मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

बिखरे सितारे :भाग २: सैलाबे दर्द...

पिछले  भाग  में  पढ़ा :मकान मालकिन चाभी ले गयी, और पूजा पर गौरव औरभी गरज पडा..पूजा से बोला ना गया..बोलती भी तो उसकी कौन सुनता? उसने अपनी सास तथा जेठानी के मुखपे एक कुटिल -सी मुस्कान देखी.
और फिर इसतरह के वाक़यात का एक सिलसिला-सा बनता गया..
अब आगे:


पूजा इन हालातों में अपने आपको बेहद अकेला महसूस करने लगी...पलकों पे आँसूं तैरते रहते और वो उन्हें अन्दर  ही अन्दर पी जाती..किसे कहे..किसे सुनाये..जिसके साथ वो दो बातें प्यारकी करना चाहती, जिससे दो बातें प्यारकी सुनना चाहती, वो बडाही बेदर्द निकला...पूजा को विश्वास नही होता की,गौरव इस तरह का बर्ताव करेगा...दिन गुज़रते रहे..वो मुरझा-सी गयी...


ब्याह को तीन माह होने आए और उसके पैर भारी हो गए...एक अतीव आनंद उसके मनमे समाया...खुदके माँ बन्ने से अधिक उसे इस बात की खुशी हुई, की, उसकी माँ नानी बनेगी..उसकी दादी परनानी बनेगी...वो लोग कितने ख़ुश होंगे...और खुशी का ज़रिया उनकी लाडली पूजा तमन्ना  होगी..लेकिन विधीका विधान कुछ और था...उसे रक्त स्त्राव  शुरू हो गया, और गर्भ पात हो गया..उसके मनमे आया,काश, उसने अपने नैहर ख़त न लिखा होता..! उसके पीहर में सब कितने निराश हो जायेंगे  जब ये खबर  सुनेंगे!.सभी को पूजा की चिंता होगी..की उसका स्वस्थ तो ठीक है...


जब पूजा को  ऑपरेशन के लिए ले गए तो उसे लोकल अनेस्थेशिया  देने का भी  उस महानगर  के doctors को ध्यान नही रहा...जैसे साग सब्ज़ी  काटनी हो उस तरह से वो ऑपरेशन कर दिया गया..पूजा चींख चींख के कहती रही,की, उसे बेहद दर्द है, और डॉक्टर ने डांट दिया," इतना दर्द तो सहनाही पडेगा..."
इतना अमानवीय बर्ताव उसने कहीँ न देखा था ना  सुना था..! जब कमरेमे आयी तो पीली फक्क पड़ गयी थी..गर उसके दादी दादा उसकी ये हालत देखते तो उनपे क्या गुज़रती?


गौरव का उसके साथ बर्ताव उन्हें कितना दर्द पहुँचाता? उसने क्या करना चाहिए? चुपचाप सहना चाहिए या....?गौरव और उसके परिवारवालों को समय देना चाहिए? फिलहाल उसे चुपही रहना चाहिए...नैहर में कुछ नही बताना चाहिए,उसके मनने उसे गवाही दी...किसे पता था,की, इतनी कोमल लडकी शारीरिक मानसिक दर्द का ऐसा सैलाब थाम सकती थी?


ब्याह के छ: माह बाद उसे अपने नैहर जाने का मौक़ा मिला..उसके पिता उसे लेने आए..


क्रमश:

रविवार, 13 दिसंबर 2009

भाग २ :बिखरे सितारे:२ पीका नगर

अबतक  की  मलिका  का  सारांश: भाग  २  :बिखरे सितारे:२  पीका नगर

एक गांधी वादी,मुस्लिम परिवार में   पूजा/तमन्ना का  जन्म हुआ...उसका बचपन गाँव में बीता. दादा दादी का भरपूर प्यार उसने पाया. खुले विचारों में पली बढ़ी. लेकिन एक समस्या उसे हमेशा परेशान करती रही...अपनी माँ के प्रति दादा का सख्त व्यवहार...पिता की ओरसे भी माँ छली गयी..

यौवन की दहलीज़ पे उसकी मुलाक़ात किशोर से हुई. किशोर सरकारी, तबादलों वाली नौकरी में कार्यरत था. मुलाक़ात भी अजीब हालात में हुई...पूजाके भाईके हाथ से( जो तब केवल १२/१३ साल का था),बंदूक से गोली छूट गयी...दादाजी ने अपनी ओरसे बंदूक खाली कर दी थी,लेकिन उसमे एक गोली रह गयी थी.भाई  को भी नही पता था. खेतपर के किसी लड़के के उकसाए जानेपर, उसने उसके पैरों पर निशाना ले गोली दाग दी.

खून में लथपथ उस लड़के को दादा जी अस्पताल ले गए. लड़का तो ठीक हो गया. लेकिन दादा जी बंदूक ज़प्त कर ली गयी. उन्हों ने हादसे की ज़िम्मेदारी पूरी तरह खुद पे ले ली. वो बेहद सत्य वचनी थे.इन्ही हालातों के चलते IAS के अफसर किशोर से उस परिवार की मुलाक़ात हुई. पूजा उस वक़्त छात्रावास में थी. लौटी तो किशोर से परिचय हुआ. दोनों के मनमे प्यार पनपा.

किशोर का दिल्ली तबादला हो गया. जानेसे पूर्व उसने पूजासे अपना धरम परिवर्तन की मांग की. मासूम पूजा बात की गहराई को समझी नही और उसने हाँ कर दी.

जब पूजा की माँ और पूजा किशोर के परिवार से मिलने दिल्ली गए तो वहाँ इस बात का ज़िक्र छिड़ा. पूजा की माँ हैरान हो गयी..खुद पूजा को भी जब बात का गाम्भीर्य  पता चला तो वो भी सकते में आ गयी..उसने अपनी गलती मान ली और किशोर से इस बात का विरोध जताया. वो प्यार करके हार गयी..सपने चकनाचूर हुए.

इसमे उसके मूहसे यह बात कोशोर के चंद दोस्तों के आगे निकल गयी और वो खूब रोई. इन दोस्तों में एक गौरव भी था. गौरव ने अपने परिवार की सहमती से पूजा के साथ ब्याह करने का निर्णय लिया. पूजाके परिवार ने स्वीकार किया.

ब्याह के पश्च्यात पूजा की समझमे आ गया की, गौरव की मानसिकता किशोर से अलग नही थी...उसने चाहा की, पूजा उसके परिवारकी एहसान मंद रहे,की, उन्हों ने एक' ऐसी, लडकी से ब्याह करने की इजाज़त दी..मानो वो किसी की उतरन हो! सुहाग रात को ही पूजा को यह बात सुननी पडी और वो दर्द से  कराह उठी.

अब आगे पढ़ें:

पूजा ने अपने आप को ऐसे माहौल में बेहद अकेला पाया. पूरा दिन वो घरवालों के ताने सुनती. शाम जब गौरव घर आता, तो घरवाले पूजा के खिलाफ उसके कान भरते. पूजा को समझ में नही आया,की, गर ऐसे हालात थे,तो गौरव ने उसके साथ शादी क्यों की...उसने कुछ छुपाया नही था...

घरका सारा काम,बिना किसी नौकर चाकर के उसने संभाल लिया था, लेकिन जी जान लगा के भी, उसे ताने ही सुनने पड़ते थे.
बल्कि, जिस रात वो सब लखनऊ से दिल्ली पहुँचे उसके अगले दिन की बात:

गौरव अपनी भाई के साथ सुबह कहीँ घूमने गया. पड़ोस का एक कमरा  इन दोनों के खातिर  तीन दिनों के लिए,  लिया गया था.गौरव ने लौटते ही पूजा से पूछा
:" तुमने वहाँ झाडू लगाई?"

पूजा:" ना..नही तो..मुझे नही पता था..मै तो सवेरे ४ बजे ही नीचे आ गयी थी.."
( उस दिन करवा चौथ का व्रत था)

गौरव: " तो झाडू तुम्हारा बाप आके लगाएगा या मेरा बाप?"

गौरव ने भरे हुए घर में,सबके सामने, पूजा का अपमान किया..पूजा की आँखें भर आयीं..

पूजा:" मै अभी लगा देती हूँ..."
पूजा का इतना कहना भर था,की, उस घरकी मालकिन वहाँ आ पहुँची और बोली:" माफी चाहती हूँ, हमें आज ही कमरा चाहिए.."

पूजा के मनमे झाडू का विचार भी आता तो चाभी गौरव के पास थी...और गौरव बाहर चला गया था...

मकान मालकिन चाभी ले गयी, और पूजा पर गौरव औरभी गरज पडा..पूजा से बोला ना गया..बोलती भी तो उसकी कौन सुनता? उसने अपनी सास तथा जेठानी के मुखपे एक कुटिल -सी मुस्कान देखी.
और फिर इसतरह के वाक़यात का एक सिलसिला-सा बनता गया..

क्रमश:

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गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

Poojaki kahani!

माफी  चाहती  हूँ ,की , पिछली  कड़ी के बाद इतना लम्बा अंतराल हो गया...२/३ दिनों के भीतर अगली कड़ी लिख दूँगी! ख़राब तबियत के कारण नही पोस्ट कर पाई...

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

adhyaay 2..chhoot gayaa wo angnaa...

( पिछली कड़ी: मेरा..मतलब पूजा तमन्ना का ब्याह गौरव के साथ हो गया....बेलगाम के छोटा से गाँव से निकाल मै लखनऊ पहुँच गयी...अभी  गुह प्रवेश  ही  हो  रहा  था ,की , कानों  में    अलफ़ाज़  पड़े ," ये  गौरव  भी  ना ! पता नही किसकी उतरन ले आया है...अब आगे पढ़ें...)

मै चौंक गयी... उस ओर देखा...फिर कनखियों से गौरव की तरफ देखा...समझ नही पायी की, उसने सुना या नही...दिल जोरसे धड़कने लगा...पूजा-पाठ होता रहा..लोग मिलने आते रहे...ट्रेन से तभी आए थे...नहाने का आदेश मिला...ठण्ड थी काफ़ी...मैंने आदेश मान लिया... जो कपडे मिले,, समेट स्नान कक्ष में घुस गयी...और गीले ही स्नानकक्ष में किसी तरह साड़ी  लपेट बाहर आयी...

दिनभर लोग आते रहे, और शाम जल्दी में तैयार हो स्वागत समारोह के लिए मुझे ले जाया गया...भीड़ उमड़ पडी थी..मेहमानों में विलक्षण उत्सुकता थी...मुझे देखने की..

रात जब  घर पहुँचे तो पड़ोस के घरके एक कमरेमे सोने का इंतज़ाम था...( ये बता दूँ,की, इन सब बातों के चलते गौरव का तबादला बेलगामसे दिल्ली में हो गया था, उसी विभाग में जहाँ किशोर था..).
मैंने बात करने की कोशिश की...लेकिन गौरव ने तकरीबन मुझे धर दबोचा... धीरे, धीरे महसूस होने लगा की, उसकी मानसिकता किशोर से अलग नही थी...

सुबह हमें लखनऊ से दिल्ली लौटना था...दिल्ली घरवाले भी साथ चले...दो ही कमरों का घर था..मै डरी-डरी-सी थी..अपने आपको बेहद अकेला महसूस कर रही थी...फिर एकबार लगा, ज़िंदगी कहाँ ले चली? अपना नैहर याद आ रहा था...और गौरव ने मुझे कह डाला," मेरी माँ तथा घरवालों का एहसान मानो की, तुम्हें स्वीकार किया...वरना क्या करती तुम?"

सुनके मै दंग रह गयी...गौरव ऐसा तो नही लगा था...लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी...जो सच था वो सामने आ गया था...जीवन का एक नया और डरावना अध्याय शुरू हो रहा था...सब कुछ बर्दाश्त करने के अलावा चारा  नही था..यहाँ आँसूं पोछने वाला कोई नही था...समझमे आ गया ...झलक मिल गयी की, इन राहों में बेहद ख़तरा था...दर्द था...

क्रमश:

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

bikhare sitare 22-chalee banke dulhan..

( पिछली कड़ी में मैंने लिखा था, अपने धरम संकट के बारेमे..मै धरम परिवर्तन ना करने के फैसले पे अडिग रही).

उस साल दिवाली आयी और चली गयी...मेरे लिए बिरह का तोहफा दे गयी...ऐसी सूनी, उदास दिवाली मुझे उसके पहले याद नही..
किशोर के अन्य दोस्त हमें मिलने चले आया करते..

एक दिन मै उन्हें असलियत बता बैठी ...बताते समय जारोज़ार रो पडी...उन ३/४ दोस्तों को यह सब सुनके बड़ी हैरत हुई..वो लोग खुद एक धरम संकट में पड़ गए...किशोर को मै 'वो', 'उन्हें' इसी तरह संबोधित करती थी..मैंने अपने विवाह के मसले को लेके अडिग रहने का फैसला सुना दिया, और उन सभी सह कर्मियों को इस फैसले पे नाज़ हुआ..

वो शाम इन्हीं बातों में बीत गयी...३/४ दिनों बाद एक सहकर्मी, गौरव, हमें मिलने चला आया, और उसने मेरी माँ और दादी के आगे एक प्रस्ताव रखा..वो मुझ से ब्याह करने को तैयार था...मै मनही मन डर गयी...मुझे तो यही वहम था की, मेरा कौमार्य भंग हुआ है, और मन 'उन्हें' भुलाने को तैयार नही था...दादा दादी को गौरव के खयालात जनके बड़ा फक्र हुआ...ये बाते दिवाली के ४/५ माह बाद छिडीं..मै मानो एक बुत -सी बन गयी थी...दादी ने गौरव से कहा:
" पहले अपने परिवार से तो सलाह कर लो...कहीँ यहाँ भी इतहास दोहरा न जाय .."
गौरव:" मैंने पिछले ३/४ दिनों में उनसे सलाह मसलत कर ली है...उन्हें कोई परेशानी नही...लेकिन पूजा की राय बेहद ज़रूरी है, वो सदमेसे उभरी नही है..सबसे अहम बात उसके निर्णय की है...उसे समय दें...कही ये ना हो की, उसे पछताना पड़े.."

गौरव अधिक परिपक्व लगा सभीको..परिवार लखनऊ का था..इस दौरान मैंने अपना अंतिम फैसला सुना दिया...खतों द्वारा, और उम्मीद की एक टिमटिमाती लौ को बुझा दिया..प्यारका खुमार उतर रहा था, असलियत के धरा तलपे .....मेरी आँखों से पानी थमता नही था...अपने प्रीतम का पहला स्पर्श याद आता रहा...उस स्पर्शे पुलकित होना कैसे भूलती...वो चांदनी रात जब मै करवटें बदलती रही थी..और अगले रोज़ उनका इंतज़ार कर रही थी...याद आती रही...अपने प्यारका ये हश्र ऐसा होगा ये सोचाही नही था...

घरवालों पे मैंने निर्णय छोड़ दिया..मुझमे मानसिक शक्ती रही नही थी...कुछ भी सोचने की या निर्णय लेने की...१०/१२ दिनों बाद गौरव अपने माता पिता के साथ हमारे  घर आ पहुँचा...मुझे उनके आगे आने में बेहद झिजक महसूस हुई, लेकिन वातावरण बड़ा सहज बना रहा..

खैर !अंत में अगली दिवाली तक सोंच विचार करने समय मुझे मिल गया..गौरव ने मुझे  जल्द बाज़ी ना करने की सलाह दी..ये बात मुझे अच्छी लगी...सबकुछ करीब से जान के उसने निर्णय लिया था...मै शुक्र गुज़ार थी, लेकिन एक डर था, कहीँ ये निर्णय सहानुभूती से तो नही लिया गया? माँ तथा दादी अम्माने ये बात स्पष्ट रूपसे पूछी..
गौरव का जवाब: " मै भी पहली बार देखते ही प्यार कर बैठा था...लेकिन जब किशोर का पता चला तो उसे मुबारक बाद देदी...मन उदास ज़रूर हुआ...और उदास तो अब भी है,की, तमन्ना को इस सदमे से गुज़रना पड़ा.."

किशोर की यादें भुलाना आसान नही था...वो प्रथम प्यार था..लेकिन गौरव के लिए मनमे इज्ज़त पैदा हुई..आने वाली दिवाली के बाद एक मुहूर्त चुना गया और गौरव के साथ कोर्ट में शादी करना तय हुआ.. .मन थोडा उल्लसित होने लगा...गौरव की स्निग्ध, शांत निगाहें आँखों के आगे तैर ने लगी...

शादी के घरमे जो,जो घटता रहता है,वो सब शुरू हो गया...मेरे वस्त्र, निमंत्रण  पत्रिकाएँ, मेहमानों की फेहरिस्त और अन्य ज़रूरती सामान जो नव वधूको ज़रूरी होता है..माँ और दादी बड़े उत्साह और प्यार से तैय्यारियाँ करने लगे..
और ब्याह का दिन आ भी गया...बचपन का घर बिछड़ने लगा..माँ पे बेहद जिम्मेदारी पडी...हमारे गाँव में तो न कोई केटरिंग का रिवाज था, ना होटल थे...घरके मेहमान और बराती सभी का खाना वही बनाती...उसमे उन्हें अतीव रक्स्त्रव की तकलीफ हो रही थी..

ब्याह्के एक दिन पहले मै सारा खेत घूम आयी...हर बूटा पत्ती अपने मनपे अंकित करना चाह रही थी...लौटी तो   दादी ने मेरी उदासी भांप ली और साडी कमरमे खोंस मेरे साथ badminton खेलने तैयार हो गयी...बहुत खूब खेलती थीं...मै तो केवल एक गेम जीती...आखों के आगे एक धुंद-सी छाई रही..दादी को गठिया का मर्ज़ था लेकिन उस बहादुर औरत ने अपने दर्द की  जीवन में कभी शिकायत नही की..

अंत में मै किसी और की ही दुल्हन बनी...जब विदाई का समय आया तो, तो मनमे एक ज़बरदस्त कसक कचोटने लगी...ज़िंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ...होने वाला था...जब ट्रेन में बैठे और ट्रेन आगे बढ़ने लगी तो मन पीछे मेरे बचपन वाले घरमे दौड़ गया...वो माँ की गोद, दादा दादी का  स्नेह, खुले ख़यालात,सब मानो एक किसी अन्य दुनिया की बातें महसूस होने लगीं...मैंने जल्द बाज़ी तो नही की?

'बाबुल, छूट  चला तेरा अंगना",ये गीत मन गुनगुनाने  लगा...पती का अंगना कैसा होगा? क्या होगा क़िस्मत में मेरे? अपने परिजनों का प्यार या, तिरस्कार...नही जान पा रही थी...क्या गौरव मेरा साथ निभाएँगे ? एक नौका तट छोड़ चली थी...पता नही किस ओर चली थी..पी का घर पास आता रहा, और भयभीत मन अपने नैहर में अटका रहा...नव परिणीता की आँखों में सपनों के अलावा डर शायद अधिक था...पहला कटु अनुभव जो हुआ था...छाछ भी फूँक के  पीनेका मन हो तो गलत नही था..
गाडी लखनऊ पहुची और ग्रुप्रवेश पे ही, एक झलक मिल गयी...किसी को धीरेसे कहते हुए सुना," ये गौरव भी ना.. पता नही किसी की उतरन ले आया है , लडकी सुन्दर है तो क्या ..उसे भी एकसे एक बढ़िया मिल सकती थी"...मै स्तब्ध हो गयी...वातावरण यहाँ भी कुछ अलग नही था...एक सदमा-सा ज़रूर महसूस हुआ...

क्रमश:
अगली कड़ी से 'बिखरे सितारे' का दूसरा अध्याय  शुरू होगा...

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

bikhare sitare-Bikharne lage saare taare-21

( पिछली कड़ी में बताया था, की, माँ तथा पूजा किशोर के परिवार   से  मिलने दिल्ली गए..और वहाँ धर्मांतर सवाल उठाया गया, जो माँ को मंज़ूर नही था, और पूजा भी उसका गाम्भीर्य  देख परेशान हो उठी...अब आगे पढें..)

आज ,मै पूजा, खुद आप से रु-b -रु हो रही हूँ...जिन हालातों से गुज़री...जिस मोड़ पे ये दास्ताँ हैं...उस गहराई तक, मुझे ही जाना होगा....अपने मन को टटोल  खंगाल के लिखना होगा...
मेरे प्रीतम ने जब पहली बार प्यार का इज़हार किया तब एक कविता लिखी थी, जिसे दोहरा रही हूँ...और उसका अंतिम चरण आज बयाँ करती हूँ...

सूरज की किरने ताने में,
चांदनी के तार बानेमे,
इक चादर बुनी सपनों में,
फूल भी जड़े,तारे भी टाँके,
क़त्रये शबनम नमी के लिए,
कुछ सुर्ख टुकड़े भरे,
बादलों के, उष्मा के लिए,
कुछ रंग ऊषा ने दिए,
चादर बुनी साजन के लिए...

पहली फुहार के गंध जिस में,
साथ संदली सुगंध उसमे,
काढे कई नाम जिस पे,
जिन्हें पुकारा मनही मनमे,
कैसे थे लम्हें इंतज़ार के?
बयाने दास्ताँ थी  आँखें,
खामोशी लिखी लबों पे,
चादर बुनी सपनों में,

क्यों बिखरे सितारे इसके?
क्यों उधडे ताने इसके?
कहाँ गए बाने इसके?
कैसे जोडूँ तुकडे इसके?
रंग  औ नमी, लाऊं कहाँ से?
रौशनी लाऊं किधर से?
चांदनी की ठंडक आए कैसे?
दोबारा इसे बुनूँ कैसे?

सोच, सोच के मन बिखरता जा रहा था...जब दिल्ली से माँ और मै लौटे तो दादा-दादी से आँखें चुराने का मन हो रहा था...क्या बताती उन से? हादसे वाली बात तो कहने से रही..बाकी बातें बताते हुए माँ को सुन लिया...

मै घंटों घरके पिछवाडे की सीढियों  पे बैठी रहती...या फिर नीम पे लगे झूले पे झूलती रहती..जानती थी की, मेरे घरवालों से मेरा दर्द देखा नही जा रहा था...दादा कभी चुपके-से  आते और मेरे सर पे हाथ फेर जाते..मन भी और जीवन भी किसी झूले की तरह झूल रहा था...मेरा वर्तमान ज़्यादा दुःख दाई था या मेरा अनागत? क्या लिखा गया था  विधी के विधान में?या ये विधान मैंने लिखना था? मेरे भाग्य में क्या अटल था?

'उन्हें' मन ही मन कई ख़त लिख डाले...कागज़ पे भी लिखे..और फाड़ के फ़ेंक दिए...मेरे किस जवाब में सभी की भलाई थी? गरिमा थी? मेरा उत्तर दायित्व क्या था? मेरी अपनी अस्मिता...उसका क्या?

एक उत्तर धीरे, धीरे स्पष्ट होने लगा....धर्मान्तरण के लिए नकार..चाहे जो हो....मै हर वो तौर तरीके अपना लेने के वास्ते  तैयार थी, लेकिन, कागजात पे धर्मांतर? एक गांधीवादी परिवार में जनम लेके? मै तो ना हिन्दू थी ना मुस्लिम...थी तो केवल एक हिन्दुस्तानी..उसपे कैसे आँच आने देती?

मैंने तथा माँ ने 'उन्हें' तथा उनकी माँ को अलग अलग ख़त लिखे...जिस में स्पष्ट  कर दिया की , ब्याह के लिए ये शर्त मंज़ूर नही..सब रीती रिवाज निबाह लूँगी...लेकिन ब्याह के बाद..हर काम ,हर सेवा के लिए  तैयार हूँ...लेकिन ये शर्त मंज़ूर नही..और खतो किताबत एक लंबा सिलसिला शुरू हो गया...खतों के इंतज़ार का...कई बार ख़त पहुँच ने में एक माह तक लगता...पोस्टल खाते की स्ट्राइक भी हुई और रेल की भी...हमने शहर में रहने वाले हमारे फॅमिली डॉक्टर का पता दे रखा.. वरना शहर से गाँव ख़त आने में २/३ दिन और लग जाते...

प्यार की डगर कितनी कठिन है, मन समझने लगा...हे ईश्वर...! ए मेरे अल्लाह!  ये दर्द किसी  को नसीब ना हो..किसी के जीवन में ऐसा दौर ना आए...ऐसी कठिन स्थिती...अपना दर्द सह लूँ  लेकिन मेरे अपनों का???जिन्हें मै जान से प्यारी थी उनका...जिनकी आँखों का सितारा थी...जिनकी तमन्ना थी , उनका? नही नही....

क्रमश:

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

Bikhare sitare-ek yebhee diwali thee..20

'वो ' तो  चले  गए ...जाने  से  पूर्व  एकबार  पूजा  को  अपनी  बाँहों  में  भरते  हुए  कहा ,"गर मेरी माँ ने कहा तो , क्या तुम 'convert' हो  जाओगी?"
पूजा:" हाँ!
पूजा को इसका मतलब समझ में ही नही आया. उसने ,इस का अर्थ 'धर्म परिवर्तन' से है ,ये ना समझा, ना जाना...उसपे केवल  एक हिन्दुस्तानी होने के संस्कार हुए थे...उसे लगा, तमन्ना नाम हटा के वो किसी अन्य नाम से पुकारी जायेगी...या घर में होने वाले पूजा पाठ आदि में शामिल होना होगा..

उसे इन सब से क़तई ऐतराज़ नही था...मन में इतना सवाल   आया, के , पूजा नाम रहेगा...जिसे उस के दादा ने इतने प्यार से रखा था...घर में तो सब 'तमन्ना ' कह बुलाते थे...लेकिन अन्य कई दोस्त/परिवार उसे 'पूजा' ,इस नाम से ही  संबोधित करते थे...शायद इनकी माँ को जब ये बात पता चलेगी,की, लडकी का नाम पूजा है...वो घर के हर तौर तरीके अपना लेगी,तो उन्हें क्या फ़र्क़ पडेगा??

पूजा ने अपने घर में ये बात बतानी चाहिए, ऐसा सोचा ही नही. लड़का पूजा से तकरीबन १० साल बड़ा था...पूजा इस कारण भी उसकी अधिक इज्ज़त करती..बड़े होने के नाते,'वो' कोई गलत बात तो नही कह सकते ये विश्वास उस के मन में था..इसीलिये चुम्बन को लेके वो परेशान हो उठी थी...

' उन्हें' दो माह बाद किसी सरकारी काम से बेलगाम आना पडा...'वो' रुके तो पूजा के घर पे ही..और वहाँ काम ख़त्म होते, होते मलेरिया से बीमार हो गए...उन्हें अस्पताल में भारती कराया गया...पूजा काफ़ी समय अस्पताल में गुज़ार देती..एक दिन उस के साथ बतियाते हुए वो बोले:" तुम्हें पता है, मै तुम्हें कब से प्यार करने लगा?"
पूजा ने लजाते हुए कहा:" नही तो?"
वो:" तुम्हारे बारे में केवल सुना था तुम्हारे दादा से...तब से...तसवीर तो उन्हों ने बाद में दिखाई...और साथ में यह भी कह दिया की, 'तमन्ना की मंगनी हो चुकी है'....मै बेहद निराश हो गया इस बात को सुन के.."
पूजा लजा के लाल हुए जा रही थी..उसके मन में एक बार आया की, वह भी कुछ कहे...जो उसे लगा था,जब उसे 'इनके' बारे में बताया गया...की, उसे भी 'उन्हें' देखने से पहले ही प्यार हो गया था....वो खामोश ही रही...

तबियत ठीक होने के पश्च्यात' वो 'चले गए...उनका नाम था , किशोर...और उन के जाने के बाद फिर वही बिरह की शामे...और मदहोशी भरी तनहा रातें...पहले पहले प्यार ने ये क्या जादू कर दिया ??

एक माह बाद पूजा तथा उसकी माँ, मासूमा दिल्ली गए...लड़के के अन्य परिवार वालों से मिलने...माँ को शादी की बात भी करनी थी...घरवालों के खयालात से रु-b -रु भी होना था..

वहाँ  जब 'धरम परिवर्तन' की बात चली तो माँ को ये पता चला,के, पूजा ने पहले ही हामी भर दी है...! उन्हों ने एकांत में पूजा को  कोसते हुए कहा:" ये तुम ने क्या कह दिया किशोर से ?"
पूजा:" क्या कहा मैंने?"
उसने अचंभित होके माँ से पूछा...
माँ:" तुम धर्म परिवर्तन के लिए राज़ी  हो, ये बात तुमने कैसे कह दी? बिना बड़ों का सलाह मशवरा लिए? मै तो हैरान रह गयी...!"
पूजा:" मैंने धरम परिवर्तन के बारे में तो नही कुछ कहा...मुझे तो 'उन्हों' ने 'convert' होने  के  बारे  में  कहा  था ...मैंने तो उस बात के लिए हामी भरी थी...पूजा  पाठ तो करना होगा,गर उनकी माँ की इसी में खुशी है..."

माँ:" पागल लडकी...ये काम इतना आसान नही...तुमसे कानूनन मज़हब बदलने के लिए कहा गया है...प्यार में ये कैसी शर्त ? जैसे हम लोगों ने कोई शर्त नही रखी, वैसे उन्हों ने भी तुम्हें , तुम जैसी हो स्वीकार कर लेना चाहिए..तुम शादी के बाद जो चाहे करो...शादी से पूर्व नही..और शादी के बाद भी, मै नही सलाह दूँगी...एक हिन्दुस्तानी हो, वही रहो...इस माहौल में क्या तुम खुद को ढाल पाओगी ? जब तक प्यार का नशा है तब तक ठीक...जब ज़मीनी हकीकत सामने आयेगी, तब क्या करोगी?"

माँ बोले चली जा रही थी और पूजा दंग रह गयी...! अब वो क्या करे? उसे वो पल भी याद आए, जब किशोर ने कुछ 'गलत' जगहों पे उसे छुआ था...अब वो क्या करे...? माँ को तो हरगिज़ नही बता सकती...

कुछ देर बाद  किशोर ने उससे मुखातिब हो कहा:" तुमने तो धर्म परिवर्तन के लिए हाँ कर दी थी...और तुम्हारे घरवालों को ये बात ही नही पता? मेरी माँ तो इस के बिना शादी के लिए राज़ी हो नही सकती...मै माँ की इच्छा के विरुद्ध जा नही सकता...और वो तुम्हारे दादा...और भाई...उन्हें लगता है,की, इस रिश्ते को नकारते हुए उनका काम हो जायेगा?"

पूजा:" लेकिन जैसे तुम्हारी माँ को तुम दर्द नही पहुँचा सकते, मै भी नही पहुँचा सकती.."
किशोर:" लेकिन तुमने तो हामी भर दी थी..अब क्या मुकर जाओगी?"

पूजा निशब्द हो गयी..माँ ने कहा था,की, वो पूजाके दादा दादी की सलाह के बिना कुछ नही करेंगी..किशोरकी माँ का रवैय्या पूजा के साथ बेहद सख्त रहा था...वो उसे अपमानित करने का एकभी मौक़ा नही छोड़ती.."वैसे अच्छा ही हुआ, आँचल जल गया.. हमारे घरमे आना मतलाब आग से खेलना है..",उन्हों ने पूजा से कह दिया, जब पूजा के आँचल ने खिड़की में रखी अगरबत्ती  से आग पकड़ ली...
उसके दादा को क्या कहेगी ?? और छोटे भाई बहन जो अपनी आपा को इतना मान देते हैं...??बहन अफशां और भाई आफताब..अब उसने कौनसा क़दम उठाना  चाहिए...??? पूजा बेहद संभ्रम में पड़ गयी, और पहली बार उसे ज़बरदस्त सर दर्द ने घेर लिया...बेहद उदास और सहमी-सी हो गयी...उसके प्यार का अब क्या हश्र होगा?

आने वाली दिवाली तक तो उसके परिवार ने उसके ब्याह के बारेमे सोचा था,की, करही देंगे  ...दिवाली बस आनेवाली थी...और उसके लिए क्या तोहफा था????..कभी वो किसी की  तमन्ना बन, किसी की आँखों का तारा बन इस दुनिया में आयी थी...उस सितारे का क्या भविष्य था? क्या वो बिखरने वाला था...दादा-दादी के आँखों के सामने टूटने वाला था...?

क्रमश:

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

bikhare sitare...19)intezaar ke pal.. !

(पिछली कड़ी में लिखा था...वो रात शायद पूजा के जीवन की सब से हसीं रात थी..आगे आने वाले तूफानों से बेखबर!)

पिया ने प्यार का इज़हार तो कर दिया ! पूजा पे मानो एक नशा-सा छा  गया ...पहला प्यार और वो भी हासिल...! कितने ऐसे ख़ुश नसीब होते होंगे...और उसके सभी प्रिय जन भी ख़ुश...!

सितारों भरी रात और आधा चंद्रमा अपना सफ़र तय करता गया..मौसम तो बरसात का ,लेकिन साफ़ आसमान था..ज़बरदस्त क़हत पड़ा हुआ था......

आँगन में सब के बिस्तर बिछे थे...एक ओर दादा-दादी...घरके पिछवाडे  वाले खलिहान में माँ बाबा...और बिना छत के बरामदे में वो और छोटी बहन..कुछ ही दूरीपर छोटा भाई...

दोनों बहने  में एकही बड़े पलग पे थीं......पूजा तो करवट भी नही लेना चाह रही थी,की, बहन कहीँ छेड़ ना दे...! रात भर वो चाँद का सफ़र देखती रही...कल दोपहर एक बार फिर प्रीतम आनेवाले थे...ऐसा खुमार होता है, पहले प्यारका? सुबह पौं फटने वाली थी तब कहीँ जाके कुछ देर उसकी आँख लगी...और फिर सूरज की किरणे आँखों पे पडी...वो उठ गयी...

उसे डर था कहीँ आँखों के नीचे काले घेरे न पड़ जाएँ...लपक के उसने अपनी शक्ल आईने में देखी...नही लाल डोरे तो थे, लेकिन कालिमा नही थी...होठों पे सुर्खी थी...अपनेआप से वो लजा गयी....

कब होगी दोपहरी?? कब आयेंगे 'वो'?? कैसे लेंगे उससे बिदाई...?? वक़्त थमा तो नही...लेकिन इंतज़ार के पल को पूजा थामना चाह रही....और समय रुका तो नही....? ये सवाल भी मन में आ रहा था...इतनी देर हुई और घड़ी के पाँच मिनट ही कटे?

'वो' आए तो फिर एकबार उसने घर के अन्दर का रुख किया लेकिन इस बार 'उन्हें' अन्दर भेज दिया गया...पलकें झुकी रहीं...माँ रसोई में चली गयीं....और पहली बार साजन ने बाहें फैला के उसे अपने पास भीं लिया...उसको चूम लिया...पूजा इतनी नादान थी, की , चुम्बन कैसा होता है, ये उसने किसी अंग्रेज़ी फिल्म में भी नही देखा था...!

कुछ भरमा-सी गयी...उसे लगा यही 'शरीर सम्बन्ध' होता है...कुछ नाराज़गी के साथ उसने 'उन्हें' अपने से दूर किया...बाहों में भरना तो ठीक था... ! ये क्या??लेकिन नशा कम नही था...उसने अपनी  हथेलियों में अपना मुख छुपा लिया...'वो' उसका चेहरा हथेलिओं से छुडाते रहे...कितना समय बीता?

माँ ने खाने के लिए आवाज़ लगाई तो वो 'उन से' खुद को छुडा के , स्नान गृह में भाग गयी...वहाँ के शीशे में देखा तो उस के होटों के आसपास ...? ये क्या लाल दाग?? और सुराही दार गर्दन कैसे छुपाये...? त्वचा पे सूर्ख दाग..? उफ़ ! ये क्या कर दिया उसके साजन ने?? सारा पोल खोल दिया...! अब वो अपने दादा-दादी माँ- बाबा के सामने कैसे जाए??उसे भूख तो बिलकुल नही थी...क्या प्यार में या बिरह में भूख मर जाती है??किताबों में पढ़ा था...फिल्मों में देखा था...आज उसके साथ घट रहा था..

एक बार फिर माँ  की आवाज़ आयी...उसने अपनी साडी दोनों काँधों पर ओढ़ ली...गर्दन तो कुछ छुप गयी...लेकिन कपोलों  का क्या करे? और होंट  ??खानेके मेज़ पे पहुँची तो उसकी स्थिती एक चोर जैसे हो रही थी...वो अपनी निगाहें उठा नही   पा रही थी..और' वो' हर मौके बे मौके उसे देख रहे थे...और वो वक़्त भी गुज़र गया...देखते ही देखते 'उनके' जाने का समय आ गया...और चले गए...

अब उसे अचानक बिरह क्या होता है, ये पता चला...अब ना जाने कब पिया मिलेंगे? ' उन्हों ने' कहा था,की, पूजा तथा उसके माँ बाबा देहली आयें...लेकिन कब??

उसके बडौदा लौट ने के दिन आ गए, परीक्षा का नतीजा लाना था...वहाँ उसे कुछ दिन रुकना था...और वहीँ उसे साजन का पहला ख़त मिला....छात्रावास में अपनी सहेलियों से वो छुपा नही पा रही थी,की, उस ख़त को वह अपने तकिये के नीचे छुपा के सोती थी..पकडी ही गयी....

परिक्षा में वो अच्छी सफलता पा गयी थी...जब लौटी तो अपने घर पे एक और ख़त इंतज़ार कर रहा था...बहन ने बड़ी छेड़ खानी     करते, करते उसे वो ख़त दिया...कैसा पागल पन सवार था...!! उसके बाद आए ख़त में लिखा था, की, किसी सरकारी काम से 'उन्हें' बेलगाम आना था...और पागल पूजा दिन गिनने लगी...अबकी मुलाक़ात कैसी होगी...ना,ना...अब वो अधिक नजदीकियों से रोकेगी...ये बात ठीक नही...लेकिन कैसे?

'वो' आए...पूजा को अपने बाहों में भरते हुए, बस बिदा के पहले कहा.....क्या कहा..? उसी बात ने उसके प्यार की नींव हिला दी...उसे तो बात समझ में नही आयी...लेकिन जब पूजा और माँ, बाद में देहली पहुँचे तो उस बातका गाम्भीर्य सभीके ख्याल में आया....प्यार भरे दिल पे एक चोट का एहसास...प्यार में शर्तें?? क्या शर्त थी?? पूजा को अब क्या निर्णय लेना चाहिए था??क्या हुआ उनकी देहली के वास्तव्य में? क्या बात थी जो पूजा ने अपनी माँ या दादा दादी को नही बताई थी...या उसकी अहमियत उसे समझ नही आयी थी....?क्या भविष्य था उसके प्यार का ??

क्रमश:

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

'BIKHARE SITARE..... 16) poojakee chand tasveeren...


पूजाकी अलग,अलग उम्र में ली कुछ तस्वीरें...माँ, मासूमा पूजाके लाडले कुत्तेके साथ.....

सोमवार, 28 सितंबर 2009

'बिखरे सितारे...१५) ख्वाबों ख़यालों में...

पूजाकी लिखी चंद पंक्तियाँ पेश कर रही हूँ...इसकी आखरी पंक्तियाँ आज नही.... फिर कभी...

"सूरज की किरनें ताने में,
चाँदनी के तार बाने में,
इक चादर बुनी सपनों में,
फूल भी जड़े, तारे भी टाँके,
क़त्रये शबनम नमीके लिए,
कुछ सुर्ख तुकडे भरे,
बादलों के उष्मा के लिए,
कुछ रंग ऊषाने दे दिए
चादर बुनी साजन के लिए...

पहली फुहार के गंध जिसमे,
साथ संदली सुगंध उसमे,
काढे कई नाम उसपे,
जिन्हें पुकारा मनही मनमे
कैसे थे लम्हें इंतज़ार के,
बयाने दास्ताँ थी आँखें,
ख़ामोशी थी लबों पे...
चादर बुनी सपनों में..."

ऐसा ही हाल था,पूजा के मन का .....उसके साथ घरवाले भी बेहद खुश थे...उनकी आँखों का सितारा चमकने लगा था...उन आँखों की चमक उसके दादा, दादी, माँ, बहन , भाई....सभी के आँखों में प्रतिबिंबित हो रही थी...भाई काफ़ी छोटा था...फिरभी उसकी 'आपा' खुश थी, इतना तो उसे नज़र आ रहा था...

पूजा ने घरको गुल दानों में फूल पत्तियाँ लगा, खूब सजाया...लाज के मारे वो घर में किसी से निगाहें मिला नही पा रही थी...फिरभी, गुलदान सजा रही पूजा को दादा ने धीरेसे अपने गले से लगा लिया...और देरतक उसके माथे पे हाथ फेरते रहे...उनकी आँखों की नमी किसी से छुपी नही...

और पूजा की आँखें..अपने पहले प्यारको सलाम फरमा रही थीं...छुप छुप के...

दिन धीरे, धीरे सरकते रहा...शाम गहराती रही...और वो वक्त भी आया जब उसे अपने साजन की जीप की आवाज़ सुनाई दी...वो कमरेमे भाग खड़ी हुई...बहन उसे धकेल के अपने भावी जीजाके पास ले आयी...अंधेरे में उन कपोलों की रक्तिमा छुपी रही...बगीचे में अभी चाँद ऊपर निकलने वाला था..जिसमे लाज भरी अखियाँ तो नज़र आती, लालिमा नही...

कुछ देर बाद परिवार ने उन दोनों को अकेले छोड़ दिया...'उसने' पूजा की लम्बी पतली उंगली को छुआ और उसकी आँखों में झाँक के कहा,
" क्या तुम्हें एक जद्दो जहद भरी ज़िंदगी मंज़ूर है?"
पूजाने ब-मुश्किल अपनी सुराही दार गर्दन हिला दी...
रात गहराती रही...अगले   दिन   'वो' दोपहर के भोजन के लिए आनेवाला था..और वहीँ से अलविदा कह दिल्ली के चल पड़ने वाला था...
वो रात कैसे कटी? ज़िंदगी की सबसे हसीं रातों में से एक रात...या...

क्रमश:

पोस्ट छोटी है...उसकी वजह अगली कड़ी में पाठक जान जायेंगे...

बुधवार, 23 सितंबर 2009

बिखरे सितारे...! १४)... जहाँ औरभी थे..

(पूजा की माँ ने क्या कहा पूजा से?...अब आगे पढ़ें...)

पूजा अपने आपको हज़ार कामों में व्यस्त रखती...उस समय वो रसोई साफ़ कर रही थी..माँ तभी शहर से लौटी थीं...चुपचाप पूजा के पीछे आके खड़ी हो गयीं....

आहट हुई तो पूजा ने मुड के देखा...माँ बोलीं,
" क्या तुझे 'वो' पसंद है? प्यार है, हैना?"
पूजा: " हाँ...कहा तो था आपको..लेकिन मेरे पसंद आने से क्या फ़र्क़ पड़ता है...ये बात तो एकतरफा है...मुझ में कौन-सा आकर्षण है,जो मै उसे पसंद आ जाऊं...मै तो खामोश बैठी रहती हूँ... "
माँ:" नही...एकतरफा नही है...आग दोनों तरफ़ बराबर है...तेरी खामोशी में भी बेहद कशिश है...शायद तू ख़ुद नही जानती.."
माँ के चेहरे पे एक विलक्षण सुकून और खुशी नज़र आ रही थी...पूजा को अपने कानों पे विश्वास नही हुआ...दंग रह गयी...
पूजा:" आपको कैसे पता?"
माँ: " मै अभी, अभी उससे मिल के आ रही हूँ...इसीलिये शहर गयी थी...तेरे दादी दादा को बता के गयी थी,कि, किसलिए जा रही हूँ.."
माँ, मासूमा, ख़ुद गाडी चला लेती थीं...
पूजा:" तो?"
अब पूजा के गाल कुछ रक्तिम होने लगे थे...माँ ने उसे धीरे से अपने पास खींच लिया और बोलीं,
" उससे मैंने कहा, कि, पूजा किसी से प्यार करती है..और उसे लगता है, वो प्यार एकतरफा है....उसका जवाब था, उससे कहो, ये एकतरफा नही है....वो आज शाम तुझ से मिलने आयेगा...."

एक पल में पूजा की दुनिया बदल गयी...जैसे मुरझाई कली पे ओस पडी हो...वो इसतरह खिल उठी...फिज़ाएँ महकने लगीं...चहकने लगीं...गरमी का मौसम था, लेकिन पूजा के जिस्म को मानो बादे सबा छू गयी...एक सिहरन-सी दे गयी...

माँ के आगे उसकी पलकें लाज के मारे झुक गयीं...कितनी प्यारी माँ थी...जिसने लडकी के मन को जाना और उसकी उदासी ख़त्म कर दी...अपने सास ससुर को विश्वास में ले, स्वयं लड़के के पास चली गयी...ना जात ना पात...घर में पूजा की खुशी की हरेक को चिंता थी...

जब तक माँ शहर से लौटी नही, तब तलक दादा दादी दिल थामे बैठे रहे...सबसे पहले माँ ने ये ख़बर उन्हें सुनायी...उनकी जान में जान आ गयी...गर ब्याह होगा तो बच्ची...उनकी आखों का सितारा...वो सुबह का तारा ...आँखों से बेहद दूर हो जायेगा...लेकिन बिखर तो नही जाएगा...

अब सभी को शाम का इंतज़ार था...पूजा चुपके से अन्दर कमरे में जा आईने के आगे खड़ी हो गयी...आज शाम को बिना सिंगार सुंदर दिखना था..क्योंकि सिंगार तो उसने कभी किया ही नही था..कभी बालों में फूल के अलावा अन्य कुछ नही...
और ऐसा बेसब्र इंतज़ार भी कभी किसीका नही किया था...हाँ! जब, जब 'वो' घर पे आनेवाला होता, उसके मन में मिलने की चाह ज़रूर जागृत होती..लेकिन आज...! आज की शाम निराली होगी...आज क्या होगा? 'वो' क्या कहेगा? क्या उसे छुएगा ?? उई माँ...! सोचके उसके कपोलों पे रक्तिमा छा गयी....अपना चेहरा उसने ढँक लिया....

वो शाम उसके जीवन सबसे अधिक यादगार शाम होने वाली थी...आना तो उसने ८ बजे के बाद था....लेकिन उसदिन शुक्ल पक्षका आधा चन्द्रमा आसमान में होने वाला था...रात सितारों जडी की चुनर लेके उसके जिस्म पे पैरहन डाल ने वाली थी...

क्या भविष्य उतना उजला होने वाला था? किसे ख़बर थी? किसे परवाह थी? क़िस्मत की लकीरें कौन पढ़ पाया था?

शनिवार, 12 सितंबर 2009

बिखरे सितारे १३) सितारों से आगे.....!

( पूजाकी ज़िंदगी पे उड़ एक चली गोली के दूरगामी असर हुए: अब आगे पढ़ें।)

जिस बच्चे को गोली लगी उसका क्या हुआ? उसे जाँघ पे गोली लगी। दादा जी ने निशाने बाज़ी में सिखा रखा था,वो काम आ गया...वरना लड़का जानसे जाता... पूजाके दादा जी ने उसे सही वक़्त पे अस्पताल पहुँचाया। वो बच गया। लेकिन उसके बापने सारी उम्र पूजाके परिवार को black मेल किया। हालाँकि,क़ानूनन ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नही बनती थी, लेकिन वो १२ बच्चों का परिवार था। बाप तो शराबी थाही..पूजाके परिवार ने बरसों उन्हें साल भरका अनाज, दूध कपड़े आदि दिए। तीज त्यौहार पे पैसे भी देते रहे। चंद सालों बाद वो निकम्मा लड़का एक सड़क हादसे का शिकार होके मारा भी गया। परिवार मे से किसी बच्चे को काम करना ही नही होता...ये भी एक अजूबा था...!

एक बार लड़केका बाप उस लड़के को लेके, पूजाके तथा परिवार के फॅमिली डॉक्टर के पास पहुँचा। शिकायत ये कि, जबसे गोली लगी, लड़के को एक कान से सुनायी देना कम हो गया...! तबतक तो हादसे को छ: साल बीत चुके थे। डॉक्टर की शहर में बेहद इज्ज़त थी..गरीबों के डॉक्टर कहलाते थे।

इन डॉक्टर ने उस लड़के के गाल पे एक थप्पड़ लगाई और कहा," अब दूसरे कान को बहरा कर दिया मैंने...भाग जा..!"

खैर! पूजाके जीवन पे लौट चलती हूँ। पूजा छुट्टीयों में घर आने से पूर्व , दादा जी ने उस IAS के लड़के को एक पारिवारिक तस्वीरों का अल्बम दिखाया और,पूजाकी मंगनी की तस्वीरें भी दिखा दीं।

पूजा अन्यमनस्क स्थिती में छात्रावास से अपने घर पहुँची । अपनी मंगनी को लेके ज़्यादा समय वो अपने मंगेतर के परिवार को अंधेरे में नही रखना चाह रही थी। वैसे एक बात उसने मंगनी के पूर्व साफ़ कर दी थी...गर मंगनी और ब्याह के दौरान उसे एहसास हो की, क़दम सही नही है तो वो मंगनी तोड़ भी सकता है। मंगेतर की माँ, पूजाकी माँ की बचपन की सहेली थी। लड़का रईस घरका होनेके अलावा , commercial पायलट भी था। घरका अछा खासा व्यापार था। दिखने में काफ़ी अच्छा था। कई परिवार उस लड़के के लिए रुके थे। लेकिन विधिलिखित घटना होता है,तो, घटके रहता है।

पूजाने अपने परिवार को विश्वास में ले के मंगनी तोड़ दी। लड़के की माँ का दिल टूट गया। इस बहू को लेके बड़े सपने बुने थे। पूजा थी भी सरल स्वाभाव की और साफ़ मनकी। माँ, मासूमा ने भी, एक अलग से चिट्ठी लिख दी। पूजा के मनसे एक बोझ तो उतरा।

एक दिन पूजा के साथ उसके परिवारवाले उस डेप्युटी कलेक्टर के घर गए। पूजा पे जैसे जादू चल गया। एक दर्द से छूटी तो और एक दर्द सामने आ खड़ा हुआ...

लड़के की बातचीत परसे पता चल रहा था की, उसका परिवार काफ़ी पुराने ख़यालात का है....अपनी माँ की वो हमेशा तारीफ़ करता...उनके अन्य लोगों को लेके सख्त मिज़ाज की बातें भी करता, लेकिन काफ़ी इतराके, अभिमान पूर्वक करता।

पूजा को उससे मिले २ माह भी नही हुए थे,कि, उसका तबादला मध्यवर्ती सरकार में हो गया। अन्न तथा कृषी मंत्रालय में...उसे देहली जाना था...पूजा के दादा का केस तो अबतक अटका ही था,लेकिन लड़के ने अधिकतर काम कर दिया था।

जैसे ही उस लड़के की तबादले की बात सुनी, पूजा टूट-सी गयी...माँ, मासूमा ने अपनी बेटी की मन की बात भाँप ली थी ..पूजा अपने आपको ना जाने कितने कामों में लगाये रखने लगी...एक दिन माँ ने उससे कहा....और जो कहा,वो एक अलग कहानी बन गयी....उस हादसे से आगे चलती हुई....

क्रमश:

पूजा के परिवार की कुछ अन्य तस्वीरों के लिए रुकी हूँ..

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

बिखरे सितारे ! १२) एक अनजाना मोड़ !

( इसके पहली किश्त में पूजा की मंगनी की बात बताई थी...अब आगे..)

पूजा ने अपनी मंगनी करवाके बचपना किया...जैसे समय बीतता रहा..उसे अपनी गलती महसूस हो रही थी...जो लड़का उस पे जान निछावर करता था,उसकी इज्ज़त तो करती,लेकिन प्यार या कोई आकर्षण ने दिलके द्वारों पे दस्तक नही दी..लड़के की माँ, पूजा पे वारे न्यारे थी..उसके मुँह से अनजाने में निकला शब्द वो तुंरत झेल लेती...ऐसी सास ढूँढे मिलना मुमकिन नही था..लेकिन गर जिसके साथ जीवन बिताना हो, उसके प्रती कोईभी कोमल भावना न हो तो, दोनों ओरसे जीवन नरक बन सकता था.....जब वो लड़का ३/४ चक्कर काट लेता,तब जाके पूजा उससे मिलने आगे आती...और कुछ ना कुछ बहाना बना, १०/१५ मिनटों मे चल देती...वो एक दोराहे पे आ खड़ी थी ...


मंगनी तकरीबन दो साल टिकी रही..वो लड़का जब कभी पूजाको छात्रावास में मिलने आता,पूजा टाल जाती..कभी,नीचे रखवाल दार को कह देती,मै वाचनालय में हूँ...या और कहीँ......' एक उदासी का आलम उसपे घिर आने लगा...कुछ तो निर्णय लेना ही था..वरना लड़के तथा उसके परिवारपे घोर अन्याय था..
पूजा के दिलो दिमाग़ पे इस बात का विपरीत असर होने लगा...स्नातकोत्तर हुई,पहली सेमिस्टर मे महा विद्यालय का रिकॉर्ड तोड़ने वाली पूजा, सालाना इम्तेहान के समय बीमार रहने लगी...पढ़ा हुआ भूल जाने लगी...

fine आर्ट्स में पोस्ट graduation का एक साल ख़त्म होनेवाला था..माँ उसे परिक्षा के पूर्व मिलने आयी और बताया कि, उनके शहर एक आईएस का लड़का assitant कलेक्टर बनके आया है...परिवार से घुल मिल गया है...


इस लड़के से उनके परिवार का परिचय कैसे हुआ?

यही बताने जा रही हूँ...कारण वही हादसा था...जिस बंदूक से गोली चली थी,दादा जी ने वो बन्दूक तुंरत तहसील के दफ्तर में जमा करा दी थी..उसे जमा करके भी दो साल हो गए थे...दर असल,ये बन्दूक, एक जर्मन डॉक्टर ने उन्हें भेंट दी थी...

परवाने लिए उन्हों ने तहसीलदार के दफ्तर में आवेदन पत्र भी भेज रखा था....और ये आवेदन पात्र उन्हों ने हादसे के दो वर्ष पूर्व भेजा था...!सरकारी कारोबार था..दादाजी जब भी पता करने जाते, कुछ न कुछ बहाने बनाके उन्हें टाल दिया जाता....उस बंदूक को वापस हासिल करने तथा उसका परवाना चाहने, दादा तथा पूजा के पिता, assistant कलेक्टर से मिलने तहसील के दफ्तर मे चक्क्कर काटते रहते..

इन दो ढाई सालों मे कई अफसर आए और गए...काम नही बना..अबके एक IAS का अफसर आया है, शायद, अधिक ईमानदार होगा सोच, दोनों मिलने गए...और...... और वो लड़का विलक्षण प्रभावित हुआ...पिता पुत्र दोनों इज्ज़त दार लोग हैं,ये उसे तफ़तीश के बाद पता चला..दोनोका अंग्रेज़ी भाषा पे प्रभुत्व देखके भी वो दंग रह गया...इस पिछडे,दूर दराज़ ग्राम मे, oxford मे पढ़े लोग? हैरानी की बात थी......धीरे,धीरे पता चलता गया,कि, दादा दादी ने इस देश के ख़ातिर ,सारा ऐशो आराम छोड़ दिया था....बेलगाम के एक गाँव मे आ बसे थे...वो लड़का कर्नाटक कैडर का था....

यही वजह रही कि,उस परिवार के साथ उस अफसर की नज़दीकियाँ बढीं...वो उनके घर भी आने जाने लगा..अपने अन्य मित्रों कोभी( जो आस पास के इलाकों मे कार्यरत थे), कई बार साथ ले आता... ...ये फिल्मों मे दिखायी जानेवाली ज़मीदारों की कहानी नही थी...बल्कि, जब हादसा हुआ, और दादा जी पुलिस स्टेशन पहुँचे, तो स्थानीय पुलिस, जो दादा जी की बेहद इज्ज़त करते थे,उन्हों ने सलाह दी," आप FIR मे दर्ज करें,कि, जिस बंदूक का आपके पास परवाना था, गोली उसी से छूटी...तथा, पहले वकील बुलाके और फिर कुछ भी दर्ज कराएँ....."
लेकिन दादा जी ने साफ़ इनकार कर दिया...उस बात का भी बयान दूँगी...

उस हादसे के कुछ तपसील देना चाहती हूँ...वो बिना परवानेकी बन्दूक दादाजी हमेशा dismantle करके रखते..कभी कबार अलमारी से बाहर निकाल, उसकी साफ़ सफाई करते,और वापस अन्दर चली जाती...गाँव या बस्ती से दूर बने घरमे सुरक्षाके लिए बन्दूक ज़रूरी थी..बल्कि,एक बार किसीकी चींख सुन उन्हों ने हवा में गोली दाग दी थी...चोर एक औरत का हाथ काटते काटते भाग गए....! उसके हाथ से चांदीके भारी कड़े निकल नही रहे थे,तो हाथ काटने चले थे...


दादा जी वचन और अल्फाज़ के सच्चे थे..बोले," क़तई नही..ये तो मेरे पोते-पोतियों पे कितना ग़लत असर होगा..दादा ने झूठ कहा? सवाल ही नही..जो परिणाम होने वाले हों, सो हों..मै वही कहूँगा,जैसा की घटा.."

घटना कैसे घटी थी? दादा जी ने बन्दूक को साफ़ किया..तभी भैंसे दूधने के खातिर ग्वाला चला आया...दादा अपने सामने दूध निकलवाते...ताकि, ग्वाला एक बूँद भी पानी न मिला सके...और दूध मशहूर था..ऐसी मलाई, ऐसा गाढा दूध और कहीँ नही मिलता था...लोग इस ढूध के खतिर क़तार लगाये रहते..

जो व्यक्ती हमेशा हर चीज़ मे बेहद सतर्क रहता, वो बंदूक को वापस बिना अलमारी मे रखे चला गया..गोलियाँ बाहर निकली हुई हटीं..१२ गोलियां तो उन्हों ने उठाके, मेज़ की दराज़ मे रख दी थीं...
पूजा का छोटा भाई जब बाहर निकला तो बरामदे मे पड़ी बंदूक उसे दिखी...वो इतनी छोटी उम्र मे भी बेहतरीन निशाने बाज़ था...गुलेल से एक ही बार मे आम का या चीकू का फल टहनी से अलग कर देता..air gun भी बहुत ख़ूब चलाता..उसके लिए तो परवाने की ज़रूरत नही थी...चूहे भी मार गिराता...जो कि, खेती का नुकसान करते...
उसने जैसे ही बंदूक हाथ मे पकडी, सामने से बस्ती परका एक लड़का आया..उसी की उम्र का..उस लड़के ने भाई से उकसाते हुए कहा,
"चलाओ तो मुझ पे गोली...!"
वो भी खूब जनता था,कि, अगला कभी नही चलाएगा!
दादा जी की एक एहतियातन ताकीद थी...जब कभी निशाना check करना हों, हमेशा, ज़मीन की ओर..कभी ऊपर नही...राजू, (छोटे भाई को सब यही बुलाते) कभी भी किसी के ऊपर गोली नही दाग सकता...
खेलही खेल मे, राजू ने, उस लड़के की पैर की ओर निशाना लिया और बंदूक का ट्रिगर दबा दिया...

जैसा कि, दादा या अन्य परिवार वाले समझते थे,कि, बंदूक मे केवल १२ गोलियाँ होती हैं,वो बात सही नही थी...उसमे १३ गोलियाँ हुआ करतीं..आखरी गोली चल गयी..उस सुनसान खेतमे एक ज़ोरदार धमाका हुआ...पूजा तो थी नही...अन्य परिवारवाले दौडे...उस हादसे को बरसों बीते लेकिन,उस गोली की गूँज कोई नही भूला...या भुला सकता...
पूजा छात्रावास मे थी,जब ये घटना घटी....स्नातक पूर्व पढ़ाई चल रही थी...इसी अनुगूंज का असर पूजा की गैर मौजूदगी होके भी, उसके जीवन पे बेहद गहरा हुआ, ता-उम्र हुआ......उन परिणामों की चर्चा बाद मे....! जब उस IAS अफसर से पूजा के परिवार की मुलाक़ात हुई,तब पूजा, स्नातकोत्तर पढाई की एक साल पूरा कर चुकी थी...


लड़का तो नीचे गिर गया...बंदूक कमर से नीचे चली थी...दादा उसे लेके तुंरत अस्पताल दौडे...

अब एक बाप की नीयत देखिये..जिस बच्चे को गोली लगी थी,उसके बाप को अपने बेटे की जान प्यारी नही थी...और भी तो बच्चे थे..उसे तो पैसे निकलवाने थे! वो जाके छुप गया...चूँकि, दादा को पूरा शहर जानता था, पुलिस केस के पहले ही, दादा जी की सही लेके, शल्य चिकित्चा शुरू कर दी गयी..दादा जी बाद मे पुलिस स्टेशन पहुँचे..इज्ज़त इतनी थी,कि, हादसे के बारेमे जिस किसी ने सुना,( तबतक फ़ोन तो नही थे), वो सारे उनकी ज़मानत देने दौडे चले आए...

आगे, आगे क्या अंजाम हुए ?? क़िस्मत ने क्या रंग दिखाए? श्रवण कुमार ने शाप तो महाराजा दशरथ को दिया..लेकिन किस, किस ने भुगता?
पूजा के जीवन के दर्दनाक मोड़ तो उसी दागी गयी गोली के साथ शुरू हों गए...या और पीछे जायें,तो जब उसका पाठशाला मे रहते जो हादसा हुआ, तब से शुरू हुए...? तय करना कठिन है...जैसे मालिका आगे बढेगी...पाठक अपने अनुमान लगा लेंगे...कि, इस सवाल का जवाब किसी के पास नही...
एक मासूम, निर्दोष कथा नायिका का भविष्य क्या रहा? क्यों छली गयी एक निष्कपट लडकी ??
क्रमश:

शनिवार, 29 अगस्त 2009

' बिखरे सितारे ' ११) जब रौनक़ बसा करती थी...!


अब वो बगीचे नहीं, वो बेले और पेड़ उखड गए...एक वीरानगी-सी छाई रहती है...बेआराम बन मकान गया तो,माँ पिताजी को वहाँ हटके अलगसे एक छोटा घर बनाना पड़ गया...खैर अभी इस बात तक पहुँचने में समय है..!

'बिखरे सितारे'..१०)पूजाके दादा और दादी...


इस समय दादी की उम्र थी ७४...पूजा के ब्याह के दिन ली गयी तस्वीर..अंदाज़ वही...शाहाना,लेकिन सादगी भरा ...

पहली तस्वीर में दादा नज़र आ रहे हैं...शेरवानी पहने हुए...अपनी लाडली पोती की बिदाई के लिए तैयार..पर मनमे दर्द छुपाये हुए...बारात के लिए रुके हुए...!

दादी की एक जवानी की तस्वीर पोस्ट करना चाह रही हूँ,जो हासिल नही हुई है,लेकिन जल्द ही होगी,ये उम्मीद है...मूर्तिमंत सादगी...!अपने पती के साथ रहते,रहते, वो पूरी तरह से उनके मौहौल में ढल गयीं...अंग्रेज़ी कपड़े तो जलाही दिए थे...साडियाँ , खादी, या हाथ करघेकी ही पहनती थीं..

जेवर .... कान में मोतीके टॉप्स..गलेमे सिर्फ़ जब कोई समारोह हो,तो मोती की माला..बस...

तसवीर के बारेमे : पूजा के ब्याह के दिन के कुछ लमहात...दादी रुकी हैं, हाथमे सादी-सी फूल माला लिए   हुए,बारात के इंतज़ार में...इन लमहात पे पहुँच ने में अभी समय है...एक हादसे की बयानी देनी है...एक टूटे रिश्तेके बारेमे बताना है....फिर आगे बढ़ना है..जहाँसे फिर कभी मुडा नही गया...लौटा नही गया...

दादा के चेहरे  पे एक मायूसी झलक रही है...जो वो छुपाना चाह रहे हैं...कोशिश करते जा रहे थे,लेकिन,पूजा को उनकी मनोदशा खूब पता थी...दोनों दादा-पोती एकदूसरेसे अपने बिछोह का गम छुपाये जा रहे थे...

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

'बिखरे सितारे' ९ ) मील का पत्थर!


ज़िंदगी में मोड़ किसको कहते हैं,ये नन्हीं तमन्ना कहाँ जानती थी...वो तो मोड़ पीछे छूट गए, तब उसे महसूस हुआ,कि, हाँ एक दोराहा पार हो गया..उसे ख़बर तक नही हुई...

एक झलक दिखाती हूँ, दादा पोती के नातेकी...ये क़िस्सा पूजासे कई बार सुन चुकी हूँ..पर हरबार सुननेको जी चाहता है..

जैसा,कि, मैंने लिखा था, सायकल चलाना, दादा ने ही पूजा को सिखाया..शुरू में तो चढ़ना उतरना नही आता...तो दादा साथ,साथ दौड़ा करते..एक दिन, सामने खड़ा ट्रक दिख गया,और पूजा उतरना सीख गयी...!

खेतों से गुज़रती पगडंडियों पे खूब सायकल चलाती रहती...ऐसे ही एक शाम की बात सुनाऊँ.....
तमन्ना, तेजीसे सायकल चलाती, खेत में बने रास्तेपे गुज़र रही थी...सामने से दादा दादी घूमने निकले नज़र आए .....दादा उसके सामने आके खड़े हो गए और मज़ाकिया लह्जेमे बोले,
" ये क्या तुम्हारे बाप का रास्ता है?"

पूजा, सायकल पे से उतर के हँसते,हँसते बोली,
" हाँ,ये मेरे बाप रास्ता है...बाप के बाप का भी है,लेकिन ठेंगा! आपके बाप का तो नही है!"

दादा-दादी खुले दिल से हँसते हुए, बाज़ू पे हो गए!

ऐसे हँसते खेलते दिन भी हुआ करते...जो अधिक थे...बस,एक माँ का दर्द उसे सालता रहता...!
पूजा की माँ के लिए कहूँगी...
'ना सखी ना सहेली,
चली कौन दिशा,
यूँ अकेली अकेली...'

नैहर के रौनक़ वाले माहौल से यहाँ पहुँच , मासूमा, वो नैहर की सखियाँ,वो गलियाँ, वो रौनक़.....याद बहुत करती...पर अपने बच्चों में पूरी तरह मन लगाये रखती...

उम्र के १३ साल पार करते करते, पूजा का एक भयानक हादसा हो गया..वो ९ वि क्लास में जा चुकी थी...अस्पताल में महीनों गुजरने पड़े... मेंदू के 'सेरेब्रल' पे चोट आ गयी थी...माँ उसे, पाठ्यक्रम की किताबें, अस्पताल में पढ़के सुनाया करती...सालाना परीक्षामे वो अपने क्लास में पहले क्रमांक से पास हो गई..

सीधे अस्पतालसे निकल परीक्षा हॉल में उसे पहुँचाया गया..उसे तो दोबारा चलना सीखना पड़ा था..गणित एक ऐसा विषय था, जो पढ़के नही सुनाया जा सकता..और वहीँ उसे केवल ४० अंक मिले.....आत्म विश्वाश खो बैठी...ये एक उसके जीवन में बड़ा अहम मील का पत्थर साबित हुआ...

उस ज़माने में, अब जैसे PCB या PCM का ऑप्शन होता है,तब नही था..पूजा बेहतरीन डॉक्टर बन सकती थी..ये कई जानकारों ने उसे बताया..सिर्फ़ डॉक्टर नही,उसके हाथों में एक शल्य चिकित्चक की शफ़ा थी.. पर उसने 'fine arts' में दाखिला ले लिया...उसकी आगे की जीवनी जब देखती हूँ,तो लगता है,पहला निर्णायक मोड़ तो यहीँ आ गया..

अपने गाँव से निकल वो पहली बार, बडोदा शहर आयी...ये विषय तब उसी शहरमे पढाया जाता था...सोलवाँ साल लग गया था..पूजा तीक्ष्ण बुद्धी और मेहनती थी...कलाके कई आयाम वो अपने आपसे ही पार कर लेती...अपने गुरुजनों की लाडली शागिर्द बनी रही...

अब केवल साल में दो बार उसका अपने घर आना बन पाता..दादा, दादी,माँ, उसे शिद्दत के साथ याद आते और उतनी ही शिद्दत के साथ पूजा भी अपना घर याद करती...अन्य लड़कियाँ छात्रावास के मज़े उठाती..लेकिन पूजा कुछ अलग ही मिट्टी की बनी थी...संग सहेलियों के जाती आती..लेकिन इस तरह की आज़ादी से वो कभी बहक नही गयी...

परिवार में अबतक,एक बहन के अलावा, एक भाई भी आ चुका था...जो पूजासे ८ साल छोटा था...

छुट्टीयाँ ,भाई बहनों के झगडे..पुरानी सखी सहेलियों से मेल जोल, इन सब में बीत जातीं..जब वो छूट्टी में आती तो,मानो एक जश्न -सा मन जाता...

एक ऐसी ही छुट्टी में उसके लिए एक पैगाम आया..पैगाम तो उसे उम्र की १४/१५ साल से आते रहे...पर कुछ निर्णय क्षमता तो नही थी...बचपना था...मंगनी होगी तो, घर मेहमान आयेंगे, खूब रौनक़ होगी...एक बुआ जो बड़े सालों बाद ऑस्ट्रेलिया से भारत आयी थी,और पूजा उसे बहद प्यार करती....

बस वो बुआ घर आयें,इस बचकानी हरकत में पूजाने मंगनी के लिए हाँ कर दी थी...उम्र ही क्या थी..१७ पूरे! खूब रौनक़ हुई...ये अल्हड़ता ,मासूमियत नही तो और क्या था? पूजा को कभी भी अपने रूप का ना एहसास रहा ना, कोई दंभ...बल्कि,जब कोई सखी सहेली उसे सुंदर कहती,तो वो अपने आपको आईने में निहारती..क्या पाती..?एक छरहरे जिस्मकी, लडकी...गुलाबी गोरा रंग, बड़ी, बड़ी आँखें..लम्बी गर्दन...लड़कियाँ उसे कहती,' तुम्हारे दांत तो नकली लगते हैं...! असली जीवन में होते हैं ऐसे दांत किसी के...पूजा को कई बार न्यून गंड का भाव भर आता...जब ये सब बातें सुनती...ईर्षा वश भी ऐसा कुछ कहा जा सकता था, उसे कभी समझा ही नही.....

मेहमानों के आगे वो छुपी,छुपी-सी रहती....

दूसरी ओर,जब उसके क़रीबी दोस्त रिश्तेदार आस पास होते,तो नकलची बन,या अपनी शरारतों से खूब हँसाती भी रहती...

जब कभी कोंलेज या स्कूल के ड्रामा में हिस्सा लेती,तो अपने किरदार ऐसे चुनती,जहाँ, उसकी मोटी,मोटी आखों में भरे आँसू नज़र आयें..के वो अपनी माँ या सहेलियों से पूछे..'मेरी आँखें कैसी दिखती थीं? आँसुओं से भरी हुई...?
परदेपर की नायिका कितनी सुंदर दिखती जब अपने पलकों पे आँसू तोलती...'

कहाँ पता था,कि, असली और नकली अश्रुओं में कितना फ़र्क़ होता है..जब असली आँसू बरसते हैं,तो उन्हें छुपाते रहना पड़ जाता है...मन चाहे रो रहा हो ज़रोज़ार, अधरों पे मुस्कान खिलानी पड़ती है...
शायद हर युवा लडकी अपनेआप से ऐसी बातें पूछती हो...जैसे पूजा-तमन्ना पूछती....

लड़कपन अब यौवन की दहलीज़ पे खड़ा था...! और एक हादसा हो गया...पूजा हॉस्टल में थी,तब उसे ख़बर मिली..उसका छोटा भाई, जो तब ११ /12 साल का होगा...उसके हाथ से बंदूक की गोली छूट गयी...पूरी तरह अनजानेमे....पर उस अनुगूंज का असर कहाँ ,कहाँ नही पहुँचा.......

यहाँसे पूजा की ज़िंदगी वाक़ई में एक ऐसा मोड़ ले गयी,जिसके दूर दराज़ असर हुए...एक दर्द का सफर शुरू हो गया...
क्रमश:

इसी पोस्ट में पूजाकी एक तस्वीर डाल रही हूँ...इसमे उम्र १७ साल की थी...अभी लडकपन अधिक झलकता..तो एक ओर वो बेहद संजीदा भी थी...

रविवार, 23 अगस्त 2009

'बिखरे सितारे' ८) नन्हीं पूजा तथा उसका घर



पूजा तब छ: माह की थी। उसका घर..जो दादा दादी ने बनाया...अफ़सोस वो घर अब वैसा रहा ही नही...न वो बरामदा रहा ना वो रूप...आज जब पूजा उस वास्तू को देखती है ,तो ,अपने दादा दादी को बेहद याद करती है...उस बरामदे के बिना उसे वो घर पराया-सा लगता है...एक जर्जर हुआ आशियाना..जिसकी खैर ख़बर किसीको नही.. ..सपनों में उसे इसी बरामदे में बैठे दादा दादी नज़र आते रहते हैं..

सोमवार, 17 अगस्त 2009

बिखरे सितारे ! ७) तानाशाह ज़माने !

पूजा की माँ, मासूमा भी, कैसी क़िस्मत लेके इस दुनियामे आयी थी? जब,जब उस औरत की बयानी सुनती हूँ, तो कराह उठती हूँ...

लाख ज़हमतें , हज़ार तोहमतें,
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
वो अनारकली तो नही थी,
ना वो उसका सलीम ही,
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने...

इसी इतिहास की पूजा के जीवन में पुनरावृती हुई...अभी उस तलक आने में देर है..कई मील के पत्थर पार करने हैं...रु-ब-रु होना है, एक मासूमियत से......

अपनी माँ की साडियाँ ओढे, उनकी बड़ी बड़ी चप्पलें पैरों में पहने, वो ६/७ सालकी बच्ची, 'बड़े' होने के सपने देखती रही...दिन ब दिन बचपन फिसलता गया...छोटे,छोटे घरौंदे बनाना , झूठ मूट की दावतें...मेलों में जाना...कांच की चूडियाँ...पीतल के गहने...हर रात परियों की कहानियाँ सुनते,सुनते सो जाना...बचपन की बीमारियाँ..और दादा-दादी का परेशाँ होना...दादा उसके साथ खूब खेला करते...उसे सायकल चलाना उन्हीं ने सिखाई...आगे चलके कार चलना भी,पूजा,उन्हीं के बदौलत सीखी...

फिर भी एक डर का साया मंडराता रहा...कभी माँ को लेके...कभी ख़ुद को लेके...खेतों पे खेलने मज़दूरों के बच्चे आते...और इस बच्ची पे बुरी निगाह रखते....

किसी एक दिवाली की छुट्टी में काफ़ी सारा गृह पाठ मिला था...ख़त्म तो करना ही था..पूजा बीमार हो गयी...ये चंद लड़के गाँव की स्कूल में पढ़ते थे..पूजा से बड़े थे...लड़कों ने गृहपाठ पूरा करने में मदत की...और फिर उसे अकेले में पाके, उसकी अस्मत पे हाथ डालना चाहा...पूजा को ये सब समझ में तो नही आता...और जब उसे ये बताया जाता,कि, उसके माता पिता ने ऐसा ही कुछ किया..तभी वो जन्मी,तो उसका नन्हा मन मान लेने को राज़ी नही होता..

वो ये सब बातें माँ को या दादी को पूछे या बताये भी कैसे? दूसरी ओर, ये लड़के उसे एक अपराध बोध के तले दबाते रहते...कहते," हमने तुम्हारी इतनी मदद कर दी...तुम एहसान फ़रामोश हो...इतना भी नही कर सकती?"

ईश्वर ने सदबुद्धी दी ....उसे इन सब हरकतों से घृणा भी हुई...पाठशाला से जब वो बस लेके लौटती,अक्सर तो दादा दादी उसे सड़क किनारे लेने आ जाते..लेकिन कई बार मुमकिन न होता...सुनसान रास्ते...ईख के खेत...इन सब को पार करते हुए, पूजा कई बार इन भयावह दुर्घटनाओं से बाल बाल बची...वो अपनी ओर से घर वालों कहती,कि, उसे लेने आया करें...लेकिन वजह नही बता पाती...बाल मन पे एक सदमा-सा लगता गया...

दूसरी तरफ़,वो माँ को तड़पता देखती...कितना सही है,जब कहा जाता है, बच्चों के आगे बड़ों ने संभल के बातें करनी चाहियें...उनके बेहद दूरगामी असर हो सकते हैं...! जब कि, दादा अपनी पोती के प्रती, हर तरह से इतने संवेदन शील थे...अपनी बहू को डांटते समय यही बात भूल जाते...!

समय गुज़रता रहा.....और पूजा के मनमे अपने पिता के प्रती भी,एक तिरस्कार की भावना पनपने लगी...पर वो किसे सुनाये? और क्या कहे? उसे उनका बर्ताव समझ में तो नही आता...लेकिन कहीँ तो कुछ ग़लत हो रहा है, इस बात की गवाही उसका बाल मन देता...अपनी माँ के प्रती भी ग़लत हो रहा है...पर क्या..कैसे? अपने डर को वो बरसों शब्द बद्ध नही कर पायी...लेकिन इन काले सायों ने उसे ता-उम्र डरा दिया...

इन माँ-बेटी की कहानी, हाथ में हाथ डाले आगे बढ़ती रहेगी...कभी मासूमा का बचपन तो कभी पूजा का...कभी माँ का यौवन तो कभी पूजा का लड़कपन...एक दूसरेसे इन किस्सों को जुदा करना मुमकिन नही...

क्रमश:

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

बिखरे सितारे ६) है ये कैसा सफर ?

मजबूर जो किया अए ज़माने तूने,
इरादा नही था, इस बयानी का,
एक दास्ताँ छुपाते,छुपाते, बयाँ हो रही है...

हाँ..यही सत्य है...

माँ..तमन्ना की माँ..मासूमा..उनके बारेमे कहना चाह रही हूँ....क्योंकि उनके बचपन का, पूजा-तमन्ना के जीवन पे गहरा असर पड़ा...

मासूमा,अपने पिता का छत्र, दस साल की उम्र में ही खो बैठी...मासूमा के अन्य दो सगे भाई थे/हैं..मासूमा की माँ, उनके पिता की दूसरी पत्नी थीं...पहली पत्नी,थीं, उन्हीं की बड़ी बहन...जिनके देहांत के बाद उनके पिता ने अपनी प्रथम पत्नी की छोटी बहन से ब्याह किया..इतनाही नही..वे अपना बेपार करते थे...किसी अन्य देश गए,और वहाँ एक और शादी रचा ली..

जब उनका निधन हुआ,तो,मासूमा की माँ के पास कुछ नही था..सिवा इसके,की, जिस घर में वो रह रही थीं..ये भी गनीमत थी..तस्वीर में जो घर..तथा, द्वार दिख रहा है, वही मासूमा का घर था..जहाँ, पूजा का जन्म हुआ..जनम घर पे तो नही, शहर के अस्पताल में हुआ..लेकिन जनम के बाद पूजा को वहीँ लाया गया....

उसे वो घर ,वो पीछे दिखने वाला एक पलंग.... सब कुछ याद है...उस बंद द्वार से घर में प्रवेश होता..संकड़ी सीढियाँ चढ़ के..मुग़ल वाड़ा कहलाता था वो इलाक़ा.....काफ़ी चहल पहल हुआ करती...

अपने पती के देहांत के बाद घर का निचला हिस्सा, पूजा की नानी ने किराये पे चढा दिया..और ख़ुद सिलाई कढाई करके परिवार पलने पोसने लगीं....

परिवार में अपनी बड़ी बहन की दो बेटियाँ शुमार थीं..तथा, उनके बड़े भाई की एक अनाथ बेटी...छ: बच्चों को पढाना लिखाना..बीमारी तीमारदारी.. वो चिडचिडी तो होही गयीं..अपने भाई की बेटी के साथ कुछ ज़्यादा ही दुर्व्यवहार किया...जब मासूमा बड़ी हुई, तो उसे, इस मुमेरी बहन से, बेहद लगाव था..पूजा की इस मासी ने, पूजा से भी बेहद प्यार किया..

माँ के भाई ,जब पूजा छ: या सात साल की थी,तब देश छोड़ अन्य देश जा बसे...और पूजा की नानी वहीँ चली गयी...मासूमा के लिए उसका नैहर मानो तभी ख़त्म हो गया...लेकिन, फिरभी उसकी ममेरी बहन थी...अपने बच्चों को लेके वो वहीँ जाया करती...पर अपने पती के हाथों मजबूर...पती ने..पूजा के पिता ने, अपने बच्चों की, या अपनी पत्नी की, कभी ठीक से ज़िम्मेदारी नही सँभाली...मासूमा,इस कारन, बेहद असुरक्षित महसूस किया करती..इसे कहते हैं, चराग तले अँधेरा...! एक ओर पूजा के दादा-दादी बेहद इन्साफ पसंद और नेक लोग थे...वहीँ,अपनी बहू के साथ, ना इंसाफी कर गुज़रते..!

पूजा बड़ी होती गयी...और इस बात को महसूस करती रही..कई बातें वो नन्हीं जान नही समझ पाती..लेकिन जिसका पती, साथ ना दे, उस औरत का घर मे ठीक से सम्मान नही होता..ये भी एक सत्य है..पूजा के दादा,जिनकी पूजा आँखों का सितारा थी, अपनी बहू के साथ कई बार बेहद कठोर व्यवहार कर जाते..और पूजा रो पड़ती...अपने दादा से रूठ जाती..उनके साथ बात नही करती..बिस्तर में लेटे, लेटे सिसकती रहती...

ये भी होता,कि, ऐसे मे दादा आके, अपनी बहू से माफी भी माँग लेते..पर सिलसिला जारी रहता...और दिन गुज़रते गए...पूजा की पाठशाला मे दादा ही आया जाया करते..शिक्षक शिक्षिकाओं के संपर्क मे वही रहते..उनका शहर तथा आज़ू बाज़ू के ईलाकों मे रूतबा भी था..इज्ज़त भी थी..लेकिन घर की बातें,दहलीज़ के अन्दर ही रहती..पर उस कोमल,नन्हीं जान पे इसका असर पड़ता रहता...

और भी कई बातें थीं , जिन के कारण पूजा की माँ त्रस्त रही...पर उस सबके बारे मे फिर कभी..

क्रमश:

अगली पोस्ट मे कुछ और तस्वीरें लेके आ जाऊँगी...कोशिश मे हूँ,कि, पूजाके दादा-दादी की कुछ तस्वीरें हासिल हों...तथा उसके घरकी...जहाँ वो पली बढ़ी...

सोमवार, 10 अगस्त 2009

बिखरे सितारे ! ५) और दिन गुज़रते रहे...

जो जीवन अनगिनत घटनाओं से भरा हुआ हो...उन लम्हों को कैसे चुनूँ?? एक माला पिरोना चाहती हूँ, उनमे कौन से मोती शामिल करूँ..कौनसे छोड़ दूँ...?

तूफानों की शुरुआत तो शायद उस नन्हीं जान के इस दुनिया में आने के पहलेही हो चुकी थी..अब तक तो वह अपनी माँ की बाहोँ में..अपने दादा दादी की छत्र में महफूज़ थी...उसे इन तूफानों का मतलब तो समझ नही आता था..थपेडे चाहे लगते हों...

कोई, किसी दूसरे को, चाहे वो अपनी औलाद ही क्यों न हो, कितना महफूज़ रख सकता है...और कबतक? ये सवाल मेरे मनमे जब जब उभरेगा, शायद पाठकों के मन में भी उभरेगा...

तमन्ना की, ..जैसे कि, उसके दादा-दादी, माँ पिता कभी बुलाया करते, उसी गाँव में, पढाई शुरू कर दी गयी..एक मास्टर जी गाँव से घर आते और उसे प्रादेशिक भाषा में पढाते......तीन साल के बाद ये पढाई शुरू हुई..जब पूजा-तमन्ना, अपने माँ पिता के साथ निज़ामाबाद से लौट आयी...

उसे तो वो रटना रटाना क़तई नही भाता..लेकिन और कोई तरीक़ा तो नही था...फिर जब वो छ: सालकी हुई तो पास के एक छोटे-से शहर की पाठशाला में उसका दाखिला कराया गया..अन्य बच्चे जैसे, पाठशाला के पहले कुछ दिन रोते हैं, येभी खूब रोई...उसके दादा या पिता, स्कूल के बाद उसे लेने आते..गर देर हो जाती,तो इसका दिल बैठ ही जाता..उसके गुरूजी बड़े ही अच्छे थे..बेचारे उसको खूब मानते रहते..

अबतक एक और बच्ची परिवार में आ गयी थी..उसकी छोटी बहन...वह भी दादा दादी की बेहद लाडली थी..पर पूजा की बात ही उन दिनों अलग थी..उस परिवारकी पहली पोती...! शैतानी भी कर जाती...अपनी बहन के आगे,वो स्वयं को खूब बड़ा समझती....!

जब वह चौथे वर्ग में आ गयी,तो वहाँ उसके गुरूजी बड़े ही बदमिज़ाज निकले...उन्हें बच्चों को जाती परसे पुकारने की आदत थी...इतनी छोटी थी पूजा..लेकिन उसको उन दिनों भी ये बात बड़ी ही अखरती...

एक दिन गुरूजी ने एकेक बच्चे को खड़ा करके बताना शुरू किया," हाँ..तो तुम कल दोपहर में सड़क पे क्या कर रहे थे? मैंने देखा तुम्हें!"
वो बच्चा,अपनी गर्दन लटकाए खड़ा रहा..किसी बच्चे ने ये नही कहा कि, मै तो वहाँ था ही नही या थी ही नही...पूजा को भी खड़ा किया गया..और गुरूजी बोले," हाँ..तो तुम्हें मैंने तुम्हारे दादा के साथ दुकान में जाते देखा..तुम क्यों उनको परेशान कर रही थी? अपने बड़ों ऐसे परेशान करते हैं?"
सारा वर्ग ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा..अन्य बच्चों को डांट मिल रही देख,अक्सर बच्चे मज़ा लेते हैं...! पूजा को बेहद अपमानित महसूस हुआ...!

वह हैरान भी हो गयी....! उसने कहा,
"लेकिन कल तो मै पूरा दिन घर पे थी.....कल तो इतवार था...! मै तो कहीँ नही गयी..और दुकान में तो मुझे दादा ले जाते हैं..मै नही कहती ले जाने को...!"

बस..इतना कहना था,कि, गुरूजी उसपे बरस पड़े," मै झूठ बोल रहा हूँ? तू सही बोल रही है? ये मजाल तेरी....? तुझे घर पे ऐसा सिखाया है? कि गुरूजी का अपमान करे..?चल,निकल वर्ग के बाहर...जा खड़ी हो जा, उस खंभे के पास..धूप में.."

अप्रैल माह की चिलचिलाती धूप थी..और पूजा, अपने आँसू चुपचाप बहाते हुए, धूप में जाके खड़ी हो गयी...उसे दोपहर का खाना खाने की इजाज़त भी नही मिली...उसे अपने तीसरे वर्ग के गुरूजी बड़े याद आए...वो कितना प्यार से समझाया करते थे..जब वो कुछ गलती कर जाती...और पूरा वर्ग उसपे हँस पड़ता,तो गुरूजी पूरे वर्ग को डांट के चुप करते..वैसे भी, पूजा सुंदर थी, नाज़ुक थी..और कई लड़कियाँ उसपे जलती भी थीं..

बच्ची ने घर जाके यह बात अपने दादा को बताई..दादा तो सत्य के पुजारी थे..उन्हों ने तुंरत इस घटना का ब्योरा मुख्याध्यापक को दे दिया...उसके बात तो गुरूजी ने उसपे और अधिक खुन्नस पकड़ ली...उसके दिमाग़ से बरसों ये बात निकल नही पायी,कि, आख़िर वो गुरूजी उससे झूठ क्यों बुलवाना चाहते थे?

क्रमश:

आगे,आगे, पूजा की माँ,मासूमा, के बारे में बातेँ होंगी..कि उनके बचपन का, पूजाके बचपन पे , जीवन पे कैसे असर हुआ...

शनिवार, 8 अगस्त 2009

तस्वीरें : माँ और पूजा.

माँ मासूमा, ब्याह के पूर्व। नन्हीं पूजा अपनी माँ के साथ।

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

बिखरे सितारे ४)कहाँ ले चली ज़िंदगी ?

नन्हीं पूजा को आंध्र के, निज़ामाबाद शहर ले जाया गया...उसे क्या ख़बर थी,कि, वो अपने दादा-दादी से दूर चली जा रही है? जब निज़ामाबाद पहुँचे,तो उसने कुछ देर बाद अपने घर वापस लौटने के बारेमे पूछना शुरू किया...ट्रेन में तो सोयी रही थी..फिर उसे लगा,अब चंद लोगों से मिल भी लिए..अब वहीँ रुक जानेका क्या मतलब? लेकिन, उसे समझाया गया,कि, कुछ रोज़ यहीँ रुकना होगा...

जिस परिवार के साथ वो लोग रुके थे,उनका एक out house था..इन तीनों का इन्तेजाम वहीँ किया गया था..पूजा के पिता तो दिन में फलों के बगीचों में निकल पड़ते..लेकिन ,अपनी माँ पे क्या बीतती रहती ये नन्हीं पूजा आजतलक नही भूली..वो तो तब केवल ढाई सालकी थी...

वो देखती रहती,कि, उसकी माँ जब कभी उस घरकी रसोई में जाती, उस घरकी गृहिणी उनके साथ बेहद बुरा बर्ताव करती..गर माँ पूजा के लिए दूध बनाना चाहती,तो वो औरत चीनी हटा देती....

एक दिन की बात ,उसके दिलपे ऐसा नक्श बना गयी,कि, वो बेहाल हो गयी..आदम क़द आईने में देखी अपनी ही शक्ल उसे ताउम्र याद रह गयी...माँ के आँसू देख उदास,घबराया हुआ उसका अपना चेहरा,उसकी अपनी निगाहोंसे कभी नही हटा..

उस घरकी गृहिणी ने उसकी माँ के हाथ से बच्ची का खाना छीन लिया था...और माँ को रसोई से बाहर निकल जाना पड़ा..अपनी माँ के आँखों में भरे आँसू देख,बौखलाई बच्ची उसके पीछे,पीछे चली गयी..कमरेमे प्रवेश करते ही उसे अपनी माँ और अपनी ख़ुद की सूरत, आईने में दिखी..बच्ची का निहायत डरा-सा संजीदा चेहरा ...उसे उस 'चाची पे आया घुस्सा..असहायता ..सब कुछ एक चित्र की भाँती अंकित हो गया..माँ कमरेमे जाके,नीचे बिछे गद्दे पे बैठ गयी,और आखोँ से झर झर आँसू झरने लगे..पूजा उनकी गोद में जा बैठी...उसे अपने होंठ काँपते -से महसूस हुए...कुछ देर रुक वो बोली," हम दादा दादी के पास क्यों नही जाते...हम यहाँ क्यों रह रहे हैं? "
ये कहते हुए,उन छोटी,छोटी उँगलियों ने माँ के आँसू पोंछे...
फिर बोली," क्यों कि मै हेमंत के साथ खेलती हूँ,इसलिए हम यहाँ से नही जाते ? तो मै उसके साथ नही खेलूँगी...मुझे यहाँ नही रहना है..."

हेमंत उस परिवार का बच्चा था, पूजा से कुछ साल भर बड़ा..

वो महिला बेहद विक्षिप्त थी..पूजा की माँ, मासूमा , से बहद जलन थी उसे...मासूमा सुंदर थी..सलीक़ेमन्द थी...और उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी पढी लिखी भी...खाने के मेज़ पे वो महिला , सामने नही आती..तो मासूमा खाना खा सकती..क्योंकि घरके बड़े,पूजाके पिता,तथा मासूमा, एक साथ खाना खाने बैठते...लेकिन,दिन में जैसे ही घर के पुरूष चले जाते, उस महिला का बर्ताव ऐसा हो जाता मानो, मासूमा उसकी कोई दुश्मन हो..सौतन हो...बेचारी पूजा को बात समझ में नही आती,कि, आख़िर उसकी माँ के साथ ये चाची ऐसी हरकत क्यों करती हैं...?

पूजा को आज भी याद है,उसका तीसरा जनम दिन...जिस समय उसकी दादी ने उसके लिए एक निहायत खूबसूरत frock सीके भेजा..काश उस frock का चित्र उपलब्ध होता...!
इन सब बातों के चलते, पूजा ,अपने माँ और पिता के साथ, निज़ामाबाद में कुल छ: माह गुज़ार लौट आयी...अपने दादा दादी को इतना खुश देखा उसने...समझ नही पायी,कि, उन्हें छोड़ उसे जन ही क्यों पड़ा?

लेकिन, ये भी सच धीरे,धीरे उसके आगे उजागर होने लगा कि, उसकी माँ, इस घर में भी ख़ुश नही थी...आँसू तो उसे यहाँ भी बहाने पड़ते ..मासूम पूजा , अपनी उम्र से अधिक संजीदा होती चली गयी...एक ओर भोला, मासूम बचपन...दूसरी ओर अपनी माँ का कई बार दर्द की परछाइयों से धूमिल होता चेहरा...

और समय बीतता गया..उसके पढ़ने लिखने के दिन भी आ गए..उसे तीसरी क्लास तक तो घर में ही पढाया लिखाया गया..उसके बाद गाँव से कुछ दूर,एक पाठशाला में दाखिल कराया गया...कैसे गुज़रे उसके वो दिन? दादा दादी का प्यार तो बरक़रार था ही...पर उसके अलावा भी बचपन की, कुछ मधुर , कुछ डरावनी यादें, उसके जीवन में शामिल होती रहीँ.....

क्रमश:

सोमवार, 3 अगस्त 2009

बिखरे सितारे ३ ) वो दिन भी क्या दिन थे !

धीरे, धीरे चलती बैलगाडी, तकरीबन एक घंटा लगाके घर पहुँची...दादी उतरी...बहू की गोद से बच्ची को बाहों में भर लिया...दादा भी लपक के ताँगे से उतरे...दोनों ताँगों को हिदायत थी कि,एक आगे चलेगा,एक बैलगाडी के पीछे...आगे नही दौड़ना..! तांगे वालों को उनकी भेंट मिल गयी...दोनों खुशी,खुशी, लौट गए...

बच्ची को दादी ने तैयार रखी प्राम में रखा...और दादा ने अपने पुरातन कैमरा से उसकी दो तस्वीरें खींच लीं...उसने हलकी-सी चुलबुलाहट की,तो दादी ने तुंरत रोक लगा दी..वो भूखी होगी...बाहर ठंड है...उसे अन्दर ले चलो...अच्छे -से लपेट के रखो...

बहू बच्ची को दूध पिला चुकी,तो दादी,अपनी बहू के पास आ बैठीं...बोलीं," तुम अब आराम करो..जब तक ये सोती है,तुम भी सो जाना..और इसे जब भूख लगे,तब दूध पिला देना..जानती हो, बाबाजानी तो ( उनके ससुर ) घड़ी देख के मेरे बच्चे को मेरे हवाले करते..अंग्रेज़ी नियम...बच्चे को बस आधा घंटा माँ ने अपने पास रखना होता..बाद में उसे अलग कमरे में ले जाया जाता..और चाहे कितना ही रोये,तीन घंटों से पहले मेरे पास उसे दिया नही जाता...अंतमे मेरा दूध सूख गया..जब ससुराल से यहाँ लौटी तो हमने एक माँ तलाशी, जिसे छोटा बच्चा था...हमारे पास लाके रखा..उसकी सेहत का खूब ख़याल रखते...वो अपने और मेरे,दोनों बच्चों को दूध पिला देती...तुम अपना जितना समय इस बच्ची को देना चाहो देना.."

और इस तरह,उस नन्हीं जान के इर्द गिर्द जीवन घूमने लगा..दादा-दादी उसे सुबह शाम प्राम में रख, घुमाने ले जाया करते...उन्हें हर रोज़ वो नयी हरकतों से रिझाया करती...कभी वो चम्पई कली लगती तो, तो कभी चंचल-सी तितली...! उसके साथ कब सुबह होती और कब शाम,ये उस जोड़े को पता ही नही चलता...

गर उसे छींक भी आती तो दादा सबसे अधिक फिक्रमंद हो जाते...एक पुरानी झूलती कुर्सी थी...दादी उसे उस कुर्सी पे लेके झुलाती रहती...और पता नही कैसे, लेकिन उस बच्ची को एक अजीब आदत पड़ गयी...झूलती कुर्सी पे लेते ही उसपे छाता खोलना होता ...तभी वो सोती...! उस परिवार में अब वो कुर्सी तो नही रही, लेकिन वो वाला..दादी वाला, छाता आज तलक है...

दिन माह बीतते गए...और साथ,साथ साल भी...

बच्ची जब तीन साल की भी नही हुई थी, तो उसके पिता को आंध्र प्रदेश में कृषी संशोधन के काम के लिए बुलाया गया..वहाँ दो साल गुज़ारने के ख़याल से युवा जोड़ा अपनी बच्ची के साथ चला गया...दादा-दादी का तो दिल बैठ गया...

बच्ची का तीसरा साल गिरह तो वहीँ मना..दादी ने एक सुंदर-सा frock सिलके पार्सल द्वारा उसे भेज दिया..उस frock को उस बच्ची ने बरसों तक सँभाले रखा...उसके बाद तो कई कपड़े उसके लिए उसकी माँ और दादी ने सिये..लेकिन उस एक frock की बात ही कुछ और थी...

इस घटना के बरसों बाद, दादी ने एक एक बड़ी ही र्हिदय स्पर्शी याद सुनाई," जब ये तीनो गए हुए थे,तो एक शाम मै और उसके दादा अपने बरामदे में बैठे हुए थे...एकदम उदास...कहीँ मन नही लगता था..ऐसे में दादा बोले...'अबके जब ये लौटेंगे तो मै बच्ची को मैले पैर लेके चद्दर पे चढ़ने के लिए कभी नही रोकूँगा...ऐसी साफ़ सुथरी चादरें लेके क्या करूँ? उसके मिट्टी से सने पैरों के निशाँ वाली एक चद्दर ही हम रख लेते तो कितना अच्छा होता....' और ये बात कहते,कहते उनकी आँखें भर, भर आती रहीँ..."

जानते हैं, वो बच्ची इतनी छोटी थी,लेकिन उसे आजतलक उन दिनों की चंद बातें याद हैं...! कि उसकी माँ के साथ आंध्र में क्या,क्या गुजरा...वो लोग समय के पूर्व क्यों लौट आए...और उसके दादा दादी उसे वापस अपने पास पाके कितने खुश हो गए...! वो दिन लौटाए नही लौटेंगे..लेकिन उन यादों की खुशबू उस लडकी के साँसों में बसी रही...बसा रहा उसके दादा दादी का प्यार...

क्रमश:

इस के बाद ये मालिका अधिक तेज़ी पकड़ लेगी...तस्वीरें scan नही हो पा रही हैं..इसलिए क्षमा चाहती हूँ..जैसे ही scanner ठीक होगा, वो पोस्ट कर दूँगी..हासिल हो गयी हैं,इतना बताते चलती हूँ..

बुधवार, 29 जुलाई 2009

२) वो सुबह्का तारा...!

उस सुबह का उस जोडेको कबसे इंतज़ार था...जब उस ग्राम से कुछ मील दूर के एक स्टेशन पे एक ट्रेन, २४ घंटों के सफर के बाद, उनकी तमन्ना को लिए चली आयेगी...!

रोज़ सुबह का तारा निकलने से पूर्व साढ़े चार बजे, उठ जानेकी दोनोको आदत थी..वुज़ू, नमाज़ अदि होनेतक,भैसें दोहने के लिए हाज़िर हो जातीं.....उनकी पैनी नज़र रहती...दूध बिकने जाता,लेकिन पानीकी एक बूँद भी कोई चाकर मिलाये, उन्हें बरदाश्त नही होता...

और 'वो' दिन तो खासही था...दोनों को रात भर नींद कहाँ? बैलगाडी सजी रखी थी..खूबसूरत-सा छत चढाया गया था...रेशमी रूई से गद्दा और छोटी-सी रज़ाई भरी गयी थी...देव कपास कहलाने वाला रूई का पेड़ बगीचे में लगा हुआ था..उसकी नाज़ुक, नाज़ुक रूई लेके, अपने नाज़ुक नाज़ुक हाथोंसे, दादी ने उसमेके छोटे,छोटे बीज अलग किए थे..अपने हाथों से वो गद्दा और रज़ाई भरी थी...एक एक टांका फूलों -सी नज़ाकत से डाला गया था...उस नाज़नीन, नन्हीं,फूल-सी जानको कुछ चुभे ना...!!

जाडों का मौसम...उस रूई,रूई-सी नाज़ुक कली को, ट्रेन से उतरने के बाद एकदम से दुबका लेना होगा...स्टेशन पे तो छत थी नही...स्टेशन पे पहुँच ने के लिए रेलवे क्रॉसिंग पार करनी होती..तो बैलगाडी लेके घरसे कमसे कम डेढ़ घंटा पहले निकल जाना चाहिए...क्रॉसिंग का गेट बंद ना मिले...! दोनों आपस में बतियाते जा रहे थे..गाडीवान खड़ा था....! बैलों की सफ़ेद जोड़ी लिए....दादा-दादी के बड़े लाडले बैल...! दादी ने बड़े प्यारसे बैलों को गुडकी रोटी खिलायी...!

मुँह अंधेरे बैल गाडी स्टेशन की ओर चल पडी..उनके साथ लौटनेवाला था,उनका ख़ास खज़ाना...पौं फंटने लगी..सुबह का तारा कहीँ से नज़र आ रहा था? दादी ने बैलगाडी का परदा हटा के झाँक ने की कोशिश की...

दादा बोले :" अभी तो अपनी आँखों का तारा आनेवाला है...उसे मै पहले अपनी गोद में लूँगा या तुम? "

दादी : " आपको पकड़ना भी आयेगा? चलो,चलो, मै पहले लूँगी,फिर आपको बताउंगी,कि, बच्चे को कैसे पकड़ा जाता है...!

दादा :" अच्छा....जैसा कहोगी वैसाही करूँगा...पर कुछ पल मुझे अपने हाथों में लेने तो दोगी ना?"

दादी : " अरे, बाबा, आने तो दो गाडी...अभी तो एक घंटा होगा....पर कैसा लग रहा है हैना...वक़्त जैसे उड़ भी रहा है,और थम भी रहा है...उसके आने के बाद तो हम सब उसी के अतराफ़ में घूमेंगे..एक चुम्बक की भाँती होता है एक बच्चा...और ये तो हमारी तमन्ना थी...है...."

गाडी बढ़ी चली जा रही थी...स्टेशन क़रीब आ गया...जैसे ही वो दोनों बैलगाडी से उतरे, स्टेशन परके कुली, स्टेशन मास्टर, और अन्य जोभी लोग अपने रिश्तेदारों को लेने पहुँचे थे, इन दोनोकी इर्द गिर्द जमा हो गए...सभी को पता था, ये जोड़ा, किसे लेने आया है...हर कोई वो मिलन का नज़ारा देखना चाहता था..उस स्टेशन परके दो तांगेवाले भी बेक़रार थे...आपस में झगड़ रहे थे,कि, कौन बाप बेटे को ले जाएगा...बैलगाडी में तो केवल दादी, पोती,और माँ की जगह होगी.....तांगा तो ज़रूरी होगा..और बहू का सामान भी तो होगा...अंत में दादा-दादी ने बहस बंद करवा दी...दोनों टाँगे चलेंगे...एक में सामान, एकमे वो दोनों बाप बेटे...दोनों तांगेवालों ने कहा,इसबार तो हम पैसा नही लेंगे...
दादा: " अरे बाबा, पैसे ना लेना, लेकिन हमारी अपनी खुशीसे तुम्हें देंगे वो तो लेना...!

तांगेवाले: " अरे बाबा! वो तो हम माँग के लेंगे....! सारा गाँव जाने है,आप कितने खुश हैं...!"

स्टेशन पे ट्रेन के आगमान की घंटी बजाई गयी...ट्रेन दो स्टेशन दूर होती तो ये घंटी बजती...अब एकेक पल गिनना शुरू हो गया..और फिर दो मील की दूरी परसे, घूमती हुई ट्रेन दिखी...अब तो दादी की होंठ कंपकंपाने लगे....बेताब हो गयीं...कब उस नन्हीं जान को अपनी बाहों में लें..इतनी बेसब्री शायद जीवन में कभी नही हुई थी..हाँ...आज़ादी के वो पल छोड़...जब जवाहरलाल ,लाल क़िले परसे अपना ऐतिहासिक भाषण देनेवाले थे...उसके बाद आज...अब....ट्रेन platform पे आ गयी...रुकने लगी...सभी जमा लोग उसी डिब्बेके पास पहुँचे....

जो लोग उस गाडी से उतरे,वो भी ये नज़ारा देखने के लिए आतुर थे...! बहु उतरी...अपनी बाहोंमे उस नन्हीं जान लिपटाये हुए..उसकी भींची आँखें..सूरज की पहली किरण उसके मुखड़े पे पडी..शायद, आँखों में भी पडी...हलकी-सी पलकें हिली...और अचानक से अपने अतराफ़ में इतने सारे चेहरे देख, चंद पल फटीं फटीं -सी रह गयीं...! दादी ने लपक उसे अपने सीने से भींच लिया..दादा एक पल रुके,फिर बोले," अभी मुझे भी एक नज़र भर देख लेने दो ना....!"

दादी ने बड़ी ही एहतियात से उन्हें बच्ची को पकडाया.... उस दिनका नज़ारा वो दादा,ताउम्र नही भूला...उसे वो बच्ची ४२ दिनकी ही निगाहों में समा गयी...!

जमा लोग, दुआएँ देते हुए बिखरने लगे...ये सब अपनी बैलगाडी और तांगे की ओर चल पड़े...दादी, अपनी बहू और पोतीके साथ, फूली,फूली बैलगाडी में बैठ गयी, गाडीवान को सख्त हिदायत,:" गाडी धीरे, धीरे चलाना....!

कैसा प्यारा सफर था वो...अपनी लाडली पोती को अपने घर ले जानेका...वहाँ उतार उसकी एक दो तस्वीरें तो ज़रूर खींचनी थीं...लेकिन उसे रुलाना नही था बिल्कुल....! एक प्राम गाडी तैयार थी...वो प्राम गाडी, इस बच्ची के पिता की ही थी...जिसे बडेही शिद्दतसे दादा-दादी ने मिल, खूब अच्छे से ठीक ठाक की थी..आराम देह बनाई थी...

घर पास आता रहा...सपने सजते रहे...उस एक नन्हें चुम्बक के अतराफ़ अब दादा-दादी की दिनचर्या घूमने वाली थी..बरसों...! उनके आँखोंका सितारा..उनकी तमन्ना...'पूजा' तमन्ना...फिलहाल हम इसे ऐसे ही बुलाया करेंगे...!....

एक सफ़रनामा बस अभी, अभी शुरू हुआ है..अपने उतार चढावों के साथ, जारी रहेगा। सफर में शामिल रहें...आपकी रहनुमाई भी ज़रूरी है,इस सफ़र को बढानेके लिए....

रविवार, 26 जुलाई 2009

बिखरे सितारे.!१).एक वो भी दिवाली थी...! ...

क्यों हम किसी की या ख़ुद की ज़िंदगानी किसी के साथ साँझा करना चाहते हैं? क्यों एक दास्ताँ बयाँ करना चाहते हैं? हर किसी के अलाहिदा वजूहात हो सकते हैं...मैं यहाँ किस कारण आयी हूँ, ये बता दूँ....
एक ऐसी दास्ताँ सुनाने आयी हूँ, जो शायद आपको चौंका दे...हो सकता है,आप कुछ कहने के लिए आतुर हो जायें..या स्तब्ध हो जाएँ...नही जानती...
विधाता ने हमें इस तरह घडा है,कि, एक उँगली के निशाँ दूसरी से नही मेल खाते...तो एक ज़िंदगी, किसी अन्य ज़िंदगी से कितना मेल खा सकती है ?
मेल खा सकती है, एक हद तक......ज़रूर..लेकिन, एक जैसी कभी नही हो सकती....चंद वाक़यात मेल खा जायें..पर एक सम्पूर्ण जीवन.....चाहे कितना ही छोटा रहा हो ? मुमकिन नही...
यहीँ से एक क़िस्सा गोई आरम्भ होगी...एक दर्द का सफर...जिस में चंद खुशियाँ शामिल..जिस में बेशुमार हादसे शामिल...एक नन्हीं जान इस दुनियामे आयी...और उसके इर्द गिर्द ये दास्ताँ बुनती रही..रहेगी...शायद पढने वाले इस दास्ताँ से हैरान हो जाएँ......कि, ऐसी राहों में, जो इस कथानक के मुख्य किरदार ने चुनी, कितने खतरे पेश आ सकते हैं...इन पुर-ख़तर राहों का अंदेसा तो कभी किसी को नही होता...लेकिन, जिस राह से एक राही गुज़रा हो,वो, पीछे से आनेवाले मुसाफिरों की रहनुमाई ज़रूर कर सकता है...इसी मकसद को लेके शुरुआत कर रही हूँ...

ये तो नही जानती,कि, इस सत्य कथा का अंत कहाँ होगा...कैसे होगा...आप सफर में शामिल हों, ये इल्तिजा कर सकती हूँ...!

१)एक वो भी दिवाली थी...!

क़िस्सा शुरू होता है, आज़ादी के दो परवानों से...जो अपने देश पे हँसते, हँसते मर मिटने को तैयार थे..एक जोड़ा...जो अपने देश को आजाद देखना चाहता था...एक ऐसा जोड़ा,जो, उस महात्मा की एक आवाज़ पे सारे ऐशो आराम तज, हिन्दुस्तान के दूरदराज़ गाँव में आ बसा...उस महात्मा की आवाज़, जिसका नाम गांधी था...

गाँव में आ बसने का मक़सद, केवल अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी कैसे हो सकता है? आज़ादी तो एक मानसिकता से चाहिए थी...एक विशाल जन जागृती की ज़रूरत ...इंसान को इंसान समझे जाने की जागृती...ऊँच नीच का भरम दूर करनेकी एक सशक्त कोशिश...काम कठिन था...लेकिन हौसले बुलंद थे...नाकामी शब्द, अपने शब्द कोष से परे कर दिया था,इस युवा जोड़े ने..और उस तरफ़ क़दम बढ़ते जा रहे थे...

अपने जीते जी, देश आज़ाद होगा, ये तो उस जोड़े ने ख्वाबो ख़याल में नही सोचा था...लेकिन,वो सपना साकार हुआ...! आज हम जिसे क़ुरबानी कहें, लेकिन उनके लिए वो सब करना,उनकी खुश क़िस्मती थी...कहानी को ८५ साल पूर्व ले चलूँ, तो परिवार नियोजन अनसुना था...! इस जोड़े ने उन दिनों परिवार नियोजन कर, केवल एक ही औलाद को जन्म दिया...जिसे पूरे पच्चीस साल अपने से दूर रखना पड़ा...गर ये दोनों कारावास के अन्दर बाहर होते रहते तो, एक से अधिक औलाद किस के भरोसे छोड़ते? उस गाँव में ना कोई वैद्यकीय सुविधा थी, ना पढाई की सुविधा थी...इन सारी सुविधाओं की खातिर इस जोड़े ने काफी जद्दो जहद की...लेकिन तबतक तो अपनी इकलौती औलाद,जो एक पुत्र था,उसे, अपने से दूर रखना पडा ही पडा...

कौन था ये जोड़ा? पत्नी राज घराने से सम्बन्ध रखती थी...नज़ाकत और नफ़ासत उसके हर हाव भाव मे टपकती थी..पती भी, उतने ही शाही खानदान से ताल्लुक रखता था...लेकिन सारा ऐशो आराम छोड़ आने का निर्णय लेने में इन्हें पल भर नही लगा...
महलों से उतर वो राजकुमारी, एक मिट्टी के कमरे मे रहने चली आयी...अपने हाथों से रोज़ गाँव मे बने कुएसे पानी खींच ने लगी...हर ऐश के परे, उन दोनों ने अपना जीवन शुरू किया...ग्राम वासियों के लिए,ये जोड़ा एक मिसाल बन गया...उनका कहा हर शब्द ग्राम वासी मान लेते...हर हाल मे सत्य वचन कहने की आदत ने गज़ब निडरता प्रदान की थी..ग्राम वासी जानते थे,कि, इन्हें मौत से कोई डरा नही सकता...

बेटा बीस साल का हुआ और देश आज़ाद हुआ...गज़ब जश्न मने......! और एक साल के बाद, गांधी के मौत का मातम भी...

पुत्र पच्चीस साल का हुआ...पढाई ख़त्म हुई,तो उसका ब्याह कर दिया गया...लडकी गरीब परिवार की थी,जो अपने पिता का छत्र खो चुकी थी..लेकिन थी बेहद सुंदर और सलीक़ेमन्द...ब्याह के दो साल के भीतर,भीतर माँ बनने वाली थी...

कहानी तो उसी क़िस्से से आरंभ होती है...बहू अपनी ज़चगी के लिए नैहर गयी हुई थी...बेटा भी वहीँ गया था..बस ३/४ रोज़ पूर्व...इस जोड़े को अब अपने निजी जीवन मे इसी ख़ुश ख़बरी का इंतज़ार था...! दीवाली के दिन थे...३ नवेम्बर .. ...उस दिन लक्ष्मी पूजन था..शाम के ५ बज रहे होंगे...दोनों अपने खेत मे घूमने निकलने ही वाले थे,कि, सामने से, टेढी मेढ़ी पगडंडी पर अपनी साइकल चलाता हुआ, तारवाला उन्हें नज़र आया...! दोनों ने दिल थाम लिया...! क्या ख़बर होगी...? दो क़दम पीछे खड़ी पत्नी को पती ने आवाज़ दे के कहा:" अरे देखो ज़रा..तार वाला आ रहा है..जल्दी आओ...जल्दी आओ...!"

तार खोलने तक मानो युग बीते..दोनों ने ख़बर पढी और नए, नए दादा बने पुरूष ने अपने घरके अन्दर रुख किया...!

कुछ नक़द उस अनपढ़ तार वाले को थमाए...आज से अर्ध शतक पहले की बात है...अपने हाथ मे पच्चीस रुपये पाके तारवाला गज़ब खुश हो गया..उन दिनों इतने पैसे बहुत मायने रखते थे....दुआएँ देते हुए बोल पड़ा,
"बाबा, समझ गया... पोता हुआ है...! ये दीवाली तो आपके लिए बड़ी शुभ हुई...आपके पीछे तो कितनी दुआएँ हैं...आपका हमेशा भला होगा...!"

दादा: " अरे पगले....! पोता हुआ होता तो एक रुपल्ली भी नही देता..पोती हुई है पोती...इस दिनके लिए तो पायी पायी जोड़ इतने रुपये जोड़े थे..कि, तू ये ख़बर लाये,और तुझे दें...!"

तारवाला : " बाबा...तब तो आपके घर देवी आयी है...वरना तो हर कोई बेटा,बेटा ही करता रहता है..आपके लिए ये कन्या बहुत शुभ हो..बहुत शुभ हो...!"

दादा :" और इस बच्ची का आगे चलके जो भी नाम रखा जाएगा...उसके पहले,'पूजा' नाम पुकारा जाएगा...!"
तारवाला हैरान हो उनकी शक्ल देखने लगा...! क्या बात थी उसमे हैरत की...?वो पती पत्नी मुस्लिम परिवार से ताल्लुक़ रखते थे...!
तारवाले ने फिर एक बार उन दोनों के आगे हाथ जोड़े...अपनी साइकल पे टाँग चढाई और खुशी,खुशी लौट गया..! उसकी तो वाक़ई दिवाली मन गयी थी...! मुँह से कई सारे आशीष दिए जा रहा था...!

कौन थी वो खुश नसीब जो इस परिवार के आँखों का सितारा बनने जा रही थी...? जो इनकी तमन्ना बनने जा रही थी...उस नन्हीं जान को क्या ख़बर थी,कि, उसके आगमन से किसी की दुनिया इतनी रौशन हो गयी...?

दादी के होंठ खुशी के मारे काँप रहे थे...नवागत के स्वागत मे बुनाई कढाई तो उसने कबकी शुरू कर दी थी..लेकिन अब तो लडकी को मद्दे नज़र रख,वो अपना हुनर बिखेरने वाली थी...पूरे ४२ दिनों का इंतज़ार था, उस बच्ची का नज़ारा होने मे...सर्दियाँ शुरू हो जानी थी...ओह...क्या,क्या करना था...!

दोनों ने मिल कैसे, कैसे सपने बुनने शुरू किए..!

क्रमश:

आगे, आगे कोशिश रहेगी,कि, उस बच्ची की जो भी तस्वीरें उपलब्ध हैं, उन्हें ब्लॉग पे पोस्ट करूँगी..अलावा...उसका वो पुश्तैनी मकान...जिसे बाद मे मिट्टी के घरसे निकल, उस जोड़े ने पत्थर का बना लिया...गाँव से कुछ बाहर...कवेलू वाला...जिसकी कहानी कहना शुरू की है,उससे बेहद अच्छी तरह वाबस्ता हूँ..बेहद क़रीब से जाना है उसे ...
क्रमश: