उस सुबह का उस जोडेको कबसे इंतज़ार था...जब उस ग्राम से कुछ मील दूर के एक स्टेशन पे एक ट्रेन, २४ घंटों के सफर के बाद, उनकी तमन्ना को लिए चली आयेगी...!
रोज़ सुबह का तारा निकलने से पूर्व साढ़े चार बजे, उठ जानेकी दोनोको आदत थी..वुज़ू, नमाज़ अदि होनेतक,भैसें दोहने के लिए हाज़िर हो जातीं.....उनकी पैनी नज़र रहती...दूध बिकने जाता,लेकिन पानीकी एक बूँद भी कोई चाकर मिलाये, उन्हें बरदाश्त नही होता...
और 'वो' दिन तो खासही था...दोनों को रात भर नींद कहाँ? बैलगाडी सजी रखी थी..खूबसूरत-सा छत चढाया गया था...रेशमी रूई से गद्दा और छोटी-सी रज़ाई भरी गयी थी...देव कपास कहलाने वाला रूई का पेड़ बगीचे में लगा हुआ था..उसकी नाज़ुक, नाज़ुक रूई लेके, अपने नाज़ुक नाज़ुक हाथोंसे, दादी ने उसमेके छोटे,छोटे बीज अलग किए थे..अपने हाथों से वो गद्दा और रज़ाई भरी थी...एक एक टांका फूलों -सी नज़ाकत से डाला गया था...उस नाज़नीन, नन्हीं,फूल-सी जानको कुछ चुभे ना...!!
जाडों का मौसम...उस रूई,रूई-सी नाज़ुक कली को, ट्रेन से उतरने के बाद एकदम से दुबका लेना होगा...स्टेशन पे तो छत थी नही...स्टेशन पे पहुँच ने के लिए रेलवे क्रॉसिंग पार करनी होती..तो बैलगाडी लेके घरसे कमसे कम डेढ़ घंटा पहले निकल जाना चाहिए...क्रॉसिंग का गेट बंद ना मिले...! दोनों आपस में बतियाते जा रहे थे..गाडीवान खड़ा था....! बैलों की सफ़ेद जोड़ी लिए....दादा-दादी के बड़े लाडले बैल...! दादी ने बड़े प्यारसे बैलों को गुडकी रोटी खिलायी...!
मुँह अंधेरे बैल गाडी स्टेशन की ओर चल पडी..उनके साथ लौटनेवाला था,उनका ख़ास खज़ाना...पौं फंटने लगी..सुबह का तारा कहीँ से नज़र आ रहा था? दादी ने बैलगाडी का परदा हटा के झाँक ने की कोशिश की...
दादा बोले :" अभी तो अपनी आँखों का तारा आनेवाला है...उसे मै पहले अपनी गोद में लूँगा या तुम? "
दादी : " आपको पकड़ना भी आयेगा? चलो,चलो, मै पहले लूँगी,फिर आपको बताउंगी,कि, बच्चे को कैसे पकड़ा जाता है...!
दादा :" अच्छा....जैसा कहोगी वैसाही करूँगा...पर कुछ पल मुझे अपने हाथों में लेने तो दोगी ना?"
दादी : " अरे, बाबा, आने तो दो गाडी...अभी तो एक घंटा होगा....पर कैसा लग रहा है हैना...वक़्त जैसे उड़ भी रहा है,और थम भी रहा है...उसके आने के बाद तो हम सब उसी के अतराफ़ में घूमेंगे..एक चुम्बक की भाँती होता है एक बच्चा...और ये तो हमारी तमन्ना थी...है...."
गाडी बढ़ी चली जा रही थी...स्टेशन क़रीब आ गया...जैसे ही वो दोनों बैलगाडी से उतरे, स्टेशन परके कुली, स्टेशन मास्टर, और अन्य जोभी लोग अपने रिश्तेदारों को लेने पहुँचे थे, इन दोनोकी इर्द गिर्द जमा हो गए...सभी को पता था, ये जोड़ा, किसे लेने आया है...हर कोई वो मिलन का नज़ारा देखना चाहता था..उस स्टेशन परके दो तांगेवाले भी बेक़रार थे...आपस में झगड़ रहे थे,कि, कौन बाप बेटे को ले जाएगा...बैलगाडी में तो केवल दादी, पोती,और माँ की जगह होगी.....तांगा तो ज़रूरी होगा..और बहू का सामान भी तो होगा...अंत में दादा-दादी ने बहस बंद करवा दी...दोनों टाँगे चलेंगे...एक में सामान, एकमे वो दोनों बाप बेटे...दोनों तांगेवालों ने कहा,इसबार तो हम पैसा नही लेंगे...
दादा: " अरे बाबा, पैसे ना लेना, लेकिन हमारी अपनी खुशीसे तुम्हें देंगे वो तो लेना...!
तांगेवाले: " अरे बाबा! वो तो हम माँग के लेंगे....! सारा गाँव जाने है,आप कितने खुश हैं...!"
स्टेशन पे ट्रेन के आगमान की घंटी बजाई गयी...ट्रेन दो स्टेशन दूर होती तो ये घंटी बजती...अब एकेक पल गिनना शुरू हो गया..और फिर दो मील की दूरी परसे, घूमती हुई ट्रेन दिखी...अब तो दादी की होंठ कंपकंपाने लगे....बेताब हो गयीं...कब उस नन्हीं जान को अपनी बाहों में लें..इतनी बेसब्री शायद जीवन में कभी नही हुई थी..हाँ...आज़ादी के वो पल छोड़...जब जवाहरलाल ,लाल क़िले परसे अपना ऐतिहासिक भाषण देनेवाले थे...उसके बाद आज...अब....ट्रेन platform पे आ गयी...रुकने लगी...सभी जमा लोग उसी डिब्बेके पास पहुँचे....
जो लोग उस गाडी से उतरे,वो भी ये नज़ारा देखने के लिए आतुर थे...! बहु उतरी...अपनी बाहोंमे उस नन्हीं जान लिपटाये हुए..उसकी भींची आँखें..सूरज की पहली किरण उसके मुखड़े पे पडी..शायद, आँखों में भी पडी...हलकी-सी पलकें हिली...और अचानक से अपने अतराफ़ में इतने सारे चेहरे देख, चंद पल फटीं फटीं -सी रह गयीं...! दादी ने लपक उसे अपने सीने से भींच लिया..दादा एक पल रुके,फिर बोले," अभी मुझे भी एक नज़र भर देख लेने दो ना....!"
दादी ने बड़ी ही एहतियात से उन्हें बच्ची को पकडाया.... उस दिनका नज़ारा वो दादा,ताउम्र नही भूला...उसे वो बच्ची ४२ दिनकी ही निगाहों में समा गयी...!
जमा लोग, दुआएँ देते हुए बिखरने लगे...ये सब अपनी बैलगाडी और तांगे की ओर चल पड़े...दादी, अपनी बहू और पोतीके साथ, फूली,फूली बैलगाडी में बैठ गयी, गाडीवान को सख्त हिदायत,:" गाडी धीरे, धीरे चलाना....!
कैसा प्यारा सफर था वो...अपनी लाडली पोती को अपने घर ले जानेका...वहाँ उतार उसकी एक दो तस्वीरें तो ज़रूर खींचनी थीं...लेकिन उसे रुलाना नही था बिल्कुल....! एक प्राम गाडी तैयार थी...वो प्राम गाडी, इस बच्ची के पिता की ही थी...जिसे बडेही शिद्दतसे दादा-दादी ने मिल, खूब अच्छे से ठीक ठाक की थी..आराम देह बनाई थी...
घर पास आता रहा...सपने सजते रहे...उस एक नन्हें चुम्बक के अतराफ़ अब दादा-दादी की दिनचर्या घूमने वाली थी..बरसों...! उनके आँखोंका सितारा..उनकी तमन्ना...'पूजा' तमन्ना...फिलहाल हम इसे ऐसे ही बुलाया करेंगे...!....
एक सफ़रनामा बस अभी, अभी शुरू हुआ है..अपने उतार चढावों के साथ, जारी रहेगा। सफर में शामिल रहें...आपकी रहनुमाई भी ज़रूरी है,इस सफ़र को बढानेके लिए....
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18 टिप्पणियां:
बच्चे की किलकारियां तो किसी को भी आनंद में ले जाती हैं ,,,,,,,,,,,,फिर दादा दादी की तो बात ही क्या.......... आपका आगे का सफ़र भी सुन्दर होगा
क्षमा जी,
आपका आभार कवितायन पर आने का।
और जल्द ही इस पोस्ट को पूरा पढ़ना हैं।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
लगती तो ये आप-बीती ही है , शानदार , उपन्यास का लुत्फ़ दे रही है |
... प्रभावशाली लेखन !!!
बेहतरीन... वाहवा..
padhna shuru kiya to padhta hi chala gaya, aksar lekh padhta nahin hun , bahut dil ko chhoone wali lagi ye kahani, kabhi bahut pahle padhi munshi prem chand ki kahanion ki yaad aa gai. bahut umda.
सुन्दर. प्रभावशाली लेखन. आगे के सफ़र का इन्तज़ार रहेगा.
क्षमा जी।
कथा बहुत रोचक है।
इसमें लयबद्धता अन्त तक बनी रही है।
बहुत बधाई।
बढ़िया है, एक बार फिर अगली कड़ी का इन्तजार है।
Kshama ji...
bahut he achha likha hai aapne...
likhte rahiye aur inspire karte rahiye...
http://shayarichawla.blogspot.com/
कितना आत्मीय लेखन है आपका. बहुत अच्छी रचना
बहुत बहुत बधाई
क्षमा
आपकी टिपण्णी के लिए धन्यवाद...
आपकी रचना तो परसों ही पढ़ी थी...
आगे की कड़ियों का इंतज़ार रहेगा...अच्छी शुरुआत है...
bahut dino bad aai to bhut bdhiya kuch pdhne ko mila aapke blog par pura pdhna baki hai .asli tippni bad me .
abhar
bahut hi umda lekhan , bahut hi acchi kahani .. badhai sweekar karen..
vijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
अच्छा लगा ...
प्रवाहमयता है
भाषा संबंधी त्रुटियाँ दूर कर दी जाएं,
तो उत्तम ।
हार्दिक शुभकामनाएँ ।
Great narration!
कथा का प्रवाह और शिल्प दोनों बाँधे हुये है....दादा-दादी की खुशी यहाँ तक छलकती प्रतीत हो रही है।
तीसरी किश्त पे चलता हूँ...
दादा - दादी के तो बच्चे जान होते हैं दोस्त बहुत सुन्दर रचना आगे का इंतज़ार |
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