शनिवार, 31 जुलाई 2010

बिखरे सितारे १५:फिर एक इम्तिहान!


 (गतांक : तीन अखबारों में अब मेरे साप्ताहिक column छपने लगे..लेकिन ,लेकिन..बच्चों की याद..खासकर केतकी की, मुझे रुलाती रही...जीवन में उसे चैन नही हासिल हुआ...और चाहे गलती किसीकी हो...उसकी ज़िम्मेदार,एक माँ की तौरपे मै भी थी..आज माँ की मामता मुझे चैन नही लेने दे रही थी...)

ऐसेही दिन बीतते रहे...मुझे रोज़ केतकी के मेलका इंतज़ार रहता.. चाहे वो दो पंक्तियाँ क्यों न हो..उसके जानेके चंद दिनों बाद गौरव का ऐसी जगह तबादला हुआ जहाँ घर नहीं था. नयी पोस्ट बनी थी और उसे deputation पे बुलाया गया था..मै कुछ दिन अपने नैहर  रह आयी..

'सामान बाँध के तैयार रहो...ताकि मकान मिलतेही निकल सको..." ,गौरव ने मुझे कह रखा था..तीन माह बीत गए लेकिन मकान का इंतज़ाम नहीं हुआ...बच्चों से दूर होके मुझे वैसेही उदासी ने घेर रखा था..अब तो गौरव के न होने के कारण घरपे लोगों का आना जानाभी बहुत कम हो गया..
केतकी जब गयी तब मैंने सोचा था,की, अब मै अपनी कला प्रदर्शनी करुँगी...कुछ तो मन लगेगा..मैंने उस लिहाज़ से कपड़ा,धागे आदि खरीद लिए...और बस तभी गौरव का तबादला हो गया..किसी भी समय सामान समेट दूसरी जगह जाना होगा सोच मैंने प्रदर्शनी का ख़याल दिलसे निकाल दिया..
सरकारी नियम के अनुसार मै उस मकान में तीन माह्से अधिक नही रह सकती थी..किसी ने मुझे मकान खाली करनेको कहा नहीं था,लेकिन मेराही मन मानता नहीं था...गौरव की जगह जो अफ़सर आए थे,वो अथिति गृह में रह रहे थे..क्या करूँ? सामान लेके कहाँ जाऊँ   ?  सिर्फ मेरे रहनेकी बात होती तो मै अपने नैहर में रह लेती..
अंतमे गौरवही लौट आया..उसे राज्य सरकार ने बुला तो लिया लेकिन कोई पोस्ट खाली नही थी..वो बिना पोस्ट का था,तो मकान का सवाल आही गया..अंत में बंगलौर में एक बेडरूम और रसोई वाला फ्लैट किरायेपर लेनेका तय हुआ..पर वो नौबत नहीं आयी,और उसकी पोस्टिंग बंगलौर में ही हो गयी...

देखते ही देखते केतकी को जाके तक़रीबन एक साल हो गया. वो दो सप्ताह के लिए भारत आयी. उस समय हम उसके भावी ससुराल वालों से मिले. कोशिश थी की, राघव तथा उसकी पढाई ख़त्म होतेही ब्याह कर दिया जाय...लेकिन ससुराल वालों के लिहाजसे कोई मुहूर्त अगले साल भरमे नही था...
केतकी के स्वभाव में आया परिवर्तन कायम था...बहुत चिडचिडी हो गयी थी...ख़ास कर मेरे साथ..कई बार मै अकेलेमे रो लेती..इतने बरसोंका तनाव अब उसपे असर दिखा रहा था..अपने पितासे तो वो कुछ कह नहीं सकती लेकिन भड़ास मुझपे निकलती..और उसके लौटने का समय भी आ गया..बिटिया आई और गयी...मै उसे आँख भर देख भी न पाई..बातचीत तो दूर..
मेरी चिड़िया फिर एकबार सात समंदर पार चली गयी..
इधर अमनकी पढ़ाई भी ख़त्म हो गयी..उसने M.B.A कर लिया और उसे चंडीगढ़ में नौकरी मिल गयी. केतकी पढाई के  साथ नौकरी भी कर रही थी. ...उसे final परिक्षा में अवार्ड भी मिला..मै बहुत ख़ुश हुई..लगा,बच्ची की मेहनत रंग लाई..
उसने भी नौकरी के लिए अर्ज़ियाँ दे रखी थी....उसे उसी शहर में नौकरी मिली जहाँ राघव को मिली थी..
एक दिन शाम गौरव घर आया और  मुझ से बोला," केतकी का फोन था..वो और राघव अगले माह रजिस्टर  पद्धती  से ब्याह कर ले रहे हैं..."
सुनके कुछ देर तो मेरी कोई प्रतिक्रया नही हुई...पर धीरे,धीरे मनमे बात उतरी..बिटिया का ब्याह और मै नही जा सकूँगी...कहाँ तो उसके ब्याह को लेके इतने सपने संजोये थे...उसके सारे कपडे मै खुद डिजाईन करने वाली थी...' बाबुल की दुआएँ लेती जा',इस गीत के पार्श्वभूमी में उसकी बिदाई करने वाली थी..जानती थी,की, वो नही रोयेगी, लेकिन मै अपनी माँ के गले लग खूब रोने वाली थी...
मेरी आँखों के आगे से गौरव का चेहरा ना जाने कब हट गया और मै ज़ारोज़ार रोने लगी...चंद घंटों की बिटिया मेरी निगाहों में समा गयी...वो आँखें भींचा हुआ कोमल मुखड़ा..जिसके इर्द गिर्द मै सपने बुनने वाली थी...उसे अपनी बाहों में लिया तो अनायास एक दुआ निकली...हे ईश्वर! इसकी राह के सारे काँटे मुझे दे देना...उसकी राहों में फूल ही फूल बिछा देना...

उसके जीवन का इतना अहम दिन और मै वहाँ हाज़िर नही...? दिल को मनाना मुश्किल था...नियती पे मेरा कोई वश नही था...ईश्वर क्यों मेरी ममता का इस तरह इम्तेहान ले रहा था? मैंने ऐसा कौनसा जुर्म कर दिया था? किया था..मेरे रहते,मेरी बिटियाको ज़ुल्म सहना पड़ा था..मुझे क़ीमत चुकानी थी...पर मेरा मन माने तो ना...

क्रमश:

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

बिखरे सितारे १४: खाली घोंसला!


(गतांक :पूजा के आँखों से पिछले महीनों से रोका हुआ पानी बह निकला था...उसने अपनी लाडली के आँखों में झाँका...वहाँ भविष्य के सपने चमक रहे थे..जुदाई का एकभी क़तरा उन आँखों में नही था...एक क़तरा जो पूजा को उस वक़्त आश्वस्त करता,की, उसकी बेटी उसे याद करेगी ..उसकी जुदाई को महसूस करेगी...उसे उस स्कूल के दिनका एक आँसू याद आ रहा था,जो नन्हीं केतकी  ने बहाया था...जब स्कूल बस बच्ची को पीछे भूल आगे निकल गयी थी...समय भी आगे निकल गया था...माँ की ममता पीछे रह गयी थी...अब आगे पढ़ें...आज मै,पूजा ,अपने पाठकोंसे मुखातिब होती हूँ...)

हवाई अड्डे से अतिथि गृह  और वहाँ से अपनी पोस्टिंग की जगह गौरव और मै  लौट आए.. तकरीबन छ: एकरों में बना ,छ: हज़ार square फीट से बड़ा घर ....और सिर्फ दो बाशिंदे...पति अपने कामों में व्यस्त..

 मै ऐसे ही,बेमकसद,अमन के कमरे में गयी..कुछ ही दिन पूर्व ,अमन आके लौटा  था....करीने से लगा हुआ, साफ़ सुथरा कमरा..मेरा मन अपने बच्चों के बचपन में विहार करने लगा...अपने नन्हें मुन्नों की आवाजें कानों में गूँजने लगीं   और उनमे मेरी आवाज़ भी शामिल हो गयी..
" माँ, देखो ना...इसने बाथरूम में कितने बाल बिखराएँ हैं...!छी :!इसे हटाने को कहिये न...!" अमन केतकी की शिकायत कर रहा था..
"माँ! इसने मेरे uniform   पे अपना गीला तौलिया लटका दिया है..इसे पहले वो हटाने के लिए कहो ना...!" केतकी ने अपनी शिकायत सामने रखी...
" चुप करो दोनों! मुझे किसी की कोई बात नही सुननी है...!" मै भी खीज उठी..
" माँ! मेरी एकही जुराब है...प्लीज़,मुझे दूसरी वाली खोज  दो न...!" यह अमन बोला..
" खोजो अपने आप...रात को अपनी जगह पे अपना सामान नही रखोगे तो ऐसाही होगा..!"मै भी चिंघाड़ उठी...
" माँ! मेरी कम्पस में रूलर नही है...अमन ने लिया होगा..."केतकी शोर मचा रही थी..
"उफ़ ! अभी स्कूल बस आनेवाली होगी...तुम दोनों ने क्या आफत उठा रखी है...अमन! यह लो तुम्हारी जुराब...और केतकी, यह रहा तुम्हारा रूलर..यहीं तो पड़ा था...चलो,चलो टिफिन और पानी की बोतलें उठाओ..बस आ गयी होगी...",मेरी आवाज़...!

दोनों चले जाने के बाद एक प्याली चाय की फ़ुरसत होती...मुझे तस्वीरों वाले सजे,सजाये कमरे कितने सुन्दर लगते...!
"लो तुम्हारा तस्वीरों वाला कमरा...ख़ुश? अब यहाँ की चद्दर पे एक सिलवट भी नही पड़ेगी...देख लो! डेस्क पे बेतरतीब किताबों का ढेर नही...इस्त्री किये कपड़ों पे गीला तौलिया नही...न कम्पस की खोज न जुराब की...टीवी चैनल परसे झगडा नही...अंत में "कोई कुछ नही देखेगा", ऐसा झल्लाके कहने वाली मै खामोश खड़ी..
" और लेलो फ़ुरसत...", मेरे मनने एक और उलाहना दी..आज मुझे वो सुबह की व्यस्तता याद आ रही थी...पीती रहो चाय...मैंने कैसे कभी सोचा नही,की, घोंसले से एकबार पँछी उड़ गए तो पता नही कब लौटेंगे? मै इंतज़ार करुँगी और वो आकाश में उड़ान भर लेंगे..!
मेरी आँखों से पानी बहने लगा..मै अमन के कमरे से केतकी के कमरेमे आ गयी...किसी के अस्तित्व की कोई निशानी नही...हाँ ! एक कोने में केतकी की कोल्हापुरी  चपलें पडी हुई थी..बस! पलंग फेंका हुआ दुपट्टा नही, अधखुली सूटकेसेस नही, पोर्टफोलियो के कागजात नही...खाली ड्रेसिंग टेबल...वैसे भी केतकी कोई सिंगार नही करती...इतने दिनों से ड्रेसिंग टेबल पे कागज़ात ही बिखरे हुए थे..वहाँ के हलके से अँधेरे  से घबराके मैंने बिजली जला दी..मन फिर एकबार विगत में दौड़ा...

अमन अंगूठा चूसा करता था..मेरे परिवारवाले मेरे पीछे पड़े रहते...'इसकी यह आदत छुडाओ..'दो साल के अमन को मै एक बार अपने बिस्तर पे लेके बैठी...उसने मेरी गोदीमे सर रख दिया..मैंने कहा,
"तुमने देखा बेटे? तुम्हारे पापा अंगूठा नही चूसते, मै नही चूसती, नाना नानी नही चूसते'...और न जाने कितनी लम्बी फेहरिस्त सुना दी..
उसने मूह से अंगूठा निकला..मुझे लगा, वाह! कुछ तो असर हुआ..अगले पल वो बोला," माँ ! इन छब को बोलो अंगूठा चूछ्ने को..", अंगूठा वापस अन्दर..
कई बार सोने से पहले वो काहानी की ज़िद करता और मै हज़ार काम आगे कर, टाल जाती..." देखो, दादी माँ को रोटी देनी है न?."..आदि,आदि...
काश मैंने वो सब छोड़ कहानी सुना ही दी होती...
केतकी को मेरी सहत को लेके हमेशा चिंता रहती...ख़ास कर मेरा मायग्रेन...जब वो होस्टल में थी तो दिल खोल के ख़त लिखती..अंत में हमेशा दो चेहरे अंकित करती...एक चिंतित , ख़त लिखने के पहले का और दूसरा...निश्चिन्त.... ख़त लिख लेने के बाद का..काश मैंने वो ख़त संभाल के रखे होते! अब अपने हस्ताक्षर में केतकी मुझे थोड़े ही ख़त लिखेगी...और वो भी लम्बे,लम्बे..अब तो इ-मेल आ जाया करेगी...चंद शब्दों की ...तबादलों के चक्कर में मैंने सब फेंक दिया था...कहाँ पता था की, ऐसे खाली घर में मुझे रहना पडेगा?

पिछले कई महीनों से उसने मुझसे बस काम की ही बात चीत की थी...मै समझ रही थी की, इतने सालों का दर्द उसपे हावी हो गया है..मेरी ज़िंदगी एक तारपर की कसरत थी, जिस में मेरी बेटी ने मुझे हमेशा सहारा दिया था..अब मुझे उसकी खामोशी या चिडचिड, दोनों बरदाश्त करने ही होंगे...राघव के रूप में उसे मनमीत मिल गया था..जिसके साथ वो अपने सब दुःख दर्द बाँट सकती थी...
आँखों की धारा और तेज़ हो गयी...मैंने उस कमरेसे बाहर निकल फट से टीवी चला दिया...बस इंसानी आवाज़ के खातिर...अब इंतज़ार  के अलावा अन्य चारा नही था...मेरे अनगिनत छंद थे..लेकिन इस वक़्त मुझे, इंसानी सोहबत की चाह थी...
मन में आ रहे विचार मैंने कागज़ पे उतार दिए..और तीन भिन्न भाषाओँ में लिख, अखबारों को भेज दिए...पढने वाले रो पड़े..मुझे अनगिनत ख़त आए..फोन आए..लोग मिलने भी पहुँचे और मेरे पास बैठ अपनी,अपनी कहानी  सुना, ज़रोजार रो गए....तीन अखबारों में अब मेरे साप्ताहिक colunm छपने लगे..लेकिन ,लेकिन..बच्चों की याद..खासकर केतकी की, मुझे रुलाती रही...जीवन में उसे चैन नही हासिल हुआ...और चाहे गलती किसीकी हो...उसकी ज़िम्मेदार,एक माँ की तौरपे मै भी थी..आज माँ की मामता मुझे चैन नही लेने दे रही थी...

क्रमश:

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

बिखरे सितारे 13: जुदाई


 (पूजा को हमेशा अपने पती से छुपके केतकी की ज़रूरतों को पूरा करना पड़ता. और बेचारी की ज़रूरतें ही कितनी-सी थी? कई बार तो उसे भूखे  पेट सो जाना पड़ता! छात्रावास का भोजनालय, केतकी जबतक लौटती, बंद हो जाता और आसपास खान पान की कोई सुविधा नहीं थी.
केतकी वास्तुशास्त्र के ३रे  सालमे आ गयी और...अब आगे पढ़ें...)

.....और अमन बी.कॉम के प्रथम वर्षमे. अमन अपने माता पिताके साथ रहता था. जब गौरव का तबादला हुआ तब अमन १२ वी कक्षा में था. उस साल उसे ३ महाविद्यालय बदलने पड़े! खैर!
वास्तुशाश्त्र के ३ रे वर्ष में जब एक बार केतकी अपने माँ पिता के पास आई हुई थी तब, उसने अपनी माँ को बताया की, उसे एक लड़का पसंद है. लड़का, राघव, इंजीनियरिंग का course कर रहा था और वो भी ३ रे साल में था. वो केतकी की बचपनकी सहेली, मुग्धा के क्लास में था.
केतकी ने एक दिन राघव की मुलाक़ात अपनी माँ तथा पितासे करवा दी. लड़का वाक़ई मेघावी और ख़ुशमिज़ाज था. अपनी माँ बाप की एकलौती औलाद. पहले तो पूजा समझी उसके माता पिता उसी शहरमे रहते हैं. उसकी खुशीका ठिकाना न रहा, क्योंकि पूजा और गौरव ने सेवा अवकाश के बाद उसी शहर में रहने का फैसला कर लिया था. लेकिन ये पूजाकी यह खुशफहमी ज़्यादा दिन टिकी नहीं. राघव छ्त्रवास में रहके पढ़ रहा था तथा, उसके माता पिता हैदराबाद  के बाशिंदे थे. फिरभी पूजा ख़ुश ही हुई की, कमसे कम अपने देशमे तो था!

उस साल पूजा और गौरव के विवाह को २५ साल पूरे होनेवाले थे. पूजा हर प्रकारसे अपनी शादी को खुशगवार  बनाये रखने का यत्न किया करती. उसने उस समय उनके जहाँ जहाँ तबादले हुए थे, वहाँ के सब मित्र परिवारों को न्योता दिया. कुछ उसकी अपनी स्कूलकी सहेलियाँ भी शामिल थीं. भाई  बहन के परिवार भी आए.
शादी की सालगिरह पड़ती इतवारके रोज़ थी,लेकिन शनिवार की रात को मनाने का   तय हुआ, की, बाहर से आनेवाले लोगों को लौटने में सुविधा हो. शनिवारको देर रात ,मतलब रातके एक डेढ़ बजे तक कुछ करीबी दोस्त सहेलियाँ बतियाते रहे. मतलब इतवार का दिन शुरू ही हो गया था. बहन आदि दो दिन रुक के लौटने वाले थे.

सुबह  पूजा को अपने  कमरेमे कुछ जल्दी ही खिटर  पिटर सुनाई दी. उस  ने आँख खोली तो देखा , भाई  उसके पास खड़ा था...बहन के कंधेपे पर्स थी...माजरा कुछ समझमे नही आया...बहन ने पूजा के हाथ में चाय की प्याली थमाई...पूजा फटी फटी आँखों से सबको देखे जा रही थी..!
भाई बोला: "आपा आप चाय तो पियो!"
पूजा ने दो घूँट लिए और बहनसे बोली:" तू पर्स लटकाए क्यों घूम रही है?"
भाई . ने पीछे से अपनी आपा को गले लगते हुए कहा:"आपा, दादी अम्मा नहीं रहीं...सुबह, सुबह गुज़र गयीं...चलिए जाना है.."
कुछ पल तो पूजा की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई...और फिर उसे एहसास हुआ की, उसके जीवन  का एक अध्याय ख़त्म हुआ. उसके दादा तो जिस साल गौरव का यहाँ तबादला हुआ उसी साल चल बसे थे.दादी अम्मा मानो शादी का सालगिरह हो जानेके इन्तेज़ारमे थीं...

वो ज़ारोज़ार रो पडी. चाहे जिस भी उम्र में उसके दादा दादी का निधन हुआ, उन तीनो भाई बहनों के लिए वो एक सपूर्ण अध्याय का समापन था...
जब उनकी गाडियाँ  उनके फ़ार्म हाउस  के गेट से अन्दर पहुँची तो पूजा के लिए उस घरको बिना दादा दादी के देखना असह्य हो उठा..सच का सामना करना ही था...

चंद रोज़ वहाँ रुक, पूजा लौट आई...गौरव और बच्चे तो उसी रोज़ शामको लौट गए.पूजा ने अपने मनको केतकी के ब्याह के विचारों में लगाने की कोशिश की.
सालगिरह के कुछ रोज़ पहले ही पूजा ने अपनी एक सहेली के साथ मिलके अपनी कलाकृतियों की प्रदर्शनी की थी,जो बहुत कामयाब हुई थी. पूजा ख़ुश थी,की, अब उसे एक स्थायी काम मिल गया. उनका चाहे कहीं तबादला हो, उसकी सहेली उसी शहरसे देखरेख  करेगी. पूजा ने डिज़ाइन   आदिका ज़िम्मा खुदपे ले लिया था..लेकिन चंद ही रोज़ में सहेली ने अपनी मजबूरी बता दी...इतनी माथा पच्ची उसके बस की नही थी.

इधर पूजा को पता चला की, राघव तो अगले साल आगेकी पढाई के लिए अमरीका जानेवाला था....वहीँ नौकरी भी करनेवाला था...तथा, केतकी ने भी आगेकी  ( M.arch ) . के लिए वहीँ जानेकी सोच रखी थी. पूजा अंदरही अन्दर  टूटने लगी. उसकी लाडली इतनी दूर अपना घोंसला बना लेगी, उसने कभी सोचा ही  नही था...

केतकी का आखरी साल ख़त्म हुआ और उस ने   अमरीका जाने की तैय्यारी शुरू कर दी. उसे शिश्यव्रुत्ती भी मिल रही थी. GRE  की तैय्यारी करने के लिए वो अपने माँ पिता के साथ रहने चली आई.  इनटर्न शिप उसने वहीँ से की. एन दिन कंप्यूटर के  आगे बैठ केतकी कुछ काम रही थी. पूजा  उसके लिए फल काटके ले गयी ..... प्लेट पकडाते हुए  उसने पीछेसे केतकी के गले में बाहें डाली और कहा," तुम्ही बच्चे मेरी दुनिया हो..."
केतकी ने एक झटके से उसे परे करते हुए कह दिया," माँ तुम अपनी दुनिया अब हमसे अलग बनाओ...अपनी दुनिया में हमें मत खींचो...अब मुझे पढाई करने दो प्लीज़.."
पूजा झट से हट गयी और अपने कमरे में जाके खूब रोई...उसका मानो जीने का हर सहारा छिन  रहा था...वो और, और अकेली पड़ती जा रही थी...गौरव तो अपने दफ्तर के काम में व्यस्त रहता...लेकिन वैसे भी औरत के इन कोमल भावों को उसने कब समझा?

  उसी समय गौरव का  फिर एक तबादला हुआ...अबके अमन को भी पीछे छोड़ना पड़ा क्योंकि, उसका M.BA का साल था. इसबार तबादले के पश्चात जो घर मिला वो बेहद बड़ा था...ना अडोस ना पड़ोस...केतकी आती जाती रहती...अब अपनी माँ के साथ उसका बर्ताव बेहद चिडचिडा हो गया था..पूजा का नर्वस ब्रेक डाउन हो गया था. ...केतकी इन सब बातों को अब बर्दाश्त नही कर पा रही थी. इन सब बातों के लिए उसे उसकी माँ भी उतनीही ज़िम्मेदार लग रही थी जितने के पिता..

जो भी हो माँ तो माँ थी...उसने अपनी जोभी जमा पूंजी गौरव से छुपाके रखी  थी,वो केतकी के अमेरिका जानेके खर्च में लगा दी. और फिर वो दिनभी आ गया जब उसे अमरीका जाना था...हवाई अड्डे पे पूजा ,गौरव और केतकी खड़े थे..पूजा के आँखों से पिछले महीनों से रोका हुआ पानी बह निकला था...उसने अपनी लाडली के आँखों में झाँका...वहाँ भविष्य के सपने चमक रहे थे..जुदाई का एकभी क़तरा उन आँखों में नही था...एक क़तरा जो पूजा को उस वक़्त आश्वस्त करता,की, उसकी बेटी उसे याद करेगी ..उसकी जुदाई को महसूस करेगी...उसे उस स्कूल के दिनका एक आँसू याद आ रहा था,जो नन्हीं केतकी  ने बहाया था...जब स्कूल बस बच्ची को पीछे भूल आगे निकल गयी थी...समय भी आगे निकल गया था...माँ की ममता पीछे रह गयी थी...
क्रमश:

बुधवार, 28 जुलाई 2010

बिखरे सितारे १२: अब तेज़ क़दम राहें..


(इन्हीं दिनों केतकी को पहले तो विषम ज्वर(typhoid )    और बाद में मेंदुज्वर हो गया..पूजा की माँ, मासूमा, दौड़ी चली आयी वरना बिटिया शायद ठीक नही हो पाती...क्योंकि साथ, साथ पूजा की सासू माँ की दोनों आँखें रेटिनल detachment से चली गयीं...उनकी देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी पूजा पे थी...इस घटना के कुछ माह पूर्व पूजा के ससुर का देहांत हो गया था..वोभी पता नही क्यों,लेकिन केतकी से खूब ही नफरत करते थे...पूजा को अपने सास-ससुर के रवैय्ये से हमेशा अफ़सोस होता...क्योंकि खुद उसने अपने दादा-दादी का बेहद प्यार पाया था....उसका जन्म किसी त्यौहार की तरह मना था...जबकि,केतकी मानो घर के लिए बोझ थी...इन बातों का नन्हीं केतकी के मन पे क्या आघात हो रहा था, किसने सोचा?भविष्य किसने देखा था?...अब  आगे  पढ़ें ...)

केतकी ९वी क्लास में आई और गौरव की माँ का देहांत हो गया..जीवन के अंतमे उन्हें यह  एहसास होने लगा था,की, उन्हों ने पूजा के साथ  काफ़ी ज़्यादती की है, लेकिन पूजा या  गौरव को यह बात नही बताई...बात तो उनके  जानेके बाद गौरव के दोस्तने पूजाको बताई..समय तो निकल चुका था..और पूजा को इस बात का अफ़सोस रहा की, अपनी दादी के चल बसने से बच्चों को क़तई दुःख नही हुआ...वो जानती थी की, दादा-दादी क्या नैमत होते हैं!

१० वी में केतकी को अच्छे मार्क्स मिले. उसने विज्ञान  शाखा चुनी. उसे लगाव तो पर्यावरण से था और आगे चलके वो पर्यावरण के लियेही काम करना चाहती थी लेकिन १२ वी बाद गौरव ने उसकी एक न चलने दी. अंतमे जो दूसरा पर्याय था, वास्तुशास्त्र, वह उसने चुन लिया.
१२ वी में रहते उसने अपनी माँ से Bombay Natural History Society के सभासदस्यता   के  लिए १०० रु.माँगे...गौरव ने सुन लिया और उसे बेहद डांट सुनाई," पैसे पेडपे लगते हैं जो तुम ने  कह दिया और हम कर दें?"
बेचारी छोटा-सा मूह लेके चुप रही. बादमे पूजाने उसे पैसे दिलाये. हैरत तो इस बात की थी, की, गौरव और पूजा दोनों इस संस्था के आजीवन सदस्य थे!
केतकी के साथ लगातार नाइंसाफी होती रही. लडकी बेहद संजीदा थी. न उसे किसी latest fashion से लेना देना होता न होटल न सिनेमा...खादी या हाथ करघेके बने कपडेका  का शलवार कुरता और कोल्हापुरी  चप्पल यह उसका परिधान रहता..वो अपनी माँ के साथ होती तानाशाही भी समझती थी. माँ बेटी में अब एक दोस्ताना रिश्ता कायम होता जा रहा था. ३ साल पहले जब गौरव के व्यवहार की वजह से पूजा का nervous breakdown हुआ तो बेटी ने अपनी माँ को मानसिक रूपसे बेहद साथ दिया था..
केतकी  जब वास्तु शास्त्र के  दूसरे वर्ष में आयी तब गौरव का उस शहरसे तबादला हो गया. बिटिया को पीछे छोड़ना पड़ा..पहले एक रिश्तेदार के घर और फिर एक छात्रालय में. माँ-बेटी दोनों एक दूसरेको बेहद मिस करतीं...जब कभी केतकी  तनाव में होती, अपनी माँ को  एक ख़त लिखती, जिसकी शुरुमे एक दुखी चेहरा होता और ख़त के अंतमे एक संतुष्ट चेहरा बनाती...जैसे की, माँ को बस लिखने भरसे मन परका बोझ उतर गया हो..अफ़सोस की,पूजा ने यह ख़त जतन से सम्भालके नही रखे...आनेवाली ज़िंदगी क्या रंग दिखलाएगी किसे पता था? पूजा में  ढेरों कला गुण थे,जिसका केतकी को बहुत अभिमान था. पूजा को पाक कलामे भी महारत हासिल थी.
पूजा को हमेशा अपने पती से छुपके केतकी की ज़रूरतों को पूरा करना पड़ता. और बेचारी की ज़रूरतें ही कितनी-सी थी? कई बार तो उसे भूखे  पेट सो जाना पड़ता! छात्रावास का भोजनालय, केतकी जबतक लौटती, बंद हो जाता और आसपास खान पान की कोई सुविधा नहीं थी.
केतकी वास्तुशास्त्र के ३रे  सालमे आ गयी और...
क्रमश:

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

अध्याय २:बिखरे सितारे:१० फिसलता बचपन

 (पूर्व भाग:जब बच्ची कुछ ठीक हुई तो उसने अपनी माँ से एक कागज़ तथा पेन्सिल माँगी...और अपनी माँ पे एक नायाब निबंध लिख डाला..." जब मै बीमार थी तो माँ मुझे बड़ा गन्दा खाना खिलती थी..लेकिन तभी तो मै अच्छी हो पायी..वो रोज़ गरम पानी और साबुनसे मेरा बदन पोंछती...मुझे खुशबूदार पावडर लगती...बालों में हलके हलके तेल लगाके, धीरे, धीरे मेरे बाल काढ़ती...." ऐसा और बहुत लिखा...पूजा ने वो नायाब प्रशस्ती पत्रक उसकी टीचर को पढ़ने दिया...जो खो गया..बड़ा अफ़सोस हुआ पूजा को...

और दिन बीतते गए....बच्चे समझदार और सयाने होते गए..अब आगे पढ़ें...)

ऐसा नही था,की, पूजाकी ज़िंदगी में हलके फुल्के लम्हें आते ही नही थे...आते,लेकिन उसके बच्चों के कारण...उनके सयाने पन में  भी निहायत भोलापन  था,मासूमियत थी..
एक बार पूजा खानेकी मेज़ लगा रही थी..पास ही में TV. था...जिसपे चित्रहार चल रहा था..उसका ५/६ साल का बेटा, अमन, देख रहा था..अचानक उसने अपनी माँ से सवाल किया:" माँ ! आप  अपनी शादी के पहले बगीचे में गाना गाते थे या सड़क पे?"
पूजा बेसाख्ता हँस पडी,बोली:" अरे बेटू ये सब तो फिल्मों में होता है...ऐसे थोडेही कोई गाना गता है....!"
बेटा:" आपने कहीँ नही गाना गया?"
पूजा:' नही तो!"
बेटा:" तो फिर आपको शादी करने को किसने कहा? पापा ने आपसे कहा या आपने पपासे?"
पूजा:" हम दोनोने एक दुसरे से कहा ..."
बेटा:" क्या??तुमने भी कहा?"
पूजा:" हाँ...!"
अब बेटेकी भोली आँखें   अचरज से और भी गोल गोल   हो गयीं...!
बेटा:" तुमको इस आदमी के साथ शादी करने के लिए सलकाली ओलडल   तो नही आया था?"
अब पूजा हँस  हँस के बेहाल हुए जा रही थी...!
बेटा:" तो माँ तुम्हाला  दिमाग खलाब  हो गया था जो तुमने इस आदमी के साथ शादी की?"
पूजा हँसते,हँसते लोटपोट हुए जा रही थी...क्या कहती  की, भोलेपनमे बेटे ने हक़ीक़त कह दी थी?

देखते ही,देखते बच्चों का भोला बचपन हाथों से फिसलता जा रहा था...वक़्त की तेज़ रफ़्तार कौन रोक पाया? बिटिया का बचपन तो घर के बड़ों ने छीन लिया था...वो समय से पहले खामोश और परिपक्व हो रही थी...पूजा देख रही थी,लेकिन कुछ कर नही पा रही थी...एक अपराधबोध तले वो दबी जाती,की, बिटिया पे समझदारी थोपी जा रही थी, और पूजा हतबल होके देखती जा रही थी...

इन्हीं दिनों केतकी को पहले तो विषम ज्वर(typhoid )    और बाद में मेंदुज्वर हो गया..पूजा की माँ, मासूमा, दौड़ी चली आयी वरना बिटिया शायद ठीक नही हो पाती...क्योंकि साथ, साथ पूजा की सासू माँ की दोनों आँखें रेटिनल detachment से चली गयीं...उनकी देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी पूजा पे थी...इस घटना के कुछ माह पूर्व पूजा के ससुर का देहांत हो गया था..वोभी पता नही क्यों,लेकिन केतकी से खूब ही नफरत करते थे...पूजा को अपने सास-ससुर के रवैय्ये से हमेशा अफ़सोस होता...क्योंकि खुद उसने अपने दादा-दादी का बेहद प्यार पाया था....उसका जन्म किसी त्यौहार की तरह मना था...जबकि,केतकी मानो घर के लिए बोझ थी...इन बातों का नन्हीं केतकी के मन पे क्या आघात हो रहा था, किसने सोचा?भविष्य किसने देखा था?
क्रमश:

सोमवार, 26 जुलाई 2010

बिखरे सितारे..एक साल..

आज  पहली बार मुझे इत्तेफ़ाक़ से याद आया की देखें इस ब्लॉग पे पहली पोस्ट कब लिखी...देखा ,कल एक साल हो गया..'बिखरे सितारे' पे लेखन करते समय भावनिक और मानसिक दृष्टी से मै बेहद कठिनाई से गुज़री...विश्वास नही हो रहा की,यह मालिका निर्विघ्न पूरी हो गयी.पाठक दोस्तों का प्यार था,जिस कारण मनोबल बना रहा. सभी की तहे दिल से शुक्रगुज़ार  हूँ मै.

बिखरे सितारे:१० बिटिया का तोहफा.

(पूर्व  भाग :वो दिनभी आया जब बिटिया को स्कूल जाना था....उन्हीं दिनों बिटिया ने अनजाने ही अपनी माँ को एक यादगार तोहफा दिया...जिसकी क़द्र बरसों बाद पूजा को हुई...उस का एहसास हुआ,की, वो तोहफा कितना नायाब था...अब आगे पढ़ें)

केतकी ३ साल की हुई तो स्कूल  जाने लग गयी. एक दिन स्कूल से फोन आया की, वापसी पे स्कूल बस बिना उसे लिए निकल गयी है...पूजा जल्दी जल्दी स्कूल पहुँची...बच्ची को दफ्तर में बिठाया गया था..उसके गाल पे एक आँसू लटका हुआ पूजा को नज़र आया...उसने धीरेसे उसे अपनी तर्जनी से पोंछ दिया और बच्ची को  गले लगा लिया..
माँ ने वो एक बूँद पोंछी तो बिटिया बोल उठी: " मुझे डर  लगा,तुम्हें आने में देर होगी,तो, पता नही कहीँ से  ये पानी मेरे गालपे आ गया..!"
बरसों बाद जब पूजा को ये वाक़या याद आया,तो लगा, काश वो उस एक बूँद को मोती में तब्दील कर एक डिबियामे संजो के रख सकती...बिटिया से मिला वो एक बेहतरीन तोहफा था...क्या हालात हुए,जो पूजा को ऐसा महसूस हुआ? अभी तो उस तक आने में समय है...इंतज़ार करना होगा...!
दिन बीतते गए...गौरव के तबादलों के साथ बच्चों के स्कूल बदलते गए...पूजा में हर किस्म का हुनर था..उसने कभी पाक कला के वर्ग लिए तो कभी बागवानी सिखाई...कमाने लगी तो उसमे थोडा आत्म विश्वास जागा..बच्चों का भविष्य, उनकी पढ़ाई...खासकर बिटियाकी, मद्देनज़र रखते हुए, उसने पैसों की बचत करना शुरू कर दी...हर महीने वो थोडा-सा सोना खरीद के रख लेती...गुज़रते वक़्त के साथ पूजा का यह क़दम बेहतरीन साबित हुआ..
एक और बात पूजा को ता-उम्र याद रहेगी...बिटिया ५/६ सालकी थी...बहुत तेज़ बुखार से बीमार पडी..रोज़ सुबह शाम इंजेक्शन लगते...जब डॉक्टर आते तो वो उनसे कहती,: " अंकल, माँ को बोलो दूसरी तरफ देखे..उसे बोलो, मुझे बिलकुल दर्द नही होता..माँ! आँखें  बंद करो या दरवाज़े के बाहर देखो तो..."
पूजा की आँख भर आती...!
जब बच्ची कुछ ठीक हुई तो उसने अपनी माँ से एक कागज़ तथा पेन्सिल माँगी...और अपनी माँ पे एक नायाब निबंध लिख डाला..." जब मै बीमार थी तो माँ मुझे बड़ा गन्दा खाना खिलाती  थी..लेकिन तभी तो मै अच्छी हो पायी..वो रोज़ गरम पानी और साबुनसे मेरा बदन पोंछती...मुझे खुशबूदार पावडर लगातीं ...बालों में हलके हलके तेल लगाके, धीरे, धीरे मेरे बाल काढ़ती...." ऐसा और बहुत लिखा...पूजा ने वो नायाब प्रशस्ती पत्रक उसकी टीचर को पढ़ने दिया...जो खो गया..बड़ा अफ़सोस हुआ पूजा को...

और दिन बीतते गए....बच्चे समझदार और सयाने होते गए...
क्रमश:

रविवार, 25 जुलाई 2010

बिखरे सितारे:९:होली का यह रंग भी..


(पूर्व भाग:उन  दिनों पूजा की माँ दौड़ी चली आयीं थीं..हर तरह से उन्हों ने पूजा की सहायता की...वो दस दिन पूजा एक पलक नही सोयी..बच्ची को मौत के मूह से मानो छीन लाई...बच्ची जी कैसे गयी,यह तो अस्पताल वालों के लिएभी एक अजूबा था...
क्या पता था पूजा को की, ऐसे तो और कई हालात आने वाले थे...जो उसे आज़माने वाले थे...अब आगे पढ़ें...)

कब सोचा था पूजाने की, गौरव के साथ उसका जीवन इतना बदरंग हो जायेगा? बिटियाको अस्पताल में भरती करनेसे कुछ ही रोज़ पूर्व होली आयी और गयी.. बिटियाकी पहली होली थी,लेकिन घरमे जैसे मातम छाया रहता..पूजा अपनी ओरसे माहौल में हँसी घोलती रहती...यह सोच की, कहीँ केतकी पे विपरीत असर ना हो जाय..उसका जीवन बिटिया तथा घर संसार में सिमट के रह गया था...

पूजा अपने आपमें अनूठी कलाकार थी..जब कभी मौक़ा हात लगता वो बिटिया को लेके उसके सामने कलाकृतियाँ बनाती रहती...कभी कागज़ पे , कभी कपडे पे  तो कभी कपडे के टुकड़े और धागे लेके...बच्ची १३ माह की हुई और पूजा के पैर फिर से भारी हो गए...

ऐसा नही था,की, पूजा को आने वाली ज़िंदगी में किसीने पूछा ना हो..खासकर सखी सहेलियों ने की, उसने ऐसा घुट के जीना क्यों मंज़ूर किया? जवाब साफ़ था...गौरव का रसूक इतना था,की, पूजा गर अलग होने की बात भी करती तो, उससे बच्ची छीन ली जाती..चाहे बाद में वो नन्हीं जान मर मर के जीती...पूजा अपनी औलाद से जुदा होही नही सकती थी...वो कई बार टूटी...बिखरी..लेकिन हर बार संभल  गयी...एक माँ की ज़िम्मेदारी वो किसी भी हालत में नकार नही सकती थी...

और अब एक और जीव दुनियामे आनेवाला था...अबके तो सासू माँ ने बेटे की रट लगा दी...यह एक और भय पूजा तथा उसके नैहर वालों की  क़िस्मत लिखा था...बेटा हुआ तो, लेकिन पूजा तक़रीबन ३६ घंटे प्रसूती वेदना से गुज़री...उसका कारण मानसिक दबाव था...नैहर में बिटिया को सबसे अधिक प्यार मिलता लेकिन ससुराल में बेटे के आने के बाद तो बिटिया की औरभी दुर्दशा होने लगी...दिन गुज़रते गए...

वो दिनभी आया जब बिटिया को स्कूल जाना था....उन्हीं दिनों बिटिया ने अनजाने ही अपनी माँ को एक यादगार तोहफा दिया...जिसकी क़द्र बरसों बाद पूजा को हुई...उस का एहसास हुआ,की, वो तोहफा कितना नायाब था...

क्रमश: 
क्षमा चाहती हूँ...पुनः प्रकाशन में बीछ वाली एक कड़ी गलती से डिलीट हो गयी...

शनिवार, 24 जुलाई 2010

अध्याय २:बिखरे सितारे:7 मझधार में...
















 

 
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.(पूर्व  भाग :उस रात नींद में न जाने वो कितनी बार डरके रोते हुए उठी...लेकिन मासूम का प्यार देखो...सुबह अपने पितापे दृष्टी पड़तेही खिल उठी..पूजा की आँखों से   चुपचाप नीर बहा..हर गुज़रता दिन न जाने कितनी चुनौतियाँ भरा होता!
सास अक्सर मिलने जुलने वालों से कहती." अरी बड़ी चीवट जात है..पहले दो लड्कोंको  खा गयी..इसे जो पैदा होना था..कुलक्षनी है.."
इस मासूम जान की ज़िम्मेदारी अब केवल पूजाकी थी..बीमारी, दवा  दारू, हर चीज़ में अडंगा खड़ा हो जाता..इतनीसी बीमारी के लिए कोई डॉक्टर के जाता है?)

पूजा की बिटिया कुछ ९ माह की थी तबकी ये बात है. गौरव को किसी कामसे बंगलौर के बाहर जाना था. पूजाकी सास का मन हुआ बेटे के साथ जानेका. तो फिर पूजा और बिटिया का ( केतकी) जाना भी तय हो गया...वजह? गर उन्हें पीछे छोड़ा तो लोग क्या कहेंगे?

भरी गरमी का मौसम था...रास्तेमे बिटिया को पानी पिलाने के लिए पूजाने कई मिन्नतें की लेकिन ,सासू माँ  और गौरव का एकही उत्तर: " ये क्या बिना पानी के मर जायेगी?"
बच्ची केतकी को पता नही क्यों बोतल से चिढ थी. वो छोटी-सी लुटिया से ही पानी या अन्य पेय पीती थी. इस कारण गाडी का रोकना ज़रूरी था, लेकिन उसकी कौन सुनता?

तकरीबन ५ घंटों के सफ़र के बाद वो लोग किसी अन्य अफसर के   घर भोजन के लिए रुके. उनकी पत्नी डॉक्टर थी. पूजा का सर दर्द से बुरा हाल हो रहा था..उसे उल्टियाँ  भी हो रही थी. भोजन के तुरंत बाद आगे का सफ़र करने जैसी उसकी हालत नही थी. गौरव और सासू माँ, दोनों का मूड ख़राब हो गया...मित्र ने एक गेस्ट हाउस बुक करा दिया..पूजा ने कुछ देर के लिए बच्ची को सास के हवाले किया और सासुमा को दहलीज़ पे  ठोकर लगी...बच्ची जोर से ज़मीन पे जा गिरी...! ये हादसा तो किसी से भी हो सकता था..पूजा को कोई शिकायत नही थी...लेकिन कुछ देरमे बच्ची को भी उल्टियाँ शुरू हो गयीं..४/५ बार हो चुकी तो पूजा ने गौरव से किसी बाल रोग विशेषग्य  को  बुलाने की इल्तिजा की...फिर वही जवाब:" तुम इतनी-सी बात पे चिंतित हो जाती हो..सुबह तक अपने आप ठीक हो जायेगी.."

लेकिन रात ९ बजने तक बच्ची को तकरीबन १० बार उल्टी हो चुकी..पूजा की अपनी हालत ठीक न थी,वो बच्ची को किसी तरह संभाल रही थी..अंत में उसने गौरव को बिना बताये गौरव के मित्र की पत्नी को फोन किया तथा, स्थिती बतायी..उसने तुरंत डॉक्टर का इंतज़ाम किया.

जब डॉक्टर गेस्ट हाउस  पहुँचा तो गौरव को बेहद गुस्सा आया  ! उसे बिना कहे डॉक्टर बुलाने की पूजाकी हिम्मत कैसे हुई..? डॉक्टर ने बी केतकी की चिकित्चा करते हुए पूजा को कई सवाल पूछे,उनमे से एक था," क्या बच्ची कहीँ   गिरी थी?"
पूजा ने साधारण से ढंग से  बता दिया की,वो दोपहर में  गिरी थी.

डॉक्टर गेस्ट हाउस से निकला और सासू माँ ने दहाड़े मार के रोना शुरू कर दिया...! कहने लगी, " मै तो अब इस बच्ची को कभी गोद में नही लेने वाली..बहू का तो मुझपे विश्वास ही नही..मर मारा जाती तो मेरे सर इलज़ाम मढ़ा जाता.."
गौरव तथा अपनी सास से पूजा ने कई बार कहा,की, उसके मनमे ऐसा वैसा कुछ नही था...डॉक्टर ने पूछा तब उसने बताया...और ये की, ऐसे तो वो किसी के भी हाथ से गिर सकती थी..लेकिन नही...कोई नही माना..गौरव उन दोनों को छोड़ माँ के कमरेमे सोने चला गया..

सुबह तक पूजा नही संभल पाई... केतकी कुछ बेहतर थी..पूजाने लाख कहा: " आप दोनों निकल जाएँ...मै कल परसों बिटिया को लेके ट्रेन से बंगलौर लौट जाउँगी..."
लेकिन जनरीती की दुहाई देते हुए सब वापस लौट गए. पूजा और बिटिया से दोनों ने बात चीत करनी बंद कर दी...
इसके कुछ ही दिनों बाद एक ऐसी घटना घटी, जब केतकी मौत के मूह से लौट आयी...

क्रमश:

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

बिखरे सितारे-६ तूफ़ान भरी राहें!


गौरव: " तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे सांप या बिच्छू ने डंख मार दिया हो...इसकी जान जा रही हो...चीटी के काटने से यह मर थोड़े ही जायेगी?"
पूजा ने   उसे जल्दी जल्दी नहला डाला...
बच्ची केवल ३० दिन की थी..आगे पूरी ज़िंदगी पडी थी...पूजाकी आँखों के आगे भविष्य का नज़ारा घूम गया..अब आगे पढ़ें...

२ माह की बच्ची को लेके  पूजा बंगलोर अपने नैहर से चली आयी थी.
गुज़रते दिनों के साथ पूजाको रोज़ ही ना जाने कितनीही कठिनाईयों   का सामना करना पड़ता! चैन से वो बच्ची को स्तनपान भी न करा पाती..सास की दो मिनट के अन्दर आवाज़ लग जाती:
" तुम जब देखो तब इसे लिए बैठ जाती हो...यहाँ चाहे किसीको चाय चाहिए हो या नाश्ता...तुम्हें तो पहले उस लडकी की पडी रहती है..हमारे घरमे तो ये ३ री लडकी है..अब बेगम साहिबा उठिए और हमें पराठें बना दें!  लगता है,तुम्हें  और कोई कामही नही...!"
पूजा: बस पाँच मिनट रुक जाएँ आप.. मै तुरंत बना दूँगी...सुबह से ३ बार इसे रोता छोड़ मै उठ गयी हूँ.."
सासूमा :" तो हमपे एहसान किया है? घरके काम तुम नही करोगी   तो और कौन?"
गौरव: " सुना नही माँ ने क्या कहा? माँ से बढ़के   आज ये हो गयी? रखो इसे नीचे और माँ जो कह रहीं हैं करो.."
बिचारी उस नन्ही-सी जान को फिर  एकबार भूखे पेट अपने पलनेमे जाना पड़ा...बेचारी बड़ी करुण सुरमे रोने लगी..
पूजा गरम,गरम  पराठे बना अपनी सास को परोसती गयी..
पराठें बन गए तो कुत्तेको घुमाके लानेका आदेश मिला. पूजाने फिर बिनती की:" बच्ची भूक के मारे रोये जा रही है...मुझे १० मिनट देदो, मै घुमा लाऊँगी ..please !
गौरव:" तुमने लडकी को सरपे चढ़ा रखा है...चलो मेरे साथ लिफ्ट में नीचे उतारो, मै दफ्तर निकल पडूँगा, तुम  कुत्तेको घुमाके ले आओ...ये भी बाहर जानेके लिए मचल रहा है..."
अंतमे हुआ वही जो गौरव और उसकी सास चाहती!पूजा की आँखें नम होती जा रही थीं..जब भी उसके पलने के पास से पूजा गुज़रती, वो बड़ी आशासे अपनी माँ को देखती...और तवज्जो न पाके  रो उठती.
कुत्तेको  घुमाने के पश्च्यात उसने सबकी इजाज़त ली तब वो बच्ची को दूध पिला सकी.

एक बार पूजा घरकी बालकॉनी  में खड़ी हो, बिटिया को परिंदे दिखा रही थी...वहाँ कौवे भी थे. कुत्तेको कव्वों से बेहद चिढ थी...उसने जैसे ही कव्वे को  देखा, उसने ज़ोरदार हमला बोल दिया...बच्ची डर के मारे चींख उठी..पूजा ने  उसे अपने काँधों पे चिपकाके वहाँ से हट जाने का  सोंचा...लेकिन गौरव ने टांग अड़ा दी:
गौरव:"ये मेरे कुत्तेसे डरती है? देखता हूँ कबतक डरती है..."
कहके उसने कुत्तेको और कव्वे दिखाए...कुत्ता और जोरसे भोंक के हमला बोलने लगा...
अंतमे पूजा गौरव के प्रतिकार करने के बावजूद बच्ची को कमरेमे ले आयी...बच्ची बुरी तरह सहम गयी थी..काँप-सी रही थी..उसे शांत करने के लिए स्तनपान के अलावा और कोई तरीका नही था...जैसे ही बच्ची दूध पीने लगी, गौरव ने  एक और तमाशा खड़ा कर दिय!
गौरव: " तुम तो एकदम गाँव की गंवार  औरतों की तरह इस चिपकाये फिरती  हो!इसे बोतल का दूध पिलाओ..मै देखता हूँ कैसे और कबतक नही पीती.."
उसने बच्ची को पलंग पे डलवाया और पूजाको आदेश दिया:" चलो लाओ दूध बनाके.."
पूजा: " आप तो जानते हैं की ये बोतल से नही पीती, थोड़ी और बड़ी होगी तब पीने लग जाय...!"
गौरव: " जो मै कह रहा हूँ, वैसा करो..अब लाओ ये बोतल मुझे पकडाओ ..तुम्हारेसे गर रोना धोना  बर्दाश्त न हो तो दूसरे कमरेमे चली जाओ!"
 पूजाने  गौरव को बोतल पकड़ा दी और सहमी-सी वहीँ पे कोनेमे बैठ गयी..
बच्ची बदहवास-सी अपनी माँ को घूरे जा रही थी..उसकी ओर बाहें फैला रही थी...उसे बोतल से चिढ थी..पूरे एक घंटा ये तमाशा चला ! अंतमे पूजाने बच्ची को  गौरव से छीन लिया और कमरा अंदरसे बंद कर दिया.

उस रात नींद में न जाने वो कितनी बार डरके रोते हुए उठी...लेकिन मासूम का प्यार देखो...सुबह अपने पितापे दृष्टी पड़तेही खिल उठी..पूजा की आँखों से   चुपचाप नीर बहा..हर गुज़रता दिन न जाने कितनी चुनौतियाँ भरा होता!
सास अक्सर मिलने जुलने वालों से कहती." अरी बड़ी चीवट जात है..पहले दो लड्कोंको  खा गयी..इसे जो पैदा होना था..कुलक्षनी है.."
इस मासूम जान की ज़िम्मेदारी अब केवल पूजाकी थी..बीमारी, दावा दारू, हर चीज़ में अडंगा खड़ा हो जाता..इतनीसी बीमारी के लिए कोई डॉक्टर के जाता है?
क्रमश:

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

Adhyaay 2:बिखरे सितारे! ५: नन्ही कली...


पूर्व भाग: पूजाका दोबारा गर्भ पात हो गया. माँ तथा बहन तब उसके घर पहुँचे थे. पूजाका जीवन, उसका दुःख दर्द उनकी आँखों के आगे एक खुली किताब बन गया. अब आगे पढ़ें.


कुछ दिन बाद माँ और छोटी बहन तो चले गए,लेकिन दिलमे एक गहरा सदमा लेकर. माँ भी समझ नही पा रही थी,की, गर गौरव को इस तरह बर्ताव करना था तो उसने पूजासे ब्याह किया क्यों? खैर...दिन इसी तरह गुज़रते रहे.

एक दिन गौरव खबर लाया की, उसका तबादला इलाहाबाद हो गया है. मन ही मन पूजा ख़ुश हुई. उसे लगा, शायद दिल्ली से बाहर निकल गौरव का रवैय्या बदलेगा. दिल्ली में रहते समय, कई बार किशोर  का आमना सामना हो जाता. पूजा के मन में उसके लिए कडवाहट के अलावा कुछ न था पर गौरव के दिल में एक वहम, एक जलन बनी रहती. हर ऐसे समारोह के बाद वो पूजा को ताने ज़रूर सुनाता.

पूजा का दूसरा गर्भपात हुए तकरीबन एक साल होने आया था और उसे फिर से गर्भ नही ठहरा था. उसके ससुराल वालों के लिए  यह भी चिंता का विषय बन गया. लेकिन पूजा ने तभी खबर सुना दी. अबके एहतियातन पूजा को दो माह चलने फिरने या सीढ़ी उतरने के लिए मनाई की गयी. पूजा की माँ उसके साथ रहने आ गयी. चौथा माह गुज़र गया तो सबने आश्वस्त होनेकी साँस ली.

पाँचवा माह शुरू हुआ ही था,की, पूजा का nervous ब्रेक डाउन हो गया. उसके मन में एक डर समा गया की, कहीँ घरवालों की कहा सुनी में आके गौरव उसे छोड़ न दे. वो रो रो के गौरव से आश्वासन माँगती और उसे नही मिलता. एक और बात से वह डर गयी. किसी ने भविष्य वाणी कर दी की, पूजा को दो औलाद होगी तथा दोनों बेटे होंगे. पूजा और अधिक डर गयी...सभी परिवार वाले मान के चल रहे थे,की, उसे बेटाही   होगा. ...जबकी पूजा मनही मन डरने लगी...कहीँ बेटी हुई तो? उस बच्ची का क्या हश्र होगा? उस निष्पाप जीव को क्या उसके ससुरालवाले अपनाएंगे? क्या उसे वो प्यार मिलेगा जिसकी वो हक़दार होगी?

गुज़रते दिनों के साथ पूजा की मनोदशा और अधिक ख़राब होती गयी. जब प्रसव के दिन करीब आए तो उसकी डॉक्टर ने सिजेरियन की सलाह दी. एक और कारण भी था...गर्भ उलटा था..डॉक्टर को डर लगा की, प्रसव के दौरान गर गर्भ को  कुछ हो गया तो पूजा या तो पगला जायेगी या मरही जायेगी..तारीख तय कर ली गयी और इलाहाबाद के सिविल हॉस्पिटल में उसे दाखिल कराया गया. दोपहर तक उसका ऑपरेशन हो गया. जब उसकी आँख  खुली तो उसे बेटी होने की खबर मिली.  उसके मनमे बच्ची के प्रती प्यार के अलावा अपार करुणा भर गयी..अपनी माँ को खबर सुनाते हुए, गौरव ने कहा,"माँ तुझे सुनके खुशी तो नही होगी..बेटी हुई है.."

बेटीका जीवन अब पूजा के लिए चुनौती बन गया. अस्पताल से पूजा घर लौटी तो नवागत की खुशी के तौरपे किसी के मुह्पे हँसी न थी. एक पूजा की माँ तथा, अंतिम दिनों में आयी बहन थी, जो बेहद ख़ुश थे.पूजा जानती थी, की, उसकी बिटिया का उसके नैहर में खूब स्वागत होगा. भरी गर्मी में ३ दिन का सफ़र कर पूजा अपने नैहर पहुँच गयी. वहाँ उसे पहली बार माँ होने की खुशी हुई.

आनेवाले दिनों में उसका भय सही साबित हुआ...उसे बच्ची को छूने के लिए भी घरवालों  इजाज़त लेनी पड़ती. पूजा को अपने नैहर आए कुछ ही दिन हुए थे,की, गौरव के तबादले की खबर उसे ख़त द्वारा मिली. तबादला कर्नाटक में हुआ था. गौरव सामान बाँधने से पूर्व अपनी नयी पोस्ट का मुआयना करने आया. उस समय वो वो पूजा के नैहर आया.

सब नाश्ते की मेज़ पे बैठे हुए थे की, कमरेमे से बच्ची की रोने की  ज़ोरदार आवाज़ आयी. पूजा उठने लगी तो गौरव ने कहा:" तुम अपना नाश्ता ख़तम करो तब जाना. अभी मेराभी नाश्ता नही हुआ और तुम चली? कल जन्मी बच्ची से ये असर? तुम्हारा मेरे प्रती रवैय्या ही बदल गया!"
पूजा चुपचाप   कुर्सी पे बैठ गयी. पूजा की दादी उठ खड़ी होने लगी तो गौरव ने उन्हें भी रोक दिया...बेचारी दादी...उनके घर में उन्हीं को उठने की इजाज़त नही थी! बच्ची और न जाने कितनी देर रोती गयी, और साथ दादी भी...वो चुपचाप आँसूं बहाती रहीं...पूजा को तो उतनी भी इजाज़त नही थी...जब सबकी चाय ख़त्म हुई तब गौरव ने कहा:
" अब जाओ अपनी लाडली के पास! ऐसे बर्ताव कर रही हो जैसे दुनिया में कोई पहली बार माँ बना हो!"
जो भी हो, पूजा तो पहली बार माँ बनी थी !

जब पूजा कमरेमे गयी और बिटिया को उठाने लगी तो देखा उसपे कई सारी लाल चीटियाँ चिपकी हुई थी...नन्हीं जान उसी के कारण बदहवास होके रो रही थी..!
उसके पीछे,पीछे कमरे में आए गौरव से वह बोली:" इसे तो चीटियों ने डस लिया था, इसीलिये रो रही है..."
गौरव: " तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे सांप या बिच्छू ने डंख मार दिया हो...इसकी जान जा रही हो...चीटी के काटने से यह मर थोड़े ही जायेगी?"
पूजा ने   उसे जल्दी जल्दी नहला डाला...
बच्ची केवल ३० दिन की थी..आगे पूरी ज़िंदगी पडी थी...पूजाकी आँखों के आगे भविष्य का नज़ारा घूम गया..
क्रमश:

सोमवार, 19 जुलाई 2010

बिखरे सितारे:Adhyaay 2: 4 सितम औरभी थे...

बिखरे सितारे !३ सितम औरभी थे!


पूर्व भाग..अजीबोगरीब मानसिक तथा शारीरिक तकलीफोंसे गुज़रती रही पूजा. उसके ब्याह को छ: माह हो गए और उसके पिता उसे मायके लेने आए.अब आगे  पढ़ें:



पूजा मायके पहुँची तो बेहद खामोश रहने लगी. वो क़तई नही चाहती थी की, उसके मायके वाले उसकी पीड़ा जान सकें. उसके दादा जी को शंका आती रही की सबकुछ ठीक नही है,लेकिन पूजा उन्हें हरबार खामोश कर देती. अपने कमरेमे बंद पडी पूजा को वे बाहर निकालना चाहते तो और उसकी खामोशी की वजह पूछते तो पूजा कह बैठती:

"कुछ भी तो नही..! आप क्यों खामखा परेशान होते हैं? मुझे अपने घर नींद कम मिलती है,इसलिए यहाँ सोती रहती हूँ !"



दादा जी छोटा -सा मूह लेके परे हो जाते. एक माह रुक पूजा अपने ससुराल लौट गयी. बेहद अंतर्मुखी हो गयी थी. सफ़र के दौरान उसने प्रण कर लिया की, चाहे जो हो जाय,वो अपने घरवालों का रवैय्या बदल के रहेगी...! हर मुमकिन कोशिश करेगी की, उनके चेहरों पे मुस्कान रहे..लेकिन ये उसकी क़िस्मत में नही था..



पती को लगता की, वो अगर घरवालों का साथ देते हुए उसे अपमानित न करेगा तो बीबी का गुलाम कहलायेगा! घरवाले उसे नीचा दिखानेका या अपमानित करनेका एक भी मौक़ा छोड़ते नही थे! पूजा अकेली पड़ती गयी...! उसके मनमे आता,की, गर उसका साथ नही देना था तो गौरव ने उसके साथ ब्याह किया ही क्यों?



पूजा एक अजीब-सी उदासी में घिर गयी. ऐसे में उसके फिर एकबार पैर भारी हो गए. दिवाली आने वाली थी...और उसकी माँ तथा बहन पहुँच गए. ! पूजा को फिर से रक्त स्त्राव शुरू हो गया और बिस्तरमे रहने की हिदायत दी गयी.



माँ और छोटी बहन के आँखों से पूजा की स्थती छुपाई न जा सकी. माँ को हालात देख बेहद सदमा पहुँचा. घरवालों ने माँ को भी कई बार बातों ही बातों में ज़लील किया. इन सब बातों के चलते पूजा का दोबारा गर्भपात हो गया. इस बार डॉक्टर तो दूसरी थी लेकिन उसने बच्चे का लिंग घरवालों को बता दिया. पहली बार भी लड़का था. कौन जनता था की, इन बातों का कितना दूरगामी असर होगा?



अस्पताल से पूजा जब घर आयी तो दर्द में थी. पिछले कुछ दिनों से बिस्तर में रहने के कारण कपडे आदी धो न सकी थी. सास ने उसे बुला के कपड़ों का ढेर आगे रख दिया और कहा," इन्हें पहले दो लो फिर आराम की सोचना. "

पूजाकी माँ:" मै धो देती हूँ...इसे दर्द हो रहा है..."

सास:" अजी ऐसे दर्द बतेरे देख रखे हैं..ये कौन बच्चा पैदा करके आयी है...आप हमारे घरके मामलों में दखल ना दें..इसे ज्यादा नज़ाक़त दिखाने की ज़रुरत नही है..!"

माँ खामोश रह गयी. छुपके आँसू बहाने के अलावा उनके पास अन्य चारा नही था. गौरव भी हर चीज़ खुली आँखों से देखता रहा. माँ तथा बहन के रहते ऐसी अन्य कई बाते हुई जो माँ और बहन के आगे पूजा की ज़िंदगी खुली किताब की तरह दिखा गयीं..ये तो भविष्य की एक झलक थी.

क्रमश:

रविवार, 18 जुलाई 2010

बिखरे सितारे :अध्याय २:३) सैलाबे दर्द...

बिखरे सितारे :अध्याय  २:३) सैलाबे दर्द...

पिछले  भाग  में  पढ़ा :मकान मालकिन चाभी ले गयी, और पूजा पर गौरव औरभी गरज पडा..पूजा से बोला ना गया..बोलती भी तो उसकी कौन सुनता? उसने अपनी सास तथा जेठानी के मुखपे एक कुटिल -सी मुस्कान देखी.
और फिर इसतरह के वाक़यात का एक सिलसिला-सा बनता गया..
अब आगे:


पूजा इन हालातों में अपने आपको बेहद अकेला महसूस करने लगी...पलकों पे आँसूं तैरते रहते और वो उन्हें अन्दर  ही अन्दर पी जाती..किसे कहे..किसे सुनाये..जिसके साथ वो दो बातें प्यारकी करना चाहती, जिससे दो बातें प्यारकी सुनना चाहती, वो बडाही बेदर्द निकला...पूजा को विश्वास नही होता की,गौरव इस तरह का बर्ताव करेगा...दिन गुज़रते रहे..वो मुरझा-सी गयी...


ब्याह को तीन माह होने आए और उसके पैर भारी हो गए...एक अतीव आनंद उसके मनमे समाया...खुदके माँ बन्ने से अधिक उसे इस बात की खुशी हुई, की, उसकी माँ नानी बनेगी..उसकी दादी परनानी बनेगी...वो लोग कितने ख़ुश होंगे...और खुशी का ज़रिया उनकी लाडली पूजा तमन्ना  होगी..लेकिन विधीका विधान कुछ और था...उसे रक्त स्त्राव  शुरू हो गया, और गर्भ पात हो गया..उसके मनमे आया,काश, उसने अपने नैहर ख़त न लिखा होता..! उसके पीहर में सब कितने निराश हो जायेंगे  जब ये खबर  सुनेंगे!.सभी को पूजा की चिंता होगी..की उसका स्वस्थ तो ठीक है...


जब पूजा को  ऑपरेशन के लिए ले गए तो उसे लोकल अनेस्थेशिया  देने का भी  उस महानगर  के doctors को ध्यान नही रहा...जैसे साग सब्ज़ी  काटनी हो उस तरह से वो ऑपरेशन कर दिया गया..पूजा चींख चींख के कहती रही,की, उसे बेहद दर्द है, और डॉक्टर ने डांट दिया," इतना दर्द तो सहनाही पडेगा..."
इतना अमानवीय बर्ताव उसने कहीँ न देखा था ना  सुना था..! जब कमरेमे आयी तो पीली फक्क पड़ गयी थी..गर उसके दादी दादा उसकी ये हालत देखते तो उनपे क्या गुज़रती?


गौरव का उसके साथ बर्ताव उन्हें कितना दर्द पहुँचाता? उसने क्या करना चाहिए? चुपचाप सहना चाहिए या....?गौरव और उसके परिवारवालों को समय देना चाहिए? फिलहाल उसे चुपही रहना चाहिए...नैहर में कुछ नही बताना चाहिए,उसके मनने उसे गवाही दी...किसे पता था,की, इतनी कोमल लडकी शारीरिक मानसिक दर्द का ऐसा सैलाब थाम सकती थी?


ब्याह के छ: माह बाद उसे अपने नैहर जाने का मौक़ा मिला..उसके पिता उसे लेने आए..


क्रमश:

शनिवार, 17 जुलाई 2010

:बिखरे सितारे: adhyaay 2 :२ )पी का नगर

भाग २ :बिखरे सितारे:२ पी का नगर

अबतक  की  मलिका  का  सारांश: भाग  २  :बिखरे सितारे:२  पीका नगर

एक गांधी वादी,मुस्लिम परिवार में   पूजा/तमन्ना का  जन्म हुआ...उसका बचपन गाँव में बीता. दादा दादी का भरपूर प्यार उसने पाया. खुले विचारों में पली बढ़ी. लेकिन एक समस्या उसे हमेशा परेशान करती रही...अपनी माँ के प्रति दादा का सख्त व्यवहार...पिता की ओरसे भी माँ छली गयी..

यौवन की दहलीज़ पे उसकी मुलाक़ात किशोर से हुई. किशोर सरकारी, तबादलों वाली नौकरी में कार्यरत था. मुलाक़ात भी अजीब हालात में हुई...पूजाके भाईके हाथ से( जो तब केवल १२/१३ साल का था),बंदूक से गोली छूट गयी...दादाजी ने अपनी ओरसे बंदूक खाली कर दी थी,लेकिन उसमे एक गोली रह गयी थी.भाई  को भी नही पता था. खेतपर के किसी लड़के के उकसाए जानेपर, उसने उसके पैरों पर निशाना ले गोली दाग दी.

खून में लथपथ उस लड़के को दादा जी अस्पताल ले गए. लड़का तो ठीक हो गया. लेकिन दादा जी बंदूक ज़प्त कर ली गयी. उन्हों ने हादसे की ज़िम्मेदारी पूरी तरह खुद पे ले ली. वो बेहद सत्य वचनी थे.इन्ही हालातों के चलते IAS के अफसर किशोर से उस परिवार की मुलाक़ात हुई. पूजा उस वक़्त छात्रावास में थी. लौटी तो किशोर से परिचय हुआ. दोनों के मनमे प्यार पनपा.

किशोर का दिल्ली तबादला हो गया. जानेसे पूर्व उसने पूजासे अपना धरम परिवर्तन की मांग की. मासूम पूजा बात की गहराई को समझी नही और उसने हाँ कर दी.

जब पूजा की माँ और पूजा किशोर के परिवार से मिलने दिल्ली गए तो वहाँ इस बात का ज़िक्र छिड़ा. पूजा की माँ हैरान हो गयी..खुद पूजा को भी जब बात का गाम्भीर्य  पता चला तो वो भी सकते में आ गयी..उसने अपनी गलती मान ली और किशोर से इस बात का विरोध जताया. वो प्यार करके हार गयी..सपने चकनाचूर हुए.

इसमे उसके मूहसे यह बात कोशोर के चंद दोस्तों के आगे निकल गयी और वो खूब रोई. इन दोस्तों में एक गौरव भी था. गौरव ने अपने परिवार की सहमती से पूजा के साथ ब्याह करने का निर्णय लिया. पूजाके परिवार ने स्वीकार किया.

ब्याह के पश्च्यात पूजा की समझमे आ गया की, गौरव की मानसिकता किशोर से अलग नही थी...उसने चाहा की, पूजा उसके परिवारकी एहसान मंद रहे,की, उन्हों ने एक' ऐसी, लडकी से ब्याह करने की इजाज़त दी..मानो वो किसी की उतरन हो! सुहाग रात को ही पूजा को यह बात सुननी पडी और वो दर्द से  कराह उठी.

अब आगे पढ़ें:

पूजा ने अपने आप को ऐसे माहौल में बेहद अकेला पाया. पूरा दिन वो घरवालों के ताने सुनती. शाम जब गौरव घर आता, तो घरवाले पूजा के खिलाफ उसके कान भरते. पूजा को समझ में नही आया,की, गर ऐसे हालात थे,तो गौरव ने उसके साथ शादी क्यों की...उसने कुछ छुपाया नही था...

घरका सारा काम,बिना किसी नौकर चाकर के उसने संभाल लिया था, लेकिन जी जान लगा के भी, उसे ताने ही सुनने पड़ते थे.
बल्कि, जिस रात वो सब लखनऊ से दिल्ली पहुँचे उसके अगले दिन की बात:

गौरव अपनी भाई के साथ सुबह कहीँ घूमने गया. पड़ोस का एक कमरा  इन दोनों के खातिर  तीन दिनों के लिए,  लिया गया था.गौरव ने लौटते ही पूजा से पूछा
:" तुमने वहाँ झाडू लगाई?"

पूजा:" ना..नही तो..मुझे नही पता था..मै तो सवेरे ४ बजे ही नीचे आ गयी थी.."
( उस दिन करवा चौथ का व्रत था)

गौरव: " तो झाडू तुम्हारा बाप आके लगाएगा या मेरा बाप?"

गौरव ने भरे हुए घर में,सबके सामने, पूजा का अपमान किया..पूजा की आँखें भर आयीं..

पूजा:" मै अभी लगा देती हूँ..."
पूजा का इतना कहना भर था,की, उस घरकी मालकिन वहाँ आ पहुँची और बोली:" माफी चाहती हूँ, हमें आज ही कमरा चाहिए.."

पूजा के मनमे झाडू का विचार भी आता तो चाभी गौरव के पास थी...और गौरव बाहर चला गया था...

मकान मालकिन चाभी ले गयी, और पूजा पर गौरव औरभी गरज पडा..पूजा से बोला ना गया..बोलती भी तो उसकी कौन सुनता? उसने अपनी सास तथा जेठानी के मुखपे एक कुटिल -सी मुस्कान देखी.
और फिर इसतरह के वाक़यात का एक सिलसिला-सा बनता गया..

क्रमश:

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

अध्याय २)..१)छूट गया वो अंगना ...


( पिछली कड़ी: मेरा..मतलब पूजा तमन्ना का ब्याह गौरव के साथ हो गया....बेलगाम के छोटा से गाँव से निकाल मै लखनऊ पहुँच गयी...अभी  गुह प्रवेश  ही  हो  रहा  था ,की , कानों  में    अलफ़ाज़  पड़े ," ये  गौरव  भी  ना ! पता नही किसकी उतरन ले आया है...अब आगे पढ़ें...)

मै चौंक गयी... उस ओर देखा...फिर कनखियों से गौरव की तरफ देखा...समझ नही पायी की, उसने सुना या नही...दिल जोरसे धड़कने लगा...पूजा-पाठ होता रहा..लोग मिलने आते रहे...ट्रेन से तभी आए थे...नहाने का आदेश मिला...ठण्ड थी काफ़ी...मैंने आदेश मान लिया... जो कपडे मिले,समेटे और  स्नान कक्ष में घुस गयी... गीले ही स्नानकक्ष में किसी तरह साड़ी  लपेट बाहर आयी...

दिनभर लोग आते रहे, और शाम जल्दी में तैयार हो स्वागत समारोह के लिए मुझे ले जाया गया...भीड़ उमड़ पडी थी..मेहमानों में विलक्षण उत्सुकता थी...मुझे देखने की..

रात जब  घर पहुँचे तो पड़ोस के घरके एक कमरेमे सोने का इंतज़ाम था...( ये बता दूँ,की, इन सब बातों के चलते गौरव का तबादला बेलगामसे दिल्ली में हो गया था, उसी विभाग में जहाँ किशोर था..).
मैंने बात करने की कोशिश की...लेकिन गौरव ने तकरीबन मुझे धर दबोचा... धीरे, धीरे महसूस होने लगा की, उसकी मानसिकता किशोर से अलग नही थी...

सुबह हमें लखनऊ से दिल्ली लौटना था...दिल्ली घरवाले भी साथ चले...दो ही कमरों का घर था..मै डरी-डरी-सी थी..अपने आपको बेहद अकेला महसूस कर रही थी...फिर एकबार लगा, ज़िंदगी कहाँ ले चली? अपना नैहर याद आ रहा था...और गौरव ने मुझे कह डाला," मेरी माँ तथा घरवालों का एहसान मानो की, तुम्हें स्वीकार किया...वरना क्या करती तुम?"

सुनके मै दंग रह गयी...गौरव ऐसा तो नही लगा था...लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी...जो सच था वो सामने आ गया था...जीवन का एक नया और डरावना अध्याय शुरू हो रहा था...सब कुछ बर्दाश्त करने के अलावा चारा  नही था..यहाँ आँसूं पोछने वाला कोई नही था...समझमे आ गया ...झलक मिल गयी की, इन राहों में बेहद ख़तरा था...दर्द था...

क्रमश:

बुधवार, 14 जुलाई 2010

बिखरे सितारे 17-चली बनके दुल्हन ..


( पिछली कड़ी में मैंने लिखा था, अपने धरम संकट के बारेमे..मै धरम परिवर्तन ना करने के फैसले पे अडिग रही).

उस साल दिवाली आयी और चली गयी...मेरे लिए बिरह का तोहफा दे गयी...ऐसी सूनी, उदास दिवाली मुझे उसके पहले याद नही..
किशोर के अन्य दोस्त हमें मिलने चले आया करते..

एक दिन मै उन्हें असलियत बता बैठी ...बताते समय जारोज़ार रो पडी...उन ३/४ दोस्तों को यह सब सुनके बड़ी हैरत हुई..वो लोग खुद एक धरम संकट में पड़ गए...किशोर को मै 'वो', 'उन्हें' इसी तरह संबोधित करती थी..मैंने अपने विवाह के मसले को लेके अडिग रहने का फैसला सुना दिया, और उन सभी सह कर्मियों को इस फैसले पे नाज़ हुआ..

वो शाम इन्हीं बातों में बीत गयी...३/४ दिनों बाद एक सहकर्मी, गौरव, हमें मिलने चला आया, और उसने मेरी माँ और दादी के आगे एक प्रस्ताव रखा..वो मुझ से ब्याह करने को तैयार था...मै मनही मन डर गयी...मुझे तो यही वहम था की, मेरा कौमार्य भंग हुआ है, और मन 'उन्हें' भुलाने को तैयार नही था....ये बाते दिवाली के ४/५ माह बाद छिडीं..मै मानो एक बुत -सी बन गयी थी...दादी ने गौरव से कहा:
" पहले अपने परिवार से तो सलाह कर लो...कहीँ यहाँ भी इतहास दोहरा न जाय .."
गौरव:" मैंने पिछले ३/४ दिनों में उनसे सलाह मसलत कर ली है...उन्हें कोई परेशानी नही...लेकिन पूजा की राय बेहद ज़रूरी है, वो सदमेसे उभरी नही है..सबसे अहम बात उसके निर्णय की है...उसे समय दें...कही ये ना हो की, उसे पछताना पड़े.."

गौरव अधिक परिपक्व लगा सभीको..परिवार लखनऊ का था..इस दौरान मैंने अपना अंतिम फैसला सुना दिया...खतों द्वारा, और उम्मीद की एक टिमटिमाती लौ को बुझा दिया..प्यारका खुमार उतर रहा था, असलियत के धरा तलपे .....मेरी आँखों से पानी थमता नही था...अपने प्रीतम का पहला स्पर्श याद आता रहा...उस स्पर्शे पुलकित होना कैसे भूलती...वो चांदनी रात जब मै करवटें बदलती रही थी..और अगले रोज़ उनका इंतज़ार कर रही थी...याद आती रही...अपने प्यारका ये हश्र ऐसा होगा ये सोचाही नही था...

घरवालों पे मैंने निर्णय छोड़ दिया..मुझमे मानसिक शक्ती रही नही थी...कुछ भी सोचने की या निर्णय लेने की...१०/१२ दिनों बाद गौरव अपने माता पिता के साथ हमारे  घर आ पहुँचा...मुझे उनके आगे आने में बेहद झिजक महसूस हुई, लेकिन वातावरण बड़ा सहज बना रहा..

खैर !अंत में अगली दिवाली तक सोंच विचार करने समय मुझे मिल गया..गौरव ने मुझे  जल्द बाज़ी ना करने की सलाह दी..ये बात मुझे अच्छी लगी...सबकुछ करीब से जान के उसने निर्णय लिया था...मै शुक्र गुज़ार थी, लेकिन एक डर था, कहीँ ये निर्णय सहानुभूती से तो नही लिया गया? माँ तथा दादी अम्माने ये बात स्पष्ट रूपसे पूछी..
गौरव का जवाब: " मै भी पहली बार देखते ही प्यार कर बैठा था...लेकिन जब किशोर का पता चला तो उसे मुबारक बाद देदी...मन उदास ज़रूर हुआ...और उदास तो अब भी है,की, तमन्ना को इस सदमे से गुज़रना पड़ा.."

किशोर की यादें भुलाना आसान नही था...वो प्रथम प्यार था..लेकिन गौरव के लिए मनमे इज्ज़त पैदा हुई..आने वाली दिवाली के बाद एक मुहूर्त चुना गया और गौरव के साथ कोर्ट में शादी करना तय हुआ.. .मन थोडा उल्लसित होने लगा.. ..

शादी के घरमे जो,जो घटता रहता है,वो सब शुरू हो गया...मेरे वस्त्र, निमंत्रण  पत्रिकाएँ, मेहमानों की फेहरिस्त और अन्य ज़रूरती सामान जो नव वधूको ज़रूरी होता है..माँ और दादी बड़े उत्साह और प्यार से तैय्यारियाँ करने लगे..
और ब्याह का दिन आ भी गया...बचपन का घर बिछड़ने लगा..माँ पे बेहद जिम्मेदारी पडी...हमारे गाँव में तो न कोई केटरिंग का रिवाज था, ना होटल थे...घरके मेहमान और बराती सभी का खाना वही बनाती...उसमे उन्हें अतीव रक्त स्त्राव   की तकलीफ हो रही थी..

ब्याह्के एक दिन पहले मै सारा खेत घूम आयी...हर बूटा पत्ती अपने मनपे अंकित करना चाह रही थी...लौटी तो   दादी ने मेरी उदासी भांप ली और साडी कमरमे खोंस मेरे साथ badminton खेलने तैयार हो गयी...बहुत खूब खेलती थीं...मै तो केवल एक गेम जीती...आखों के आगे एक धुंद-सी छाई रही..दादी को गठिया का मर्ज़ था लेकिन उस बहादुर औरत ने अपने दर्द की  जीवन में कभी शिकायत नही की..

अंत में मै किसी और की ही दुल्हन बनी...जब विदाई का समय आया तो, तो मनमे एक ज़बरदस्त कसक कचोटने लगी...ज़िंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ...होने वाला था...जब ट्रेन में बैठे और ट्रेन आगे बढ़ने लगी तो मन पीछे मेरे बचपन वाले घरमे दौड़ गया...वो माँ की गोद, दादा दादी का  स्नेह, खुले ख़यालात,सब मानो एक किसी अन्य दुनिया की बातें महसूस होने लगीं...मैंने जल्द बाज़ी तो नही की?

'बाबुल, छूट  चला तेरा अंगना",ये गीत मन गुनगुनाने  लगा...पती का अंगना कैसा होगा? क्या होगा क़िस्मत में मेरे? अपने परिजनों का प्यार या, तिरस्कार...नही जान पा रही थी...क्या गौरव मेरा साथ निभाएँगे ? एक नौका तट छोड़ चली थी...पता नही किस ओर चली थी..पी का घर पास आता रहा, और भयभीत मन अपने नैहर में अटका रहा...नव परिणीता की आँखों में सपनों के अलावा डर शायद अधिक था...पहला कटु अनुभव जो हुआ था...छाछ भी फूँक के  पीनेका मन हो तो गलत नही था..
गाडी लखनऊ पहुची और गृह प्रवेश पे ही, एक झलक मिल गयी...किसी को धीरेसे कहते हुए सुना," ये गौरव भी ना.. पता नही किसी की उतरन ले आया है , लडकी सुन्दर है तो क्या ..उसे भी एकसे एक बढ़िया मिल सकती थी"...मै स्तब्ध हो गयी...वातावरण यहाँ भी कुछ अलग नही था...एक सदमा-सा ज़रूर महसूस हुआ...

क्रमश:
अगली कड़ी से 'बिखरे सितारे' का दूसरा अध्याय  शुरू होगा...

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

बिखरे सितारे 16 -बिखरने लगे सारे तारे

बिखरे   सितारे 16 -बिखरने  लगे  सारे  तारे


( पिछली कड़ी में बताया था, की, माँ तथा पूजा किशोर के परिवार से मिलने दिल्ली गए..और वहाँ धर्मांतर सवाल उठाया गया, जो माँ को मंज़ूर नही था, और पूजा भी उसका गाम्भीर्य देख परेशान हो उठी...अब आगे पढें..)



आज ,मै पूजा, खुद आप से रु-b -रु हो रही हूँ...जिन हालातों से गुज़री...जिस मोड़ पे ये दास्ताँ हैं...उस गहराई तक, मुझे ही जाना होगा....अपने मन को टटोल खंगाल के लिखना होगा...

मेरे प्रीतम ने जब पहली बार प्यार का इज़हार किया तब एक कविता लिखी थी, जिसे दोहरा रही हूँ...और उसका अंतिम चरण आज बयाँ करती हूँ...



सूरज की किरने ताने में,

चांदनी के तार बानेमे,

इक चादर बुनी सपनों में,

फूल भी जड़े,तारे भी टाँके,

क़त्रये शबनम नमी के लिए,

कुछ सुर्ख टुकड़े भरे,

बादलों के, उष्मा के लिए,

कुछ रंग ऊषा ने दिए,

चादर बुनी साजन के लिए...



पहली फुहार के गंध जिस में,

साथ संदली सुगंध उसमे,

काढे कई नाम जिस पे,

जिन्हें पुकारा मनही मनमे,

कैसे थे लम्हें इंतज़ार के?

बयाने दास्ताँ थी आँखें,

खामोशी लिखी लबों पे,

चादर बुनी सपनों में,



क्यों बिखरे सितारे इसके?

क्यों उधडे ताने इसके?

कहाँ गए बाने इसके?

कैसे जोडूँ तुकडे इसके?

रंग औ नमी, लाऊं कहाँ से?

रौशनी लाऊं किधर से?

चांदनी की ठंडक आए कैसे?

दोबारा इसे बुनूँ कैसे?



सोच, सोच के मन बिखरता जा रहा था...जब दिल्ली से माँ और मै लौटे तो दादा-दादी से आँखें चुराने का मन हो रहा था...क्या बताती उन से? हादसे वाली बात तो कहने से रही..बाकी बातें बताते हुए माँ को सुन लिया...



मै घंटों घरके पिछवाडे की सीढियों पे बैठी रहती...या फिर नीम पे लगे झूले पे झूलती रहती..जानती थी की, मेरे घरवालों से मेरा दर्द देखा नही जा रहा था...दादा कभी चुपके-से आते और मेरे सर पे हाथ फेर जाते..मन भी और जीवन भी किसी झूले की तरह झूल रहा था...मेरा वर्तमान ज़्यादा दुःख दाई था या मेरा अनागत? क्या लिखा गया था विधी के विधान में?या ये विधान मैंने लिखना था? मेरे भाग्य में क्या अटल था?



'उन्हें' मन ही मन कई ख़त लिख डाले...कागज़ पे भी लिखे..और फाड़ के फ़ेंक दिए...मेरे किस जवाब में सभी की भलाई थी? गरिमा थी? मेरा उत्तर दायित्व क्या था? मेरी अपनी अस्मिता...उसका क्या?



एक उत्तर धीरे, धीरे स्पष्ट होने लगा....धर्मान्तरण के लिए नकार..चाहे जो हो....मै हर वो तौर तरीके अपना लेने के वास्ते तैयार थी, लेकिन, कागजात पे धर्मांतर? एक गांधीवादी परिवार में जनम लेके? मै तो ना हिन्दू थी ना मुस्लिम...थी तो केवल एक हिन्दुस्तानी..उसपे कैसे आँच आने देती?



मैंने तथा माँ ने 'उन्हें' तथा उनकी माँ को अलग अलग ख़त लिखे...जिस में स्पष्ट कर दिया की , ब्याह के लिए ये शर्त मंज़ूर नही..सब रीती रिवाज निबाह लूँगी...लेकिन ब्याह के बाद..हर काम ,हर सेवा के लिए तैयार हूँ...लेकिन ये शर्त मंज़ूर नही..और खतो किताबत एक लंबा सिलसिला शुरू हो गया...खतों के इंतज़ार का...कई बार ख़त पहुँच ने में एक माह तक लगता...पोस्टल खाते की स्ट्राइक भी हुई और रेल की भी...हमने शहर में रहने वाले हमारे फॅमिली डॉक्टर का पता दे रखा.. वरना शहर से गाँव ख़त आने में २/३ दिन और लग जाते...



प्यार की डगर कितनी कठिन है, मन समझने लगा...हे ईश्वर...! ए मेरे अल्लाह! ये दर्द किसी को नसीब ना हो..किसी के जीवन में ऐसा दौर ना आए...ऐसी कठिन स्थिती...अपना दर्द सह लूँ लेकिन मेरे अपनों का???जिन्हें मै जान से प्यारी थी उनका...जिनकी आँखों का सितारा थी...जिनकी तमन्ना थी , उनका? नही नही....



क्रमश:

रविवार, 11 जुलाई 2010

बिखरे सितारे:१३ इंतज़ार के पल..


(पिछली कड़ी में लिखा था...वो रात शायद पूजा के जीवन की सब से हसीं रात थी..आगे आने वाले तूफानों से बेखबर!)

पिया ने प्यार का इज़हार तो कर दिया ! पूजा पे मानो एक नशा-सा छा  गया ...पहला प्यार और वो भी हासिल...! कितने ऐसे ख़ुश नसीब होते होंगे...और उसके सभी प्रिय जन भी ख़ुश...!

सितारों भरी रात और आधा चंद्रमा अपना सफ़र तय करता गया..मौसम तो बरसात का ,लेकिन साफ़ आसमान था..ज़बरदस्त क़हत पड़ा हुआ था......

आँगन में सब के बिस्तर बिछे थे...एक ओर दादा-दादी...घरके पिछवाडे  वाले खलिहान में माँ बाबा...और बिना छत के बरामदे में वो और छोटी बहन..कुछ ही दूरीपर छोटा भाई...

दोनों बहने  में एकही बड़े पलग पे थीं......पूजा तो करवट भी नही लेना चाह रही थी,की, बहन कहीँ छेड़ ना दे...! रात भर वो चाँद का सफ़र देखती रही...कल दोपहर एक बार फिर प्रीतम आनेवाले थे...ऐसा खुमार होता है, पहले प्यारका? सुबह पौं फटने वाली थी तब कहीँ जाके कुछ देर उसकी आँख लगी...और फिर सूरज की किरणे आँखों पे पडी...वो उठ गयी...

उसे डर था कहीँ आँखों के नीचे काले घेरे न पड़ जाएँ...लपक के उसने अपनी शक्ल आईने में देखी...नही लाल डोरे तो थे, लेकिन कालिमा नही थी...होठों पे सुर्खी थी...अपनेआप से वो लजा गयी....

कब होगी दोपहरी?? कब आयेंगे 'वो'?? कैसे लेंगे उससे बिदाई...?? वक़्त थमा तो नही...लेकिन इंतज़ार के पल को पूजा थामना चाह रही....और समय रुका तो नही....? ये सवाल भी मन में आ रहा था...इतनी देर हुई और घड़ी के पाँच मिनट ही कटे?

'वो' आए तो फिर एकबार उसने घर के अन्दर का रुख किया लेकिन इस बार 'उन्हें' अन्दर भेज दिया गया...पलकें झुकी रहीं...माँ रसोई में चली गयीं....और पहली बार साजन ने बाहें फैला के उसे अपने पास भीं लिया...उसको चूम लिया...पूजा इतनी नादान थी, की , चुम्बन कैसा होता है, ये उसने किसी अंग्रेज़ी फिल्म में भी नही देखा था...!

कुछ भरमा-सी गयी...उसे लगा यही 'शरीर सम्बन्ध' होता है...कुछ नाराज़गी के साथ उसने 'उन्हें' अपने से दूर किया...बाहों में भरना तो ठीक था... ! ये क्या??लेकिन नशा कम नही था...उसने अपनी  हथेलियों में अपना मुख छुपा लिया...'वो' उसका चेहरा हथेलिओं से छुडाते रहे...कितना समय बीता?

माँ ने खाने के लिए आवाज़ लगाई तो वो 'उन से' खुद को छुडा के , स्नान गृह में भाग गयी...वहाँ के शीशे में देखा तो उस के होटों के आसपास ...? ये क्या लाल दाग?? और सुराही दार गर्दन कैसे छुपाये...? त्वचा पे सूर्ख दाग..? उफ़ ! ये क्या कर दिया उसके साजन ने?? सारा पोल खोल दिया...! अब वो अपने दादा-दादी माँ- बाबा के सामने कैसे जाए??उसे भूख तो बिलकुल नही थी...क्या प्यार में या बिरह में भूख मर जाती है??किताबों में पढ़ा था...फिल्मों में देखा था...आज उसके साथ घट रहा था..

एक बार फिर माँ  की आवाज़ आयी...उसने अपनी साडी दोनों काँधों पर ओढ़ ली...गर्दन तो कुछ छुप गयी...लेकिन कपोलों  का क्या करे? और होंट  ??खानेके मेज़ पे पहुँची तो उसकी स्थिती एक चोर जैसे हो रही थी...वो अपनी निगाहें उठा नही   पा रही थी..और' वो' हर मौके बे मौके उसे देख रहे थे...और वो वक़्त भी गुज़र गया...देखते ही देखते 'उनके' जाने का समय आ गया...और चले गए...

अब उसे अचानक बिरह क्या होता है, ये पता चला...अब ना जाने कब पिया मिलेंगे? ' उन्हों ने' कहा था,की, पूजा तथा उसके माँ बाबा देहली आयें...लेकिन कब??

उसके बडौदा लौट ने के दिन आ गए, परीक्षा का नतीजा लाना था...वहाँ उसे कुछ दिन रुकना था...और वहीँ उसे साजन का पहला ख़त मिला....छात्रावास में अपनी सहेलियों से वो छुपा नही पा रही थी,की, उस ख़त को वह अपने तकिये के नीचे छुपा के सोती थी..पकडी ही गयी....

परिक्षा में वो अच्छी सफलता पा गयी थी...जब लौटी तो अपने घर पे एक और ख़त इंतज़ार कर रहा था...बहन ने बड़ी छेड़ खानी     करते, करते उसे वो ख़त दिया...कैसा पागल पन सवार था...!! उसके बाद आए ख़त में लिखा था, की, किसी सरकारी काम से 'उन्हें' बेलगाम आना था...और पागल पूजा दिन गिनने लगी...अबकी मुलाक़ात कैसी होगी...ना,ना...अब वो अधिक नजदीकियों से रोकेगी...ये बात ठीक नही...लेकिन कैसे?

'वो' आए...पूजा को अपने बाहों में भरते हुए, बस बिदा के पहले कहा.....क्या कहा..? उसी बात ने उसके प्यार की नींव हिला दी...उसे तो बात समझ में नही आयी...लेकिन जब पूजा और माँ, बाद में देहली पहुँचे तो उस बातका गाम्भीर्य सभीके ख्याल में आया....प्यार भरे दिल पे एक चोट का एहसास...प्यार में शर्तें?? क्या शर्त थी?? पूजा को अब क्या निर्णय लेना चाहिए था??क्या हुआ उनकी देहली के वास्तव्य में? क्या बात थी जो पूजा ने अपनी माँ या दादा दादी को नही बताई थी...या उसकी अहमियत उसे समझ नही आयी थी....?क्या भविष्य था उसके प्यार का ??

क्रमश:

शनिवार, 10 जुलाई 2010

'बिखरे सितारे...12 ) ख्वाबों ख़यालों में...


पूजाकी लिखी चंद पंक्तियाँ पेश कर रही हूँ...इसकी आखरी पंक्तियाँ आज नही.... फिर कभी...

"सूरज की किरनें ताने में,
चाँदनी के तार बाने में,
इक चादर बुनी सपनों में,
फूल भी जड़े, तारे भी टाँके,
क़त्रये शबनम नमीके लिए,
कुछ सुर्ख तुकडे भरे,
बादलों के उष्मा के लिए,
कुछ रंग ऊषाने दे दिए
चादर बुनी साजन के लिए...

पहली फुहार के गंध जिसमे,
साथ संदली सुगंध उसमे,
काढे कई नाम उसपे,
जिन्हें पुकारा मनही मनमे
कैसे थे लम्हें इंतज़ार के,
बयाने दास्ताँ थी आँखें,
ख़ामोशी थी लबों पे...
चादर बुनी सपनों में..."

ऐसा ही हाल था,पूजा के मन का .....उसके साथ घरवाले भी बेहद खुश थे...उनकी आँखों का सितारा चमकने लगा था...उन आँखों की चमक उसके दादा, दादी, माँ, बहन , भाई....सभी के आँखों में प्रतिबिंबित हो रही थी...भाई काफ़ी छोटा था...फिरभी उसकी 'आपा' खुश थी, इतना तो उसे नज़र आ रहा था...

पूजा ने घरको गुल दानों में फूल पत्तियाँ लगा, खूब सजाया...लाज के मारे वो घर में किसी से निगाहें मिला नही पा रही थी...फिरभी, गुलदान सजा रही पूजा को दादा ने धीरेसे अपने गले से लगा लिया...और देरतक उसके माथे पे हाथ फेरते रहे...उनकी आँखों की नमी किसी से छुपी नही...

और पूजा की आँखें..अपने पहले प्यारको सलाम फरमा रही थीं...छुप छुप के...

दिन धीरे, धीरे सरकते रहा...शाम गहराती रही...और वो वक्त भी आया जब उसे अपने साजन की जीप की आवाज़ सुनाई दी...वो कमरेमे भाग खड़ी हुई...बहन उसे धकेल के अपने भावी जीजाके पास ले आयी...अंधेरे में उन कपोलों की रक्तिमा छुपी रही...बगीचे में अभी चाँद ऊपर निकलने वाला था..जिसमे लाज भरी अखियाँ तो नज़र आती, लालिमा नही...

कुछ देर बाद परिवार ने उन दोनों को अकेले छोड़ दिया...'उसने' पूजा की लम्बी पतली उंगली को छुआ और उसकी आँखों में झाँक के कहा,
" क्या तुम्हें एक जद्दो जहद भरी ज़िंदगी मंज़ूर है?"
पूजाने ब-मुश्किल अपनी सुराही दार गर्दन हिला दी...
रात गहराती रही...अगले   दिन   'वो' दोपहर के भोजन के लिए आनेवाला था..और वहीँ से अलविदा कह दिल्ली के चल पड़ने वाला था...
वो रात कैसे कटी? ज़िंदगी की सबसे हसीं रातों में से एक रात...या...

क्रमश:

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

बिखरे सितारे...! १४)... जहाँ औरभी थे..


(पूजा की माँ ने क्या कहा पूजा से?...अब आगे पढ़ें...)

पूजा अपने आपको हज़ार कामों में व्यस्त रखती...उस समय वो रसोई साफ़ कर रही थी..माँ तभी शहर से लौटी थीं...चुपचाप पूजा के पीछे आके खड़ी हो गयीं....

आहट हुई तो पूजा ने मुड के देखा...माँ बोलीं,
" क्या तुझे 'वो' पसंद है? प्यार है, हैना?"
पूजा: " हाँ...कहा तो था आपको..लेकिन मेरे पसंद आने से क्या फ़र्क़ पड़ता है...ये बात तो एकतरफा है...मुझ में कौन-सा आकर्षण है,जो मै उसे पसंद आ जाऊं...मै तो खामोश बैठी रहती हूँ... "
माँ:" नही...एकतरफा नही है...आग दोनों तरफ़ बराबर है...तेरी खामोशी में भी बेहद कशिश है...शायद तू ख़ुद नही जानती.."
माँ के चेहरे पे एक विलक्षण सुकून और खुशी नज़र आ रही थी...पूजा को अपने कानों पे विश्वास नही हुआ...दंग रह गयी...
पूजा:" आपको कैसे पता?"
माँ: " मै अभी, अभी उससे मिल के आ रही हूँ...इसीलिये शहर गयी थी...तेरे दादी दादा को बता के गयी थी,कि, किसलिए जा रही हूँ.."
माँ, मासूमा, ख़ुद गाडी चला लेती थीं...
पूजा:" तो?"
अब पूजा के गाल कुछ रक्तिम होने लगे थे...माँ ने उसे धीरे से अपने पास खींच लिया और बोलीं,
" उससे मैंने कहा, कि, पूजा किसी से प्यार करती है..और उसे लगता है, वो प्यार एकतरफा है....उसका जवाब था, उससे कहो, ये एकतरफा नही है....वो आज शाम तुझ से मिलने आयेगा...."

एक पल में पूजा की दुनिया बदल गयी...जैसे मुरझाई कली पे ओस पडी हो...वो इसतरह खिल उठी...फिज़ाएँ महकने लगीं...चहकने लगीं...गरमी का मौसम था, लेकिन पूजा के जिस्म को मानो बादे सबा छू गयी...एक सिहरन-सी दे गयी...

माँ के आगे उसकी पलकें लाज के मारे झुक गयीं...कितनी प्यारी माँ थी...जिसने लडकी के मन को जाना और उसकी उदासी ख़त्म कर दी...अपने सास ससुर को विश्वास में ले, स्वयं लड़के के पास चली गयी...ना जात ना पात...घर में पूजा की खुशी की हरेक को चिंता थी...

जब तक माँ शहर से लौटी नही, तब तलक दादा दादी दिल थामे बैठे रहे...सबसे पहले माँ ने ये ख़बर उन्हें सुनायी...उनकी जान में जान आ गयी...गर ब्याह होगा तो बच्ची...उनकी आखों का सितारा...वो सुबह का तारा ...आँखों से बेहद दूर हो जायेगा...लेकिन बिखर तो नही जाएगा...

अब सभी को शाम का इंतज़ार था...पूजा चुपके से अन्दर कमरे में जा आईने के आगे खड़ी हो गयी...आज शाम को बिना सिंगार सुंदर दिखना था..क्योंकि सिंगार तो उसने कभी किया ही नही था..कभी बालों में फूल के अलावा अन्य कुछ नही...
और ऐसा बेसब्र इंतज़ार भी कभी किसीका नही किया था...हाँ! जब, जब 'वो' घर पे आनेवाला होता, उसके मन में मिलने की चाह ज़रूर जागृत होती..लेकिन आज...! आज की शाम निराली होगी...आज क्या होगा? 'वो' क्या कहेगा? क्या उसे छुएगा ?? उई माँ...! सोचके उसके कपोलों पे रक्तिमा छा गयी....अपना चेहरा उसने ढँक लिया....

वो शाम उसके जीवन सबसे अधिक यादगार शाम होने वाली थी...आना तो उसने ८ बजे के बाद था....लेकिन उसदिन शुक्ल पक्षका आधा चन्द्रमा आसमान में होने वाला था...रात सितारों जडी की चुनर लेके उसके जिस्म पे पैरहन डाल ने वाली थी...

क्या भविष्य उतना उजला होने वाला था? किसे ख़बर थी? किसे परवाह थी? क़िस्मत की लकीरें कौन पढ़ पाया था?
 
क्रमश : 

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

बिखरे सितारे १0 ) सितारों से आगे.....!


( पूजाकी ज़िंदगी पे उड़ एक चली गोली के दूरगामी असर हुए: अब आगे पढ़ें।)

जिस बच्चे को गोली लगी उसका क्या हुआ? उसे जाँघ पे गोली लगी। दादा जी ने निशाने बाज़ी में सिखा रखा था,वो काम आ गया...वरना लड़का जानसे जाता... पूजाके दादा जी ने उसे सही वक़्त पे अस्पताल पहुँचाया। वो बच गया। लेकिन उसके बापने सारी उम्र पूजाके परिवार को black मेल किया। हालाँकि,क़ानूनन ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नही बनती थी, लेकिन वो १२ बच्चों का परिवार था। बाप तो शराबी थाही..पूजाके परिवार ने बरसों उन्हें साल भरका अनाज, दूध कपड़े आदि दिए। तीज त्यौहार पे पैसे भी देते रहे। चंद सालों बाद वो निकम्मा लड़का एक सड़क हादसे का शिकार होके मारा भी गया। परिवार मे से किसी बच्चे को काम करना ही नही होता...ये भी एक अजूबा था...!

एक बार लड़केका बाप उस लड़के को लेके, पूजाके तथा परिवार के फॅमिली डॉक्टर के पास पहुँचा। शिकायत ये कि, जबसे गोली लगी, लड़के को एक कान से सुनायी देना कम हो गया...! तबतक तो हादसे को छ: साल बीत चुके थे। डॉक्टर की शहर में बेहद इज्ज़त थी..गरीबों के डॉक्टर कहलाते थे।

इन डॉक्टर ने उस लड़के के गाल पे एक थप्पड़ लगाई और कहा," अब दूसरे कान को बहरा कर दिया मैंने...भाग जा..!"

खैर! पूजाके जीवन पे लौट चलती हूँ। पूजा छुट्टीयों में घर आने से पूर्व , दादा जी ने उस IAS के लड़के को एक पारिवारिक तस्वीरों का अल्बम दिखाया और,पूजाकी मंगनी की तस्वीरें भी दिखा दीं।

पूजा अन्यमनस्क स्थिती में छात्रावास से अपने घर पहुँची । अपनी मंगनी को लेके ज़्यादा समय वो अपने मंगेतर के परिवार को अंधेरे में नही रखना चाह रही थी। वैसे एक बात उसने मंगनी के पूर्व साफ़ कर दी थी...गर मंगनी और ब्याह के दौरान उसे एहसास हो की, क़दम सही नही है तो वो मंगनी तोड़ भी सकता है। मंगेतर की माँ, पूजाकी माँ की बचपन की सहेली थी। लड़का रईस घरका होनेके अलावा , commercial पायलट भी था। घरका अछा खासा व्यापार था। दिखने में काफ़ी अच्छा था। कई परिवार उस लड़के के लिए रुके थे। लेकिन विधिलिखित घटना होता है,तो, घटके रहता है।

पूजाने अपने परिवार को विश्वास में ले के मंगनी तोड़ दी। लड़के की माँ का दिल टूट गया। इस बहू को लेके बड़े सपने बुने थे। पूजा थी भी सरल स्वाभाव की और साफ़ मनकी। माँ, मासूमा ने भी, एक अलग से चिट्ठी लिख दी। पूजा के मनसे एक बोझ तो उतरा।

एक दिन पूजा के साथ उसके परिवारवाले उस डेप्युटी कलेक्टर के घर गए। पूजा पे जैसे जादू चल गया। एक दर्द से छूटी तो और एक दर्द सामने आ खड़ा हुआ...

लड़के की बातचीत परसे पता चल रहा था की, उसका परिवार काफ़ी पुराने ख़यालात का है....अपनी माँ की वो हमेशा तारीफ़ करता...उनके अन्य लोगों को लेके सख्त मिज़ाज की बातें भी करता, लेकिन काफ़ी इतराके, अभिमान पूर्वक करता।

पूजा को उससे मिले २ माह भी नही हुए थे,कि, उसका तबादला मध्यवर्ती सरकार में हो गया। अन्न तथा कृषी मंत्रालय में...उसे देहली जाना था...पूजा के दादा का केस तो अबतक अटका ही था,लेकिन लड़के ने अधिकतर काम कर दिया था।

जैसे ही उस लड़के की तबादले की बात सुनी, पूजा टूट-सी गयी...माँ, मासूमा ने अपनी बेटी की मन की बात भाँप ली थी ..पूजा अपने आपको ना जाने कितने कामों में लगाये रखने लगी...एक दिन माँ ने उससे कहा....और जो कहा,वो एक अलग कहानी बन गयी....उस हादसे से आगे चलती हुई....

क्रमश:

बुधवार, 7 जुलाई 2010

Tasveeren..kuchh bachpan, kuchh yauvan...

प्रस्तुतकर्ता kshama पर १२:०० PM

बिखरे सितारे ! 9 एक अनजाना मोड़ !


( इसके पहली किश्त में पूजा की मंगनी की बात बताई थी...अब आगे..)

पूजा ने अपनी मंगनी करवाके बचपना किया...जैसे समय बीतता रहा..उसे अपनी गलती महसूस हो रही थी...जो लड़का उस पे जान निछावर करता था,उसकी इज्ज़त तो करती,लेकिन प्यार या कोई आकर्षण ने दिलके द्वारों पे दस्तक नही दी..लड़के की माँ, पूजा पे वारे न्यारे थी..उसके मुँह से अनजाने में निकला शब्द वो तुंरत झेल लेती...ऐसी सास ढूँढे मिलना मुमकिन नही था..लेकिन गर जिसके साथ जीवन बिताना हो, उसके प्रती कोईभी कोमल भावना न हो तो, दोनों ओरसे जीवन नरक बन सकता था.....जब वो लड़का ३/४ चक्कर काट लेता,तब जाके पूजा उससे मिलने आगे आती...और कुछ ना कुछ बहाना बना, १०/१५ मिनटों मे चल देती...वो एक दोराहे पे आ खड़ी थी ...


मंगनी तकरीबन दो साल टिकी रही..वो लड़का जब कभी पूजाको छात्रावास में मिलने आता,पूजा टाल जाती..कभी,नीचे रखवाल दार को कह देती,मै वाचनालय में हूँ...या और कहीँ......' एक उदासी का आलम उसपे घिर आने लगा...कुछ तो निर्णय लेना ही था..वरना लड़के तथा उसके परिवारपे घोर अन्याय था..
पूजा के दिलो दिमाग़ पे इस बात का विपरीत असर होने लगा...स्नातकोत्तर हुई,पहली सेमिस्टर मे महा विद्यालय का रिकॉर्ड तोड़ने वाली पूजा, सालाना इम्तेहान के समय बीमार रहने लगी...पढ़ा हुआ भूल जाने लगी...

fine आर्ट्स में पोस्ट graduation का एक साल ख़त्म होनेवाला था..माँ उसे परिक्षा के पूर्व मिलने आयी और बताया कि, उनके शहर एक आईएस का लड़का assitant कलेक्टर बनके आया है...परिवार से घुल मिल गया है...


इस लड़के से उनके परिवार का परिचय कैसे हुआ?

यही बताने जा रही हूँ...कारण वही हादसा था...जिस बंदूक से गोली चली थी,दादा जी ने वो बन्दूक तुंरत तहसील के दफ्तर में जमा करा दी थी..उसे जमा करके भी दो साल हो गए थे...दर असल,ये बन्दूक, एक जर्मन डॉक्टर ने उन्हें भेंट दी थी...

परवाने लिए उन्हों ने तहसीलदार के दफ्तर में आवेदन पत्र भी भेज रखा था....और ये आवेदन पत्र  उन्हों ने हादसे के दो वर्ष पूर्व भेजा था...!सरकारी कारोबार था..दादाजी जब भी पता करने जाते, कुछ न कुछ बहाने बनाके उन्हें टाल दिया जाता....उस बंदूक को वापस हासिल करने तथा उसका परवाना चाहने, दादा तथा पूजा के पिता, assistant कलेक्टर से मिलने तहसील के दफ्तर मे चक्क्कर काटते रहते..

इन दो ढाई सालों मे कई अफसर आए और गए...काम नही बना..अबके एक IAS का अफसर आया है, शायद, अधिक ईमानदार होगा सोच, दोनों मिलने गए...और...... और वो लड़का विलक्षण प्रभावित हुआ...पिता पुत्र दोनों इज्ज़त दार लोग हैं,ये उसे तफ़तीश के बाद पता चला..दोनोका अंग्रेज़ी भाषा पे प्रभुत्व देखके भी वो दंग रह गया...इस पिछडे,दूर दराज़ ग्राम मे, oxford मे पढ़े लोग? हैरानी की बात थी......धीरे,धीरे पता चलता गया,कि, दादा दादी ने इस देश के ख़ातिर ,सारा ऐशो आराम छोड़ दिया था....बेलगाम के एक गाँव मे आ बसे थे...वो लड़का कर्नाटक कैडर का था....
यही वजह रही कि,उस परिवार के साथ उस अफसर की नज़दीकियाँ बढीं...वो उनके घर भी आने जाने लगा..अपने अन्य मित्रों कोभी( जो आस पास के इलाकों मे कार्यरत थे), कई बार साथ ले आता... ...ये फिल्मों मे दिखायी जानेवाली ज़मीदारों की कहानी नही थी...बल्कि, जब हादसा हुआ, और दादा जी पुलिस स्टेशन पहुँचे, तो स्थानीय पुलिस, जो दादा जी की बेहद इज्ज़त करते थे,उन्हों ने सलाह दी," आप FIR मे दर्ज करें,कि, जिस बंदूक का आपके पास परवाना था, गोली उसी से छूटी...तथा, पहले वकील बुलाके और फिर कुछ भी दर्ज कराएँ....."
लेकिन दादा जी ने साफ़ इनकार कर दिया...उस बात का भी बयान दूँगी...

उस हादसे के कुछ तपसील देना चाहती हूँ...वो बिना परवानेकी बन्दूक दादाजी हमेशा dismantle करके रखते..कभी कबार अलमारी से बाहर निकाल, उसकी साफ़ सफाई करते,और वापस अन्दर चली जाती...गाँव या बस्ती से दूर बने घरमे सुरक्षाके लिए बन्दूक ज़रूरी थी..बल्कि,एक बार किसीकी चींख सुन उन्हों ने हवा में गोली दाग दी थी...चोर एक औरत का हाथ काटते काटते भाग गए....! उसके हाथ से चांदीके भारी कड़े निकल नही रहे थे,तो हाथ काटने चले थे...


दादा जी वचन और अल्फाज़ के सच्चे थे..बोले," क़तई नही..ये तो मेरे पोते-पोतियों पे कितना ग़लत असर होगा..दादा ने झूठ कहा? सवाल ही नही..जो परिणाम होने वाले हों, सो हों..मै वही कहूँगा,जैसा की घटा.."

घटना कैसे घटी थी? दादा जी ने बन्दूक को साफ़ किया..तभी भैंसे दूधने के खातिर ग्वाला चला आया...दादा अपने सामने दूध निकलवाते...ताकि, ग्वाला एक बूँद भी पानी न मिला सके...और दूध मशहूर था..ऐसी मलाई, ऐसा गाढा दूध और कहीँ नही मिलता था...लोग इस ढूध के खतिर क़तार लगाये रहते..

जो व्यक्ती हमेशा हर चीज़ मे बेहद सतर्क रहता, वो बंदूक को वापस बिना अलमारी मे रखे चला गया..गोलियाँ बाहर निकली हुई हटीं..१२ गोलियां तो उन्हों ने उठाके, मेज़ की दराज़ मे रख दी थीं...
पूजा का छोटा भाई जब बाहर निकला तो बरामदे मे पड़ी बंदूक उसे दिखी...वो इतनी छोटी उम्र मे भी बेहतरीन निशाने बाज़ था...गुलेल से एक ही बार मे आम का या चीकू का फल टहनी से अलग कर देता..air gun भी बहुत ख़ूब चलाता..उसके लिए तो परवाने की ज़रूरत नही थी...चूहे भी मार गिराता...जो कि, खेती का नुकसान करते...
उसने जैसे ही बंदूक हाथ मे पकडी, सामने से बस्ती परका एक लड़का आया..उसी की उम्र का..उस लड़के ने भाई से उकसाते हुए कहा,
"चलाओ तो मुझ पे गोली...!"
वो भी खूब जनता था,कि, अगला कभी नही चलाएगा!
दादा जी की एक एहतियातन ताकीद थी...जब कभी निशाना check करना हों, हमेशा, ज़मीन की ओर..कभी ऊपर नही...राजू, (छोटे भाई को सब यही बुलाते) कभी भी किसी के ऊपर गोली नही दाग सकता...
खेलही खेल मे, राजू ने, उस लड़के की पैर की ओर निशाना लिया और बंदूक का ट्रिगर दबा दिया...

जैसा कि, दादा या अन्य परिवार वाले समझते थे,कि, बंदूक मे केवल १२ गोलियाँ होती हैं,वो बात सही नही थी...उसमे १३ गोलियाँ हुआ करतीं..आखरी गोली चल गयी..उस सुनसान खेतमे एक ज़ोरदार धमाका हुआ...पूजा तो थी नही...अन्य परिवारवाले दौडे...उस हादसे को बरसों बीते लेकिन,उस गोली की गूँज कोई नही भूला...या भुला सकता...
पूजा छात्रावास मे थी,जब ये घटना घटी....स्नातक पूर्व पढ़ाई चल रही थी...इसी अनुगूंज का असर पूजा की गैर मौजूदगी होके भी, उसके जीवन पे बेहद गहरा हुआ, ता-उम्र हुआ......उन परिणामों की चर्चा बाद मे....! जब उस IAS अफसर से पूजा के परिवार की मुलाक़ात हुई,तब पूजा, स्नातकोत्तर पढाई की एक साल पूरा कर चुकी थी...


लड़का तो नीचे गिर गया...बंदूक कमर से नीचे चली थी...दादा उसे लेके तुंरत अस्पताल दौडे...

अब एक बाप की नीयत देखिये..जिस बच्चे को गोली लगी थी,उसके बाप को अपने बेटे की जान प्यारी नही थी...और भी तो बच्चे थे..उसे तो पैसे निकलवाने थे! वो जाके छुप गया...चूँकि, दादा को पूरा शहर जानता था, पुलिस केस के पहले ही, दादा जी की सही लेके, surgery शुरू कर दी गयी..दादा जी बाद मे पुलिस स्टेशन पहुँचे..इज्ज़त इतनी थी,कि, हादसे के बारेमे जिस किसी ने सुना,( तबतक फ़ोन तो नही थे), वो सारे उनकी ज़मानत देने दौडे चले आए...

आगे, आगे क्या अंजाम हुए ?? क़िस्मत ने क्या रंग दिखाए? श्रवण कुमार ने शाप तो महाराजा दशरथ को दिया..लेकिन किस, किस ने भुगता?
पूजा के जीवन के दर्दनाक मोड़ तो उसी दागी गयी गोली के साथ शुरू हों गए...या और पीछे जायें,तो जब उसका पाठशाला मे रहते जो हादसा हुआ, तब से शुरू हुए...? तय करना कठिन है...जैसे मालिका आगे बढेगी...पाठक अपने अनुमान लगा लेंगे...कि, इस सवाल का जवाब किसी के पास नही...
एक मासूम, निर्दोष कथा नायिका का भविष्य क्या रहा? क्यों छली गयी एक निष्कपट लडकी ??
क्रमश:

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

'बिखरे सितारे' 8 ) मील का पत्थर!



ज़िंदगी में मोड़ किसको कहते हैं,ये नन्हीं तमन्ना कहाँ जानती थी...वो तो मोड़ पीछे छूट गए, तब उसे महसूस हुआ,कि, हाँ एक दोराहा पार हो गया..उसे ख़बर तक नही हुई...

एक झलक दिखाती हूँ, दादा पोती के नातेकी...ये क़िस्सा पूजासे कई बार सुन चुकी हूँ..पर हरबार सुननेको जी चाहता है..

जैसा,कि, मैंने लिखा था, सायकल चलाना, दादा ने ही पूजा को सिखाया..शुरू में तो चढ़ना उतरना नही आता...तो दादा साथ,साथ दौड़ा करते..एक दिन, सामने खड़ा ट्रक दिख गया,और पूजा उतरना सीख गयी...!

खेतों से गुज़रती पगडंडियों पे खूब सायकल चलाती रहती...ऐसे ही एक शाम की बात सुनाऊँ.....
तमन्ना, तेजीसे सायकल चलाती, खेत में बने रास्तेपे गुज़र रही थी...सामने से दादा दादी घूमने निकले नज़र आए .....दादा उसके सामने आके खड़े हो गए और मज़ाकिया लह्जेमे बोले,
" ये क्या तुम्हारे बाप का रास्ता है?"

पूजा, सायकल पे से उतर के हँसते,हँसते बोली,
" हाँ,ये मेरे बाप रास्ता है...बाप के बाप का भी है,लेकिन ठेंगा! आपके बाप का तो नही है!"

दादा-दादी खुले दिल से हँसते हुए, बाज़ू पे हो गए!

ऐसे हँसते खेलते दिन भी हुआ करते...जो अधिक थे...बस,एक माँ का दर्द उसे सालता रहता...!
पूजा की माँ के लिए कहूँगी...
'ना सखी ना सहेली,
चली कौन दिशा,
यूँ अकेली अकेली...'

नैहर के रौनक़ वाले माहौल से यहाँ पहुँच , मासूमा, वो नैहर की सखियाँ,वो गलियाँ, वो रौनक़.....याद बहुत करती...पर अपने बच्चों में पूरी तरह मन लगाये रखती...

उम्र के १३ साल पार करते करते, पूजा का एक भयानक हादसा हो गया..वो ९ वि क्लास में जा चुकी थी...अस्पताल में महीनों गुजरने पड़े... मेंदू के 'सेरेब्रल' पे चोट आ गयी थी...माँ उसे, पाठ्यक्रम की किताबें, अस्पताल में पढ़के सुनाया करती...सालाना परीक्षामे वो अपने क्लास में पहले क्रमांक से पास हो गई..

सीधे अस्पतालसे निकल परीक्षा हॉल में उसे पहुँचाया गया..उसे तो दोबारा चलना सीखना पड़ा था..गणित एक ऐसा विषय था, जो पढ़के नही सुनाया जा सकता..और वहीँ उसे केवल ४० अंक मिले.....आत्म विश्वाश खो बैठी...ये एक उसके जीवन में बड़ा अहम मील का पत्थर साबित हुआ...

उस ज़माने में, अब जैसे PCB या PCM का ऑप्शन होता है,तब नही था..पूजा बेहतरीन डॉक्टर बन सकती थी..ये कई जानकारों ने उसे बताया..सिर्फ़ डॉक्टर नही,उसके हाथों में एक शल्य चिकित्चक की शफ़ा थी.. पर उसने 'fine arts' में दाखिला ले लिया...उसकी आगे की जीवनी जब देखती हूँ,तो लगता है,पहला निर्णायक मोड़ तो यहीँ आ गया..

अपने गाँव से निकल वो पहली बार, बडोदा शहर आयी...ये विषय तब उसी शहरमे पढाया जाता था...सोलवाँ साल लग गया था..पूजा तीक्ष्ण बुद्धी और मेहनती थी...कलाके कई आयाम वो अपने आपसे ही पार कर लेती...अपने गुरुजनों की लाडली शागिर्द बनी रही...

अब केवल साल में दो बार उसका अपने घर आना बन पाता..दादा, दादी,माँ, उसे शिद्दत के साथ याद आते और उतनी ही शिद्दत के साथ पूजा भी अपना घर याद करती...अन्य लड़कियाँ छात्रावास के मज़े उठाती..लेकिन पूजा कुछ अलग ही मिट्टी की बनी थी...संग सहेलियों के जाती आती..लेकिन इस तरह की आज़ादी से वो कभी बहक नही गयी...

परिवार में अबतक,एक बहन के अलावा, एक भाई भी आ चुका था...जो पूजासे ८ साल छोटा था...

छुट्टीयाँ ,भाई बहनों के झगडे..पुरानी सखी सहेलियों से मेल जोल, इन सब में बीत जातीं..जब वो छूट्टी में आती तो,मानो एक जश्न -सा मन जाता...

एक ऐसी ही छुट्टी में उसके लिए एक पैगाम आया..पैगाम तो उसे उम्र की १४/१५ साल से आते रहे...पर कुछ निर्णय क्षमता तो नही थी...बचपना था...मंगनी होगी तो, घर मेहमान आयेंगे, खूब रौनक़ होगी...एक बुआ जो बड़े सालों बाद ऑस्ट्रेलिया से भारत आयी थी,और पूजा उसे बहद प्यार करती....

बस वो बुआ घर आयें,इस बचकानी हरकत में पूजाने मंगनी के लिए हाँ कर दी थी...उम्र ही क्या थी..१७ पूरे! खूब रौनक़ हुई...ये अल्हड़ता ,मासूमियत नही तो और क्या था?

पूजा को कभी भी अपने रूप का ना एहसास रहा ना, कोई दंभ...बल्कि,जब कोई सखी सहेली उसे सुंदर कहती,तो वो अपने आपको आईने में निहारती..क्या पाती..?एक छरहरे जिस्मकी, लडकी...गुलाबी गोरा रंग, बड़ी, बड़ी आँखें..लम्बी गर्दन...

लड़कियाँ उसे कहती,' तुम्हारे दांत तो नकली लगते हैं...! असली जीवन में होते हैं ऐसे दांत किसी के...पूजा को कई बार न्यून गंड का भाव भर आता...जब ये सब बातें सुनती...ईर्षा वश भी ऐसा कुछ कहा जा सकता था, उसे कभी समझा ही नही.....

मेहमानों के आगे वो छुपी,छुपी-सी रहती....

दूसरी ओर,जब उसके क़रीबी दोस्त रिश्तेदार आस पास होते,तो नकलची बन,या अपनी शरारतों से खूब हँसाती भी रहती...

जब कभी कोंलेज या स्कूल के ड्रामा में हिस्सा लेती,तो अपने किरदार ऐसे चुनती,जहाँ, उसकी मोटी,मोटी आखों में भरे आँसू नज़र आयें..के वो अपनी माँ या सहेलियों से पूछे..'मेरी आँखें कैसी दिखती थीं? आँसुओं से भरी हुई...?
परदेपर की नायिका कितनी सुंदर दिखती जब अपने पलकों पे आँसू तोलती...'

कहाँ पता था,कि, असली और नकली अश्रुओं में कितना फ़र्क़ होता है..जब असली आँसू बरसते हैं,तो उन्हें छुपाते रहना पड़ जाता है...मन चाहे रो रहा हो ज़रोज़ार, अधरों पे मुस्कान खिलानी पड़ती है...
शायद हर युवा लडकी अपनेआप से ऐसी बातें पूछती हो...जैसे पूजा-तमन्ना पूछती....

लड़कपन अब यौवन की दहलीज़ पे खड़ा था...! और एक हादसा हो गया...पूजा हॉस्टल में थी,तब उसे ख़बर मिली..उसका छोटा भाई, जो तब ११ /12 साल का होगा...उसके हाथ से बंदूक की गोली छूट गयी...पूरी तरह अनजानेमे....पर उस अनुगूंज का असर कहाँ ,कहाँ नही पहुँचा.......

यहाँसे पूजा की ज़िंदगी वाक़ई में एक ऐसा मोड़ ले गयी,जिसके दूर दराज़ असर हुए...एक दर्द का सफर शुरू हो गया...
क्रमश:

इसी पोस्ट में पूजाकी एक तस्वीर डाल रही हूँ...इसमे उम्र १७ साल की थी...अभी लडकपन अधिक झलकता..तो एक ओर वो बेहद संजीदा भी थी..

सोमवार, 5 जुलाई 2010

बिखरे सितारे ! ७) तानाशाह ज़माने !


पूजा की माँ, मासूमा भी, कैसी क़िस्मत लेके इस दुनियामे आयी थी? जब,जब उस औरत की बयानी सुनती हूँ, तो कराह उठती हूँ...

लाख ज़हमतें , हज़ार तोहमतें,
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
वो अनारकली तो नही थी,
ना वो उसका सलीम ही,
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने...

इसी इतिहास की पूजा के जीवन में पुनरावृती हुई...अभी उस तलक आने में देर है..कई मील के पत्थर पार करने हैं...रु-ब-रु होना है, एक मासूमियत से......

अपनी माँ की साडियाँ ओढे, उनकी बड़ी बड़ी चप्पलें पैरों में पहने, वो ६/७ सालकी बच्ची, 'बड़े' होने के सपने देखती रही...दिन ब दिन बचपन फिसलता गया...छोटे,छोटे घरौंदे बनाना , झूठ मूट की दावतें...मेलों में जाना...कांच की चूडियाँ...पीतल के गहने...हर रात परियों की कहानियाँ सुनते,सुनते सो जाना...बचपन की बीमारियाँ..और दादा-दादी का परेशाँ होना...दादा उसके साथ खूब खेला करते...उसे सायकल चलाना उन्हीं ने सिखाई...आगे चलके कार चलना भी,पूजा,उन्हीं के बदौलत सीखी...

फिर भी एक डर का साया मंडराता रहा...कभी माँ को लेके...कभी ख़ुद को लेके...खेतों पे खेलने मज़दूरों के बच्चे आते...और इस बच्ची पे बुरी निगाह रखते....

किसी एक दिवाली की छुट्टी में काफ़ी सारा गृह पाठ मिला था...ख़त्म तो करना ही था..पूजा बीमार हो गयी...ये चंद लड़के गाँव की स्कूल में पढ़ते थे..पूजा से बड़े थे...लड़कों ने गृहपाठ पूरा करने में मदत की...और फिर उसे अकेले में पाके, उसकी अस्मत पे हाथ डालना चाहा...पूजा को ये सब समझ में तो नही आता...और जब उसे ये बताया जाता,कि, उसके माता पिता ने ऐसा ही कुछ किया..तभी वो जन्मी,तो उसका नन्हा मन मान लेने को राज़ी नही होता..

वो ये सब बातें माँ को या दादी को पूछे या बताये भी कैसे? दूसरी ओर, ये लड़के उसे एक अपराध बोध के तले दबाते रहते...कहते," हमने तुम्हारी इतनी मदद कर दी...तुम एहसान फ़रामोश हो...इतना भी नही कर सकती?"

ईश्वर ने सदबुद्धी दी ....उसे इन सब हरकतों से घृणा भी हुई...पाठशाला से जब वो बस लेके लौटती,अक्सर तो दादा दादी उसे सड़क किनारे लेने आ जाते..लेकिन कई बार मुमकिन न होता...सुनसान रास्ते...ईख के खेत...इन सब को पार करते हुए, पूजा कई बार इन भयावह दुर्घटनाओं से बाल बाल बची...वो अपनी ओर से घर वालों कहती,कि, उसे लेने आया करें...लेकिन वजह नही बता पाती...बाल मन पे एक सदमा-सा लगता गया...

दूसरी तरफ़,वो माँ को तड़पता देखती...कितना सही है,जब कहा जाता है, बच्चों के आगे बड़ों ने संभल के बातें करनी चाहियें...उनके बेहद दूरगामी असर हो सकते हैं...! जब कि, दादा अपनी पोती के प्रती, हर तरह से इतने संवेदन शील थे...अपनी बहू को डांटते समय यही बात भूल जाते...!

समय गुज़रता रहा.....और पूजा के मनमे अपने पिता के प्रती भी,एक तिरस्कार की भावना पनपने लगी...पर वो किसे सुनाये? और क्या कहे? उसे उनका बर्ताव समझ में तो नही आता...लेकिन कहीँ तो कुछ ग़लत हो रहा है, इस बात की गवाही उसका बाल मन देता...अपनी माँ के प्रती भी ग़लत हो रहा है...पर क्या..कैसे? अपने डर को वो बरसों शब्द बद्ध नही कर पायी...लेकिन इन काले सायों ने उसे ता-उम्र डरा दिया...

इन माँ-बेटी की कहानी, हाथ में हाथ डाले आगे बढ़ती रहेगी...कभी मासूमा का बचपन तो कभी पूजा का...कभी माँ का यौवन तो कभी पूजा का लड़कपन...एक दूसरेसे इन किस्सों को जुदा करना मुमकिन नही...

क्रमश:

रविवार, 4 जुलाई 2010

Tasveeren

नन्हीं पूजा ,माँ के साथ...माँ,मासूम,ब्याह के पहले.
पूजा का पैतृक मकान.






बिखरे सितारे ६) है ये कैसा सफर ?

मजबूर जो किया अए ज़माने तूने,

इरादा नही था, इस बयानी का,

एक दास्ताँ छुपाते,छुपाते, बयाँ हो रही है...



हाँ..यही सत्य है...



माँ..तमन्ना की माँ..मासूमा..उनके बारेमे कहना चाह रही हूँ....क्योंकि उनके बचपन का, पूजा-तमन्ना के जीवन पे गहरा असर पड़ा...



मासूमा,अपने पिता का छत्र, दस साल की उम्र में ही खो बैठी...मासूमा के अन्य दो सगे भाई थे/हैं..मासूमा की माँ, उनके पिता की दूसरी पत्नी थीं...पहली पत्नी,थीं, उन्हीं की बड़ी बहन...जिनके देहांत के बाद उनके पिता ने अपनी प्रथम पत्नी की छोटी बहन से ब्याह किया..इतनाही नही..वे अपना बेपार करते थे...किसी अन्य देश गए,और वहाँ एक और शादी रचा ली..



जब उनका निधन हुआ,तो,मासूमा की माँ के पास कुछ नही था..सिवा इसके,की, जिस घर में वो रह रही थीं..ये भी गनीमत थी..तस्वीर में जो घर..तथा, द्वार दिख रहा है, वही मासूमा का घर था..जहाँ, पूजा का जन्म हुआ..जनम घर पे तो नही, शहर के अस्पताल में हुआ..लेकिन जनम के बाद पूजा को वहीँ लाया गया....



उसे वो घर ,वो पीछे दिखने वाला एक पलंग.... सब कुछ याद है...उस बंद द्वार से घर में प्रवेश होता..संकड़ी सीढियाँ चढ़ के..मुग़ल वाड़ा कहलाता था वो इलाक़ा.....काफ़ी चहल पहल हुआ करती...



अपने पती के देहांत के बाद घर का निचला हिस्सा, पूजा की नानी ने किराये पे चढा दिया..और ख़ुद सिलाई कढाई करके परिवार पलने पोसने लगीं....



परिवार में अपनी बड़ी बहन की दो बेटियाँ शुमार थीं..तथा, उनके बड़े भाई की एक अनाथ बेटी...छ: बच्चों को पढाना लिखाना..बीमारी तीमारदारी.. वो चिडचिडी तो होही गयीं..अपने भाई की बेटी के साथ कुछ ज़्यादा ही दुर्व्यवहार किया...जब मासूमा बड़ी हुई, तो उसे, इस मुमेरी बहन से, बेहद लगाव था..पूजा की इस मासी ने, पूजा से भी बेहद प्यार किया..



माँ के भाई ,जब पूजा छ: या सात साल की थी,तब देश छोड़ अन्य देश जा बसे...और पूजा की नानी वहीँ चली गयी...मासूमा के लिए उसका नैहर मानो तभी ख़त्म हो गया...लेकिन, फिरभी उसकी ममेरी बहन थी...अपने बच्चों को लेके वो वहीँ जाया करती...पर अपने पती के हाथों मजबूर...पती ने..पूजा के पिता ने, अपने बच्चों की, या अपनी पत्नी की, कभी ठीक से ज़िम्मेदारी नही सँभाली...मासूमा,इस कारन, बेहद असुरक्षित महसूस किया करती..इसे कहते हैं, चराग तले अँधेरा...! एक ओर पूजा के दादा-दादी बेहद इन्साफ पसंद और नेक लोग थे...वहीँ,अपनी बहू के साथ, ना इंसाफी कर गुज़रते..!



पूजा बड़ी होती गयी...और इस बात को महसूस करती रही..कई बातें वो नन्हीं जान नही समझ पाती..लेकिन जिसका पती, साथ ना दे, उस औरत का घर मे ठीक से सम्मान नही होता..ये भी एक सत्य है..पूजा के दादा,जिनकी पूजा आँखों का सितारा थी, अपनी बहू के साथ कई बार बेहद कठोर व्यवहार कर जाते..और पूजा रो पड़ती...अपने दादा से रूठ जाती..उनके साथ बात नही करती..बिस्तर में लेटे, लेटे सिसकती रहती...



ये भी होता,कि, ऐसे मे दादा आके, अपनी बहू से माफी भी माँग लेते..पर सिलसिला जारी रहता...और दिन गुज़रते गए...पूजा की पाठशाला मे दादा ही आया जाया करते..शिक्षक शिक्षिकाओं के संपर्क मे वही रहते..उनका शहर तथा आज़ू बाज़ू के ईलाकों मे रूतबा भी था..इज्ज़त भी थी..लेकिन घर की बातें,दहलीज़ के अन्दर ही रहती..पर उस कोमल,नन्हीं जान पे इसका असर पड़ता रहता...



और भी कई बातें थीं , जिन के कारण पूजा की माँ त्रस्त रही...पर उस सबके बारे मे फिर कभी..



क्रमश: