मंगलवार, 17 जून 2014

अध्याय २ : बिखरे सितारे ७ : मझधार में













 अध्याय २ : बिखरे सितारे ७ :  मझधार में 





.(पूर्व  भाग :उस रात नींद में न जाने वो कितनी बार डरके रोते हुए उठी...लेकिन मासूम का प्यार देखो...सुबह अपने पितापे दृष्टी पड़तेही खिल उठी..पूजा की आँखों से   चुपचाप नीर बहा..हर गुज़रता दिन न जाने कितनी चुनौतियाँ भरा होता!
सास अक्सर मिलने जुलने वालों से कहती." अरी बड़ी चीवट जात है..पहले दो लड्कोंको  खा गयी..इसे जो पैदा होना था..कुलक्षनी है.."
इस मासूम जान की ज़िम्मेदारी अब केवल पूजाकी थी..बीमारी, दवा  दारू, हर चीज़ में अडंगा खड़ा हो जाता..इतनीसी बीमारी के लिए कोई डॉक्टर के जाता है?)

पूजा की बिटिया कुछ ९ माह की थी तबकी ये बात है. गौरव को किसी कामसे बंगलौर के बाहर जाना था. पूजाकी सास का मन हुआ बेटे के साथ जानेका. तो फिर पूजा और बिटिया का ( केतकी) जाना भी तय हो गया...वजह? गर उन्हें पीछे छोड़ा तो लोग क्या कहेंगे?

भरी गरमी का मौसम था...रास्तेमे बिटिया को पानी पिलाने के लिए पूजाने कई मिन्नतें की लेकिन ,सासू माँ  और गौरव का एकही उत्तर: " ये क्या बिना पानी के मर जायेगी?"
बच्ची केतकी को पता नही क्यों बोतल से चिढ थी. वो छोटी-सी लुटिया से ही पानी या अन्य पेय पीती थी. इस कारण गाडी का रोकना ज़रूरी था, लेकिन उसकी कौन सुनता?

तकरीबन ५ घंटों के सफ़र के बाद वो लोग किसी अन्य अफसर के   घर भोजन के लिए रुके. उनकी पत्नी डॉक्टर थी. पूजा का सर दर्द से बुरा हाल हो रहा था..उसे उल्टियाँ  भी हो रही थी. भोजन के तुरंत बाद आगे का सफ़र करने जैसी उसकी हालत नही थी. गौरव और सासू माँ, दोनों का मूड ख़राब हो गया...मित्र ने एक गेस्ट हाउस बुक करा दिया..पूजा ने कुछ देर के लिए बच्ची को सास के हवाले किया और सासुमा को दहलीज़ पे  ठोकर लगी...बच्ची जोर से ज़मीन पे जा गिरी...! ये हादसा तो किसी से भी हो सकता था..पूजा को कोई शिकायत नही थी...लेकिन कुछ देरमे बच्ची को भी उल्टियाँ शुरू हो गयीं..४/५ बार हो चुकी तो पूजा ने गौरव से किसी बाल रोग विशेषग्य  को  बुलाने की इल्तिजा की...फिर वही जवाब:" तुम इतनी-सी बात पे चिंतित हो जाती हो..सुबह तक अपने आप ठीक हो जायेगी.."

लेकिन रात ९ बजने तक बच्ची को तकरीबन १० बार उल्टी हो चुकी..पूजा की अपनी हालत ठीक न थी,वो बच्ची को किसी तरह संभाल रही थी..अंत में उसने गौरव को बिना बताये गौरव के मित्र की पत्नी को फोन किया तथा, स्थिती बतायी..उसने तुरंत डॉक्टर का इंतज़ाम किया.

जब डॉक्टर गेस्ट हाउस  पहुँचा तो गौरव को बेहद गुस्सा आया  ! उसे बिना कहे डॉक्टर बुलाने की पूजाकी हिम्मत कैसे हुई..? डॉक्टर ने बी केतकी की चिकित्चा करते हुए पूजा को कई सवाल पूछे,उनमे से एक था," क्या बच्ची कहीँ   गिरी थी?"
पूजा ने साधारण से ढंग से  बता दिया की,वो दोपहर में  गिरी थी.

डॉक्टर गेस्ट हाउस से निकला और सासू माँ ने दहाड़े मार के रोना शुरू कर दिया...! कहने लगी, " मै तो अब इस बच्ची को कभी गोद में नही लेने वाली..बहू का तो मुझपे विश्वास ही नही..मर मारा जाती तो मेरे सर इलज़ाम मढ़ा जाता.."
गौरव तथा अपनी सास से पूजा ने कई बार कहा,की, उसके मनमे ऐसा वैसा कुछ नही था...डॉक्टर ने पूछा तब उसने बताया...और ये की, ऐसे तो वो किसी के भी हाथ से गिर सकती थी..लेकिन नही...कोई नही माना..गौरव उन दोनों को छोड़ माँ के कमरेमे सोने चला गया..

सुबह तक पूजा नही संभल पाई... केतकी कुछ बेहतर थी..पूजाने लाख कहा: " आप दोनों निकल जाएँ...मै कल परसों बिटिया को लेके ट्रेन से बंगलौर लौट जाउँगी..."
लेकिन जनरीती की दुहाई देते हुए सब वापस लौट गए. पूजा और बिटिया से दोनों ने बात चीत करनी बंद कर दी...
इसके कुछ ही दिनों बाद एक ऐसी घटना घटी, जब केतकी मौत के मूह से लौट आयी...

क्रमश:

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

अध्याय २: १ छूट गया वो अँगना


( पिछली कड़ी: मेरा..मतलब पूजा तमन्ना का ब्याह गौरव के साथ हो गया....बेलगाम के छोटा से गाँव से निकाल मै लखनऊ पहुँच गयी...अभी  गुह प्रवेश  ही  हो  रहा  था ,की , कानों  में    अलफ़ाज़  पड़े ," ये  गौरव  भी  ना ! पता नही किसकी उतरन ले आया है...अब आगे पढ़ें...)

मै चौंक गयी... उस ओर देखा...फिर कनखियों से गौरव की तरफ देखा...समझ नही पायी कि , उसने सुना या नही...दिल जोरसे धड़कने लगा...पूजा-पाठ होता रहा..लोग मिलने आते रहे...ट्रेन से तभी आए थे...नहाने का आदेश मिला...ठण्ड थी काफ़ी...मैंने आदेश मान लिया... जो कपडे मिले,समेटे और  स्नान कक्ष में घुस गयी... गीले ही स्नानकक्ष में किसी तरह साड़ी  लपेट बाहर आयी...

दिनभर लोग आते रहे, और शाम जल्दी में तैयार हो स्वागत समारोह के लिए मुझे ले जाया गया...भीड़ उमड़ पडी थी..मेहमानों में विलक्षण उत्सुकता थी...मुझे देखने की..

रात जब  घर पहुँचे तो पड़ोस के घरके एक कमरेमे सोने का इंतज़ाम था...( ये बता दूँ,कि , इन सब बातों के चलते गौरव का तबादला बेलगामसे दिल्ली में हो गया था, उसी विभाग में जहाँ किशोर था..).
मैंने बात करने की कोशिश की...लेकिन गौरव ने तकरीबन मुझे धर दबोचा... धीरे, धीरे महसूस होने लगा कि , उसकी मानसिकता किशोर से अलग नही थी...

सुबह हमें लखनऊ से दिल्ली लौटना था...दिल्ली घरवाले भी साथ चले...दो ही कमरों का घर था..मै डरी-डरी-सी थी..अपने आपको बेहद अकेला महसूस कर रही थी...फिर एकबार लगा, ज़िंदगी कहाँ ले चली? अपना नैहर याद आ रहा था...और गौरव ने मुझे कह डाला," मेरी माँ तथा घरवालों का एहसान मानो कि , तुम्हें स्वीकार किया...वरना क्या करती तुम?"

सुनके मै दंग रह गयी...गौरव ऐसा तो नही लगा था...लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी...जो सच था वो सामने आ गया था...जीवन का एक नया और डरावना अध्याय शुरू हो रहा था...सब कुछ बर्दाश्त करने के अलावा चारा  नही था..यहाँ आँसूं पोछने वाला कोई नही था...समझमे आ गया ...झलक मिल गयी की, इन राहों में बेहद ख़तरा था...दर्द था...

क्रमश:

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

17 चली बनके दुल्हन


( पिछली कड़ी में मैंने लिखा था, अपने धरम संकट के बारेमे..मै धरम परिवर्तन ना करने के फैसले पे अडिग रही).

उस साल दिवाली आयी और चली गयी...मेरे लिए बिरह का तोहफा दे गयी...ऐसी सूनी, उदास दिवाली मुझे उसके पहले याद नही..
किशोर के अन्य दोस्त हमें मिलने चले आया करते..

एक दिन मै उन्हें असलियत बता बैठी ...बताते समय जारोज़ार रो पडी...उन ३/४ दोस्तों को यह सब सुनके बड़ी हैरत हुई..वो लोग खुद एक धरम संकट में पड़ गए...किशोर को मै 'वो', 'उन्हें' इसी तरह संबोधित करती थी..मैंने अपने विवाह के मसले को लेके अडिग रहने का फैसला सुना दिया, और उन सभी सह कर्मियों को इस फैसले पे नाज़ हुआ..

वो शाम इन्हीं बातों में बीत गयी...३/४ दिनों बाद एक सहकर्मी, गौरव, हमें मिलने चला आया, और उसने मेरी माँ और दादी के आगे एक प्रस्ताव रखा..वो मुझ से ब्याह करने को तैयार था...मै मनही मन डर गयी...मुझे तो यही वहम था की, मेरा कौमार्य भंग हुआ है, और मन 'उन्हें' भुलाने को तैयार नही था....ये बाते दिवाली के ४/५ माह बाद छिडीं..मै मानो एक बुत -सी बन गयी थी...दादी ने गौरव से कहा:
" पहले अपने परिवार से तो सलाह कर लो...कहीँ यहाँ भी इतहास दोहरा न जाय .."
गौरव:" मैंने पिछले ३/४ दिनों में उनसे सलाह मसलत कर ली है...उन्हें कोई परेशानी नही...लेकिन पूजा की राय बेहद ज़रूरी है, वो सदमेसे उभरी नही है..सबसे अहम बात उसके निर्णय की है...उसे समय दें...कही ये ना हो की, उसे पछताना पड़े.."

गौरव अधिक परिपक्व लगा सभीको..परिवार लखनऊ का था..इस दौरान मैंने अपना अंतिम फैसला सुना दिया...खतों द्वारा, और उम्मीद की एक टिमटिमाती लौ को बुझा दिया..प्यारका खुमार उतर रहा था, असलियत के धरा तलपे .....मेरी आँखों से पानी थमता नही था...अपने प्रीतम का पहला स्पर्श याद आता रहा...उस स्पर्शे पुलकित होना कैसे भूलती...वो चांदनी रात जब मै करवटें बदलती रही थी..और अगले रोज़ उनका इंतज़ार कर रही थी...याद आती रही...अपने प्यारका ये हश्र ऐसा होगा ये सोचाही नही था...

घरवालों पे मैंने निर्णय छोड़ दिया..मुझमे मानसिक शक्ती रही नही थी...कुछ भी सोचने की या निर्णय लेने की...१०/१२ दिनों बाद गौरव अपने माता पिता के साथ हमारे  घर आ पहुँचा...मुझे उनके आगे आने में बेहद झिजक महसूस हुई, लेकिन वातावरण बड़ा सहज बना रहा..

खैर !अंत में अगली दिवाली तक सोंच विचार करने समय मुझे मिल गया..गौरव ने मुझे  जल्द बाज़ी ना करने की सलाह दी..ये बात मुझे अच्छी लगी...सबकुछ करीब से जान के उसने निर्णय लिया था...मै शुक्र गुज़ार थी, लेकिन एक डर था, कहीँ ये निर्णय सहानुभूती से तो नही लिया गया? माँ तथा दादी अम्माने ये बात स्पष्ट रूपसे पूछी..
गौरव का जवाब: " मै भी पहली बार देखते ही प्यार कर बैठा था...लेकिन जब किशोर का पता चला तो उसे मुबारक बाद देदी...मन उदास ज़रूर हुआ...और उदास तो अब भी है,की, तमन्ना को इस सदमे से गुज़रना पड़ा.."

किशोर की यादें भुलाना आसान नही था...वो प्रथम प्यार था..लेकिन गौरव के लिए मनमे इज्ज़त पैदा हुई..आने वाली दिवाली के बाद एक मुहूर्त चुना गया और गौरव के साथ कोर्ट में शादी करना तय हुआ.. .मन थोडा उल्लसित होने लगा.. ..

शादी के घरमे जो,जो घटता रहता है,वो सब शुरू हो गया...मेरे वस्त्र, निमंत्रण  पत्रिकाएँ, मेहमानों की फेहरिस्त और अन्य ज़रूरती सामान जो नव वधूको ज़रूरी होता है..माँ और दादी बड़े उत्साह और प्यार से तैय्यारियाँ करने लगे..
और ब्याह का दिन आ भी गया...बचपन का घर बिछड़ने लगा..माँ पे बेहद जिम्मेदारी पडी...हमारे गाँव में तो न कोई केटरिंग का रिवाज था, ना होटल थे...घरके मेहमान और बराती सभी का खाना वही बनाती...उसमे उन्हें अतीव रक्त स्त्राव   की तकलीफ हो रही थी..

ब्याह्के एक दिन पहले मै सारा खेत घूम आयी...हर बूटा पत्ती अपने मनपे अंकित करना चाह रही थी...लौटी तो   दादी ने मेरी उदासी भांप ली और साडी कमरमे खोंस मेरे साथ badminton खेलने तैयार हो गयी...बहुत खूब खेलती थीं...मै तो केवल एक गेम जीती...आखों के आगे एक धुंद-सी छाई रही..दादी को गठिया का मर्ज़ था लेकिन उस बहादुर औरत ने अपने दर्द की  जीवन में कभी शिकायत नही की..

अंत में मै किसी और की ही दुल्हन बनी...जब विदाई का समय आया तो, तो मनमे एक ज़बरदस्त कसक कचोटने लगी...ज़िंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ...होने वाला था...जब ट्रेन में बैठे और ट्रेन आगे बढ़ने लगी तो मन पीछे मेरे बचपन वाले घरमे दौड़ गया...वो माँ की गोद, दादा दादी का  स्नेह, खुले ख़यालात,सब मानो एक किसी अन्य दुनिया की बातें महसूस होने लगीं...मैंने जल्द बाज़ी तो नही की?

'बाबुल, छूट  चला तेरा अंगना",ये गीत मन गुनगुनाने  लगा...पती का अंगना कैसा होगा? क्या होगा क़िस्मत में मेरे? अपने परिजनों का प्यार या, तिरस्कार...नही जान पा रही थी...क्या गौरव मेरा साथ निभाएँगे ? एक नौका तट छोड़ चली थी...पता नही किस ओर चली थी..पी का घर पास आता रहा, और भयभीत मन अपने नैहर में अटका रहा...नव परिणीता की आँखों में सपनों के अलावा डर शायद अधिक था...पहला कटु अनुभव जो हुआ था...छाछ भी फूँक के  पीनेका मन हो तो गलत नही था..
गाडी लखनऊ पहुची और गृह प्रवेश पे ही, एक झलक मिल गयी...किसी को धीरेसे कहते हुए सुना," ये गौरव भी ना.. पता नही किसी की उतरन ले आया है , लडकी सुन्दर है तो क्या ..उसे भी एकसे एक बढ़िया मिल सकती थी"...मै स्तब्ध हो गयी...वातावरण यहाँ भी कुछ अलग नही था...एक सदमा-सा ज़रूर महसूस हुआ...

क्रमश:
अगली कड़ी से 'बिखरे सितारे' का दूसरा अध्याय  शुरू होगा...

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

बिखरे सितारे 16 -बिखरने लगे सारे तारे




( पिछली कड़ी में बताया था, की, माँ तथा पूजा किशोर के परिवार से मिलने दिल्ली गए..और वहाँ धर्मांतर सवाल उठाया गया, जो माँ को मंज़ूर नही था, और पूजा भी उसका गाम्भीर्य देख परेशान हो उठी...अब आगे पढें..)



आज ,मै पूजा, खुद आप से रु-b -रु हो रही हूँ...जिन हालातों से गुज़री...जिस मोड़ पे ये दास्ताँ हैं...उस गहराई तक, मुझे ही जाना होगा....अपने मन को टटोल खंगाल के लिखना होगा...

मेरे प्रीतम ने जब पहली बार प्यार का इज़हार किया तब एक कविता लिखी थी, जिसे दोहरा रही हूँ...और उसका अंतिम चरण आज बयाँ करती हूँ...



सूरज की किरने ताने में,

चांदनी के तार बानेमे,

इक चादर बुनी सपनों में,

फूल भी जड़े,तारे भी टाँके,

क़त्रये शबनम नमी के लिए,

कुछ सुर्ख टुकड़े भरे,

बादलों के, उष्मा के लिए,

कुछ रंग ऊषा ने दिए,

चादर बुनी साजन के लिए...



पहली फुहार के गंध जिस में,

साथ संदली सुगंध उसमे,

काढे कई नाम जिस पे,

जिन्हें पुकारा मनही मनमे,

कैसे थे लम्हें इंतज़ार के?

बयाने दास्ताँ थी आँखें,

खामोशी लिखी लबों पे,

चादर बुनी सपनों में,



क्यों बिखरे सितारे इसके?

क्यों उधडे ताने इसके?

कहाँ गए बाने इसके?

कैसे जोडूँ तुकडे इसके?

रंग औ नमी, लाऊं कहाँ से?

रौशनी लाऊं किधर से?

चांदनी की ठंडक आए कैसे?

दोबारा इसे बुनूँ कैसे?



सोच, सोच के मन बिखरता जा रहा था...जब दिल्ली से माँ और मै लौटे तो दादा-दादी से आँखें चुराने का मन हो रहा था...क्या बताती उन से? हादसे वाली बात तो कहने से रही..बाकी बातें बताते हुए माँ को सुन लिया...



मै घंटों घरके पिछवाडे की सीढियों पे बैठी रहती...या फिर नीम पे लगे झूले पे झूलती रहती..जानती थी की, मेरे घरवालों से मेरा दर्द देखा नही जा रहा था...दादा कभी चुपके-से आते और मेरे सर पे हाथ फेर जाते..मन भी और जीवन भी किसी झूले की तरह झूल रहा था...मेरा वर्तमान ज़्यादा दुःख दाई था या मेरा अनागत? क्या लिखा गया था विधी के विधान में?या ये विधान मैंने लिखना था? मेरे भाग्य में क्या अटल था?



'उन्हें' मन ही मन कई ख़त लिख डाले...कागज़ पे भी लिखे..और फाड़ के फ़ेंक दिए...मेरे किस जवाब में सभी की भलाई थी? गरिमा थी? मेरा उत्तर दायित्व क्या था? मेरी अपनी अस्मिता...उसका क्या?



एक उत्तर धीरे, धीरे स्पष्ट होने लगा....धर्मान्तरण के लिए नकार..चाहे जो हो....मै हर वो तौर तरीके अपना लेने के वास्ते तैयार थी, लेकिन, कागजात पे धर्मांतर? एक गांधीवादी परिवार में जनम लेके? मै तो ना हिन्दू थी ना मुस्लिम...थी तो केवल एक हिन्दुस्तानी..उसपे कैसे आँच आने देती?



मैंने तथा माँ ने 'उन्हें' तथा उनकी माँ को अलग अलग ख़त लिखे...जिस में स्पष्ट कर दिया की , ब्याह के लिए ये शर्त मंज़ूर नही..सब रीती रिवाज निबाह लूँगी...लेकिन ब्याह के बाद..हर काम ,हर सेवा के लिए तैयार हूँ...लेकिन ये शर्त मंज़ूर नही..और खतो किताबत एक लंबा सिलसिला शुरू हो गया...खतों के इंतज़ार का...कई बार ख़त पहुँच ने में एक माह तक लगता...पोस्टल खाते की स्ट्राइक भी हुई और रेल की भी...हमने शहर में रहने वाले हमारे फॅमिली डॉक्टर का पता दे रखा.. वरना शहर से गाँव ख़त आने में २/३ दिन और लग जाते...



प्यार की डगर कितनी कठिन है, मन समझने लगा...हे ईश्वर...! ए मेरे अल्लाह! ये दर्द किसी को नसीब ना हो..किसी के जीवन में ऐसा दौर ना आए...ऐसी कठिन स्थिती...अपना दर्द सह लूँ लेकिन मेरे अपनों का???जिन्हें मै जान से प्यारी थी उनका...जिनकी आँखों का सितारा थी...जिनकी तमन्ना थी , उनका? नही नही....



क्रमश:

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

14 एक ये भी दिवाली थी।

'वो ' तो  चले  गए ...जाने  से  पूर्व  एकबार  पूजा  को  अपनी  बाँहों  में  भरते  हुए  कहा ,"गर मेरी माँ ने कहा तो , क्या तुम 'convert' हो  जाओगी?"
पूजा:" हाँ!
पूजा को इसका मतलब समझ में ही नही आया. उसने ,इस का अर्थ 'धर्म परिवर्तन' से है ,ये ना समझा, ना जाना...उसपे केवल  एक हिन्दुस्तानी होने के संस्कार हुए थे...उसे लगा, तमन्ना नाम हटा के वो किसी अन्य नाम से पुकारी जायेगी...या घर में होने वाले पूजा पाठ आदि में शामिल होना होगा..

उसे इन सब से क़तई ऐतराज़ नही था...मन में इतना सवाल   आया, के , पूजा नाम रहेगा...जिसे उस के दादा ने इतने प्यार से रखा था...घर में तो सब 'तमन्ना ' कह बुलाते थे...लेकिन अन्य कई दोस्त/परिवार उसे 'पूजा' ,इस नाम से ही  संबोधित करते थे...शायद इनकी माँ को जब ये बात पता चलेगी,की, लडकी का नाम पूजा है...वो घर के हर तौर तरीके अपना लेगी,तो उन्हें क्या फ़र्क़ पडेगा??

पूजा ने अपने घर में ये बात बतानी चाहिए, ऐसा सोचा ही नही. लड़का पूजा से तकरीबन १० साल बड़ा था...पूजा इस कारण भी उसकी अधिक इज्ज़त करती..बड़े होने के नाते,'वो' कोई गलत बात तो नही कह सकते ये विश्वास उस के मन में था..इसीलिये चुम्बन को लेके वो परेशान हो उठी थी...

' उन्हें' दो माह बाद किसी सरकारी काम से बेलगाम आना पडा...'वो' रुके तो पूजा के घर पे ही..और वहाँ काम ख़त्म होते, होते मलेरिया से बीमार हो गए...उन्हें अस्पताल में भारती कराया गया...पूजा काफ़ी समय अस्पताल में गुज़ार देती..एक दिन उस के साथ बतियाते हुए वो बोले:" तुम्हें पता है, मै तुम्हें कब से प्यार करने लगा?"
पूजा ने लजाते हुए कहा:" नही तो?"
वो:" तुम्हारे बारे में केवल सुना था तुम्हारे दादा से...तब से...तसवीर तो उन्हों ने बाद में दिखाई...और साथ में यह भी कह दिया की, 'तमन्ना की मंगनी हो चुकी है'....मै बेहद निराश हो गया इस बात को सुन के.."
पूजा लजा के लाल हुए जा रही थी..उसके मन में एक बार आया की, वह भी कुछ कहे...जो उसे लगा था,जब उसे 'इनके' बारे में बताया गया...की, उसे भी 'उन्हें' देखने से पहले ही प्यार हो गया था....वो खामोश ही रही...

तबियत ठीक होने के पश्च्यात' वो 'चले गए...उनका नाम था , किशोर...और उन के जाने के बाद फिर वही बिरह की शामे...और मदहोशी भरी तनहा रातें...पहले पहले प्यार ने ये क्या जादू कर दिया ??

एक माह बाद पूजा तथा उसकी माँ, मासूमा दिल्ली गए...लड़के के अन्य परिवार वालों से मिलने...माँ को शादी की बात भी करनी थी...घरवालों के खयालात से रु-b -रु भी होना था..

वहाँ  जब 'धरम परिवर्तन' की बात चली तो माँ को ये पता चला,के, पूजा ने पहले ही हामी भर दी है...! उन्हों ने एकांत में पूजा को  कोसते हुए कहा:" ये तुम ने क्या कह दिया किशोर से ?"
पूजा:" क्या कहा मैंने?"
उसने अचंभित होके माँ से पूछा...
माँ:" तुम धर्म परिवर्तन के लिए राज़ी  हो, ये बात तुमने कैसे कह दी? बिना बड़ों का सलाह मशवरा लिए? मै तो हैरान रह गयी...!"
पूजा:" मैंने धरम परिवर्तन के बारे में तो नही कुछ कहा...मुझे तो 'उन्हों' ने 'convert' होने  के  बारे  में  कहा  था ...मैंने तो उस बात के लिए हामी भरी थी...पूजा  पाठ तो करना होगा,गर उनकी माँ की इसी में खुशी है..."

माँ:" पागल लडकी...ये काम इतना आसान नही...तुमसे कानूनन मज़हब बदलने के लिए कहा गया है...प्यार में ये कैसी शर्त ? जैसे हम लोगों ने कोई शर्त नही रखी, वैसे उन्हों ने भी तुम्हें , तुम जैसी हो स्वीकार कर लेना चाहिए..तुम शादी के बाद जो चाहे करो...शादी से पूर्व नही..और शादी के बाद भी, मै नही सलाह दूँगी...एक हिन्दुस्तानी हो, वही रहो...इस माहौल में क्या तुम खुद को ढाल पाओगी ? जब तक प्यार का नशा है तब तक ठीक...जब ज़मीनी हकीकत सामने आयेगी, तब क्या करोगी?"

माँ बोले चली जा रही थी और पूजा दंग रह गयी...! अब वो क्या करे? उसे वो पल भी याद आए, जब किशोर ने कुछ 'गलत' जगहों पे उसे छुआ था... माँ को तो हरगिज़ नही बता सकती...

कुछ देर बाद  किशोर ने उससे मुखातिब हो कहा:" तुमने तो धर्म परिवर्तन के लिए हाँ कर दी थी...और तुम्हारे घरवालों को ये बात ही नही पता? मेरी माँ तो इस के बिना शादी के लिए राज़ी हो नही सकती...मै माँ की इच्छा के विरुद्ध जा नही सकता...और वो तुम्हारे दादा...और भाई...उन्हें लगता है,की, इस रिश्ते को नकारते हुए उनका काम हो जायेगा?"

पूजा:" लेकिन जैसे तुम्हारी माँ को तुम दर्द नही पहुँचा सकते, मै भी नही पहुँचा सकती.."
किशोर:" लेकिन तुमने तो हामी भर दी थी..अब क्या मुकर जाओगी?"

पूजा निशब्द हो गयी..माँ ने कहा था,  कि , वो पूजाके दादा दादी की सलाह के बिना कुछ नही करेंगी..किशोरकी माँ का रवैय्या पूजा के साथ बेहद सख्त रहा था...वो उसे अपमानित करने का एकभी मौक़ा नही छोड़ती.."वैसे अच्छा ही हुआ, आँचल जल गया.. हमारे घरमे आना मतलब  आग से खेलना है..",उन्हों ने पूजा से कह दिया, जब पूजा के आँचल ने खिड़की में रखी अगरबत्ती  से आग पकड़ ली...

उसके दादा को क्या कहेगी ?? और छोटे भाई बहन जो अपनी आपा को इतना मान देते हैं...??बहन अफशां और भाई आफताब..अब उसने कौनसा क़दम उठाना  चाहिए...??? पूजा बेहद संभ्रम में पड़ गयी, और पहली बार उसे ज़बरदस्त सर दर्द ने घेर लिया...बेहद उदास और सहमी-सी हो गयी...उसके प्यार का अब क्या हश्र होगा?

आने वाली दिवाली तक तो उसके परिवार ने उसके ब्याह के बारेमे सोचा था,कि , करही देंगे  ...दिवाली बस आनेवाली थी...और उसके लिए क्या तोहफा था????..कभी वो किसी की  तमन्ना बन, किसी की आँखों का तारा बन इस दुनिया में आयी थी...उस सितारे का क्या भविष्य था? क्या वो बिखरने वाला था...दादा-दादी के आँखों के सामने टूटने वाला था...?

क्रमश:

जल्दबाज़ी में एक के बाद एक पोस्ट डाली है…क़ुछ वजह है…क्षमा  चाहती हूँ।

11 :सितारों से आगे,जहाँ औरभी थे


(पूजा की माँ ने क्या कहा पूजा से?...अब आगे पढ़ें...)

पूजा अपने आपको हज़ार कामों में व्यस्त रखती...उस समय वो रसोई साफ़ कर रही थी..माँ तभी शहर से लौटी थीं...चुपचाप पूजा के पीछे आके खड़ी हो गयीं....

आहट हुई तो पूजा ने मुड के देखा...माँ बोलीं,
" क्या तुझे 'वो' पसंद है? प्यार है, हैना?"
पूजा: " हाँ...कहा तो था आपको..लेकिन मेरे पसंद आने से क्या फ़र्क़ पड़ता है...ये बात तो एकतरफा है...मुझ में कौन-सा आकर्षण है,जो मै उसे पसंद आ जाऊं...मै तो खामोश बैठी रहती हूँ... "
माँ:" नही...एकतरफा नही है...आग दोनों तरफ़ बराबर है...तेरी खामोशी में भी बेहद कशिश है...शायद तू ख़ुद नही जानती.."
माँ के चेहरे पे एक विलक्षण सुकून और खुशी नज़र आ रही थी...पूजा को अपने कानों पे विश्वास नही हुआ...दंग रह गयी...
पूजा:" आपको कैसे पता?"
माँ: " मै अभी, अभी उससे मिल के आ रही हूँ...इसीलिये शहर गयी थी...तेरे दादी दादा को बता के गयी थी,कि, किसलिए जा रही हूँ.."
माँ, मासूमा, ख़ुद गाडी चला लेती थीं...
पूजा:" तो?"
अब पूजा के गाल कुछ रक्तिम होने लगे थे...माँ ने उसे धीरे से अपने पास खींच लिया और बोलीं,
" उससे मैंने कहा, कि, पूजा किसी से प्यार करती है..और उसे लगता है, वो प्यार एकतरफा है....उसका जवाब था, उससे कहो, ये एकतरफा नही है....वो आज शाम तुझ से मिलने आयेगा...."

एक पल में पूजा की दुनिया बदल गयी...जैसे मुरझाई कली पे ओस पडी हो...वो इसतरह खिल उठी...फिज़ाएँ महकने लगीं...चहकने लगीं...गरमी का मौसम था, लेकिन पूजा के जिस्म को मानो बादे सबा छू गयी...एक सिहरन-सी दे गयी...

माँ के आगे उसकी पलकें लाज के मारे झुक गयीं...कितनी प्यारी माँ थी...जिसने लडकी के मन को जाना और उसकी उदासी ख़त्म कर दी...अपने सास ससुर को विश्वास में ले, स्वयं लड़के के पास चली गयी...ना जात ना पात...घर में पूजा की खुशी की हरेक को चिंता थी...

जब तक माँ शहर से लौटी नही, तब तलक दादा दादी दिल थामे बैठे रहे...सबसे पहले माँ ने ये ख़बर उन्हें सुनायी...उनकी जान में जान आ गयी...गर ब्याह होगा तो बच्ची...उनकी आखों का सितारा...वो सुबह का तारा ...आँखों से बेहद दूर हो जायेगा...लेकिन बिखर तो नही जाएगा...

अब सभी को शाम का इंतज़ार था...पूजा चुपके से अन्दर कमरे में जा आईने के आगे खड़ी हो गयी...आज शाम को बिना सिंगार सुंदर दिखना था..क्योंकि सिंगार तो उसने कभी किया ही नही था..कभी बालों में फूल के अलावा अन्य कुछ नही...
और ऐसा बेसब्र इंतज़ार भी कभी किसीका नही किया था...हाँ! जब, जब 'वो' घर पे आनेवाला होता, उसके मन में मिलने की चाह ज़रूर जागृत होती..लेकिन आज...! आज की शाम निराली होगी...आज क्या होगा? 'वो' क्या कहेगा? क्या उसे छुएगा ?? उई माँ...! सोचके उसके कपोलों पे रक्तिमा छा गयी....अपना चेहरा उसने ढँक लिया....

वो शाम उसके जीवन सबसे अधिक यादगार शाम होने वाली थी...आना तो उसने ८ बजे के बाद था....लेकिन उसदिन शुक्ल पक्षका आधा चन्द्रमा आसमान में होने वाला था...रात सितारों जडी की चुनर लेके उसके जिस्म पे पैरहन डाल ने वाली थी...

क्या भविष्य उतना उजला होने वाला था? किसे ख़बर थी? किसे परवाह थी? क़िस्मत की लकीरें कौन पढ़ पाया था?
क्रमश : 

सोमवार, 25 नवंबर 2013

१३ इंतज़ार के वो पल

१३ इंतज़ार के वो पल

(पिछली कड़ी में लिखा था...वो रात शायद पूजा के जीवन की सब से हसीं रात थी..आगे आने वाले तूफानों से बेखबर!)

पिया ने प्यार का इज़हार तो कर दिया ! पूजा पे मानो एक नशा-सा छा  गया ...पहला प्यार और वो भी हासिल...! कितने ऐसे ख़ुश नसीब होते होंगे...और उसके सभी प्रिय जन भी ख़ुश...!

सितारों भरी रात और आधा चंद्रमा अपना सफ़र तय करता गया..मौसम तो बरसात का ,लेकिन साफ़ आसमान था..ज़बरदस्त क़हत पड़ा हुआ था......

आँगन में सब के बिस्तर बिछे थे...एक ओर दादा-दादी...घरके पिछवाडे  वाले खलिहान में माँ बाबा...और बिना छत के बरामदे में वो और छोटी बहन..कुछ ही दूरीपर छोटा भाई...

दोनों बहने  में एकही बड़े पलग पे थीं......पूजा तो करवट भी नही लेना चाह रही थी,की, बहन कहीँ छेड़ ना दे...! रात भर वो चाँद का सफ़र देखती रही...कल दोपहर एक बार फिर प्रीतम आनेवाले थे...ऐसा खुमार होता है, पहले प्यारका? सुबह पौं फटने वाली थी तब कहीँ जाके कुछ देर उसकी आँख लगी...और फिर सूरज की किरणे आँखों पे पडी...वो उठ गयी...

उसे डर था कहीँ आँखों के नीचे काले घेरे न पड़ जाएँ...लपक के उसने अपनी शक्ल आईने में देखी...नही लाल डोरे तो थे, लेकिन कालिमा नही थी...होठों पे सुर्खी थी...अपनेआप से वो लजा गयी....

कब होगी दोपहरी?? कब आयेंगे 'वो'?? कैसे लेंगे उससे बिदाई...?? वक़्त थमा तो नही...लेकिन इंतज़ार के पल को पूजा थामना चाह रही....और समय रुका तो नही....? ये सवाल भी मन में आ रहा था...इतनी देर हुई और घड़ी के पाँच मिनट ही कटे?

'वो' आए तो फिर एकबार उसने घर के अन्दर का रुख किया लेकिन इस बार 'उन्हें' अन्दर भेज दिया गया...पलकें झुकी रहीं...माँ रसोई में चली गयीं....और पहली बार साजन ने बाहें फैला के उसे अपने पास भीं लिया...उसको चूम लिया...पूजा इतनी नादान थी, की , चुम्बन कैसा होता है, ये उसने किसी अंग्रेज़ी फिल्म में भी नही देखा था...!

कुछ भरमा-सी गयी...उसे लगा यही 'शरीर सम्बन्ध' होता है...कुछ नाराज़गी के साथ उसने 'उन्हें' अपने से दूर किया...बाहों में भरना तो ठीक था... ! ये क्या??लेकिन नशा कम नही था...उसने अपनी  हथेलियों में अपना मुख छुपा लिया...'वो' उसका चेहरा हथेलिओं से छुडाते रहे...कितना समय बीता?

माँ ने खाने के लिए आवाज़ लगाई तो वो 'उन से' खुद को छुडा के , स्नान गृह में भाग गयी...वहाँ के शीशे में देखा तो उस के होटों के आसपास ...? ये क्या लाल दाग?? और सुराही दार गर्दन कैसे छुपाये...? त्वचा पे सूर्ख दाग..? उफ़ ! ये क्या कर दिया उसके साजन ने?? सारा पोल खोल दिया...! अब वो अपने दादा-दादी माँ- बाबा के सामने कैसे जाए??उसे भूख तो बिलकुल नही थी...क्या प्यार में या बिरह में भूख मर जाती है??किताबों में पढ़ा था...फिल्मों में देखा था...आज उसके साथ घट रहा था..

एक बार फिर माँ  की आवाज़ आयी...उसने अपनी साडी दोनों काँधों पर ओढ़ ली...गर्दन तो कुछ छुप गयी...लेकिन कपोलों  का क्या करे? और होंट  ??खानेके मेज़ पे पहुँची तो उसकी स्थिती एक चोर जैसे हो रही थी...वो अपनी निगाहें उठा नही   पा रही थी..और' वो' हर मौके बे मौके उसे देख रहे थे...और वो वक़्त भी गुज़र गया...देखते ही देखते 'उनके' जाने का समय आ गया...और चले गए...

अब उसे अचानक बिरह क्या होता है, ये पता चला...अब ना जाने कब पिया मिलेंगे? ' उन्हों ने' कहा था,की, पूजा तथा उसके माँ बाबा देहली आयें...लेकिन कब??

उसके बडौदा लौट ने के दिन आ गए, परीक्षा का नतीजा लाना था...वहाँ उसे कुछ दिन रुकना था...और वहीँ उसे साजन का पहला ख़त मिला....छात्रावास में अपनी सहेलियों से वो छुपा नही पा रही थी,की, उस ख़त को वह अपने तकिये के नीचे छुपा के सोती थी..पकडी ही गयी....

परिक्षा में वो अच्छी सफलता पा गयी थी...जब लौटी तो अपने घर पे एक और ख़त इंतज़ार कर रहा था...बहन ने बड़ी छेड़ खानी     करते, करते उसे वो ख़त दिया...कैसा पागल पन सवार था...!! उसके बाद आए ख़त में लिखा था, की, किसी सरकारी काम से 'उन्हें' बेलगाम आना था...और पागल पूजा दिन गिनने लगी...अबकी मुलाक़ात कैसी होगी...ना,ना...अब वो अधिक नजदीकियों से रोकेगी...ये बात ठीक नही...लेकिन कैसे?

'वो' आए...पूजा को अपने बाहों में भरते हुए, बस बिदा के पहले कहा.....क्या कहा..? उसी बात ने उसके प्यार की नींव हिला दी...उसे तो बात समझ में नही आयी...लेकिन जब पूजा और माँ, बाद में देहली पहुँचे तो उस बातका गाम्भीर्य सभीके ख्याल में आया....प्यार भरे दिल पे एक चोट का एहसास...प्यार में शर्तें?? क्या शर्त थी?? पूजा को अब क्या निर्णय लेना चाहिए था??क्या हुआ उनकी देहली के वास्तव्य में? क्या बात थी जो पूजा ने अपनी माँ या दादा दादी को नही बताई थी...या उसकी अहमियत उसे समझ नही आयी थी....?क्या भविष्य था उसके प्यार का ??

क्रमश: