शनिवार, 29 दिसंबर 2012

काश ऐसा संभव हो!

बलात्कार की  पीडिता की मौत की खबर सुनी . मेरे 60  वर्षीय जीवन  में इतना संताप,इतना दर्द मुझे किसी घटना से शायद ही कभी हुआ हो जितना कि पिछले कुछ दिनों में हुआ । मै कानून को अपने हाथों में लेने के हक में कभी नहीं रही .लेकिन आज लग रहा  है कि इन मुजरिमों को सजाए मौत तो मिलनी ही चाहिए,लेकिन फांसी के फंदे से नहीं।  इनकी सब से पहले तो आंतें बहार निकाल देनी चाहिए।सरेआम इनके एकेक अंग को काट के इन्हें चीलों और गिद्धों  के हवाले कर देना चाहिए। इन्हें अंतिम संस्कार भी नसीब न हो। और ये काम महिलाओं ने करना चाहिये .

लगने  लगा है कि बड़े शहरों में शाम 6 बजे के बाद महिलाओं के लिए अलग से बस सेवा मुहैय्या होना ज़रूरी है।


मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

क्या आप जानते हैं?



वैसे  तो ये बात पहले भी कई बार लिख चुकी हूँ। आज सुभाष तोमर,( दिल्ली पुलिस),की मौत के बारेमे खबर देखी तो फिर एक बार लिखने का मन किया। तोमर चूँकि एक आन्दोलन में मारे  गए तो उनके बारे में खबर बन गयी वरना तो रोज़ाना  न जाने कितने पुलिस कर्मी अपना कर्त्तव्य निभाते हुए मारे  जाते हैं,कहीं उफ़ तक नहीं होती। क्या आप जानते हैं कि  आज़ादी से लेके  अब तक अपना कर्त्तव्य निभाते हुए मारे  जाने की संख्या, भारतीय सेना की बनिस्बत पुलिस वालोंकी चार गुना से अधिक है? के नक्सलवादी इलाकों में पुलिस वाले सैकड़ों की संख्या में मरते हैं और किसी को खबर तक नहीं होती?
क्या आप जानते हैं कि  एक पुलिस कर्मी सबसे कम तनख्वाह पानेवाला सरकारी सेवक है? एक मुनिसिपल कर्मचारी जो झाड़ू लगता है,उसकी तनख्वाह कमसे कम 12000/- होती है,जबकि कांस्टेबल की केवल 4000/-? ये कि  उन्हें मकान  मुहैय्या नहीं होते? उनके पास अवाजाही का कोई ज़रिया नहीं होता?उन्हें सेना की तरह  भी वैद्यकीय अथवा अन्य  सेवाएँ उपलब्ध नहीं? क्यों? जबकि अंतर्गत सुरक्षा  के लिए पुलिस को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है? सीमा सुरक्षा दल,भारतीय  सेना के बनिस्बत कहीं  ज्यादा ज़िम्मेदारी निभाते हैं! हमारी पुलिसवालों से सैंकड़ों उम्मीदे होती हैं,लेकिन उनके प्रती हमारी  कोई ज़िम्मेदारे नहीं? तनख्वाह तो एक सैनिक भी पाता है,फिर हमारे दिलों में उनके लिए जितना दर्द होता है,उतना एक  अंतर्गत सुरक्षा  कर्मी के प्रती क्यों नहीं? सिर्फ इसलिए कि  एक पुलिसवाला हमारी आँखों के सामने होता है,जबकि एक आन्दोलन नहीं?

मुझे तो येभी नहीं पता की इस आलेख को कोई पढ़ेगा या नहीं।पढ़ेगा तो शायद एक पल में नज़र अंदाज़ कर देगा क्योंकि हमें पुलिस के बारेमे हमेशा बुरा देखने या सुननेकी आदत जो पड़  गयी है!

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

शमा बुझनेको है

शामिले ज़िन्दगीके चरागों ने
पेशे खिदमत अँधेरा किया,
मैंने खुदको जला लिया,
रौशने राहोंके ख़ातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
पर सुना, चंद राह्गीरोंको
थोड़ा-सा हौसला ज़रूर मिला....
अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?

वैसे तो इस ब्लॉग पे मै  अपनी पद्य रचनाएँ नही  डालती,लेकिन आज डाल  रही हूँ।वो भी एक पुरानी रचना।


सोमवार, 26 नवंबर 2012

उफ़!

ज्यादा कुछ लिखने की अवस्था  में तो नहीं हूँ। कल कौन  बनेगा करोडपति में सोनाली को असली जीवन में देखा . उसके पूर्व क्राइम पेट्रोल में उसके जीवन के नाट्य  रूपांतर को देख चुकी थी। तब भी और अब भी सब से अधिक गुस्सा  उन घिनौने लड़कों के अलावा उनके वकीलों पे आया।  क्यों  ऐसे अपराधियों की वकालत करते हैं वकील? क्या समाज के प्रती उनका कोई दायित्व नहीं? करने दे किसी सरकारी वकील को उनकी तरफदारी! कानून जो कहता है कि  घिनौनेसे घिनौने अपराधी को वकील जो मिलना चाहिए! लानत है उन वकीलों पे जो ऐसे अपराधियों  की पैरवी करते हैं।
लानत है हमारे मुल्क के कानून पे जो ऐसे अपराधियों को बेल  पे छोड़ देता  है। ऐसे में एक पुलिस कर्मी क्या कर सकता है? ऐसे कानून पुलिस का नैतिक धैर्य पूरी तरह से नष्ट कर देते हैं। अपराधी पुलिस के  मूह पे थूंक  के कह देते हैं,कर लो जो करना है!


बुधवार, 7 नवंबर 2012


शुभ कामनाएँ

कभी कभी अनजाने कही बात  सच हो जाती है।   पिछली पोस्ट में मैंने लिख  दिया था कि  शायद अब वो मेरी आखरी पोस्ट होगी और  वही सच होता नज़र आ रहा है।    एक बीमारी से निजात नहीं पाती कि  दो और लग जाती हैं! अब ये हाल है कि  पांच मिनिट भी नेट पे  बैठ पाना   मेरे लिए मुमकिन नही । ब्लॉग जगत से तकरीबन कट-सी गयी हूँ।
खैर!  ये भी नहीं मालूम,कि  इस पोस्ट को पढ़ेगा भी या नहीं!  मै   ख़ुद जो टिप्पणियां दे  नहीं पाती    हूँ।
 
दीवाली की अनेक शुभ कामनाएँ !

बुधवार, 22 अगस्त 2012

रोई आँखें मगर.....4


मेरे ब्याह्के कई वर्षों बाद एक बार मैं अपने मायके आई थी कुछ दिनोके लिए। शयनकक्ष से बाहर निकली तो देखा बैठक मे दादाजी के साथ एक सज्जन बैठे हुए थे। दादा ने झट से कहा,"बेटा, इन्हे प्रणाम करो!'
मैंने किया और दादाजी से हँसके बोली,"दादा अब मेरी उम्र चालीस की हो गई है! आप ना भी कहते तो मैं करती!"
दादा कुछ उदास,गंभीर होके बोले,"बेटा, मेरे लिए तो तू अब भी वही चालीस दिनकी है, जैसा कि  मैंने तुझे पहली बार देखा था, जब तुझे लेके तेरी माँ अपने मायके से लौटी थी....!!"

मेरे दादा -दादी गांधीवादी थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम मे भाग लिया था तथा जब गांधीजी ने युवा वर्ग को ललकारा की वे ग्राम सुधार मे तथा ग्राम जागृती मे लग जाएं, तो दोनों मुम्बई का मेहेलनुमा,संगेमरमर का पुश्तैनी मकान छोड़ गाँव आ बसे और खेती तथा ग्राम सुधार मे लग गए। गाँव मे कोई किसी भी किस्म की सुविधा नही थी। दोनों को जेलभी आना जाना पड़ता था, इसलिए उन्होंने उस ज़मानेमे परिवार नियोजन अपनाकर सिर्फ़ एकही औलाद  को जन्म दिया, और वो हैं मेरे पिता। मुझे मेरे दादा-दादी पे बेहद गर्व रहा है। उन्हें लड़कीका बड़ा शौक़ था। मेरे जन्म की ख़बर सुनके उन्हों ने टेलेग्राम वालेको उस ज़मानेमे, खुश होके १० रुपये दे दिए!!वो बोला ,आपको ज़रूर पोता हुआ होगा!!

उनके अन्तिम दिनोंके दौरान एकबार मैं अपने पीहर गयी हुई थी। अपनी खेती की जगह जो एकदम बंजर थी(उसके छायाचित्र मैंने देखे थे),उसको वाकई उन्होंने नंदनवन मे परिवर्तित कर दिया था। एक शाम उन्होंने अचानक मुझसे एक सवाल किया,"बेटा, तुझे ये जगह लेनेका मेरा निर्णय कैसा लगा?"
ना जाने मेरे दिलमे उस समय किस बातकी झुन्ज्लाहट थी,मैं एकदमसे बोल पडी,"निर्णय कतई अच्छा नही लगा, हमे स्कूल आने जाने के लिए कितने कष्ट उठाने पड़ते थे, और...."ना जाने मैंने क्या-क्या बक दिया। वे बिलकूल खामोश हो गए। मुझे तुरंत उनकी क्षमा मांगनी चाहिए थी, लेकिन मैंने ऐसा नही किया।दूसरे दिन मैं वापस लौट गयी। उन दिनों हमलोग मुम्बई मे थे। बादमे मैंने सोचा, उन्ह्ने एक माफी का ख़त लिख दूंगी। लिखा भी। लेकिन पोस्ट लिया उसी दिन उनके देहान्तकी ख़बर आयी। जिस व्यक्ती ने मेरे लिए इतना कुछ किया था, उसी व्यक्ती को मैंने उनके अन्तिम समयमे ऐसे कटु शब्द सुना दिए! क्या हासिल हुआ मुझे!मैं अपनी ही निगाहोंमे ख़ुद गिर गयी।

जबतक हमलोग मेरे पीहर पहुँचे , उनकी अर्थी उठ चुकी थी। वे बेहद सादगी से अपना अन्तिम कार्य करना चाहते थे। अपने लिए खादी  का कफ़न दोनोहीने पहलेसे लेके रखा हुआ था। पर जब शहर  और गाँव वालों को उनके निधन की वार्ता मिली, तो सैकडों लोग इकट्ठा हो गए। हर जाती-पाती के लोगोंने कान्धा दिया। एक नज्म है,"मधु" के नामसे लिखनेवाले शायर की, जो दादी सुनाया करती थी,"मधु"की है चाह बहुत , मेरी बाद वफात ये याद रहे,खादीका कफ़न हो मुझपे पडा, वंदेमातरम आवाज़ रहे,मेरी माता के सरपे ताज रहे"।
उनकी मृत्यु जिस दिन हुई, वो उनकी शादी की ७२वी वर्ष गाँठ थी। जिस दिन उन दोनों का सफर साथ शुरू हुआ उसी दिन ख़त्म भी हुआ।

मेरी दादी के मुंह से मैंने अपनी जिन्दगीके बारेमे कभी कोई शिकायत नही सुनी। मेहेलसे आ पहुँची  एक मिट्टी के घरमे, जहाँ पानी भी कुएसे भरके लाना होता था,ना वैद्यकीय सुविधाएँ,ना कोई स्कूल,ना बिजली....अपने इकलौते बेटेको सारी पढाई होने तक दूर रखना पड़ा। उन्हें राज्यसभाका मेंबर बननेका मौक़ा दिया गया,लेकिन उन्होंने अपने गाँव मे ही रहना चाहा।

दादाजी के जानेके बाद दो सालके अन्दर-अन्दर दादी भी चल बसी। जब वे अस्पतालमे थी, तब एकदिन किसी कारण, ५/६ नर्सेस उनके कमरेमे आयी। उन्होंने दादी से पूछा," अम्मा आपको कुछ चाहिए?"
दादी बोली," मुझे तुम सब मिलके 'सारे जहाँसे अच्छा,हिन्दोस्ताँ हमारा',ये गीत सुनाओ!"

सबने वो गीत गाना शुरू किया। गीत ख़त्म हुआ और दादी कोमा मे चली गयी। उसके बाद उन्हें होश नही आया।

इन दोनोने एक पूरी सदी देखी थी। अब भी जब मैं पीहर जाती हूँ तो बरामदेमे बैठे वो दोनों याद आते हैं। एक-दूजे को कुछ पढ़ के सुनाते हुए, कभी कढाई करती हुई दादी, घर के पीतल को पोलिश करते दादा.....मेरी आँखें छलक उठती हैं....जीवन तो चलता रहता है....मुस्कुराके...या कभी दिलपे पत्थर रखके,जीनाही पड़ता है....
पर जब यादें उभरने लगती हैं,बचपनकी,गुज़रे ज़मानेकी तो एक बाढ़ की तरह आतीं हैं.....अब उन्हें रोक लगाती हूँ, एक बाँध बनाके।
समाप्त 
 
इसी पोस्ट के साथ मै  अपने ब्लॉगर दोस्तों की बिदा लेती हूँ।...ये मेरी शायद आखरी पोस्ट होगी।

सोमवार, 20 अगस्त 2012

रोई आँखें मगर... 3

दादीअम्मा जब ब्याह करके अपनी ससुराल आई,तो ज्यादा अंग्रेज़ी पढी-लिखी नही थी, लेकिन दादाके साथ रहते,रहते बेहद अच्छे-से ये भाषा सीख गयीं। इतनाही नही, पूरे विश्वका इतिहास-भूगोलभी उन्होंने पढ़ डाला। हमे इतने अच्छे से इतिहास के किस्से सुनाती मानो सब कुछ उनकी आँखोंके सामने घटित हुआ हो!
उनके जैसी स्मरण शक्ती विरलाही होती है। उर्दू शेरो-शायरीभी वे मौका देख, खूब अच्छे से कर लेती। दादा-दादी मे आपसी सामंजस्य बहुत  था। वे एकदूसरे का पूरा सम्मान करते थे और एक दूसरेकी सलाह्के बिना कोई निर्णय नही लेते।

जब मैने आंतर जातीय ब्याह करनेका निर्णय लिया तो, एक दिन मेरे भावी पति  के रहते दादा ने  मुझे अपने पास लेकर सरपे हाथ फेरा और सर थपथपाया........ मानो कहना चाह रहे हों, काँटा भी ना चुभने पाये कभी, मेरी लाडली तेरे पाओंमे.... और तब मैने चुनी राह पर कितने फूल कितने काँटें होंगे,ये बात ना वो जानते थे ना मैं! फ़िर उन्होंने इनका  हाथ अपने हाथोंमे लिया और देर तक पकड़े रखा, मानो उनसे आश्वासन माँग रहे हों कि, तुम इसे हरपल नयी बहार देना........

मेरी दादी badminton और लॉन टेनिस दोनों खेलती थीं। एक उम्र के बाद उन्हें गठियाका दर्द रहने के  कारण ये सब छोड़ना पडा। मेरे ब्याह्के दो दिन पहले मैने हमारे पूरे खेतका एक चक्कर लगाया था। वहाँ उगा हर तिनका, घांसका फूल, पेड़, खेतोंमे उग रही फसलें,मैं अपने ज़हन  मे सदाके लिए अंकित कर लेना चाहती थी। लौटी तो कुछ उदास-उदास सी थी। दादीअम्माने मेरी स्थिती भांप ली। हमारे आँगन मे badminton कोर्ट बना हुआ था। मुझसे बोलीं,"चल हम दोनों एकबार badminton खेलेगे।"
उस समय उनकी उम्र कोई चुराहत्तर सालकी रही होगी। उन्होंने साडी खोंस ली, हम दोनोने racket लिए और खेलना शुरू किया। मुझे shuttlecock जैसे नज़रही नही आ रहा था। आँखोके आगे एक धुंद -सी छा गयी थी।हम दोनोने कितने गेम्स खेले मुझे याद नही, लेकिन सिर्फ़ एक बार मैं जीती थी।

उनमे दर्द सहकर खामोश रहने की  अथाह शक्ती थी। उनके ग्लौकोमा का ऑपेरशन  कराने हम पती-पत्नी उन्हें हमारी पोस्टिंग की जगाह्पे ले आए। वहाँ औषध -उपचार की बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध थी। दादी की उम्र तब नब्बे पार कर चुकी थी, इसलिए सर्जन्स उन्हें जनरल अनेस्थिशिया नही देना चाहते थे। केवल लोकल अनेस्थेशिया पे सर्जरी की गयी। मेरे पतीभी ऑपेरशन  थिअटर मे मौजूद थे। दादीअम्माने एक दो बार डॉक्टर से पूछा ,"और कितनी देर लगेगी?"
डॉक्टर हर बार कहते,"बस, और दस मिनिट्..."
अंत मे वो बोली,"आप तो घंटें भरसे सिर्फ़ दस मिनिट कह रहे हैं!!"

खैर, जब ऑपरेशन पूरा हुआ तो पता चला कि , लोकल अनेस्थिशिया का उनपे कतई असर नही हुआ था!सर्जन्स भी उनका लोहा मान गए। जब दूसरी आँख की सर्जरी थी तब भी वे मुझसे सिर्फ़ इतना बोली,"बेटा, इस बार जनरल अनेस्थिशिया देके सर्जरी हो सकती है क्या? पहली बार मुझे बहुत  दर्द हुआ था"!
बस, इसके अलावा उनको हुई किसी तकलीफ का उन्होंने कभी किसी से ज़िक्र नही किया।

क्रमश:

रविवार, 19 अगस्त 2012

रोई आँखे मगर....2


मुझे गर्मियोंकी छुट्टी की वो लम्बी-लम्बी दोपहारियाँ याद है, जब हम बच्चे ठंडक ढूँढ नेके लिए पलंगके नीचे गीला कपड़ा फेरकर लेटते थे। कभी कोई कहानीकी किताब लेकर तो कभी ऐसेही शून्यमे तकते हुए..... चार साढे चार बजनेका इंतज़ार करते हुए जब हमे बाहर निकलनेकी इजाज़त मिलती।
मेरी दादीको उनके भाईने एक केरोसीनपे चलनेवाला फ्रिज दिया था। वे हमारे लिए कुछ ठंडे व्यंजन बनाती, उनमेसे एकको "दूधके फूल" कहती। फ्रिजमे दूध-चीनी मिलके जमातीं   और फिर उसे खूब फेंटती जाती, उसका झाग हमारे गिलासोंमे डालती और खालिहानसे लाई गेहुँकी "स्ट्रा" से हम उसे पीते। खेतमे बहती नेहरमे डुबकियाँ लगाते,आमका मौसम तो होताही। माँ हमे आम काटके देती और नेहरपे बनी छोटी-सी पुलियापे बिठा देती। हमलोग ना जाने कितने आम खा जाते!!तब मोटापा नाम की चीज़ पता जो ना थी!!
माँ और दादी हम दोनों बेहनोके लिए सुंदर-सुंदर कपड़े सिया करती। दादी द्वारा मेरे लिए कढाई करके सिला हुआ एक frock अब भी मैंने सँभाल के रखा है!!
छुट्टी के दिन,जैसे के हर रविवार को, माँ आवला, रीठा तथा सीकाकायी से हमारे बाल धोती।फिर लोबानदान मे जलते कोयलोंपे बुखुर और अगर डालके उसके धुएँसे हमारे बाल सुखाती। उसकी भीनी-भीनी खुशबू आजभी साँसोंमे रची-बसी है।

यादोंकी नदीमे जब घिरके हम हिचकोले खाते हैं, तो उसका कोई सिलसिला नही होता। जिस दिन जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई थी, मुझे याद है,उनकी अन्तिम यात्राका आँखों देखा हाल आकाशवाणी पे सुनके मैं जारोज़ार रोई...कमेंटेटर के साथ-साथ...... उस दिन भयानक तूफान आया था। हमारे खेतके पुराने,पुराने पेड़ उखड के गिर पड़े थे, मोटी,मोटी डालें टूट गयी थी, मानो सम्पूर्ण निसर्ग मातम मना रहा हो। ये तूफान पूरे देशमे आया था उस दिन।
औरभी कैसी -कैसी यादें उमड़ रही हैं!!जब कॉलेज की पढाई के लिए मैं गाँव छोड़ शहर गयी तो दादीअम्मा के कंप कपाते होंठ और आँखों से बहता पानी याद आ रहा है।याद आ रही उनकी बताई एक बडीही र्हिदयस्पर्शी बात.....
जब मैं केवल तीन सालकी थी, तब मेरे पिता आन्ध्र मे फलोंका संशोधन करनेके लिए मेरे और माके साथ जाके रहे थे। हम तीनो चले तो गए,लेकिन किसी कारन कुछ ही महीनोमे लौटना पडा।
जब मैं थोडी बड़ी हुई तो दादीअम्मा ने बताया कि, हम लोगोंके जानेके बाद वे और दादाजी सूने-से बरामदेमे बैठ के एक दूसरेसे बतियाते थे और कहते थे अगर ये लोग लौट आए तो मैं मेरी पोती को गंदे पैर लेके पलंग पे चढ़ने के लिए कभी नही गुस्सा करूँगा , ....इन साफ सुथरी चद्दरों से तो वो छोटे-छोटे, मैले, पैरही भले!!घर के कोने-कोनेसे उसकी किलकारियाँ सुनायी पड़ती हैं.....!!!

क्रमश:


शनिवार, 18 अगस्त 2012

रोयीं आँखें मगर.....

मई महीने की गरमी भरी दोपहर थी। घर से कही बाहर निकलने का तो सवाल ही नही उठता था। सोचा कुछ दराजें साफ कर लूँ । कुछ कागज़ात  ठीकसे फाइलो मे रखे जाएं तो मिलने मे सुविधा होगी।
 मैं फर्शपे बैठ गई और अपने टेबल की सबसे निचली दराज़ खोली। एक फाइलपे लेबल था,"ख़त"। उसे खोलके देखने लग गई और बस यादोंकी नदीमे हिचकोले खाने लगी।वो दिन १५ मई का था .......दादाजी का जन्म दिन....!!!

पहला ही ख़त था मेरे दादाजी का बरसों पहले लिखा हुआ!!!पीलासा....लगा,छूनेसे टूट ना जाय!!बिना तारीख देखे,पहली ही पंक्ती से समझ आया कि  ये मेरी शादीके तुरंत बाद उन्होंने अपनी लाडली पोति को लिखा था!! कितने प्यारसे कई हिदायतें दी थी!!!"खाना बनते समय हमेशा सूती साड़ी पहना करो...."!"बेटी, कुछ ना कुछ व्यायाम ज़रूर नियमसे करना....सेहेतके लिए बेहद ज़रूरी है....."!
मैंने इन और ऐसी कई अन्य  हिदायतोको बरसों टाल दिया था। पढ़ते,पढ़ते मेरी आँखें नम होती जा रही थी.....और भी उनके तथा दादीके लिखे ख़त हाथ लगे...बुढापे के कारन कांपते हाथोसे लिखे हुए, जिनमे प्यार छल-छला रहा था!! ये कैसी धरोहर अचानक मेरे हाथ लग गई,जिसे मैं ना जाने कब भुला बैठी थी!!ज़हन मे सिर्फ़ दो शब्द समा गए ..."मेरा बाबुल"..."मेरा बचपन"!!

बाबुल.....इस एक लफ्ज्मे क्या कुछ नही छुपा? विश्वास,अपनत्व,बचपना,और बचपन,किशोरावस्था और यौवन के सपने,अम्मा-बाबाका प्यार, दादा-दादीका दुलार,भाई-बेहेनके खट्टे मीठे झगडे,सहेलियों के साथ बिताये निश्चिंत दिन, खेले हुए खेल, सावनके झूले, रची हुई मेहँदी, खट्टी इमली और आम, सायकल सीखते समय गिरना, रोना, और संभालना, बीमारीमे अम्मा या दादीको अपने पास से हिलने ना देना, उनसे कई बार सुनी कहानियाँ बार-बार सुनना, लकडी के चूल्हेपे बना खाना और सिकी रोटियां, लालटेन के उजालेमे की गई पढाई, क्योंकि मेरा नैहर तो गाँव मे था...बल्कि गांवके बाहर बने एक कवेलू वाले घरमे ,जहाँ मेरे कॉलेज जानेके बाद किसी समय बिजली की सुविधा आई थी। सुबह रेहेट्की आवाज़से आँखें खुलती थी। रातमे पेडोंपे जुगनू चमकते थे और कमरोंमे भी घुस आते थे जिसकी वजहसे एक मद्धिम-सी रौशनी छाई रहती।


दादा मेरे साथ खूब खेला करते थे। वो मेरे पीछे दौड़ते और हम दोनों आँखमिचौली खेलते। मैं पेडोंपे चढ़ जाया करती और वो हार मान लेते। सायकल चलाना उन्ह्नोनेही मुझे सिखाया और बादमे कार भी।और सिखाई वक्त की पाबंदी, बडोंकी इज्ज़त करना और हमेशा सच बोलना, निडरता से सच बोलना। बाकी घरवालोने भी यही सीख दी। हम गलती  भी कर बैठते, लेकिन उसे स्वीकार लेते तो डांट नही बल्कि पीठ्पे थप-थपाहट मिलती। निडरता से सच बोलनेकी सीखपे चलना मुश्किल था। कई बार क़दम डगमगा जाते, झूठ बोलके जान बचा लेनेका मोह होता, लेकिन हमेशा दादा याद आते,उनके बोल याद आते की जब कोई इंसान मृत्युशय्या पे हो तो उसके दिलमे कोई पश्चाताप नही होना चाहिए।
 इसी बातपे मुझे बचपन की एक घटना याद आयी। हम तीनो भाई-बेहेन स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस से स्कूल आया जाया करते थे। एक दिन माँ ने हिदायत देके स्कूल भेजा मुझे की शामको शायद हमारी कार शहर  आयेगी। अगर एक विशिष्ट जगह् पे कार दिखे तो छोटे भाई को बस स्टेशन पे ठीक से देख लेना तथा उसे साथ लेके आना। ना जाने क्यों, उस भीड़ भरी जगह् पे मैंने बहुत ही  सरसरी तौरसे नज़र दौडाई और कारमे बैठ के घर आ गयी। माँ के पूछ्ने पे कहा कि , मैंने तो ठीकसे देखा, राजू वहाँ नही था। माँ को शंका हुई की कहीँ  बेटा किसी बुरी संगत मे तो नही पड़ गया??जब देर शाम भाई बस से घर लौटा तो माँ ने उससे सवाल किया की वो शाम को बस स्टेशन पे नही था ...कहाँ गया था??उसने बताया कि , वो तो बस स्टेशन पे ही था। माँ ने  उसे चांटा लगाया। उसने माँ से  कहा,"माँ तुम चाहो तो मुझे मारो,लेकिन मैं वहीं पे था...बल्कि मैंने दीदी को देखा भी....इससे पहले कि  मैं उनतक जाता,वो चली गयी...."।
माँ ने  मेरी तरफ़ मुखातिब होके कहा,"तुमने राजूको ठीकसे देखा था?"
मेरी निगाहें झुक गयी। मुझे अपने आपपे बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई। आज भी जब वो घटना याद आती है तो मेरी आँखें भर आती हैं।

एकबार दादा से रूठ्के मैं पैदलही स्कूल निकल पडी। तब मेरी उम्र होगी कुछ दस- ग्यारह सालकी। स्कूल तकरीबन आठ किलोमीटर दूर था। दादाजी ने अपनी सायकल उठायी और मेरे साथ-साथ चलने लगे। क़रीब दो-तीन किलोमीटर चल चुके तो एक बस आयी। बसका चालक दादाजी को जानता था। उसने मुझसे बसमे बैठने के लिए खूब मनुहार की ,लेकिन मैं थी की रोती जा रही थी,और अपनी ज़िद्पे अडी हुई थी। अन्तमे दादाजीने उसे जानेके लिए कह दिया। मैं पैदल चलकेही स्कूल पहुँची ।जब शाम मे स्कूल छूटी तो मैं बस स्टेशन के लिए निकल पडी। थोडीही दूरपे एक छोटी-सी पुलियापर दादाजी मेरा इंतज़ार कर रहे थे!!दिनभर के भूके-प्यासे!!बोले,"अब तुझे बसमे बिठाके मैं सायकल से घर आऊँगा।"
 मुझे आजतक इस बातपे ग्लानी होती है....काश.....काश,मैं इतनी जिद्दी ना बनी होती....!
क्रमश:


शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना !9


रोज़ शामको आशा लीलाबाई से पूछती,"अभीतक राजू-संजू,माया- शुभदा, कोयी भी नही आया???बच्चों की आवाजें नही आ रही???"फिर ,"अस्मिता,अस्मिता,आजा तो...देख मैं लड्डू दूँगी तुझे,"इसतरह पुकारती रहती....

माया-शुभदा,अस्मिता....ये सब उसकी ज़िन्दगीमे कभी आयी ही नही,इसका होश कब था उसे???कभी वो अपने आपसे ही बुदबुदाती,हाथ जोड़कर प्रणाम करती,तथा लीलाबाई से कहती,"ईश्वरकी कितनी कृपा है मुझपे! माँगा हुआ सब मिला,जो नही माँगा वो भी उस दयावान ने दे दिया। ऐसे जान न्योछावर करने वाले बच्चे, ऐसी हिलमिलके रहनेवाली बहुए, इतने प्यारे पोते-पोती....बता ऐसा सौभाग्य कितने लोगोको मिलता है??"

कई बार लीलाबाई अपने पल्लूसे आँखे पोंछती। उसके तो बच्चे ही नही थे। उसके मनमे आता, इस दुखियारी के जीवन से तो मेरा जीवन कहीं बेहतर!बच्चे होकर इसने क्या पाया??और वो भी उन्हें इतना पढा लिखाकर??

और एक दिन मिसेस सेठना के घर संजू अचानक आ धमका...!!उनके पैरोपे पड़ गया। सिसक सिसक कर रोने लगा। मिसेस सेठना अब काफी बूढी हो गयी थी। उन्हें संजूको पहचानने मे समय लगा।

"आंटी, मुझसे बहुत  बड़ी भूल हो गयी.... माफीके काबिल नही हूँ,फिर भी माफी माँगता हूँ। मैं भारत लौट  आया हूँ.... अब माँ बापके साथ ही रहूँगा उन्हें सुखी रखूँगा,कमसे कम कोशिश करूँगा," संजू रो-रोके बोल रहा था।
मिसेस सेठना ने उसे बीच मे घटी सारे घटनाओका ब्योरा सुनाया,फिर पूछा,"तुम्हारी भूल तुम्हारे ध्यान मे कैसे आयी?"
"आंटी, वहाँ पर एक वृद्धाश्रम मे मुझे विज़िट पे बुलाया था। वहाँ ऐसे कई जोड़े रहते हैं । दोनो साथ,साथ होते हैं  तब तक खुश भी होते है। उस दिन एक भारतीय स्त्री मुझे मिली। माँ के उम्र की होगी। पगला-सी गयी थी। मेरा हाथ छोड़ने को तैयार नही थी।
"मेरे बच्चो को मरे पास ले लाओ। ये देखो, ये पता है। यहाँ के लोग उन्हें बुलाते ही नही। कोई मेरी बात ही नही सुनता है....बेचारी रो-रोके बोल रही थी।
मैंने आश्रम मे तलाश की तो पता चला कि उसके बच्चे आना ही नही चाहते। पैसे भेज देते है। वीक एंड पे घूमने चले जाते हैं । मेरी आखोंके सामने मेरी माँ आ गयी। मुझ पर मानो बिजली-सी बरस पडी। मैंने उसी पल भारत लौटने का निर्णय ले लिया। ब्याह तो किया ही नही था, इसलिए किसीके सलाह मश्वरेकी ज़रूरत नही थी। आंटी मुझे अभी,इसीवक्त माँ के पास ले चलिए....! "

दोनो निकल ही रहे कि आश्रमसे फ़ोन आया,आशाकी तबियत बहुत  खराब है। वो लोग पहुंचे  तबतक मुख्याध्यापिका भी पहुँच  गयी थी। डाक्टर भी वहीं  थे। संजू को किसीने पहचाना नही। मिसेस सेठना ने परिचय करवाया। लीलाबाई आँखे पोंछते हुए बोली,"आज सुबह्से कुछ नही खाया पिया। बस,राजू-संजू आएँगे तभी लूँगी, यही कहती रहती हैं... ।"
मिसेस सेठना अपने साथ मोसंबी लाईं थीं ..... लीलाबाई को झट से रस निकालने को कहा। ड्रिप लगी हुई थी। मिसेस सेठना ने डाक्टर से धीमी आवाज़ मे कुछ कहा ......उन्होने गर्दन हिलाई...... संजूकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने माँ का एक हाथ पकडा, दूसरा डाक्टर ने।
"माँ! देख हम आ गए है। अब ये रस ले ले, वो बोला। आशाने संजूके हाथों रस ले लिया। उसके होंठ कुछ बुदबुदाने लगे। सबने एक दूसरेकी तरफ  प्रश्नार्थक दृष्टी से देखा। लीलाबाई बोली ,"वो कह रही है,'दयाकी दृष्टी सदाही रखना,'जो हमेशा गाती रहती हैं ।"
आसपास खडे लोगो की आँखे भर आयीं........ संजू तो लौट ही आया था, डाक्टर के रूपमे राजू भी मिल गया।

समाप्त ।


बुधवार, 8 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! 8


फिर दिन महीने साल खिसकने लगे। इस प्रसंग के बाद आशा एकदम बुढ़िया-सी गयी। बेचारा उसका पति  फिर भी उसके लिए गजरे, बडे, कपडे लाता गया। एक दिन  वो उससे बोला,"मैं आज जल्दी आऊँगा। हम पिक्चर देखने चलेंगे। तू तैयार रहना। "
उसकी कतई इच्छा नही थी। फिर भी वो तैयार होके बैठ गयी। इतनेमे उसने देखा,बस्तीके लोग, बच्चे, मेन रोड की तरफ   भागे चले जा रहे थे। पता नही क्या है, उसके मनमे आया, फिर वो भी उस तरफ चल पडी । उसे आते देख भीड़ थोडी हटने लगी। अपघात???किसका??तभी उसे कुछ अंतरपर पडा गजरा दिखा, बिखरे हुए आलू बडे दिखे, टूटी हुई साइकल दिखी और वो बेहोश हो गयी।

जब होशमे आयी ,तो अपनी टपरी मे थी। टपरी के बाहर सफ़ेद कपडेमे लिपटा उसका सुहाग पडा था। साथ मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका भी थी। अन्तिम सफर की तैय्यारियाँ हो रहीं थीं। पंडित कुछ कर रहा था, कुछ-कुछ बोल रहा था। फिर सब ख़त्म हो गया। उसका जीवनसाथी भी उस छोड़ किसी अनजान सफरपे निकल पडा था। वो फूट फूट के रो पडी।

इसके बाद वो पगला-सी गयी। कभी काम पे जाती थी तो कभी नही। दिन,महीनों की गिनती उसे रही नही। अडोस-पड़ोस का कोई उसे खिला देता,नलकेपे ले जाके उसे नेहला देता, तथा कभी कभार कंघी कर देता। एक दिन ऐसीही अवस्थामे वो अपने झोंपडेसे बाहर निकली। अँधेरा था। किसी चीज़ से ठोकर खाके गिर पडी और गिरते समय जब चीखी तो अडोस-पड़ोस के लोग दौडे। उसे अस्पताल ले जाया गया। मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका को खबर दी गयी। दोनोही तुरंत भागी चली आयी। मिसेस सेठनाने खर्च की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली।

सुबह जब उसे आधा-अधूरा होश आया तब वो कुछ बुदबुदा रही थी, किसीको बुला रही थी। डाक्टर के अनुसार वो बेहद कमज़ोर तो हो ही गयी थी,उसके मस्तिष्क पे भी भारी सदमा पहुंचा  था। उसके लिए अकेले झोंपड़े मे रहना खतरेसे खाली नही था......

सरपर का ज़ख्म ठीक होनेके बाद मिसेस सेठना ने उसे वृद्धाश्रम मे रखनेका निर्णय लिया। उन्होने आश्रम को डोनेशन भी दिया, लीलाबाई नामकी एक आया आशा की खिदमत मे रखवा दी। एक पहचानवाले डाक्टर को रोज़ शाम क्लिनिक जानेसे पहले एक बार आशा को चेक करनेकी विनती की। बेचारी मिसेस सेठना, आशा पे पडी आपत्ती के लिए खुदको ही ज़िम्मेदार ठहराती रही।

आशा कुछ रोज़ बाद घूमने फिरने लगी,लेकिन वो कहाँ है ये उसे समझमे आना बंद हो गया। स्पप्न और सत्यके बीछ्का अंतर मिटता चला गया। रोज़ सवेरे वो लीलाबाई से कहती,"मुझे बगियामे ले चल",और रोजही वहाँ आके कहती,"मेरी जूही की बेल कहाँ है??मोतियाभी दिख नही रहा!!मेरे बगीचेका किसने सत्यानास किया???शामको राजू-संजू आएँगे तो मैं उनसे कहूँगी मेरी बगिया फिरसे ठीक कर दो।"
क्रमशः

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! 7

बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल मे भेजकर , अमरीका जानेकी इजाज़त देकर कोई गलती तो नही की,बार,बार उसके मनमे आने लगा। अब बहुत  देर हो चुकी थी।
उसने हताश निगाहों से मिसेस सेठना को देखा। बच्चों को उच्च  शिक्षण उपलब्ध कर देने मे उनकी कोई भी खुदगर्ज़ी नही थी । आशा ये अच्छी तरह जानती थी। मिसेस सेठना आगे आयी,उसके हाथ थामे,कंधे थपथपाए, धीरज दिया... राजू चला गया.... सात समंदर पार.... अपनी माँ  की पहुँच  से बहुत  दूर।

आशा और उसका पति  फिर एकबार अपनी झोपडी मे एकाकी जीवन जीने लगे। दिन मे स्कूल का काम, मुख्याधापिका के घर के बर्तन-कपडे,फिर खुद् के घरका काम.... उसके पति को उसके मन की दशा दिखती थी । गराजसे घर आते समय कभी कभार वो उसके लिए गजरा लाता,कभी बडे, तो कभी ब्लाऊज़ पीस।

दो साल बाद संजू भी अमरीका चला गया । आशा और उसके पती की दिनचर्या वैसीही चलती रही। कभी कभी कोई ग्राहक खुश होके उसे टिप देता तो वो आशाके लिए साडी ले आता। भगवान् की दयासे उसे कोई व्यसन नही था। एक बार बहुत  दिनों तक वो कुछ नही लाया। दीवाली पास थी। थोडी बहुत  मिठाई,नमकीन बनाते समय आशाको छोटे,छोटे राजू-संजू याद आ रहे थे। लड्डू, चकली,चेवडा,गुजिया बनाते समय कैसी ललचाई निगाहोंसे इन सब चीजों को देखते रहते, उससे चिपक कर बैठे रहते।

आँचल से आँसू पोंछते ,पोंछते वो यादों मे खो गयी थी । पती कब पीछे आके खड़ा हो गया, उसे पता भी नही चला। उसने हल्केसे आशाके हाथोंमे एक गुलाबी कागज़ की पुडिया दी तथा एक थैली पकडाई। पुडियामे सोनेका मंगलसूत्र था, थैलीमे ज़री की साडी.......!
आशा बेहद खुश हो उठी! मुद्दतों बाद उसके चेहरेपे हँसी छलकी!! वो भी उठी..... उसने एक बक्सा खोला.... उसमेसे एक थैली निकली, जिसमे अपनी तन्ख्वाह्से बचाके अपने पति के लिए खरीदे हुए कपडे थे.... टीचर्स ने समय,समय पे दी हुई टिप्स्मे से खरीदी हुई सोनेकी चेन थी.....
पतिको भी बेहद ख़ुशी हुई। एक अरसे बाद दोनो आपसमे बैठके बतियाते रहे, वो अपने ग्राह्को के बारेमे बताता रहा, वो अपने स्कूलके बारेमे बताती रही।

समय बीतता गया। बच्चे शुरुमे मिसेस सेठनाके पतेपे ख़त भेजते रहते थे। आहिस्ता,आहिस्ता खतोंकी संख्या कम होती गयी और फिर तकरीबन बंद-सी हो गयी। फ़ोन आते, माँ-बापके बारेमे पूछताछ होती। एक बार मिसेस सेठ्नाने आशाको घर बुलवाया और उसके हाथमे एक लिफाफा पकडा के कहा," आशा ये पैसे है,तेरे बच्चों ने मेरे बैंक मे तेरे लिए ट्रान्सफर किये थे। रख ले। तेरे बच्चे एहसान फरामोश नही निकलेंगे। तुझे नही भूलेंगे।"

आशा पैसे लेके घर आयी। उसने वो लिफाफा वैसाही रख दिया। बहुओं के लिए कुछ लेगी कभी सोंचके.... इसी तरह कुछ समय और बीत गया। एक दिन सहज ही मिसेस सेठना का हालचाल पूछने वो उनके घर पहुँच        गयी। मिसेस सेठना हमेशा बडे ही अपनेपन से उससे मिलती। तभी उनका फ़ोन बजा, उनकी बातों परसे आशा समझ गयी कि फ़ोन राजूका है।
कुछ समय बाद मिसेस सेठना गंभीर हो गयी और सिर्फ"हूँ,हूँ" ऐसा कुछ बोलती रही। फिर उन्होंने आशा को फ़ोन पकडाया और खुद सोफेपे बैठ गयीं......
मुद्दतों बाद आशा राजूकी आवाज़ सुननेवाली थी। "हेलो " कहते,कह्ते ही उसकी आँखें और गला दोनो ही भर आये.....और फिर वो खबर उसके कानोपे टकराई ........
राजूने शादी कर ली थी, वहीँ की एक हिन्दुस्तानी लड़कीसे........ वहीँ बसनेका निर्णय ले लिया था। वो अपनी माँ को नियमसे पैसे भेजता रहेगा..... । कुछ देर बाद आशाको सुनाई देना बंद हो गया.......
उसने फ़ोन रख दिया। सुन्न-सी होके वो खडी रह गयी। मिसेस सेठना ने उसे अपने पास बिठा लिया। उनकी आँखों मे भी आँसू थे।

"आशा ,मैं तेरी बहुत  बड़ी गुनाहगार हूँ । मैं खुद को कभी माफ़ नही कर पाऊँगी । बच्चे ऐसा बर्ताव करेंगे इसकी मुझे ज़राभी कल्पना होती तो मैं उन्हें परदेस नही भेजती," बोलते,बोलते वो उठ खडी हुई।
" राजूने सिर्फ शादीही नही की बल्की अपनी पत्नी तथा उसके घरवालोंको बताया कि उसके माँ-बाप बचपन मे ही मर चुके हैं! मुझे....मुझे कह रहा था कि मैं.....मैं इस बातमे साझेदार बनूँ!!शेम ऑन हिम!!भगवान् मुझे कभी क्षमा नही करेंगे....!ये मेरे हाथोंसे क्या हो गया?"

वो अब ज़ोर ज़ोर से रो रही थीं। चीखती जा रही थीं।आशाका सारा शरीर बधीर हो गया था। वो क्या सुन रही थी? उसके बेटेने उसे जीते जी मार दिया था??उसे अपने गरीब माँ-बापकी शर्म आती थी??और उसने सारी उम्र उसके इन्तेज़ारमे बिता दी थी? ममताका गला घोंट,घोंटके एकेक दिन काटा था!

अंतमे जब वो घर लौटनेके लिए खडी हुई तो उसकी दशा देख कर मिसेस सेठ्नाने अपनी कारसे उसे बस्तीमे छुड़वा दिया। झोंपडीमे आके वो कहीँ दूर शून्यमे ताकती रही। बाहर बस्तीमे के बच्चे खेल रहे थे। उसका आँगन बरसोंसे सूना था। वैसाही रहनेवाला था........

बस्तीके कितनेही लोग उससे जलते थे, लेकिन वो अपने सीनेकी आग किसे बताती??ज़िंदगी ने कैसे,कैसे मोड़ लेके उसे ऐसा अकेला कर डाला था! उसके कान मे कभी उसके छुटकों  के स्वर गूँजते तो कभी आँखोंसे रिमझिम सपने झरते। उसका पति  जब घर आया तो उसने मनका सारा गुबार निकाला , खूब रोई।
पति  एकदम खामोश हो गया। फिर कुछ देर बाद बोला,"सच!  अगर तेरी बात सुनी होती,हम पढ़ लिख गए होते, तो अपने ही बलबूते पे बच्चे पढे होते... जो भी पढे होते, ये समय आताही नही।"
 आशाने कुछ जवाब दिया नही। उस रात दोनो ही खाली पेट ही सो गए। सो गए केवल कहनेके लिए, आशाकी आँखोंसे नींद कोसों दूर थी।
 क्रमश:





सोमवार, 6 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! 6


मुख्याध्यापिकाने कहा,"आशा, बच्चों का इसीमे कल्याण है। ऐसा सुनहरा अवसर इन्हें फिरसे नही मिलेगा। तुम दोनो मिलकर इनको कितना पढा लोगे?और मिसेज़ सेठना अगर इसी शहर मे किसी बडे स्कूल मी प्रवेश दिला दें, सारा खर्चा कर दें, फिर भी अगर तुम्हारे बच्चों के मित्रों को असली स्थिती का पता चलेगा तब इनमे बेहद हीनभाव भर जाएगा। ज्यादा सोंचो मत। "हाँ" कर दो। "

आशा ने "हाँ" तो भर दी लेकिन घर आकर वो खूब रोई । बच्चे उससे चिपक कर बैठे रहे। कुछ देर बाद आँसूं की धाराएँ रूक गयी। वो अपलक टपरी के बाहर उड़नेवाले कचरे को देखती रही। उसमे का काफी कचरा पास ही मे बहनेवाली खुली नाली मे उड़कर गिर रहा था........

हाँ!! उसका बंगला,उसका सपनोंका बंगला,उसका अपना बंगला, कभी अस्तित्व मे थाही नही। वो हिना, वो जूही का मंडुआ ,बाम्बू का जमघट, उससे लिपटी मधुमालती, वो बगिया जिसमे पँछी शबनम चुगते थे,जिस बंगले की छतसे वो सूर्योदय निहारती ,कुछ,कुछ्भी तो नही था!

बच्चे गए। उससे पहले मिसेस सेठना ने उनके लिए अंग्रेजी की ट्यूशन लगवाकर बहुत  अच्छी तैय्यारी करवा ली। उनके लिए बढिया कपडे सिलवाये! सब तेहज़ीब सिखलाई। एक हिल स्टेशन पे खुद्की जिम्मेदारी पे प्रवेश दिलवा दिया। वहाँ के मुख्याध्यापक तथा trustees उनके अच्छे परिचित थे। सब ने सहयोग किया।

बच्चों पर शुरू मे खास ध्यान दिया गया। मिसेस सेठना ने पत्रव्यवहार के लिए अपना पता दिया। अपने माँ-बाप देश के  दूसरे  कोने मे रहते हैं, तथा उनकी तबादले की नौकरी है, इसलिए हम सेठना आंटी के घर जाएँगे तथा हमारे ममी-पापा हमे वहीं मिलने आएँगे, यही सब क्लास के बच्चों को कहने की हिदायत दी गयी। शुरुमे बच्चे भौंचक्के से हो गए, लेकिन धीरे,धीरे उन्हें आदत हो गयी।

स्कूलमे साफ-सुथरे स्नानगृह,समयपे खाना (माँ के हाथों का स्वाद न सही),टेबल कुर्सियाँ , सोनेके लिए पलंग, पढाई के  लिए हरेक को स्वतंत्र डेस्क, बिजलीकी सुविधा,अलग,अलग,खेल,पहाडोंका सौंदर्य.....ये सब धीरे,धीरे बच्चों को आकर्षित करने लगा।


पहली  बार छुट्टीयों मे बच्चे मिसेस सेठना के पास आये और फिर वहाँ से माँ के पास मिलने गए तो ,क्या क्या कहे क्या न कहें,ऐसी उनकी हालत हो गयी थी। लेकिन रातमे सेठना आंटी के घर पे  रहनेका हठ करने लगे। वहाँ बाथरूम कितने साफ-सुथरे हैं,कमरेसे लगे हैं, गरम पानी जब चाहो नलकेमे आ जाता है। फिर आंटी  सोनेके लिए कमरा भी अलग देंगी,नरम,नरम गद्दे होंगे, टी.वी.होगा,कार्टून देखने को मिलेंगे, हम कल फिर आएंगे ना....आदि  कारण बता कर बच्चे रात मे लौट  गए। आशा का दिल छलनी हो गया। उनका विश्व बदल जाएगा,इस बातकी उसको एक झलक मिल गयी।


छुट्टियाँ समाप्त होने आयीं तब उसने बच्चों के लिए लड़दो,चकली,चिवडा आदी चीज़ें बनाईं। पाकेट बनाकर मिसेस सेठना के घर ले गयी। बच्चों ने खोलके देखा तो कहने लगे,माँ,आंटी ने हमे बहुत  कुछ दिया है। ये देखो,केक,बिस्किट और ना जाने क्या,क्या!!"


इतनेमे मिसेस सेठना वहाँ पहुँच गयी और आशा का उदास -सा चेहरा और उसके हाथ की पुडियाँ देखकर जान गयी। तुंरत अन्दर जाके कुछ डिब्बे ले आयीं और बोलीं," ये चीज़ें तुम्हारे लिए तुम्हारी माँ  ने अपने हाथोंसे बनाई हैं। ये बहुत अच्छी होंगी । रख लो इन्हें। "

स्कूलमे साफ-सुथरे स्नानगृह,समयपे खाना (माँ के हाथों का स्वाद न सही),टेबल कुर्सियाँ , सोनेके लिए पलंग, पढ़ईके लिए हरेक को स्वतंत्र डेस्क बिजलीकी सुविधा,अलग,अलग,खेल,पहाडोंका सौंदर्य,ये सब धीरे,धीरे बच्चों को आकर्षित करने लगा।


पहली बार बार छुट्टीयों मे बच्चे मिसेस सेठना के पास आये और फिर वहाँसे माँ के पास मिलने गए तो ,क्या क्या कहे क्या न कहें,ऐसी उनकी हालत हो गयी थी। लेकिन रातमे सेठना आंटी के घर रहनेका हठ करने लगे। वहाँ बाथरूम कितने साफ-सुथरे हैं,कमरेसे लगे हैं, गरम पानी जब चाहो नलकेमे आ जाता है। फिर आंटी  सोनेके लिए कमरा भी अलग देंगी,नरम,नरम गद्दे होंगे, टी.वी.होगा,कार्टून देखने को मिलेंगे, हम कल फिर आएंगे ना....आदि  कारण बता कर बच्चे रात मे लौट  गए। आशा का दिल छलनी हो गया। उनका विश्व बदल जाएगा,इस बातकी उसको एक झलक मिल गयी।


छुट्टियाँ समाप्त होने आयीं तब उसने बच्चों के लिए लड़दो,चकली,चिवडा आदी चीज़ें बनाईं। पाकेट बनाकर मिसेस सेठना के घर ले गयी। बच्चों ने खोलके देखा तो कहने लगे,माँ,आंटी ने हमे बहुत  कुछ दिया है। ये देखो,केक,बिस्किट और ना जाने क्या,क्या!!"


इतनेमे मिसेस सेठना वहाँ पहुँच  गयी और आशा का उदास -सा चेहरा और उसके हाथ की पुडियाँ देखकर जान गयी। तुंरत अन्दर जाके कुछ खाली  डिब्बे ले आयीं और बोलीं," ये चीज़ें तुम्हारे लिए तुम्हारी माँ  ने अपने हाथोंसे बनाई हैं। ये बहुत  अच्छी होंगी । रख लो इन्हें। "


ऐसी कितनीही छुट्टियाँ आयी और गयी। आशा बच्चों का साथ पाने के लिए तरसती रही और बच्चे उसे तरसाते रहे। माँ का त्याग उनके समझ मे आया ही नही,बल्कि माँ-बापने अपनी जिम्मेदारी झटक के सेठना आंटी पे डाल दी,यही बात कही उनके मनमे घर कर गयी। बारहवी के बाद राजीव मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया। मिसेस सेठना सारा खर्च उठाती रही। बादमे संजूभी मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया।
पोस्ट ग्राजुएशन के लिए पहले राजू और फिर संजू इस तरह दोनो ही अमेरिका चले गए। मिसेस सेठ्नाने फिर उनपे बहुत  खर्च किया।

राजू के एअरपोर्ट चलने से पहले दोनो पती-पत्नी राजूको विदा करने मिसेस सेठना के घर गए। आशाकी आँखों से पानी रोके नही रूक रहा था।
 राजूको गुस्सा आया,बोला,"माँ लोगों के बच्चे परदेस जाते हैं तो वे मिठाई बाँटते हैं, और यहाँ तुम हो कि रोये चली जा रही हो!!अरे मैं हमेशाके लिए थोडेही जा रहा हूँ??लौट  कर आऊँगा!! एक बार कमाने लगूँगा तो अच्छा घर बना सकेंगे, और कितनी सारी चीजे कर सकेंगे। ज़रा धीरज रखो।"
"बेटा,अब तुम्हारीही राह तकती रहूँगी अपने बच्चों से बिछड़ कर एक माँ के कलेजे पे क्या गुज़रती है,तुम नही समझोगे ,"आशा आँचल से आँसू पोंछते हुए बोली।
क्रमश: 




शनिवार, 4 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना !5


आशाने एक पार्ट time और एक फुल time ऐसी दो औरते कामके लिए  रखही ली थी। अस्मिता दादीका आँचल नही छोड़ती थी।

कुछ ही दिनोंमे मायाको बेटा हुआ। लड़के के नामों की लिस्ट बनी। 'कुशल' नाम सभीको अच्छा लगा। नामकरण हो गया। अस्मिता के सामने अगर आशा कुशल के लाड करती तो वो तूफान मचा देती। आशा और उसका पति  दोनो तृप्त थे। ज़िंदगी उन्हें इतना कुछ देगी ऐसा कभी सोचाही नही था।

यथासमय संजूका भी ब्याह हो गया। बादमे शुभदा भी बालरोग विशेषज्ञ हो गयी और उसका भी एक विशिष्ट दैनिक क्रम शुरू हो गया। संजू-शुभदा उसी अस्पतालमे काम करने लगे जहाँ राजू करता था। बच्चे,बहुएँ आपसमे हिलमिलकर रहते, आशाने सबको एक डोरमे बाँध रखा था। सबने मिलकर घरको अन्दर बाहरसे सुन्दर बना रखा था। और फिर शुभदानेभी खुश खबरी सुनाई। उसे जुडवाँ बच्चे हुए। दोनो लड़के। इस कारण अस्मिता सभीकी औरभी लाडली हो गयी।

आशा हमेशा "दयाकी दृष्टी सदाही रखना..."गाना गुनगुनाया करती। कई बार राजू-संजू जब वो रसोयी मे होती और ये गाना गुनगुना रही होती तो उसके गलेमे बाहें डालकर कहते,"माँ,ऊपरवालेकी दया तो है ही लेकिन तेरी मेहनत कई गुना ज्यादा। उसके बिना ये दिन हमे देखने को ही नही मिलते।"

अब भी उसके कान्धोंको कोई स्पर्श कर रहा था। "राजू?संजू?" वो बुदबुदा रही थी।
"माजी!मैं लीलाबाई!चलिए,मैं आपको बाथरूम ले चलती हूँ। कुल्ला कीजिए,फिर चाय लीजिये,"वृद्धाश्रम   मे खास आशाके लिए तैनात की गयी लीलाबाईने कहा।
"लीलाबाई? तू कौन??राजू,संजू कहाँ हैं??अभी तो मुझे पीछेसे आकर गले लगाया। कहाँ गए?,"आशाने कुछ न समझते हुए कहा।
"माँ जी,पहले उठिए तो। राजू, संजू को बादमे बुलाएँगे,"लीलाबाईने कहा।

नियतीकी कैसी विडम्बना थी! आशा वास्तव और कल्पना इसमेका फासला पूरी तरह भूल गयी थी। पिछले दो सालोंसे इस आश्रम मे पडी हुई थी। उसे तो आगे पढ़नेको भी नही मिला था। गराज मे काम करने वाले पति ने  इजाज़त दी ही नही थी।पति  को पढ़नेका बिलकुल शौक नही था! उनको दो लड़के हुए थे ये वस्तुथिति थी। दोनो डाक्टर बने थे ये भी वस्तुस्थिति । लेकिन किसतरह?ये अलग कहानी थी.......

आशा जिस स्कूलमे सफाई का काम करती थी, वहाँ की मुख्याध्यापिका ने उसके बच्चो की स्मार्टनेस देख ली और उसे एक अपत्यहीन , बहुत  दौलतमंद,लेकिन उतनी ही नेकदिल पारसी औरतके पास ले गयी।
"मैं बच्चों का सब खर्च करुँगी उन्हें बहुत  अच्छे बोर्डिंग स्कूलमे भरती करवा दूँगी.... बच्चे बहुत  होशियार हैं । उनका भविष्य उज्वल हो जाएगा। तुम्हे पछताना नही पड़ेगा," उस दयालु ,पारसी औरत,मिसेज़ सेठना ने, आशासे कहा।

आशाको क्या कहा जाय कुछ सूझ नही रहा था। क्या अपने पति को पसंद आएगा ये सब? उनको छोडो, उसका मन लगेगा इन कलेजों के टुकडों के बिना? वो स्तब्ध खडी हो गयी। बच्चे उसका आँचल थामे खडे थे। उस पारसी औरत का बड़ा-सा बंगला फटी-फटी आँखों से देख रहे थे।

क्रमश: 


गुरुवार, 2 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! 4


अब राजूकी शादीके सपने वो देखने लगी। अपने पर,इस घर पर,प्यार करनेवाली लडकी वो तलाशने लगी। अव्वल तो उसने राजूको पूछ लिया कि उसने पहले ही किसीको पसंद तो नही कर रखा है। लेकिन वैसा कुछ नही था। एक दिन किसी समरोह्मे देखी लडकी उसे बड़ी पसंद आयी। उसने वहीं के वहीं थोडी बहुत  जानकारी हासिल की। लडकी दूसरे शहर से आयी थी। उसके माँ-पिता भी उस समारोह मे   थे। उसने खुद्ही लडकी की माँ को अपने मनकी बात बताई। लड़की की माँ को प्रस्ताव अच्छा लगा। दोनोने मिलकर लड़का-लडकी के बेमालूम मुलाक़ात का प्लान बनाया। रविवार के रोज़ लडकी तथा उसके माता पिता आशा के घर आये। राजू घरपर ही  था। सब एक-दूसरेके साथ मिलजुल कर हँसे-बोले। लडकी सुन्दर थी,घरंदाज़ दिख रही थी,और बयोलोजी लेकर एम्.एससी.किया था।
जब वे लोग चले गए तो आशा ने धीरे से बात छेड़ी। राजू चकित होकर बोला,"माँ!!तुम भी क्या चीज़ हो! क्या बेमालूम अभिनय किया! पहले लड़कीको तो पूछो। और इसके अलावा हमे कुछ बार मिलना पड़ेगा तभी कुछ निर्णय होगा!"
"एकदम मंज़ूर! मैं लड़कीकी माँ को वैसी खबर देती हूँ। हमने पहलेसेही वैसा तय किया था. लड़कीको पूछ्के,मतलब माया को पूछ के वो मुझे बताएंगी। फिर तुम्हे जैसा समय हो,जब ठीक लगे,जहाँ ठीक लगे, मिल लेना, बातें कर लेना,"आशा खुश होकर बोली। उसे लड़कीका नाम बहुत  प्यारा लगा,'माया'।
राजू और माया एक -दूसरेसे आनेवाले दिनोमे मिले। कभी होटल मे तो कभी तालाब के किनारे। राजीवने अपने कामका स्वरूप मायाको समझाया। उसकी व्यस्तता समझाई। रात-बेरात आपातकालीन कॉल आते हैं,आदि,आदि सब कुछ। अंत मे दोनोने विवाह का निर्णय लिया। आशा हवामे उड़ने लगी। बिलकुल मर्जीके मुताबिक बहू जो आ रही थी।
झटपट मंगनी हुई और फिर ब्याह्भी। कुछ दिन छुट्टी लेकर राजीव और माया हनीमून पेभी हो आये। बाद मे माया ने भी घरवालोंकी सलाह्से नौकरीकी तलाश शुरू की और उसे एक कॉलेज से कॉल आया,वहीँ पर उसने फुल टाइम के बदले पार्ट टाइम नौकरी स्वीकार की,अन्यथा घरमे सास पर कामका पूरा ही बोझ पड़ता।
साल भरमे उनके द्वारपर एक और खुशीने दस्तक दी। मायके पैर भरी हो गए। आशा फिर सपनोके दुनियामे खो गयी। मैं ऐसा करूंगी,मैं वैसा करूंगी,मायाकी सहेलियोंको बुलाऊंगी ,मायाकी खूब खबर रखूंगी। इश्वर मेरे आंचल मेभी समां न सके इतना भर भरके दान तू मुझे दे रहा है। बच्चे अलग रहने चले जाते है,बूढे माँ-बाप निराधार हो जाते है,पोते,पोतियोंका लाड प्यार करनेकी किस्मत कितनोको मिलती है?वो बार इश्वर के चरणों मे नतमस्तक हो जाती।
माया को यथासमय लडकी हुई। आशाको लड़कीका बेहद शौक था। लड़कियोंको सजाने-सवारनेका कुछ औरही मज़ा होता है। चलने लगेगी तो रुनझुन पाजेब बजेंगे। क्या करू और क्या न ,ऐसी उसकी हालत हो गयी। नामों की सूची बनती गयी। 'अस्मिता'नाम सबको अच्छा लगा।
नामकरण की तैय्यारी,फ़ोन,दिन महीने सरकते गए। अस्मिता बैठने लगी, चलने लगी, पाज़ेब बजने लगे,तोतले बोल और किलकारियाँ घरमे गूँजने लगीं.....

अबतक आशा तथा उसका पती सेवानिवृत्त हो चुके थे। फिर अस्मिताकी नर्सरी ,उसका खान पान,उसे पार्क मे घुमाना, लोरी गा कर सुलाना,सारा,सारा सुख वो भोग रही थी.......

इस सबके चलते एक दिन संजीव अपनी माँ को बताया कि उसे एक लडकी पसंद आयी है। उसीके कॉलेज मे पढ़ ने वाली लेकिन उसकी जूनियर । संजू बालविभागमे पोस्ट ग्राजुएशन कर रहा था। आशाने किसी भी किस्म की आपत्ती नही दिखाई,बल्कि खुद लड़किवालोंको आमंत्रित किया। लडकी के माँ-बाप दोनोही डाक्टर थे। लडकी स्मार्ट थी। उसकी एम्.बी.बी.एस के बादकी internship रह गयी थी। internship के बाद ब्याह तय हुआ।


बुधवार, 1 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना..! 3


ये सुनकर उसका अपनी अशिक्षित माँ के प्रती आदर एकदम से बढ़ गया। कितने धीरज से ज़िंदगी का सामना किया था उस अनपढ़ औरत ने!
आशाके दिन पूरे हो गए। सरकारी अस्पताल मे  उसका प्रसव हुआ। सबकुछ ठीक ठाक हो गया। नामकरण के समय पतीने कहा,"नाम मे कहीं तो 'राजा' होना चाहिए। यथानाम तथा गुण। मन से धन से वो राजा बनेगा। अंत मे "राजीव"नाम रखा और उसका राजू बन गया। सबकुछ कैसा मनमुताबिक चल रहा था। भगवान्! मेरे नसीब को कहीँ नज़र न लग जाये, कभी,कभी आशाके मनमे विचार आता।

राजू दो सालका हुआ न था कि आशाके पैर फिर भारी हुए। उसे फिर लड़काही हुआ। वो थोडी-सी मायूस हुई। लडकी होती तो शायद आगे चलके सहेली बन गयी होती...... इस लड़केका नाम इन लोगोंने संजीव रखा। राजू-संजूकी जोड़ी!
उसने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलमे डाला। बच्चे आज्ञाकारी थे। माँ-बाप तथा दादीका हमेशा आदर करते। समय पर पढाई खेल कभी कभार हठ्भी, जो कभी पूरा किया जाता कभी नही। दिन पखेरू बनके सरकते रहे......

इस बीच उसने बी.एड.भी कर लिया। पतीने बैंकिंग की औरभी परीक्षाएँ दी तथा तरक़्क़ी पाई। राजू दसवी तथा बारहवी कक्षा तक बहुत बोहोत बढिया नमबरोंसे पास होता गया और उसे सहजही मेडिकल कॉलेज मे प्रवेश मिल गया।
जब संजू बारवी मे था तब आशा की माँ गुज़र गयी। सिर्फ सर्दी-खाँसी तथा तेज़ बुखार का निमित्त हुआ और क्या हो रहा है ये ध्यान मे आनेसे पहलेही उसके प्राण उड़ गए। न्युमोनिया का निदान तो बादमे हुआ।

बहुत  दिनो तक माँ की यादों मे उसकी पलके नम हो जाती। आशा स्कूलसे आती तो माँ चाय तैयार रखती। खाना तैयार रखती। सासकी इस चुस्ती पर उसका पतीभी खुश रहता। धीरे,धीरे खाली घरका ताला खोल के अन्दर जानेकी उसे आदत हो गयी।
संजूको भी बारहवी मे  बहुत अच्छे  गुण मिले राजू के बाद वो भी मेडिकल कॉलेज  दाखिल हो गया। देखतेही देखते राजू एम्.बी.बी.एस.हो गया।
internship पूरी करके सर्जन भी बन गया। उसकी प्रगल्भ बुद्धीमत्ता की शोहरत शहरभर मे फ़ैल गयी और एक मशहूर प्राइवेट अस्पताल मे उसे नौकरी भी मिल गयी। इस दरमियाँ पतीके पीछे लगके उसने छतपे दो सुन्दरसे कमरे भी बनवा लिए थे। राजू संजूके ब्याह्के बाद तो ये आवश्यक ही होगा।

क्रमश: 


मंगलवार, 31 जुलाई 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना...! २


और एक दिन बाप गुज़र जानेकी खबर आयी। उन दिनों वो गर्भवती भी थी। मायके जाकर अपनी माँ को अपने एक कमरे के घर मे ले आयी। पति  को बैंक की ओरसे घर बनवानेके अथवा खरीदनेके लिए क़र्ज़ मिलने वाला था। दोनोने मिलकर घर ढूढ़ ना शुरू किया। शहर के ज़रा सस्ते इलाकेमे मे दो कमरे और छोटी-सी रसोई वाला,बैठा घर उन्हें मिल गया। आगे पीछे थोडी-सी जगह थी। दोनो बेहद खुश हुए। कमसे कम अब अपना बच्चा पत्रे के छत वाले, मिट्टी की दीवारोंवालें , घुटन भरे कमरेमे जन्म नही लेगा!
वो और उसकी माँ , दोनोही बेहद समझदारीसे घरखर्च चलाती । कर्जा चुकाना था। माँ नेभी अडोस पड़ोस के कपडे रफू कर देना,उधडा हुआ सी देना, बटन टांक देना, मसाले बना देना तो कभी मिठाई बना देना, इस तरह छोटे मोटे काम शुरू कर दिए। वो बेटीपर कतई बोझ नही बनना चाहती थी और उनका समयभी कट जाता था।
एक दिन आशाने कुतुहल वश उनसे पूछा,"माँ, मैं तेरी कोख से सिर्फ एकही ऑलाद कैसे हूँ? जबकी आसपास तुझ जैसों को ढेरों बच्चे देखती हूँ?"
माँ धीरेसे बोली,"सच बताऊँ ? मैंने चुपचाप जाके ऑपेरशन  करवा लिया था। किसीको कानोकान खबर नही होने दी थी। तेरा बाप और तेरी दादी"बेटा चाहिए "का शोर मचाके मेरी खूब पिटाई लगाते थे। मेहनत मैं करुँ,शराब तेरा बाप पिए, ज़्यादा बच्चों का पेट कौन भरता?बहुत  पिटाई खाई मैंने,लेकिन तुझे देख के जी गयी। तेरी दादी कहती,तेरे बाप की दूसरी शादी करा देंगी , लेकिन उस शराबी को फिर किसीने अपनी बेटी नही दी। "

क्रमश:

हिंदी,कहानी,शादी,बेटी। 

सोमवार, 30 जुलाई 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.....1(Kahani)


शीघ्र सवेरे कुछ साढ़े चार बजे,आशाकी आँखे इस तरह खुल जाती मानो किसीने अलार्म लगाके उसे जगाया हो। झट-से आँखों पे पानी छिड़क वो छत पे दौड़ती और सूर्योदय होनेका इंतज़ार करते हुए प्राणायाम भी करती। फिर नीचे अपनी छोटी-सी बगियामे आती। कोनेमेकी हिना ,बाज़ू मे जास्वंदी,चांदनी,मोतियाकी क्यारी, गेट के कमानपे चढी जूहीकी बेलें,उन्हीमे लिपटी हुई मधुमालती। हरीभरी बगिया। लोग पूछते, क्या डालती हो इन पौधों मे ? हमारे तो इतने अच्छे नही होते? प्यार! वो मुस्कुराके कहती।

हौले,हौले चिडियांचूँ,चूँ करने लगती।पेडों परके पत्तों की शबनम कोमल किरनोमे चमकने लगती! पँछी इस टहनी परसे उस टहनी पर फुदकने लगते। बगियाकी बाड्मे एक बुलबुलने छोटा -सा घोंसला बनाके अंडे दिए थे। वो रोज़ दूरहीसे झाँक कर उसमे देखती। खुदही क्यारियोंमेकी घाँस फूँस निकालती। फिर झट अन्दर भागती। अपनेको और कितने काम निपटाने हैं,इसका उसे होश आता।

नहा धोकर बच्चों तथा पतीके लिए चाय नाश्ता बनाती। पती बैंक मे नौकरी करता था। वो स्वयम शिक्षिका। बच्चे डॉक्टरी की पढाई मे लगे हुए। कैसे दिन निकल शादी होकर आयी थी तब वो केवल बारहवी पास थी बाप शराबी था। माँ ने कैसे मेहनत कर के उसे पाला पोसा था। तब पती गराज मे नौकरी करता था।

शादी के बाद झोपड़ पट्टी मे रहने आयी। पड़ोस की भाभी ने एक हिन्दी माध्यम के स्कूलमे झाडू आदि करने वाली बाई की नौकरी दिलवा थी । बादमे उसी स्कूलकी मुख्याध्यापिकाके घर वो कपडे तथा बर्तन का काम भी कर ने लगी। पढ़ने का उसे शौक था। उसे उन्हों ने बाहर से बी ए करने की सलाह दी। वो अपने पतीके भी पीछे लग गयी। खाली समयमे पढ़ लो,पदवीधर बन जाओ,बाद मे बैंक की परीक्षाएँ देना,फायदेमे रहोगे।
धीरे,धीरे बात उसकी भी समझ मे आयी। कितनी मेहनत की थी दोनो ने! पढाई होकर,ठीक-से नौकरी लगनेतक बच्चों को जन्म न देनेका निर्णय लिया था दोनोने। पती को बैंक मे नौकरी लगी तब वो कितनी खुश हुई थी !

क्रमश:

मेरा कथासंग्रह,"नीले पीले फूल" इस किताब से ये कहानी ली है।


रविवार, 15 जुलाई 2012

कहानी किस किसकी?

पता नहीं मैंने कौनसा बटन दबा दिया कि , इसके पहले की पोस्ट गायब हो गयी! खैर।..

आज मैंने आमिर खान का 'सत्यमेव जयते' ये व्रुद्धों की समस्यायों पे आधारित कार्यक्रम देखा... बड़े दिनों से एक परिवार के बारे में लिखना चाह रही थी पर  उसे लिखने की चाहत खो चुकी थी।...वो चाहत फिर से जागृत हो गयी।

बात मेरे नैहर के एक परिवार की है...महाराष्ट्रियन परिवार...मेरी पाठशाला उस परिवार के पास में थी....दोपहरक का भोजन खाने,मई अपना टिफिन लेके उनके घर जाती थी ....उस परिवार की मुखिया एक 50 वर्षीय बेवा महिला थी...मुझे अचार आदि परोस देतीं....उन्हें मै  'आजी' मतलब दादी कहके बुलाती... मेरी दादी के साथ उनकी अच्छी खासी पटती थी। दादी उन्हें काफी सारे हाथ के हुनर सिखाये। वो महिला उन  हुनर के सहारे थोड़ा बहुत कमा भी लेती थीं।

उनके चार बेटे थे।उनके पति फ़ौज में डॉक्टर थे।सबसे छोटा बेटा जब 2 साल का था,तब उनका देहांत हो गया।इस 4 जमात पास महिला ने अपने बच्चों को बड़ा किया....पढाया लिखाया...उनका घर एक दो मंज़िले इमारत  में था। पहले माले पे...पैखाना नीचे उतर के था.... पूरी इमारत के लिए केवल एक ....!

समय आगे बढ़ता गया...बेटे बड़े होते गए।...पढ़े लिखे.... दो बेटे आयुर्वेदिक डॉक्टर बने....एक बेटे ने अपने पिता  की practice संभाली।( वो  की जगह को इस महिलाने छोड़ा नहीं था). उसका ब्याह उस महिला ने अपने भाई के बेटी के साथ कर दिया..उसे भी दो बेटे हुए ..... मै  अन्य  बेटों के परिवार की बारीकियों में नहीं जाउंगी ,क्योंकि इसी बेटे की पत्नी के बारेमे लिखना चाहती हूँ ...उस वृद्धा के अलावा ...

मेरी दादी अपनी सहेली को हमेशा कहती रहती की,अपनी जायदाद,अपने जीते जी किसी के नाम नहीं करना ....लेकिन उसने ये सलाह नहीं मानी .....बँटवारा कर दिया .....और नतीजा ये की,अंत में चारों ने किनारा कर लिया! वो बेचारी कभी किसी बेटे के घर तो कभी किसी के घर रहतीं ....सभी की गृहस्थी में अपना हाथ बंटाती ....खाना बनाती,सफाई करतीं...बचे हुए समय कढ़ाई बुनाई करतीं ... कुछ साल तो ये सिलसिला थी रहा।लेकिन धीरे,धीरे समय बदलता गया ..बेटों को बूढ़ीमाँ अखरने  लगी।...उनका मिज़ाज भी ज़रा तेज़ था ..पर वो बहू बेटों का ख़याल भी बहुत करतीं .....अपने पोते  पोतियों की देखभाल कर लेतीं..

और एक दिन वो भी आया जब सबसे छोटे बेटे ने उन्हें घरसे धक्का मार निकाल दिया! वो धाम से जा गिरी .....हड्डियाँ टूट गयीं।...अस्पताल में दाखिल कराया गया.....मेरा तो तबतक ब्याह हो चुका था। बाद में उन्हें उस बेटे के घर लाया गया जिसकी पत्नी उनके अपने सगे भाई की बेटी थी।

अब ये वृद्ध अधिकतर बीमार रहने लगीं।...एक बार मई उन्हें मिलने गयी तो बेचारी बिस्तर में पड़े,पड़े बहुत रोने लगीं।...बोलीं," देख मेरा क्या हाल हो गया है! ईश्वर  मुझे उठा क्यों नहीं लेता? मेरा कौनसा इम्तेहान ले रहा है? मै  सीढियाँ  उतरके पैखाने में भी नहीं जा सकती.... "
मै  क्या कहती?उन्हें अपने साथ भी नहीं ले जा सकती ....हम लोग खुद ही बंजारों की-सी ज़िंदगी जी रहे थे ....ना घर का पता रहता न दरका...उनकी देख भाल कैसे करती....? और एक दिन ख़बर  मिली की वो चल बसीं .....उन्हें दर्द से मुक्ती तो मिली पर कई अनसुलझे  सवालात हम सभी के मन में घिर गए।

समय बीतता रहा ....जिस पुत्र ने  अपने पिता  का दवाखाना सँभाला  था ....जिसकी पत्नी उसकी खुद की मुमेरी बहन थी .... उसके बेटों का भी ब्याह हो गया ... बड़े वाला पुणे  में नौकरी करने लगा और छोटे वाला ,जिसने homeopathy पढी( पर सुना  है वो भी पूरी नहीं),अपने पिता  के साथ काम करने लगा ....पिता  की शोहरत बहुत थी ....उसे अपने पिता की शोहरत का लाभ हुआ और इस बेटे को उस के पिता की शोहरत का!

मेक बार मई अपने मायके गयी हुई थी और अचानक खबर सूनी की,उसके पिता  का,जो हमारे परिवार के भी डॉक्टर रहे थे,अचानक निधन हो गया! हम सभी को बहुत दुःख हुआ....उनकी बहू भी homeopath थी।....उन्ही के दवाखाने में अपनी practice करती थी।...मै  एक दो बार जब उससे मुखातिब हुई थी,तो मुझे वो बेहद सडियल लगी थी....

फिर सुननेमे आया ....अपनी आँखों से देखा भी,की इस बहू ने और बेटे ने अपनी माँ के साथ बहुत बुरा सुलूक शुरू किया.. हम लोग भाई बहन उन्हें भाभी कह के बुलाया करते....अब दरबदर भटकने की भाभी की बारी आ गयी! समय ने एक पूरा चक्र घुमा लिया था! मेरी दादी हमेशा कहा करतीं," रानी के साथ भी वही होगा,जो उसने उसकी सास के साथ किया।..देखते रहना!"

कितना सत्य था दादी के वचन में ....लेकिन भाभी ने तो अपने बच्चों के साथ ना अपनी बहुओं के साथ कभी ऊंची आवाज़ में बात नहीं की थी।...उनके साथ ऐसा क्यों? हमारे मन में सवाल ज़रूर था....जवाब ये की उनके अपने पति  ने अपने मृत्यु पत्र  में उनके लिए कोई सुविधा नहीं की थी! जबकि बेटे को एक घर बनवा दिया था ....उनका लड़का उस घर में रहने भी नहीं गया,क्योंकि दवाखाना इस घर के नीचे था।भाभी के नाम कोई जमा पूँजी  नहीं थी ....उनके पति को ये विश्वास था कि ,दो दो कमाऊ बेटे हैं,पोते पोती हैं,जिनकी देखभाल उनकी दादी करती है तो उसे कमी किस बात की होगी?वो ये बात भूल गए कि ,स्वयं उनकी माँ के साथ क्या हुआ था ....!

मेरे बेटे के ब्याह में भाभी आनेवालीं थीं। हमने बहुत राह देखी लेकिन वो नहीं आयीं ....उनके पास तो मोबाईल फोन भी नहीं था,की,हम पता कर पाते  ! सुना  था कि  लैंड लाइन  पे उन्हें बात ही नहीं करने दी जाती है....जब बेटा बहू नीचे अपने दवाखाने  में जाते तो फोन को ताला  लगा के जाते!

कुछ दिनों बाद पता चला ,भाभी मेरे बेटे के ब्याह के लिए जिस दिन हमारे शहर से निकलने वालीं थीं, उन्हें उनकी ईमारत के सामने,किसी स्कूटर वाले ने दे गिराया  .....उनकी कई हड्डियाँ  टूट गयीं .....आनन् फानन में उन्हें पुणे लाया गया और अस्पताल में दाखिल करने से पूर्व उनकी फीस वो खुद देंगी .. किसी बेटे की ज़िम्मेदारी नहीं रहेगी, ये बात भी तय कर ली गयी ! सुनके मेरा दिल दहल गया! बाद में उन्हें उनके बड़े बेटे ने, जो पुणे में कार्यरत था, वापस उन्हें उसी शहर भेज दिया जहाँ पैखाने जाने के लिए उन्हें सीढ़ियाँ  उतरनी पडतीं! इस 'सुपुत्र' को भी उसके पिता ने घर ले दिया था! दोनों बेटों के पास अपने माँ बाप की बदौलत अपने अपने घर थे लेकिन माँ के लिए जगह नहीं थी! जगह उनके मन में नहीं थी ....या है!भाभी ने बाद में अपना सारा ज़ेवर ,जो उन्हें अपने पिता से मिला था,बेच दिया ....इस बात पे भी उन के बेटों ने बहुत नाराज़गी  व्यक्त की ! भाभी ने कहा," आख़िर  मै  अपनी दावा दारु के .....अपनी देखभाल के पैसे कहाँ से लाती? मै  तो अब ठीक से चल भी नही  पाती !"

भाभी आज भी अपने दो बेटों के बीछ बाँट के रहती हैं ....बेचारी इतना सब कष्ट उठा के भी ज़िंदगी से कभी कोई शिकायत नहीं करतीं ....कहती हैं, "मेरे नसीब में यही लिखा हुआ था ...किसी से क्या शिकायत करूँ? उनका बैंक का सारा काम मेरे भाई का बेटा देखता है ....उन्हें बैंकिंग के बारे में कुछ पता नहीं ....उसने उनके लिए शेयर के द्वारा आमदनी हो,इस बात की सुविधा भी कर दी ...लेकिन सोचती हूँ,ऐसा कब तक चलेगा? भाभी की ज़िंदगी की क्या यही कहानी है? कोई उपाय नहीं?

सोमवार, 18 जून 2012

ऐसी महिला क्या करे?

रविवार के रोज़ आमिर खान का शो देखा। महिलाओं पे होनेवाले शारीरिक तथा मानसिक अत्याचार के बारेमे। मन में सवाल उठा की ऐसी महिलाएं क्या करें जिनपे होनेवाले अत्याचार का कोई गवाह न हो ? शरीर पे ज़ख्म न दिखें इस तरह का शारीरिक अत्याचार हो? जिनके पतियों की बहुत ऊंची पहुँच हो?
 एक ऐसी महिला को जानती हूँ जो तकरीबन सर्वगुण सप्पन्न है। कलाकार है। उसके बच्चे जब छोटे थे तब उसने पति  से दूर जानेकी कोशिश की। उसपे होनेवाले अत्याचारों से तंग आके। पतीने उसे बच्चों का मूह देखने से भी मना  कर दिया। उसकी एक बेटी भी थी,जोकि अनचाही औलाद थी। महिला को पता था की बाप अपनी बेटी को तो मार ही डालेगा। उसका मायका भी पैसेवाला नहीं था। पति  के होनेवाले तबादलों के कारन वो महिला खुदको कहीं स्थापित भी नहीं कर पाई थी। हाथी के दांत दिखाने  के और तथा खाने के और। जो लोग उस महिला पे होनेवाले अत्याचारों को जान गए थे वो मूह नहीं खोलते थे। ऐसे में कानून क्या कर सकता है? पुलिस क्या कर सकती है? कोई संस्था क्या कर सकती है? आज वो महिला जिसने जीवन भर श्रम किये थे, अपने पति  के घरमे एक कैदी की तरह रहती है। है किसी के पास कोई उपाय?


बुधवार, 2 मई 2012

एक छुटकी की कहानी....

एक छुटकी की कहानी सुनाती हूँ। खेतों में पली पढी।...ऊंचे ऊंचे झूले झूलने वाली   और सोने से पहले अपनी माँ या दादी से कहानी सुना करनेवाली!

इमली, कच्चे  आम और बेर हमेशा खाती रहती।....दांत हमेशा खट्टे रहते।धीरे धीरे वो जवान होती गयी। बेहद समझदार लेकिन उतनी ही हंसमुख और चंचल! बड़ी होके भी उसमे एक छुटकी ,नटखट बच्ची ज़िंदा थी .वो कभी गंभीर होही नहीं पाती।

फिर एक खूबसूरत नौजवान उसकी ज़िंदगी में आया। उन्हें प्यार हो गया। नयनों में सपने बसने लगे। उनका ब्याह भी हो गया। ससुरालवाले इस ब्याह से खुश नहीं थे लेकिन उसने तो ठान ली थी की वो अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लेगी। 

अब वो 'बड़े' लोगों के बीछ आ गयी थी....उनके गुस्से और गंभीरता से वो घबरा  ही  गयी। उसपे सभी की हर समय नज़र रहती।...मानो वो नज़र क़ैद में हो!
अब उसने अपने में बसनेवाली उस नटखट लडकी को दबाके रखनेकी कोशिश शुरू कर दी! उसे पता था जीवन क्षणभंगुर होता है! फिर ये परिवार के लोग खुश रहने के बदले मूह लटकाए क्यों घुमते हैं? वो निरागस लडकी समझ नहीं पाती।....

पता नहीं कब उसके अन्दर बसनेवाली वो छुटकी निद्रिस्त हो गयी। अब वो यौवना  माता बन गयी। बच्चे बड़े होते गए वैसे,वैसे वो भी उम्र में बड़ी होती गयी। अबतक तो  उसके भीतर की वो छुटकी कोमा में ही चली गयी। अंतमे मरही गयी।..आज भी वो सड़ी हुई एक लाश अपने कंधों  पे लेके घूमती रहती है! उस लडकी को जो अब औरत बन चुकी थी अपने घरवालों की तरह 'बड़ा' बनना आयाही नहीं। थक चुकी थी  वो! उसने तो सिर्फ एक साथी की चाह की थी। हंसमुख।..रूठे तो झटसे मान जानेवाला! उसे पैसों की लालच नहीं थी। अपने साथी के साथ वो मीलों गर्मी और बरसात में पैदल चलती रही होती।...उसे कब महंगी गाड़ियों की चाहत थी? शायद ऐसा भोलापन उसका पागलपन था! वो अपने सहचर को केवल हंसमुख देखना चाहती थी।...उसका दुःख बाँट लेना चाहती थी।...उसे क्या पता था की खुशी बाज़ार में नहीं मिलती! उसके साथी से अपने आपको उससे इतना दूर कर लिया के उसके हाथ उसतक पहुँच ही नहीं पाए।...वो उसका हाथ कभी पकड़ नहीं पाई।.
उसकी दर्द भरी  आह आसपास के शोर में  किसी ने सूनी  ही नहीं! .

अब बचे हैं कुछ निश्वास......दिल की केवल उसे ही सुनायी देने वाली धड़कन और कृष्णपक्ष की काली रातें......और हाँ।....उसके कंधे परकी उस मृत बालिका की लाश!

 

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

हाय रे ये नेट!

एक बड़ा अजीबो गरीब किस्सा लेके आपके सामने आ रही हूँ. अंजली  का. स्वयं  खुद बड़े डिप्रेशन से गुज़र रही हूँ और अंजली भी. इसीलिये शायद उसे समझ पा रही हूँ.

करामात की है नेट ने......अंजली की उम्र है ४५ साल की दो बेटे हैं. दोनों पढ़ते हैं. पति  अपने काम में हमेशा व्यस्त रहते हैं. अंजली  सुन्दर है. नौकरी करती थी लेकिन पति ने छुडवा दी. वो घर में अकेली हो  गयी और उसे इन्टरनेट पे गपशप करने की लत लग गयी. उसने अपनी तस्वीर भी १० साल पहले की लगा दी थी. .  एक ३० साल के लड़के के साथ मजाक ही मजाक में नजदीकियां बढ़ गयीं. उन दोनोने एक बार मिलने का फैसला किया. बात चुम्बन लेने तक बढ़ गयी. लड़का तो केवल दो पल की मौज लूटना चाहता था लेकिन अंजली को उससे प्यार हो गया. अंजली रोज़ उसे फोन करती है. वो कभी कबार ही फोन उठता है. अंजली को उससे मिले डेढ़ साल के ऊपर हो गया. वो मिन्नतें करती रहती है और वो किसी न किसी बहाने मना  कर देता है. हो सकता है उसकी और भी लड़कियां दोस्त हों.अब अंजली बेहद उदास रहने लगी है. इस उदासी से उसे कैसे निकला जाये समझ में नहीं आता. लड़का तो कालको शादी कर लेगा तब तो उससे मिलना भी गलत होगा. किसी सलाहकार के पास भी जाना नहीं चाहती और नाही पति को बताये बिना जा सकती है..समझमे नहीं आता उसकी कैसे मदद करूँ! हाय रे ये नेट!

अंत में सभी दोस्तों से माफी चाहती हूँ की ख़राब तबियत के कारन न ब्लॉग पढ़ पा रही हूँ न टिप्पणी दे पा रही हूँ!

गुरुवार, 29 मार्च 2012

रिश्ते निभाऊं कैसे?

अजित गुप्ता जी का आलेख पढ़ा....रिश्तों में एक खुशबू होती है...उसे पढने के पहले ही मेरे मनमे सवाल था....मेरे घरके रिश्तों को किसकी नज़र लगी हुई है? जब पारिवारिक रिश्तों को देखती हूँ तो अपने आप को हरा हुआ महसूस करती हूँ. मेरे ब्याह के बाद आजतक रिश्तों को संजोये रखने में मेरी उम्र बीत गयी लेकिन घरमे शांती नसीब नहीं हुई. असर ये हो गया है की   बिलकुल खामोश हो गयी हूँ...गुमसुम.

पिछले पंद्रह दिन पूर्व हुए एक वाकये से मुझे लिखने का मन किया. बहुत सोचा....लिखूं या न लिखूं? जब मुझे बेटी हुई तब मेरे ससुराल वाले नाराज़ हुए क्योंकि उन्हें बेटा चाहिए था. मुझे हर समय अपनी बेटी को लेके चिंता लगी रहती. उसकी ज़रूरतें  छुप के पूरी करती रही. बाप बेटी में हरदम तनाव रहता. शादी होने तक तो बेटी बाप से ज़बान नहीं लड़ाती थी लेकिन शादी के बाद उसका मिज़ाज बहुत गुस्सैल हो गया. अब जब कभी आती है तो मुझे बेहद तनाव महसूस होता है. और उस दिन तो हद हो गयी....वो अपने काम से भारत आयी हुई थी/है...बाप बेटी में ऐसा झगडा हुआ की बाप  ने बिटिया को घरसे निकल जाने को कह दिया...मुझे कुछ ही दिन पहले दिलका दौरा  पडा  था....उन दोनोका झगडा सुन मेरा दिल दहल गया! उस झगडे को किसी तरह निबटाया तो चार रोज़ पहले भाई बहन में ऐसा झगडा हुआ की मेरे बेटे ने गुस्से में  आके बहन का सामान घरके बहार फेंकना शुरू कर दिया!बिटिया ने भी  अपने भाई को कटु अलफ़ाज़ कहने में कोई कमी नहीं छोडी थी. वैसे ताउम्र कोशिश करने के बावजूद दोनों में आपसी प्यार नहीं था....लेकिन इस हदतक बिटिया के मन में ज़हर होगा मुझे कल्पना नहीं थी. बिटिया ने फोन करके अपने पति को हमारे घर आने से मना  कर दिया.

अपने पति तथा सास का गुस्सैल मिज़ाज तो  सारी उम्र बर्दाश्त करती रही....सिरदर्द और डिप्रेशन शिकार तो बरसों से हूँ....अब तो मेरे मनमे हर समय आत्महत्या करने का विचार रहने लगा है....जानती हूँ,आप सब कहेंगे ये कायरता है,लेकिन बर्दाश्त की भी एक हद होती है....दिलके दौरे के कारन डिप्रेशन की दवाई भी नहीं ले सकती....नाही  सर दर्द की..ज़िंदगी में बिटिया ने मेरा साथ भी बहुत निभाया है,लेकिन मेरे साथ भी बहुत बदतमीज़ हो गयी है....उसके आगे भी खामोश रहती हूँ.....आप सभी से पूछती हूँ,इस दौर से बाहर  निकलूं तो कैसे? रिश्ते निभाऊं  कैसे?

रविवार, 18 मार्च 2012

झूठ बोले तो...!

ख़राब सेहत के कारन पुराना किस्सा पोस्ट कर रही हूँ! क्षमा करें!


इस क़िस्सेको बरसों बाद मैंने अपनी दादी को बताया तो वो एक ओर शर्मा, शर्मा के लाल हुई, दूसरी ओर हँसतीं गयीं....इतना कि आँखों से पानी बहने लगा...

मेरी उम्र कुछ रही होगी ४ सालकी। मेरा नैहर गांवमे था/है । बिजली तो होती नही। गर्मियों मे मुझे अपनी दादी या अपनी माँ के पलंग के नीचे लेटना बड़ा अच्छा लगता। मै पहले फर्शको गीले कपडेसे पोंछ लेती और फ़िर उसपे लेट जाती....साथ कभी चित्रोंकी किताब होती या स्लेट । स्लेट पे पेंसिलसे चित्र बनाती मिटाती रहती।

ऐसीही एक दोपहर याद है.....मै दादीके पलंग के नीचे दुबकी हुई थी....कुछ देर बाद माँ और दादी पलंग पे बैठ बतियाने लगी....उसमेसे कुछ अल्फाज़ मेरे कानपे पड़े...बातें हो रही थी किसी अनब्याही लड़कीके बारेमे....उसे शादीसे पहले बच्चा होनेवाला था...उन दोनों की बातों परसे मुझे ये एहसास तो हुआ,कि, ऐसा होना ठीक नही। खैर!

मेरी माँ , खेतपरकी कई औरतोंकी ज़चगी के लिए दौड़ पड़ती। हमारे घरसे ज़रा हटके दादा ने खेतपे काम करनेवालोंके लिए मकान बनवा रखे थे। वहाँसे कोई महिला माँ को बुलाने आती और माँ तुंरत पानी खौलातीं, एक चाकू, एक क़ैचीभी उबालके साथ रख लेती...साथमे २/४ साफ़ सुथरे कपडेके टुकड़े होते....फिर कुछ देरमे पता चलता..."उस औरत" को या तो लड़का हुआ या लडकी....

एक दिन मै अपने बिस्तरपे ऐसेही लोट मटोल कर रही थी...माँ मेरी अलमारीमे इस्त्री किए हुए कपड़े लगा रही थीं....
मुझे उस दोपेहेरवाली बात याद आ गयी..और मै पूछ बैठी," शादीके पहले बच्चा कैसे होता होता है?"
माँ की ओर देखा तो वो काफ़ी हैरान लगीं...मुझे लगा, शायद इन्हें नही पता होगा...ऐसा होना ठीक नही, ये तो उन दोनोकी बातों परसे मै जानही गयी थी...

मैंने सोचा, क्यों न माँ का काम आसन कर दिया जाय..मै बोली," कुछ बुरी बात करतें हैं तो ऐसा होता है?"
" हाँ, हाँ...ठीक कहा तुमने..." माँ ने झटसे कहा और उनका चेहरा कुछ आश्वस्त हुआ।
अब मेरे मनमे आया, ऐसी कौनसी बुरी बात होगी जो बच्चा पैदा हो जाता है.....?
फिर एकबार उनसे मुखातिब हो गयी," अम्मा...कौनसी बुरी बात?"

अब फ़िर एकबार वो कपड़े रखते,रखते रुक गयीं...मेरी तरफ़ बड़े गौरसे देखा....फ़िर एक बार मुझे लगा, शायद येभी इन्हें ना पता हो...मेरे लिए झूट बोलना सबसे अधिक बुरा कहलाया जाता था...
तो मैंने कहा," क्या झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है"?
"हाँ...झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है...अब ज़रा बकबक बंद करो..मुझे अपना काम करने दो.."माँ बोलीं...

वैसे मेरी समझमे नही आया कि , वो सिर्फ़ कपड़े रख रही थीं, कोई पढ़ाई तो कर नही रही थी...तो मेरी बातसे उनका कौनसा काम रुक रहा था? खैर, मै वहाँसे उठ कहीँ और मटरगश्ती करने चली गयी।

इस घटनाके कुछ ही दिनों बादकी बात है...रातमे अपने बिस्तरमे माँ मुझे सुला रहीं थीं....और मेरे पेटमे दर्द होने लगा...हाँ! एक और बात मैं सुना करती...... जब कोई महिला, बस्तीपरसे किसीके ज़चगीकी खबर लाती...वो हमेशा कहती,"...फलाँ, फलाँ के पेटमे दर्द होने लगा है..."
और उसके बाद माँ कुछ दौड़भाग करतीं...और बच्चा दुनियामे हाज़िर !

अब जब मेरा पेट दुखने लगा तो मै परेशाँ हो उठी...मैंने बोला हुआ एक झूट मुझे याद आया...एक दिन पहले मैंने और खेतपरकी एक लड़कीने इमली खाई थी। माँ जब खाना खानेको कहने लगीं, तो दांत खट्टे होनेके कारण मै चबा नही पा रही थी...
माँ ने पूछा," क्यों ,इमली खाई थी ना?"
मैंने पता नही क्यों झूट बोल दिया," नही...नही खाई थी..."
"सच कह रही है? नही खाई? तो फ़िर चबानेमे मुश्किल क्यों हो रही है?" माँ का एक और सवाल...
"भूक नही है...मुझे खाना नही खाना...", मैंने कहना शुरू किया....

इतनेमे दादा वहाँ पोहोंचे...उन्हें लगा शायद माँ ज़बरदस्ती कर रही हैं..उन्होंने टोक दिया," ज़बरदस्ती मत करो...भूक ना हो तो मत खिलाओ..वरना उसका पेट गड़बड़ हो जायेगा"....मै बच गयी।
वैसे मेरे दादा बेहद शिस्त प्रीय व्यक्ती थे। खाना पसंद नही इसलिए नही खाना, ये बात कभी नही चलती..जो बना है वोही खाना होता...लेकिन गर भूक नही है,तो ज़बरदस्ती नही...येभी नियम था...

अब वो सारी बातें मेरे सामने घूम गयीं...मैंने झूट बोला था...और अब मेरा पेटभी दुःख रहा था...मुझे अब बच्चा होगा...मेरी पोल खुल जायेगी...मैंने इमली खाके झूट बोला, ये सारी दुनियाको पता चलेगा....अब मै क्या करुँ?
कुछ देर मुझे थपक, अम्मा, वहाँसे उठ गयीं...

मै धीरेसे उठी और पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चा हुआ तो मै इसे पानीसे बहा दूँगी...किसी को पता नही चलेगा...
लेकिन दर्द ज्यूँ के त्यूँ....एक ४ सालका बच्चा कितनी देर बैठ सकता है....मै फ़िर अपने बिस्तरमे आके लेट गयी....
कुछ देर बाद फ़िर वही किया...पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चे का नामोनिशान नहीं...

अबके जब बिस्तरमे लेटी तो अपने ऊपर रज़ाई ओढ़ ली...सोचा, गर बच्चा हो गया नीन्दमे, तो रज़ाई के भीतर किसीको दिखेगा नही...मै चुपचाप इसका फैसला कर दूँगी...लेकिन उस रात जितनी मैंने ईश्वरसे दुआएँ माँगी, शायद ज़िन्दगीमे कभी नही..
"बस इतनी बार मुझे माफ़ कर दे...फिर कभी झूठ   नही बोलूँगी....मै इस बच्चे का क्या करूँगी? सब लोग मुझपे कितना हँसेंगे? ".....जब, जब आँख खुलती, मै ऊपरवालेके आगे गुहार लगाती और रज़ाई टटोल लेती...

खैर, सुबह मैंने फ़िर एकबार रज़ायीमे हाथ डाला और टटोला...... कुछ नही था..पेट दर्द भी नही था...ऊपरवालेने मेरी सुन ली...!!!!

रविवार, 4 मार्च 2012

बचपन

कभी अपना बचपन याद आता है तो कभी बच्चों का! याद आ रहा एक वाकया जब हम औरंगाबाद में थे. मेरा बेटा दो साल का था और  अंगूठा चूसा करता था. मुझे सब परिवारवाले कहा करते,की,किसी तरह इसकी आदत छुडाओ. मै सब कथकंडे अपना चुकी थी लेकिन बेअसर!

एक दिन बिस्तर पे बैठे बैठे मैंने सोचा बेटे से कुछ कहूँ....कहा'" बेटे,देखो तुम्हारी माँ अंगूठा नही चूसती.....तुम्हारी नानी,नाना दादा, दादी कोई नहीं चूसता.."मैंने लम्बी चौड़ी फेहरिस्त उसके आगे रख दी. उसने मेरे गोदी में अपना सर रखते हुए,मूँह  से अंगूठा निकाला...मै खुश! कुछ असर हुआ शायद! तभी वो तुतलाते हुए बोल पड़ा," उन छबको बोलो चूसने को," और अंगूठा वापस मूह में! मै खामोश!

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

दिलका दौरा

दिलके दौरे के बाद घर आ गयी थी. आज पहली बार डॉक्टर से मिलने गयी. बातों बातों में पता चला की,मुझे ताउम्र अब चंद दवाइयाँ लेनी होंगी और चंद दवाइयाँ ताउम्र ले नही सकती. दोनों बातों से परेशान हूँ.सरदर्द की ( migraine )की पुरानी मरीज़ हूँ.मर्ज़ इस क़दर है  की मुझे morphene  तक लेनी पड़ती थी तब जाके दर्द से निजात मिलती! अब डिस्पिरिन से काम कैसे चल सकता है?दिल के दौरे का कारन इन्हीं दवाईयों को ठहराया जा रहा है!एक ओर कुआ दूसरी ओर खाई! अस्पताल से लौटी तब सरदर्द इतना था की दर्द की दवाई चोरी छुपे खाही ली! भविष्य में भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा और कैसे वो कह नही सकती! क्या करूँ क्या न करूँ?

जो दवाई ताउम्र लेनी पड़ेगी वो है एस्पिरिन! जिसे blood  thinner  के तौरपे इस्तेमाल किया जाता है. जिसका मतलब होता है मुझे सुई चुभने से या रसोई में उँगली कट जाने से भी बचाना होगा वरना खून बहने लगा तो रुकेगा नहीं!

मेरे मर्ज़ के बारेमे जान के माँ तो बहुत परेशान हैं. खराब तबियत के बावजूद मुझसे मिलने आ रही हैं.
शायद ये सब सहने की बातें हैं,कहने की नही,लेकिन ब्लॉगर दोस्तों से साझा किये  बिना रह भी नही सकती! अब की होली जीवन का ये रंग भी दिखा रही है!


गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

दिलका दौरा 3

खैर! उस रात बहन मेरे साथ रुक गयी. दूसरे दिन सुबह्से फिर एकबार टेस्ट शुरू हो गए. जैसे,जैसे टेस्ट होते जा रहे थे,मुझे doctors के  चेहरे गंभीर होते नज़र आ रहे थे. फिर बहन तथा बेटेसे बताया गया की अब तुरंत ICU  में शिफ्ट करना है. OT  तैयार रखा  जाये.अब मेरे पति जो शहर में नहीं थे,उन्हें तुरंत बुला लिया गया!

क्रमश:( इसके लिए माफी चाहती हूँ!)

Angiography  की तैय्यारी कर ली गयी. पति के पहुँचने का किसी ने इंतेज़ार नहीं किया. खैर! मैंने अपनी मानसिक तैय्यारी कर ली . जो होना है होगा! मुझे OT  में ले गए! Angiography होती रही. स्क्रीन पे देख देख के doctors आपस में बतियाते रहे.यहाँ clot  है,वहाँ clot  है....मुझे सुनायी दे रहा था. Procedure पूरा हो गया. फिलहाल doctors  को किसी बड़े ऑपरेशन की ज़रुरत नहीं महसूस हुई. हाँ! ये ज़रूर बताया गया की,ये पहला दौरा नहीं था!
मै वापस ICU  में आ गयी. ICU  में रहते दो बार ऐसा हुआ की मुझे किसी कारण monitors  परसे हटाया गया और वापस connect  करनेका किसी को होश नहीं!

अब वेंस न मिलना आदि आदि का सिलसिला शुरू हो गया! दूसरे दिन मै नॉरमल रूम में पहुँच गयी. लेकिन लगातार मोनिटरिंग जारी थी. मेरी डॉक्टर तो वाकई एक फ़रिश्ता थी. लेकिन जितनी नर्म कोमल उतनीही सख्त भी. मैंने बरसों ली हुई  migraine  की दवाइयों के बदौलत ये दौरा पड़ा था. बड़ी निर्ममतासे मेरी सारी दवाईयाँ बंद कर दी गयीं. आज १२ दिन हो रहे हैं मुझे सोये हुए!!

घर आके भी नींद नदारत है!


मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

दिलका दौरा 2

बेटे ने ambulance  बुला ली. १० मिनट में ambulance  हाज़िर हो गयी. उसके साथ आये doctors  ने मेरा खून आदि  चेक किया और ambulance  में तुरंत डाल के अस्पताल की तरफ रवाना हो गए.

क्रमश:

( क्रमश: इसलिए की इस समय भी थकान के कारण मुझसे अधिक लिखा नही जा रहा. अब आगे.....)



अस्पताल पहुँचने से पूर्व  बेटे ने मेरी एक डॉक्टर सहेली फोन लगाया. वो अंडमान में छुट्टीयाँ मना रही थी. उसे खबर मिलतेही उसने अस्पताल की cardiologist  को फोन मिलाया. वो महिला डॉक्टर घर लौट रही थीं.उन्हों ने तुरंत गाडी घुमाई और मेरे पहुँचने के पहले अस्पताल में पहुँच गयीं.

आपातकालीन विभाग में पहुंचतेही तरह तरह के टेस्ट शुरू हो गए. मुझे एक injection  दिया गया. मूह में दवाइयाँ डाल दी गयीं. अब खून लेना था नसमे से. मेरी नसे मिलना एक महत्प्रयास है. कुछ १२ लोगों ने कोशिश की तब जाके एक नस मिली. खून खींचा गया....वहीं IV  लगा दी गयी. ECG  लिया जा रहा था. पहले ECG  में पता चला की ये दौरा पहला नहीं था. इसके पहले पड़ चुका था.उस कारन जो damages  हो गए थे उन्हें पूर्ववत करना मुमकिन नहीं था. ये सब बातें मेरे बेटे तथा बहन को बताईं जा रही थी. एक रात के लिए तो उन्हों ने मुझे रूम में रखने की सोची,जबकि मैने घर जाने की रट लगाई हुई  थी.

खैर! उस रात बहन मेरे साथ रुक गयी. दूसरे दिन सुबह्से फिर एकबार टेस्ट शुरू हो गए. जैसे,जैसे टेस्ट होते जा रहे थे,मुझे doctors के  चेहरे गंभीर होते नज़र आ रहे थे. फिर बहन तथा बेटेसे बताया गया की अब तुरंत ICU  में शिफ्ट करना है. OT  तैयार रखा  जाये.अब मेरे पति जो शहर में नहीं थे,उन्हें तुरंत बुला लिया गया!

क्रमश:( इसके लिए माफी चाहती हूँ!)

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

दिलका दौरा 1

1३ फरवरी,सोमवार का दिन. मुझे चंद  रोज़ हुए बहुत थकान महसूस हो रही थी,लेकिन उस दिन तो कुछ हद से  ज्यादा ही थी. मुझे डेंटिस्ट के पास जाना था शाम को. अगले दिन,मै और मेरी बहन माँ के पास जानेवाले थे. मैंने अपना बैग  पैक करके रखा किसी तरहसे. बार बार लेट जाने का मन होता था मेरा.

शाम ७ बजे एक ड्राईवर को बुला रखा था जो मुझे डेंटिस्ट के पास ले गया. डेंटिस्ट ने अपना काम शुरू किया पर अचानक से मुझसे पूछा," आपकी तबियत तो ठीक है ना?"
"नहीं....ठीक नहीं है...."मैंने बमुश्किल जवाब दिया.
"क्या महसूस हो रहा है?" डॉक्टर ने पूछा.
"मै पसीने से तरबतर हो गयी हूँ. सीने में दर्द और बेहद बेचैनी है.....आप treatment  रोक दें...."मैंने बड़ी मुश्किल से कहा.
डॉक्टर ने तुरंत मेरा BP  चेक किया. पड़ोस से एक अन्य डॉक्टर को बुला लाये.उसे बताते हुए कहा," इनका BP  तो बहुत लो है......६०/५०..."
"आप के ड्राईवर को बुला के आप घर चली जाएँ तुरंत," doc  ने मुझे कहा. लेकिन कुर्सी परसे उठने जैसी मेरी हालत न थी. उसने मेरे ड्राईवर को बुला लिया. ड्राईवर घर जाके मेरी बहन को ले आया. बहन डर गयी. उसने मेरे बेटे को तुरंत फोन किया और बुला लिया. बेटे ने ambulance  बुला ली. १० मिनट में ambulance  हाज़िर हो गयी. उसके साथ आये doctors  ने मेरा खून आदि  चेक किया और ambulance  में तुरंत डाल के अस्पताल की तरफ रवाना हो गए.

क्रमश:

( क्रमश: इसलिए की इस समय भी थकान के कारण मुझसे अधिक लिखा नही जा रहा.)




बुधवार, 18 जनवरी 2012

मेरी लाडली!

याद आ रही है वो संध्या ,जब तेरे पिताने उस शाम गोल्फ से लौटके मुझसे कहा,"मानवी जनवरी के९ तारीख को न्यू जर्सी मे राघव के साथ ब्याह कर ले रही है। उसका फ़ोन आया, जब मै गोल्फ खेल रहा था।"
मै पागलों की भाँती इनकी शक्ल देखती रह गयी! और फिर इनका चेहरा सामने होकरभी गायब-सा हो गया....मन झूलेकी तरह आगे-पीछे हिंदोले लेने लगा। कानोंमे शब्द गूँजे,"मै माँ को लेके कहाँ जानेवाली हूँ?"
तू दो सालकीभी नही थी तब लेकिन जब भी तुझे अंदेसा होता था की मै कहीं बाहर जानेकी तैय्यारीमे हूँ, तब तेरा यही सवाल होता था! तूने  कभी नही पूछा," माँ, तुम मुझे लेके कहाँ जानेवाली हो?" माँ तुझे साथ लिए बिना ना चली जाय, इस बातको कहनेका ये तेरा तरीका हुआ करता था! कहीं तू पीछे ना छोडी जाय, इस डरको शब्दांकित तू हरवक्त ऐसेही किया करती।
सन २००३, नवम्बर  की वो शाम । अपनी लाडली की शादीमे जानेकी अपनी कोईभी संभावना नही है, ये मेरे मनमे अचनाकसे उजागर हुआ। "बाबुल की दुआएं लेती जा..." इस गीतकी पार्श्व भूमीपे तेरी बिदाई मै करनेवाली थी। मुझे मालूम था, तू नही रोयेगी, लेकिन मै अपनी माँ के गले लग खूब रो लेनेवाली थी.....
मुझे याद नही, दो घंटे बीते या तीन, पर एकदमसे मै फूट-फूटके रोने लगी। फिर किसी धुंद मे समाके दिन बीतने लगे। किसी चीज़ मे मुझे दिलचस्पी नही रही। यंत्र की भाँती मै अपनी दिनचर्या निभाती। ८ जनवरी के मध्यरात्री मे मेरी आँख बिना किसी आवाज़ के खुल गयी। घडीपे नज़र पडी और मेरे दोनों हाथ आशीष के लिए उठ गए। शायद इसी पल तेरा ब्याह हो रहा हो!!आँखों मे अश्रुओने भीड़ कर दी.......

तेरे जन्मसेही तेरी भावी ज़िंदगीके बारेमे कितने ख्वाब सँजोए थे मैंने!!कितनी मुश्किलों के बाद तू मुझे हासिल हुई थी,मेरी लाडली! मै इसे नृत्य-गायन ज़रूर सिखाऊँगी, हमेशा सोचा करती। ये मेरी अतृप्त इच्छा थी! तू अपने पैरोंपे खडी रहेगीही रहेगी। जिस क्षेत्र मे तू चाहेगी , उसी का चयन तुझे करने दूँगी। मेरी ससुरालमे ऐसा चलन नही था। बंदिशें थी, पर मै तेरे साथ जमके खडी रहनेवाली थी। मानसिक और आर्थिक स्वतन्त्रता ये दोनों जीवन के अंग मुझे बेहद ज़रूरी लगते थे, लगते हैं।

छोटे, छोटे बोल बोलते-सुनते, न जाने कब हम दोनोंके बीच एक संवाद शुरू हो गया। याद है मुझे, जब मैंने नौकरी शुरू की तो, मेरी पीछे तू मेरी कोई साडी अपने सीनेसे चिपकाए घरमे घूमती तथा मेरी घरमे पैर रखतेही उसे फेंक देती!!तेरी प्यारी मासी जो उस समय मुंबई मे पढ़ती थी, वो तेरे साथ होती,फिरभी, मेरी साडी तुझसे चिपकी रहती!
तू जब भी बीमार पड़ती मेरी नींदे उड़ जाती। पल-पल मुझे डर लगता कि कहीँ तुझे किसीकी नज़र न लग जाए...

तू दो सालकी भी नही हुई थी के तेरे छोटे भी का दुनियामे आगमन हुआ। याद है तुझे, हम दोनोंके बीछ रोज़ कुछ न कुछ मज़ेकी बात हुआ करती? तू ३ सालकी हुई और तेरी स्कूल शुरू हुई। मुम्बई की नर्सरीमे एक वर्ष बिताया तूने। तेरे पिताके एक के बाद एक तबादलों का सिलसिला जारीही रहा। बदलते शहरों के साथ पाठशालाएँ बदलती रही। अपनी उम्रसे बोहोत संजीदा, तेज़ दिमाग और बातूनी बच्ची थी तू। कालांतर से , मुझे ख़ुद पता नही चला,कब, तू शांत और एकान्तप्रिय होती चली गयी। बेहद सयानी बन गई। मुझे समझाही नही या समझमे आता गया पर मै अपने हालत की वजहसे कुछ कर न सकी। आज मुझे इस बातका बेहद अफ़सोस है। क्या तू, मेरी लाडली, अल्हड़तासे अपना बचपन, अपनी जवानी जी पायी?? नही न??मेरी बच्ची, मुझे इस बातका रह-रहके खेद होता है। मै तेरे वो दिन कैसे लौटाऊ ??मेरी अपनी ज़िंदगी तारपरकी कसरत थी। उसे निभानेमे तेरी मुझे पलपल मदद हुई। मैही नादान, जो ना समझी। बिटिया, मुझे अब तो बता, क्या इसी कारन तुझे एकाकी, असुरक्षित महसूस होता रहा??
जबसे मै कमाने लगी, चाहे वो पाक कलाके वर्ग हों, चाहे अपनी कला हो या जोभी ज़रिया रहा,मिला, मैंने तिनका, तिनका जोड़ बचत की। तुम बच्चों की भावी ज़िंदगी के लिए, तुम्हारी पढ़ाई के लिए, किसी तरह तुम्हारी आनेवाली ज़िंदगी आर्थिक तौरसे सुरक्षित हो इसलिए। ज़रूरी पढ़ाई की संधी हाथसे निकल न जाय इसकारण । तुम्हारा भविष्य बनानेकी अथक कोशिशमे मैंने तुम्हारे, ख़ास कर तेरे, वर्तमान को दुर्लक्षित तो नही किया?
ज़िंदगी के इस मोड़ से मुडके देखती हूँ तो अपराध बोधसे अस्वस्थ हो जाती हूँ। क्या यहीँ मेरी गलती हुई? क्या तू मुझे माफ़ कर सकेगी? पलकोंमे मेरी बूँदें भर आती हैं, जब मुझे तेरा वो नन्हा-सा चेहरा याद आता है। वो मासूमियत, जो संजीदगीमे न जानूँ कब तबदील हो गयी....!
अपने तनहा लम्होंमे जब तू याद आती है, तो दिल करता है, अभी उसी वक्त काश तुझे अपनी बाहोँ मे लेके अपने दिलकी भडास निकाल दूँ!!निकाल सकूँ!!मेरी बाहें, मेरा आँचल इतना लंबा कहाँ, जो सात समंदर पार पहुँच  पाये??ना मेरी सेहत ऐसी के तेरे पास उड़के चली आयूँ!!नाही आर्थिक हालात!!अंधेरी रातोंमे अपना सिरहाना भिगोती हूँ। जब सुबह होती है, तो घरमे झाँकती किरनों मे मुझे उजाला नज़र नही आता....जहाँ तेरा मुखडा नही, वो घर मुझे मेरा नही लगता...गर तू स्वीकार करे तो अपनी दुनियाँ तुझपे वार दूँ मेरी लाडली!


गुरुवार, 12 जनवरी 2012

उसकी मौत का ज़िम्मेदार कौन?3अंतिम


पिछली किश्त में मैंने बताया की , तसनीम की दिमागी हालत बिगड़ती जा रही  थी...लेकिन उसकी गंभीरता मानो किसी को समझ में नही आ रही थी...

उसे फिर एकबार अपने पती के पास लौट जाने के लिया दबाव डाला जा रहा था..जब कि, पतिदेव ख़ुद नही चाहते थे कि,वो लौटे...हाँ..बेटा ज़रूर उन्हें वापस चाहिए था..!

हम लोग उन दिनों एक अन्य शहर में तबादले पे थे। दिन का समय था...मेरी तबियत ज़रा खराब थी...और मै , रसोई के काम से फ़ारिग हो, बिस्तर पे लेट गयी थी...तभी फोन बजा....लैंड लाइन..मैंने उठा लिया..दूसरी ओर से आवाज़ आयी,
" तसनीम चली गयी..." आवाज़ हमारे एक मित्र परिवार में से किसी महिला की थी...
मैंने कहा," ओह ! तो आख़िर अमेरिका लौट ही गयी..पता नही,आगे क्या होगा...!"

उधर से आवाज़ आयी," नही...अमेरिका नही..वो इस दुनियाँ से चली गयी और अपने साथ अपने बेटे को भी ले गयी...बेटी बच गयी...उसने अपने बेटे के साथ आत्महत्या कर ली..."
मै: ( अबतक अपने बिस्तर पे उठके बैठ गयी थी)" क्या? क्या कह रही हो? ये कैसे...कब हुआ? "

मेरी मती बधीर-सी हो रही थी...दिल से एक सिसकती चींख उठी...'नही...ये आत्महत्या नही..ये तो सरासर हत्या है..आत्महत्या के लिए मजबूर कर देना,ये हत्या ही तो है..'

खैर! मैंने अपने पती को इत्तेला दे दी...वे तुंरत मुंबई के लिए रवाना हो गए...
बातें साफ़ होने लगीं..तसनीम ने एक बार किसी को कहा था,' मेरी वजह से, मेरे भाई की ज़िंदगी में बेवजह तनाव पैदा हो रहे हैं..क्या करूँ? कैसे इन उलझनों को सुलझाऊँ? '

तसनीम समझ रही थी,कि, उसकी भाभी को वो तथा उसके बच्चों का वहाँ रहना बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था...उसके बच्चे भी, अपनी मामी से डरे डरे-से रहते थे..जब सारे रास्ते बंद हुए, तो उसने आत्म हत्या का रास्ता चुन लिया..पिता कैंसर के मरीज़ थे..माँ दिल की मरीज़ थी..तसनीम जानती थी,कि, इनके बाद उसका कोई नही..कोई नही जो,उसे समझ सकगा..सहारा दे सकेगा..और सिर्फ़ अकेले मर जाए तो बच्चे अनाथ हो,उनपे पता नही कितना मानसिक अत्याचार हो सकता है????

उसने अपने दोनों बच्चों के हाथ थामे,और १८ मंज़िल जहाँ , उसके माँ-पिता का घर था, छलांग लगा दी...दुर्भाग्य देखिये..बेटी किंचित बड़ी होने के कारण, उसके हाथ से छूट गयी..लेकिन उस बेटी ने क्या नज़ारा देखा ? जब नीचे झुकी तो? अपनी माँ और नन्हें भाई के खून से सने शरीर...! क्या वो बच्ची,ता-उम्र भुला पायेगी ये नज़ारा?

अब आगे क्या हुआ? तसनीम की माँ दिल की मरीज़ तो थी ही..लेकिन,जब पुलिस उनके घर तफ्तीश के लिए आयी तो इस महिला का बड़प्पन देखिये..उसने कहा," मेरी बेटी मानसिक तौर से पीड़ित थी..मेरी बहू या बेटे को कोई परेशान ना करना...."

इतना कहना भर था,और उसे दिलका दौरा पड़ गया..जिस स्ट्रेचर पे से बेटी की लाश ऊपर लाई गयी,उसी पे माँ को अस्पताल में भरती कराया गया..तीसरे दिन उस माँ ने दम तोड़ दिया...उसके आख़री उदगार, उसकी, मृत्यु पूर्व ज़बानी( dying declaration)मानी गयी..घर के किसी अन्य सदस्य पे कोई इल्ज़ाम नही लगा...!

इस बच्ची का क्या हुआ? यास्मीन के नाम पे उसके पिता ने अपनी एक जायदाद कर रखी थी..ये जायदाद, एक मशहूर पर्वतीय इलाकेमे थी...पिता ने इस गम के मौक़े पे भी ज़हीन संजीदगी दिखायी..उन्हीं के बिल्डिंग में रहने वाले मशहूर वकील को बुला, तुंरत उस जायदाद को एक ट्रस्ट में तब्दील कर दिया, ताकि,दामाद उस पे हक ज़माने ना पहुँच जाय..
और कितना सही किया उन्हों ने...! दामाद पहुँच ही गया..उस जायदाद के लिए..बेटी को तो एक नज़र भर देखने में उसे चाव नही था...हाँ..गर बेटा बचा होता तो उसे वो ज़रूर अपने साथ ले गया होता..

उस बेटी के पास अब कोई चारा नही था..उसे अपने मामा मामी के पासही रहना पड़ गया..घर तो वैसे उसके नाना का था...! लेकिन इस हादसे के बाद जल्द ही, तसनीम के भाई ने अपने पिता को मुंबई छोड़, एक पास ही के महानगर में दो मकान लेने के लिए मजबूर कर दिया..अब ना इस बच्ची को उनसे मिलने की इजाज़त मिलती..नाही उनके अपने बच्चे उनसे मिलने जाते..उनके मनमे तो पूरा ज़हर भर दिया गया..इस वृद्ध का मानसिक संतुलन ना बिगड़ता तो अजीब बात होती..जिसने एक साथ अपनी बेटी, नवासा और पत्नी को खोया....

इस बच्ची ने अपने सामने अपनी माँ और भाई को मरते देखा..और तीसरे दिन अपनी नानी को...! इस बात को बीस साल हो गए..उस बच्ची पे उसकी मामा मामी ने जो अत्याचार किए, उसकी चश्मदीद गवाह रही हूँ..इतनी संजीदा बच्ची थी..इस असुरक्षित मौहौल ने उसे विक्षप्त बना दिया..वो ख़ुद पर से विश्वास खो बैठी...कोई घड़ी ऐसी नही होती, जब वो अपनी मामी या मामा से झिड़की नही सुनते..ताने नही सुनती....अपने मामा के बच्चे..जो उसके हम उम्र थे...वो भी, इन तानों में, झिड़कियों में शामिल हो जाते...

ये भी कहूँ,कि, आजतलक,उस बच्ची के मुँह से किसी ने उस घटना के बारेमे बात करते सुना,ना, अपनी मामा मामी या उनके बच्चों के बारेमे कुछ सुना...जैसे उसने ये सारे दर्द,उसने अपने सीनेमे दफना दिए....

ट्रस्ट में इस बात का ज़िक्र था कि, जब वो लडकी, १८ साल की हो जाय,तो उस जायदाद को उसके हवाले कर दिया जाय..वो भी नही हुआ..

मामाकी,अलगसे कोई कमाई नही थी...अपने बाप की जायदाद बेच जो पैसा मिला, उसमे से उसने,अलग,अलग जायदाद,तथा share खरीदे...और वही उन सबका उदर निर्वाह बना..और खूब अच्छे-से...बेटा बाहर मुल्क में चला गया..तसनीम की माँ के बैंक लॉकर में जो गहने-सोना था, बहू ने बेच दिया...ससुर के घर में जो चांदी के बर्तन थे, धीरे,धीरे अपने घर लाती गयी...और परदेस की पर्यटन बाज़ी उसी में से चलती रही...

अब अगर मै कहूँ,कि, काश वो बद नसीब बच्ची नही बचती तो अच्छा होता,तो क्या ग़लत होगा? उसकी पढ़ाई तो हुई..क्योंकि,अन्यथा, मित्र गण क्या कहते? इस बात का डर तो मामा मामी को था..लेकिन पढाई के लिए पैसे तो उस बच्ची के नाना दे रहे थे! उस बच्ची को बारह वी के बाद सिंगापूर एयर लाइन की शिष्य वृत्ती मिली..उसे बताया ही नही गया..ये सोच कि,वहाँ न जाने क्या गुल खिलायेगी...! जो गुल उसने नही खिलाये, वो इनकी अपनी औलाद ने खिला दिए..इनकी अपनी बेटी ने क्या कुछ नही करतब दिखाए?

इन हालातों में तसनीम के पास आत्म हत्या के अलावा क्या पर्याय था? वो तो अपने भाई का घर बिखरने से बचाना चाह रही थी...! गर उसकी मानसिक हालत को लेके,उसके सगे सम्बन्धियों सही समय पे दक्षता दिखायी होती,तो ये सब नही होता...पर वो अपने पती के घर लौट जाय,यही सलाह उसे बार बार मिली...और अंत में उसने ईश्वर के घर जाना पसंद कर लिया...मजबूर होके!

उस बच्ची का अबतक तो ब्याह नही हुआ..आगे की कहानी क्या मोड़ लेगी नही पता..लेकिन इस कहानी को बयाँ किया..यही सोच,कि, क्यों एक औरत को हर हाल में समझौता कर लेने के लिए मजबूर किया जाता है? इस आत्महत्या को न मै कायरता समझती हूँ,ना गुनाह..हाँ,एक ज़ुल्म,एक हत्या ज़रूर समझती हूँ...ज़ुल्म उस बच्ची के प्रती भी...जिसने आज तलक अपना मुँह नही खोला..हर दर्द अंदरही अन्दर पी गयी...

सोमवार, 9 जनवरी 2012

उसकी मौत का ज़िम्मेदार कौन?२


हम रानी पद्मिनी को 'सती' मान के उसका गौरव करते हैं ! इतिहास उन 'हजारों पद्मिनिओं ' का गौरव करता है..लेकिन जब एक साधारण -सी औरत, दूसरों को कष्ट न पहुँचे, इसलिए अपने जीवन का अंत कर लेती है,तो उसे क्यों दोषी समझा जाता है? एक तो उसने अपने जीवन हाथ धो लिए, और उसीपे इल्ज़ाम? ऐसा क्यों?

तो आईये,आपको हालातों से वाबस्ता करा दूँ।

ये लडकी एक खुले विचारों वाले परिवार में पली बढ़ी। माँ एक दक्षिण भारतीय ब्रह्मिण परिवार से थी..पिता मुस्लिम।

भाई का ब्याह जिस लडकी से हुआ था, वो लडकी भी इसी तरह, दो भिन्न परिवेश से आए माता -पिता की कन्या थी/है। माँ अँगरेज़। पिता पाकिस्तानी मुस्लिम।

जिस महिला ने खुदकुशी की उसे हम तसनीम नाम से बुला लेते हैं। तसनीम का ब्याह एक इंजिनियर से हुआ जो, तसनीम के पिता की ही कंपनी में कार्यरत था। उसे तसनीम की पारिवारिक पार्श्व भूमी से अच्छे तरह वाबस्ता कराया गया। तसनीम के पिता की अच्छी जायदाद थी।

ब्याह के बाद लड़केने जिस भारतीय कंपनी में वो कार्यरत था( एक मशहूर टाटा कंपनी थी), वहाँ से नौकरी छोड़ दी और सउदी अरेबिया चला गया। कुछ माह वहाँ काम किया, और फिर अमेरिका चला आया। वहाँ उनकी एक बेटी का जनम हुआ। शादी के तुंरत बाद, तसनीम पे ये तोहमत लगना शुरू हो गयी,कि, वो तो 'सही मायनेमे' मुस्लिम हैही नही..माँ जो हिंदू परिवार से थी....!

तसनीम पे ज़बरदस्ती होने लगी,कि, वो दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़े। केवल साडी पहने तथा, घरसे बाहर निकलते समय एक मोटी चद्दर ओढ़ के निकले। उसने येभी करना शुरू किया, लेकिन ताने देना, मानसिक छल और साथ ही साथ शारीरिक छल जरी रहा।

तसनीम अपने पिता के घर आयी तब उसने ये बातें अपने परिवार को बता दी। उसे समझा बुझा के वापस भेज दिया गया..ऐसा होता है..ठीक हो जाएगा..अदि,अदि..उसकी भाभी,( सुलताना), जिसकी अपनी माँ अँगरेज़ थी, घबरा गयी,कि, कहीँ ननद भारत में ही रहने आ गयी,तो मेहमानों वाले कमरेमे वो रहेगी...जब उसके पीहर वाले आएँगे तो उन्हें कहाँ रुकाया जाएगा?

सुलताना का रवैय्या अपनी ननद के प्रती बेहद कटु हो गया। ये सब मै क़रीब से देख रही थी...बलिक,सुलताना ने ये तक कह दिया,कि , गर, तसनीम उस घर में रहेगी तो वो अपने माँ-बाप के घर चली जायेगी!

तसनीम की माँ बेहद समझदार, सुलझी हुई महिला थी। उसने एक बार भी अपनी बहू को उलाहना नही दी...विडम्बना देखिये..सुलताना जिस घरमे रह रही थी, वो घर उसके ससुर का। उसकी ननद का मायका..गर एक लडकी, मानसिक तथा शारीरिक परेशानी में अपने माँ बाप के पास नही आयेगी तो कहाँ जायेगी? और ख़ुद सुलताना ने भी तो वही करनेकी घरवालों को धमकी देदी...! अपने ख़ुद के माँ-बाप के घर चले जानेकी...! तसनीम ने यहाँ तक कहा,कि, उसे अगर, उसी शहर में, दूसरा, घर ले दिया जाय तो वो वहाँ चली जायेगी। नौकरी कर लेगी...

इन सब हालातों के चलते, तसनीम ने एक और बच्चे को जन्म दे दिया। अबके पुत्र था। उसे परिवार यहीँ पे रोकना था,लेकिन, पतिदेव राज़ी नही हुए ! तसनीम पे अत्याचार जारी रहे..वो ४ बार भारत लौटी, लेकिन चारों बार उसपे दबाव डाला गया,और वापस भेज दिया गया..वो जब भारत भी आती,तो, मुंबई की तपती, उमस भरी गरमी में एक मोटी चद्दर लेके बाहर निकलती।

आख़री बार जब वो आयी तो, बच्चों को मुंबई की एक स्कूल में दाखिला दिलाया गया। बेटा तो मानो एक फ़रिश्ता था..उसकी माँ जब उसे स्कूल से लेने आती तो उसे चूम के कहता," अम्मा तुम को मेरे लिए इतनी गरमी में आना पड़ता है,हैना? "

ये आँखों देखा क़िस्सा सुना रही हूँ। बच्चों के आगे खाने के लिए जो रखा जाता,चुपचाप खा लेते। लेकिन, भाभी को किसी भी तरह से ननद का उस घर में रहना बरदाश्त नही हो रहा था। तसनीम हर तरह से घरमे हाथ बटाती...अपने तथा अपने भाई के बच्चों को स्कूल से लाना ले जाना उसी के ज़िम्मे था। उसने ये तक कहा,कि, गर उसकी कहीँ और शादी कर सकते हैं,तो उसके लिए भी राज़ी हूँ...

इसपे भाभी ने कह दिया," दो बच्चों की माँ के साथ कौन ब्याह करेगा"?

तसनीम डिप्रेशन में जाती रही। उसने ये भी सुझाया कि, उसे किसी मनो  वैज्ञानिक के पास भेजा जाय तो ठीक रहेगा...लेकिन, ये सब, उस परिवार के बड़ों को ( माँ को तो था), मंज़ूर नही था। ख़ास कर, भाई भाभी को...लोग क्या कहेंगे? अलावा, पैसे खर्च होंगे...जबकि, पैसे तो तसनीम के पिता देते!

उसके बच्चों को कोई प्यार करता या तोह्फ़ा देता, पर साथ ही साथ, सुलताना के बच्चों को नही देता,तो घरमे कुहराम मच जाता..तसनीम इसी मे बेहतरी समझती, कि, तोह्फ़ा चुपचाप अपने भाई के बच्चों को पकड़ा दिया जाय..उसके अपने बच्चे इतने समझदार थे,कि, कभी चूँ तक नही करते...! तसनीम की मानसिक स्थिती की गंभीरता समझने को जैसे कोई तैयार ही ना था..

क्रमश:

अगली किश्त मे क़िस्सा पूरा कर दूँगी। विषय की गहराई मे गयी, ताकि, तसनीम को आत्म हत्या करने पे मजबूर करने वाले हालात सामने रख सकूँ..


शनिवार, 7 जनवरी 2012

उसकी मौत का ज़िम्मेदार कौन?

चंद वाक़यात लिखने जा रही हूँ...जो नारी जीवन के एक दुःख भरे पहलू से ताल्लुक़ रखते हैं....ख़ास कर पिछली पीढी के, भारतीय नारी जीवन से रु-ब-रु करा सकते हैं....

हमारे मुल्क में ये प्रथा तो हैही,कि, ब्याह के बाद लडकी अपने माता-पिता का घर छोड़ 'पति 'के घर या ससुराल में रहने जाती है...बचपन से उसपे संस्कार किए जाते हैं,कि, अब वही घर उसका है, उसकी अर्थी वहीँ से उठनी चाहिए..क्या 'वो घर 'उसका होता है? क़ानूनन हो भी, लेकिन भावनात्मक तौरसे, उसे ऐसा महसूस होता है? एक कोमल मानवी मन के पौधेको उसकी ज़मीन से उखाड़ किसी अन्य आँगन में लगाया जाता है...और अपेक्षा रहती है,लडकी के घर में आते ही, उसे अपने पीहर में मिले संस्कार या तौर तरीक़े भुला देने चाहियें..! ऐसा मुमकिन हो सकता है?

जो लिखने जा रही हूँ, वो असली घटना है..एक संभ्रांत परिवार में पली बढ़ी लडकी का दुखद अंत...उसे आत्महत्या करनी पडी... वो तो अपने दोनों बच्चों समेत मर जाना चाह रही थी..लेकिन एक बच्ची, जो ५ सालकी या उससे भी कुछ कम, हाथसे फिसल गयी..और जब इस महिलाने १८ वी मंज़िल से छलाँग लगा ली,तो ये 'बद नसीब' बच गयी... हाँ, उस बचने को मै, उस बच्ची का दुर्भाग्य कहूँगी....

जिस हालमे उसकी ज़िंदगी कटती रही...शायद उन हालत से पाठक भी वाबस्ता हों, तो यही कह सकते हैं..
ये सब, क्यों कैसे हुआ...अगली किश्त में..