यों को आगाह कर दिया. अजय की माँ ने उधम मचा दिया. अजय को इन सब बातों का पता फोन के ज़रिये चल रहा था. उसकी माँ का रक्तचाप बढ़ गया और उसे अस्पताल में भरती कराया गया. अजय उसका सब से लाडला बेटा था. अजय को भी माँ बहुत प्यारी थी. अंत में अजय ने मुझे और दो तीन साल रुकने के लिए इल्तिजा की और चला गया.
इधर मेरे पती को लगातार ये शक हो रहा था की मैंने बहुत से लोगों को उस घटना के बारेमे बताया होगा या बताने का इरादा होगा. उस ने मेरी और ज़्यादा मार पिटाई शुरू कर दी. घर से बाहर निकलने पे पाबंदी लगा दी. घर में सास ससुर थे. सब तमाशबीन बने बैठे रहे. बात क्या हुई थी,ये तो किसी को नही पता था. लेकिन मेरी पिटाई होना कोई नयी बात तो थी नही! बच्चे डरे सहमे रहते.
एक दिन छिपते छुपाते मैंने अजय को एक ख़त लिखा और पोस्ट करने के लिए मेरी उसी सहेली के पास दे दिया. मैंने लिखा,
"प्रिय अजय,
मैंने तुम्हारी बातों पे काफ़ी गौर किया. सब छोड़ छाड़ के, बच्चों समेत तुम्हारे पास रहने आना बेहद मुश्किल है. मेरा पती मुझे डिवोर्स तो देगा नही. हम लोगों को न जाने समाज के कितने ताने सुनने पड़ें! साथ बच्चों को भी लोग ताने मारेंगे! दुनिया ऐसे मामलों में बड़ी बेरहम होती है. उनका तो भविष्य बिगड़ जायेगा.
तुम अपना ब्याह कर लो और ख़ुश रहो. "

मै:" वैसे तो तुमने ठीक निर्णय लिया. गर डिवोर्स मुमकिन होता  तो बात फर्क थी.  अजय को दुःख तो हुआ होगा!"
दीपा:" हाँ! अजय को दुःख हुआ. उस ने शादी नही की.उसे हरवक्त मेरा इंतज़ार रहता. उस के ख़त मुझे बाकायदगी से मिलते रहे. सहेली के पते पे वो ख़त लिखता था.
इन्हीं सब बातों के चलते मेरे पती ने हमें अहमदाबाद ले जाके रखने का फैसला कर लिया. किसी को बताने की इजाज़त नही थी मुझे,लेकिन मैंने अपने माता-पिता को बता दिया. वो लोग मिलने आए. इतनी तसल्ली हुई की,कमसे कम उन्हें तो पता है!इस इंसान का तो कतई विश्वास नही था. कुछभी कर सकता था!

कुछ ही दिनों में हम अहमदाबाद रहने चले गए. बच्चों को वहाँ स्कूल में दाखिल किया. पती अहमदाबाद आते जाते रहते. जब भी आते,मेरी किसी न किसी बात पे पिटाई हो जाती.हमारे सामने वाला परिवार बहुत अच्छा था. उनका बड़ा बेटा ऐसे में मेरे बच्चों को स्कूल छोड़ आया करता.
ऐसे ही एक दिन पती महाशय मुझे मारपीट के चल दिए. उस दिन पड़ोस में कुछ धार्मिक कार्यक्रम था. अचानक से मेरे दरवाज़े पे एक अजनबी आवाज़ सुनायी दी. आवाजमे बेहद कशिश थी. कुछ पल मै असंजस में पड़ गयी.कौन हो सकता है? इतने में उस व्यक्ती ने कहा, मुझे तुम्हारे पड़ोसी रंजन ने भेजा है! आज उसे बच्चों को स्कूल ले जाने का समय नही है...मै ले जाता हूँ! आप डरिये मत और दरवाज़ा खोल दीजिये!
मैंने दरवाज़ा खोला. एक विलक्षण आकर्षक व्यक्तिमत्व का आदमी सामने खड़ा था!उस ने मेरे बच्चों को स्कूल पहुँच भी दिया और लेके भी आ गया. साथ,साथ मेरे चोटों पे लगाने के लिए मरहम भी ले आया. मुझे इतनी चोट आयी कैसे ये बात उसकी समझ के परे थी और मै बताने में अपनी तौहीन समझती थी!
लेकिन उस दिन के बाद से हम दोनोमे दोस्ती हो गयी जो धीरे,धीरे घनिष्टता  में परिवर्तित होने लगी.  मुझे उसका सहवास अच्छा लगने लगा. बच्चे भी उसके साथ हिलमिल गए. वो उनकी पढ़ाई भी ले लेता....हम सब को घुमाने भी ले जाया करता.
अबतक मुझे उसपे विश्वास हो गया था और मैंने अपने हालात उसके सामने खुलके बता दिए.

एक रोज़ हम चारों सिनेमा देखने गए थे. फिल्म के दौरान अचानक से उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया. मै रोमांचित हो उठी! फिल्म ख़त्म होने के बाद जब हम घर लौटे तो उसने मुझ से कहा,मै तुम से शादी करना चाहता हूँ. तुम्हारे बच्चों में भी मेरा मन रम गया है.....
मै दंग रह गयी!"