बुधवार, 28 अगस्त 2013

बिखरे सितारे:९ ) एक अनजाना मोड़


( इसके पहली किश्त में पूजा की मंगनी की बात बताई थी...अब आगे..)

पूजा ने अपनी मंगनी करवाके बचपना किया...जैसे समय बीतता रहा..उसे अपनी गलती महसूस हो रही थी...जो लड़का उस पे जान निछावर करता था,उसकी इज्ज़त तो करती,लेकिन प्यार या कोई आकर्षण ने दिलके द्वारों पे दस्तक नही दी..लड़के की माँ, पूजा पे वारे न्यारे थी..उसके मुँह से अनजाने में निकला शब्द वो तुंरत झेल लेती...ऐसी सास ढूँढे मिलना मुमकिन नही था..लेकिन गर जिसके साथ जीवन बिताना हो, उसके प्रती कोईभी कोमल भावना न हो तो, दोनों ओरसे जीवन नरक बन सकता था.....जब वो लड़का ३/४ चक्कर काट लेता,तब जाके पूजा उससे मिलने आगे आती...और कुछ ना कुछ बहाना बना, १०/१५ मिनटों मे चल देती...वो एक दोराहे पे आ खड़ी थी ...


मंगनी तकरीबन दो साल टिकी रही..वो लड़का जब कभी पूजाको छात्रावास में मिलने आता,पूजा टाल जाती..कभी,नीचे रखवाल दार को कह देती,मै वाचनालय में हूँ...या और कहीँ......' एक उदासी का आलम उसपे घिर आने लगा...कुछ तो निर्णय लेना ही था..वरना लड़के तथा उसके परिवारपे घोर अन्याय था..
पूजा के दिलो दिमाग़ पे इस बात का विपरीत असर होने लगा...स्नातकोत्तर हुई,पहली सेमिस्टर मे महा विद्यालय का रिकॉर्ड तोड़ने वाली पूजा, सालाना इम्तेहान के समय बीमार रहने लगी...पढ़ा हुआ भूल जाने लगी...

fine आर्ट्स में पोस्ट graduation का एक साल ख़त्म होनेवाला था..माँ उसे परिक्षा के पूर्व मिलने आयी और बताया कि, उनके शहर एक आईएस का लड़का assitant कलेक्टर बनके आया है...परिवार से घुल मिल गया है...



इस लड़के से उनके परिवार का परिचय कैसे हुआ?

यही बताने जा रही हूँ...कारण वही हादसा था...जिस बंदूक से गोली चली थी,दादा जी ने वो बन्दूक तुंरत तहसील के दफ्तर में जमा करा दी थी..उसे जमा करके भी दो साल हो गए थे...दर असल,ये बन्दूक, एक जर्मन डॉक्टर ने उन्हें भेंट दी थी...

परवाने लिए उन्हों ने तहसीलदार के दफ्तर में आवेदन पत्र भी भेज रखा था....और ये आवेदन पत्र  उन्हों ने हादसे के दो वर्ष पूर्व भेजा था...!सरकारी कारोबार था..दादाजी जब भी पता करने जाते, कुछ न कुछ बहाने बनाके उन्हें टाल दिया जाता....उस बंदूक को वापस हासिल करने तथा उसका परवाना चाहने, दादा तथा पूजा के पिता, assistant कलेक्टर से मिलने तहसील के दफ्तर मे चक्क्कर काटते रहते..

इन दो ढाई सालों मे कई अफसर आए और गए...काम नही बना..अबके एक IAS का अफसर आया है, शायद, अधिक ईमानदार होगा सोच, दोनों मिलने गए...और...... और वो लड़का विलक्षण प्रभावित हुआ...पिता पुत्र दोनों इज्ज़त दार लोग हैं,ये उसे तफ़तीश के बाद पता चला..दोनोका अंग्रेज़ी भाषा पे प्रभुत्व देखके भी वो दंग रह गया...इस पिछडे,दूर दराज़ ग्राम मे, oxford मे पढ़े लोग? हैरानी की बात थी......धीरे,धीरे पता चलता गया,कि, दादा दादी ने इस देश के ख़ातिर ,सारा ऐशो आराम छोड़ दिया था....बेलगाम के एक गाँव मे आ बसे थे...वो लड़का कर्नाटक कैडर का था....
यही वजह रही कि,उस परिवार के साथ उस अफसर की नज़दीकियाँ बढीं...वो उनके घर भी आने जाने लगा..अपने अन्य मित्रों कोभी( जो आस पास के इलाकों मे कार्यरत थे), कई बार साथ ले आता... ...ये फिल्मों मे दिखायी जानेवाली ज़मीदारों की कहानी नही थी...बल्कि, जब हादसा हुआ, और दादा जी पुलिस स्टेशन पहुँचे, तो स्थानीय पुलिस, जो दादा जी की बेहद इज्ज़त करते थे,उन्हों ने सलाह दी," आप FIR मे दर्ज करें,कि, जिस बंदूक का आपके पास परवाना था, गोली उसी से छूटी...तथा, पहले वकील बुलाके और फिर कुछ भी दर्ज कराएँ....."
लेकिन दादा जी ने साफ़ इनकार कर दिया...उस बात का भी बयान दूँगी...

उस हादसे के कुछ तपसील देना चाहती हूँ...वो बिना परवानेकी बन्दूक दादाजी हमेशा dismantle करके रखते..कभी कबार अलमारी से बाहर निकाल, उसकी साफ़ सफाई करते,और वापस अन्दर चली जाती...गाँव या बस्ती से दूर बने घरमे सुरक्षाके लिए बन्दूक ज़रूरी थी..बल्कि,एक बार किसीकी चींख सुन उन्हों ने हवा में गोली दाग दी थी...चोर एक औरत का हाथ काटते काटते भाग गए....! उसके हाथ से चांदीके भारी कड़े निकल नही रहे थे,तो हाथ काटने चले थे...


दादा जी वचन और अल्फाज़ के सच्चे थे..बोले," क़तई नही..ये तो मेरे पोते-पोतियों पे कितना ग़लत असर होगा..दादा ने झूठ कहा? सवाल ही नही..जो परिणाम होने वाले हों, सो हों..मै वही कहूँगा,जैसा की घटा.."

घटना कैसे घटी थी? दादा जी ने बन्दूक को साफ़ किया..तभी भैंसे दूधने के खातिर ग्वाला चला आया...दादा अपने सामने दूध निकलवाते...ताकि, ग्वाला एक बूँद भी पानी न मिला सके...और दूध मशहूर था..ऐसी मलाई, ऐसा गाढा दूध और कहीँ नही मिलता था...लोग इस ढूध के खतिर क़तार लगाये रहते..

जो व्यक्ती हमेशा हर चीज़ मे बेहद सतर्क रहता, वो बंदूक को वापस बिना अलमारी मे रखे चला गया..गोलियाँ बाहर निकली हुई हटीं..१२ गोलियां तो उन्हों ने उठाके, मेज़ की दराज़ मे रख दी थीं...
पूजा का छोटा भाई जब बाहर निकला तो बरामदे मे पड़ी बंदूक उसे दिखी...वो इतनी छोटी उम्र मे भी बेहतरीन निशाने बाज़ था...गुलेल से एक ही बार मे आम का या चीकू का फल टहनी से अलग कर देता..air gun भी बहुत ख़ूब चलाता..उसके लिए तो परवाने की ज़रूरत नही थी...चूहे भी मार गिराता...जो कि, खेती का नुकसान करते...
उसने जैसे ही बंदूक हाथ मे पकडी, सामने से बस्ती परका एक लड़का आया..उसी की उम्र का..उस लड़के ने भाई से उकसाते हुए कहा,
"चलाओ तो मुझ पे गोली...!"
वो भी खूब जनता था,कि, अगला कभी नही चलाएगा!
दादा जी की एक एहतियातन ताकीद थी...जब कभी निशाना check करना हों, हमेशा, ज़मीन की ओर..कभी ऊपर नही...राजू, (छोटे भाई को सब यही बुलाते) कभी भी किसी के ऊपर गोली नही दाग सकता...
खेलही खेल मे, राजू ने, उस लड़के की पैर की ओर निशाना लिया और बंदूक का ट्रिगर दबा दिया...

जैसा कि, दादा या अन्य परिवार वाले समझते थे,कि, बंदूक मे केवल १२ गोलियाँ होती हैं,वो बात सही नही थी...उसमे १३ गोलियाँ हुआ करतीं..आखरी गोली चल गयी..उस सुनसान खेतमे एक ज़ोरदार धमाका हुआ...पूजा तो थी नही...अन्य परिवारवाले दौडे...उस हादसे को बरसों बीते लेकिन,उस गोली की गूँज कोई नही भूला...या भुला सकता...
पूजा छात्रावास मे थी,जब ये घटना घटी....स्नातक पूर्व पढ़ाई चल रही थी...इसी अनुगूंज का असर पूजा की गैर मौजूदगी होके भी, उसके जीवन पे बेहद गहरा हुआ, ता-उम्र हुआ......उन परिणामों की चर्चा बाद मे....! जब उस IAS अफसर से पूजा के परिवार की मुलाक़ात हुई,तब पूजा, स्नातकोत्तर पढाई की एक साल पूरा कर चुकी थी...


लड़का तो नीचे गिर गया...बंदूक कमर से नीचे चली थी...दादा उसे लेके तुंरत अस्पताल दौडे...

अब एक बाप की नीयत देखिये..जिस बच्चे को गोली लगी थी,उसके बाप को अपने बेटे की जान प्यारी नही थी...और भी तो बच्चे थे..उसे तो पैसे निकलवाने थे! वो जाके छुप गया...चूँकि, दादा को पूरा शहर जानता था, पुलिस केस के पहले ही, दादा जी की सही लेके, surgery शुरू कर दी गयी..दादा जी बाद मे पुलिस स्टेशन पहुँचे..इज्ज़त इतनी थी,कि, हादसे के बारेमे जिस किसी ने सुना,( तबतक फ़ोन तो नही थे), वो सारे उनकी ज़मानत देने दौडे चले आए...

आगे, आगे क्या अंजाम हुए ?? क़िस्मत ने क्या रंग दिखाए? श्रवण कुमार ने शाप तो महाराजा दशरथ को दिया..लेकिन किस, किस ने भुगता?
पूजा के जीवन के दर्दनाक मोड़ तो उसी दागी गयी गोली के साथ शुरू हों गए...या और पीछे जायें,तो जब उसका पाठशाला मे रहते जो हादसा हुआ, तब से शुरू हुए...? तय करना कठिन है...जैसे मालिका आगे बढेगी...पाठक अपने अनुमान लगा लेंगे...कि, इस सवाल का जवाब किसी के पास नही...
एक मासूम, निर्दोष कथा नायिका का भविष्य क्या रहा? क्यों छली गयी एक निष्कपट लडकी ??
क्रमश:


बुधवार, 21 अगस्त 2013



ज़िंदगी में मोड़ किसको कहते हैं,ये नन्हीं तमन्ना कहाँ जानती थी...वो तो मोड़ पीछे छूट गए, तब उसे महसूस हुआ,कि, हाँ एक दोराहा पार हो गया..उसे ख़बर तक नही हुई...

एक झलक दिखाती हूँ, दादा पोती के नातेकी...ये क़िस्सा पूजासे कई बार सुन चुकी हूँ..पर हरबार सुननेको जी चाहता है..

जैसा,कि, मैंने लिखा था, सायकल चलाना, दादा ने ही पूजा को सिखाया..शुरू में तो चढ़ना उतरना नही आता...तो दादा साथ,साथ दौड़ा करते..एक दिन, सामने खड़ा ट्रक दिख गया,और पूजा उतरना सीख गयी...!

खेतों से गुज़रती पगडंडियों पे खूब सायकल चलाती रहती...ऐसे ही एक शाम की बात सुनाऊँ.....
तमन्ना, तेजीसे सायकल चलाती, खेत में बने रास्तेपे गुज़र रही थी...सामने से दादा दादी घूमने निकले नज़र आए .....दादा उसके सामने आके खड़े हो गए और मज़ाकिया लह्जेमे बोले,
" ये क्या तुम्हारे बाप का रास्ता है?"

पूजा, सायकल पे से उतर के हँसते,हँसते बोली,
" हाँ,ये मेरे बाप रास्ता है...बाप के बाप का भी है,लेकिन ठेंगा! आपके बाप का तो नही है!"

दादा-दादी खुले दिल से हँसते हुए, बाज़ू पे हो गए!

ऐसे हँसते खेलते दिन भी हुआ करते...जो अधिक थे...बस,एक माँ का दर्द उसे सालता रहता...!
पूजा की माँ के लिए कहूँगी...
'ना सखी ना सहेली,
चली कौन दिशा,
यूँ अकेली अकेली...'

नैहर के रौनक़ वाले माहौल से यहाँ पहुँच , मासूमा, वो नैहर की सखियाँ,वो गलियाँ, वो रौनक़.....याद बहुत करती...पर अपने बच्चों में पूरी तरह मन लगाये रखती...

उम्र के १३ साल पार करते करते, पूजा का एक भयानक हादसा हो गया..वो ९ वि क्लास में जा चुकी थी...अस्पताल में महीनों गुजरने पड़े... मेंदू के 'सेरेब्रल' पे चोट आ गयी थी...माँ उसे, पाठ्यक्रम की किताबें, अस्पताल में पढ़के सुनाया करती...सालाना परीक्षामे वो अपने क्लास में पहले क्रमांक से पास हो गई..

सीधे अस्पतालसे निकल परीक्षा हॉल में उसे पहुँचाया गया..उसे तो दोबारा चलना सीखना पड़ा था..गणित एक ऐसा विषय था, जो पढ़के नही सुनाया जा सकता..और वहीँ उसे केवल ४० अंक मिले.....आत्म विश्वाश खो बैठी...ये एक उसके जीवन में बड़ा अहम मील का पत्थर साबित हुआ...

उस ज़माने में, अब जैसे PCB या PCM का ऑप्शन होता है,तब नही था..पूजा बेहतरीन डॉक्टर बन सकती थी..ये कई जानकारों ने उसे बताया..सिर्फ़ डॉक्टर नही,उसके हाथों में एक शल्य चिकित्चक की शफ़ा थी.. पर उसने 'fine arts' में दाखिला ले लिया...उसकी आगे की जीवनी जब देखती हूँ,तो लगता है,पहला निर्णायक मोड़ तो यहीँ आ गया..

अपने गाँव से निकल वो पहली बार, बडोदा शहर आयी...ये विषय तब उसी शहरमे पढाया जाता था...सोलवाँ साल लग गया था..पूजा तीक्ष्ण बुद्धी और मेहनती थी...कलाके कई आयाम वो अपने आपसे ही पार कर लेती...अपने गुरुजनों की लाडली शागिर्द बनी रही...

अब केवल साल में दो बार उसका अपने घर आना बन पाता..दादा, दादी,माँ, उसे शिद्दत के साथ याद आते और उतनी ही शिद्दत के साथ पूजा भी अपना घर याद करती...अन्य लड़कियाँ छात्रावास के मज़े उठाती..लेकिन पूजा कुछ अलग ही मिट्टी की बनी थी...संग सहेलियों के जाती आती..लेकिन इस तरह की आज़ादी से वो कभी बहक नही गयी...

परिवार में अबतक,एक बहन के अलावा, एक भाई भी आ चुका था...जो पूजासे ८ साल छोटा था...

छुट्टीयाँ ,भाई बहनों के झगडे..पुरानी सखी सहेलियों से मेल जोल, इन सब में बीत जातीं..जब वो छूट्टी में आती तो,मानो एक जश्न -सा मन जाता...

एक ऐसी ही छुट्टी में उसके लिए एक पैगाम आया..पैगाम तो उसे उम्र की १४/१५ साल से आते रहे...पर कुछ निर्णय क्षमता तो नही थी...बचपना था...मंगनी होगी तो, घर मेहमान आयेंगे, खूब रौनक़ होगी...एक बुआ जो बड़े सालों बाद ऑस्ट्रेलिया से भारत आयी थी,और पूजा उसे बहद प्यार करती....

बस वो बुआ घर आयें,इस बचकानी हरकत में पूजाने मंगनी के लिए हाँ कर दी थी...उम्र ही क्या थी..१७ पूरे! खूब रौनक़ हुई...ये अल्हड़ता ,मासूमियत नही तो और क्या था?

पूजा को कभी भी अपने रूप का ना एहसास रहा ना, कोई दंभ...बल्कि,जब कोई सखी सहेली उसे सुंदर कहती,तो वो अपने आपको आईने में निहारती..क्या पाती..?एक छरहरे जिस्मकी, लडकी...गुलाबी गोरा रंग, बड़ी, बड़ी आँखें..लम्बी गर्दन...

लड़कियाँ उसे कहती,' तुम्हारे दांत तो नकली लगते हैं...! असली जीवन में होते हैं ऐसे दांत किसी के...पूजा को कई बार न्यून गंड का भाव भर आता...जब ये सब बातें सुनती...ईर्षा वश भी ऐसा कुछ कहा जा सकता था, उसे कभी समझा ही नही.....

मेहमानों के आगे वो छुपी,छुपी-सी रहती....

दूसरी ओर,जब उसके क़रीबी दोस्त रिश्तेदार आस पास होते,तो नकलची बन,या अपनी शरारतों से खूब हँसाती भी रहती...

जब कभी कोंलेज या स्कूल के ड्रामा में हिस्सा लेती,तो अपने किरदार ऐसे चुनती,जहाँ, उसकी मोटी,मोटी आखों में भरे आँसू नज़र आयें..के वो अपनी माँ या सहेलियों से पूछे..'मेरी आँखें कैसी दिखती थीं? आँसुओं से भरी हुई...?
परदेपर की नायिका कितनी सुंदर दिखती जब अपने पलकों पे आँसू तोलती...'

कहाँ पता था,कि, असली और नकली अश्रुओं में कितना फ़र्क़ होता है..जब असली आँसू बरसते हैं,तो उन्हें छुपाते रहना पड़ जाता है...मन चाहे रो रहा हो ज़रोज़ार, अधरों पे मुस्कान खिलानी पड़ती है...
शायद हर युवा लडकी अपनेआप से ऐसी बातें पूछती हो...जैसे पूजा-तमन्ना पूछती....

लड़कपन अब यौवन की दहलीज़ पे खड़ा था...! और एक हादसा हो गया...पूजा हॉस्टल में थी,तब उसे ख़बर मिली..उसका छोटा भाई, जो तब ११ /12 साल का होगा...उसके हाथ से बंदूक की गोली छूट गयी...पूरी तरह अनजानेमे....पर उस अनुगूंज का असर कहाँ ,कहाँ नही पहुँचा.......

यहाँसे पूजा की ज़िंदगी वाक़ई में एक ऐसा मोड़ ले गयी,जिसके दूर दराज़ असर हुए...एक दर्द का सफर शुरू हो गया...
क्रमश:

इसी पोस्ट में पूजाकी एक तस्वीर डाल रही हूँ...इसमे उम्र १७ साल की थी...अभी लडकपन अधिक झलकता..तो एक ओर वो बेहद संजीदा भी थी..
संस्मरण ,हिंदी

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

बिखरे सितारे : ७ तानाशाह ज़माने


पूजा की माँ, मासूमा भी, कैसी क़िस्मत लेके इस दुनियामे आयी थी? जब,जब उस औरत की बयानी सुनती हूँ, तो कराह उठती हूँ...

लाख ज़हमतें , हज़ार तोहमतें,
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
वो अनारकली तो नही थी,
ना वो उसका सलीम ही,
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने...

इसी इतिहास की पूजा के जीवन में पुनरावृती हुई...अभी उस तलक आने में देर है..कई मील के पत्थर पार करने हैं...रु-ब-रु होना है, एक मासूमियत से......

अपनी माँ की साडियाँ ओढे, उनकी बड़ी बड़ी चप्पलें पैरों में पहने, वो ६/७ सालकी बच्ची, 'बड़े' होने के सपने देखती रही...दिन ब दिन बचपन फिसलता गया...छोटे,छोटे घरौंदे बनाना , झूठ मूट की दावतें...मेलों में जाना...कांच की चूडियाँ...पीतल के गहने...हर रात परियों की कहानियाँ सुनते,सुनते सो जाना...बचपन की बीमारियाँ..और दादा-दादी का परेशाँ होना...दादा उसके साथ खूब खेला करते...उसे सायकल चलाना उन्हीं ने सिखाई...आगे चलके कार चलना भी,पूजा,उन्हीं के बदौलत सीखी...

फिर भी एक डर का साया मंडराता रहा...कभी माँ को लेके...कभी ख़ुद को लेके...खेतों पे खेलने मज़दूरों के बच्चे आते...और इस बच्ची पे बुरी निगाह रखते....

किसी एक दिवाली की छुट्टी में काफ़ी सारा गृह पाठ मिला था...ख़त्म तो करना ही था..पूजा बीमार हो गयी...ये चंद लड़के गाँव की स्कूल में पढ़ते थे..पूजा से बड़े थे...लड़कों ने गृहपाठ पूरा करने में मदत की...और फिर उसे अकेले में पाके, उसकी अस्मत पे हाथ डालना चाहा...पूजा को ये सब समझ में तो नही आता...और जब उसे ये बताया जाता,कि, उसके माता पिता ने ऐसा ही कुछ किया..तभी वो जन्मी,तो उसका नन्हा मन मान लेने को राज़ी नही होता..

वो ये सब बातें माँ को या दादी को पूछे या बताये भी कैसे? दूसरी ओर, ये लड़के उसे एक अपराध बोध के तले दबाते रहते...कहते," हमने तुम्हारी इतनी मदद कर दी...तुम एहसान फ़रामोश हो...इतना भी नही कर सकती?"

ईश्वर ने सदबुद्धी दी ....उसे इन सब हरकतों से घृणा भी हुई...पाठशाला से जब वो बस लेके लौटती,अक्सर तो दादा दादी उसे सड़क किनारे लेने आ जाते..लेकिन कई बार मुमकिन न होता...सुनसान रास्ते...ईख के खेत...इन सब को पार करते हुए, पूजा कई बार इन भयावह दुर्घटनाओं से बाल बाल बची...वो अपनी ओर से घर वालों कहती,कि, उसे लेने आया करें...लेकिन वजह नही बता पाती...बाल मन पे एक सदमा-सा लगता गया...

दूसरी तरफ़,वो माँ को तड़पता देखती...कितना सही है,जब कहा जाता है, बच्चों के आगे बड़ों ने संभल के बातें करनी चाहियें...उनके बेहद दूरगामी असर हो सकते हैं...! जब कि, दादा अपनी पोती के प्रती, हर तरह से इतने संवेदन शील थे...अपनी बहू को डांटते समय यही बात भूल जाते...!

समय गुज़रता रहा.....और पूजा के मनमे अपने पिता के प्रती भी,एक तिरस्कार की भावना पनपने लगी...पर वो किसे सुनाये? और क्या कहे? उसे उनका बर्ताव समझ में तो नही आता...लेकिन कहीँ तो कुछ ग़लत हो रहा है, इस बात की गवाही उसका बाल मन देता...अपनी माँ के प्रती भी ग़लत हो रहा है...पर क्या..कैसे? अपने डर को वो बरसों शब्द बद्ध नही कर पायी...लेकिन इन काले सायों ने उसे ता-उम्र डरा दिया...

इन माँ-बेटी की कहानी, हाथ में हाथ डाले आगे बढ़ती रहेगी...कभी मासूमा का बचपन तो कभी पूजा का...कभी माँ का यौवन तो कभी पूजा का लड़कपन...एक दूसरेसे इन किस्सों को जुदा करना मुमकिन नही...

क्रमश:



मंगलवार, 13 अगस्त 2013

Bikhare sitare: Poojakee maa

मजबूर जो किया अए ज़माने तूने,

इरादा नही था, इस बयानी का,

एक दास्ताँ छुपाते,छुपाते, बयाँ हो रही है...



हाँ..यही सत्य है...



माँ..तमन्ना की माँ..मासूमा..उनके बारेमे कहना चाह रही हूँ....क्योंकि उनके बचपन का, पूजा-तमन्ना के जीवन पे गहरा असर पड़ा...



मासूमा,अपने पिता का छत्र, दस साल की उम्र में ही खो बैठी...मासूमा के अन्य दो सगे भाई थे/हैं..मासूमा की माँ, उनके पिता की दूसरी पत्नी थीं...पहली पत्नी,थीं, उन्हीं की बड़ी बहन...जिनके देहांत के बाद उनके पिता ने अपनी प्रथम पत्नी की छोटी बहन से ब्याह किया..इतनाही नही..वे अपना बेपार करते थे...किसी अन्य देश गए,और वहाँ एक और शादी रचा ली..



जब उनका निधन हुआ,तो,मासूमा की माँ के पास कुछ नही था..सिवा इसके,की, जिस घर में वो रह रही थीं..ये भी गनीमत थी..तस्वीर में जो घर..तथा, द्वार दिख रहा है, वही मासूमा का घर था..जहाँ, पूजा का जन्म हुआ..जनम घर पे तो नही, शहर के अस्पताल में हुआ..लेकिन जनम के बाद पूजा को वहीँ लाया गया....



उसे वो घर ,वो पीछे दिखने वाला एक पलंग.... सब कुछ याद है...उस बंद द्वार से घर में प्रवेश होता..संकड़ी सीढियाँ चढ़ के..मुग़ल वाड़ा कहलाता था वो इलाक़ा.....काफ़ी चहल पहल हुआ करती...



अपने पती के देहांत के बाद घर का निचला हिस्सा, पूजा की नानी ने किराये पे चढा दिया..और ख़ुद सिलाई कढाई करके परिवार पलने पोसने लगीं....



परिवार में अपनी बड़ी बहन की दो बेटियाँ शुमार थीं..तथा, उनके बड़े भाई की एक अनाथ बेटी...छ: बच्चों को पढाना लिखाना..बीमारी तीमारदारी.. वो चिडचिडी तो होही गयीं..अपने भाई की बेटी के साथ कुछ ज़्यादा ही दुर्व्यवहार किया...जब मासूमा बड़ी हुई, तो उसे, इस मुमेरी बहन से, बेहद लगाव था..पूजा की इस मासी ने, पूजा से भी बेहद प्यार किया..



माँ के भाई ,जब पूजा छ: या सात साल की थी,तब देश छोड़ अन्य देश जा बसे...और पूजा की नानी वहीँ चली गयी...मासूमा के लिए उसका नैहर मानो तभी ख़त्म हो गया...लेकिन, फिरभी उसकी ममेरी बहन थी...अपने बच्चों को लेके वो वहीँ जाया करती...पर अपने पती के हाथों मजबूर...पती ने..पूजा के पिता ने, अपने बच्चों की, या अपनी पत्नी की, कभी ठीक से ज़िम्मेदारी नही सँभाली...मासूमा,इस कारन, बेहद असुरक्षित महसूस किया करती..इसे कहते हैं, चराग तले अँधेरा...! एक ओर पूजा के दादा-दादी बेहद इन्साफ पसंद और नेक लोग थे...वहीँ,अपनी बहू के साथ, ना इंसाफी कर गुज़रते..!



पूजा बड़ी होती गयी...और इस बात को महसूस करती रही..कई बातें वो नन्हीं जान नही समझ पाती..लेकिन जिसका पती, साथ ना दे, उस औरत का घर मे ठीक से सम्मान नही होता..ये भी एक सत्य है..पूजा के दादा,जिनकी पूजा आँखों का सितारा थी, अपनी बहू के साथ कई बार बेहद कठोर व्यवहार कर जाते..और पूजा रो पड़ती...अपने दादा से रूठ जाती..उनके साथ बात नही करती..बिस्तर में लेटे, लेटे सिसकती रहती...



ये भी होता,कि, ऐसे मे दादा आके, अपनी बहू से माफी भी माँग लेते..पर सिलसिला जारी रहता...और दिन गुज़रते गए...पूजा की पाठशाला मे दादा ही आया जाया करते..शिक्षक शिक्षिकाओं के संपर्क मे वही रहते..उनका शहर तथा आज़ू बाज़ू के ईलाकों मे रूतबा भी था..इज्ज़त भी थी..लेकिन घर की बातें,दहलीज़ के अन्दर ही रहती..पर उस कोमल,नन्हीं जान पे इसका असर पड़ता रहता...



और भी कई बातें थीं , जिन के कारण पूजा की माँ त्रस्त रही...पर उस सबके बारे मे फिर कभी..



क्रमश:

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

Bikhare sitare:5 झूठ का पाठ

जो जीवन अनगिनत घटनाओं से भरा हुआ हो...उन लम्हों को कैसे चुनूँ?? एक माला पिरोना चाहती हूँ, उनमे कौन से मोती शामिल करूँ..कौनसे छोड़ दूँ...?



तूफानों की शुरुआत तो शायद उस नन्हीं जान के इस दुनिया में आने के पहलेही हो चुकी थी..अब तक तो वह अपनी माँ की बाहोँ में..अपने दादा दादी की छत्र में महफूज़ थी...उसे इन तूफानों का मतलब तो समझ नही आता था..थपेडे चाहे लगते हों...



कोई, किसी दूसरे को, चाहे वो अपनी औलाद ही क्यों न हो, कितना महफूज़ रख सकता है...और कबतक? ये सवाल मेरे मनमे जब जब उभरेगा, शायद पाठकों के मन में भी उभरेगा...



तमन्ना की, ..जैसे कि, उसके दादा-दादी, माँ पिता कभी बुलाया करते, उसी गाँव में, पढाई शुरू कर दी गयी..एक मास्टर जी गाँव से घर आते और उसे प्रादेशिक भाषा में पढाते......तीन साल के बाद ये पढाई शुरू हुई..जब पूजा-तमन्ना, अपने माँ पिता के साथ निज़ामाबाद से लौट आयी...



उसे तो वो रटना रटाना क़तई नही भाता..लेकिन और कोई तरीक़ा तो नही था...फिर जब वो छ: सालकी हुई तो पास के एक छोटे-से शहर की पाठशाला में उसका दाखिला कराया गया..अन्य बच्चे जैसे, पाठशाला के पहले कुछ दिन रोते हैं, येभी खूब रोई...उसके दादा या पिता, स्कूल के बाद उसे लेने आते..गर देर हो जाती,तो इसका दिल बैठ ही जाता..उसके गुरूजी बड़े ही अच्छे थे..बेचारे उसको खूब मानते रहते..



अबतक एक और बच्ची परिवार में आ गयी थी..उसकी छोटी बहन...वह भी दादा दादी की बेहद लाडली थी..पर पूजा की बात ही उन दिनों अलग थी..उस परिवारकी पहली पोती...! शैतानी भी कर जाती...अपनी बहन के आगे,वो स्वयं को खूब बड़ा समझती....!



जब वह चौथे वर्ग में आ गयी,तो वहाँ उसके गुरूजी बड़े ही बदमिज़ाज निकले...उन्हें बच्चों को जाती परसे पुकारने की आदत थी...इतनी छोटी थी पूजा..लेकिन उसको उन दिनों भी ये बात बड़ी ही अखरती...



एक दिन गुरूजी ने एकेक बच्चे को खड़ा करके बताना शुरू किया," हाँ..तो तुम कल दोपहर में सड़क पे क्या कर रहे थे? मैंने देखा तुम्हें!"

वो बच्चा,अपनी गर्दन लटकाए खड़ा रहा..किसी बच्चे ने ये नही कहा कि, मै तो वहाँ था ही नही या थी ही नही...पूजा को भी खड़ा किया गया..और गुरूजी बोले," हाँ..तो तुम्हें मैंने तुम्हारे दादा के साथ दुकान में जाते देखा..तुम क्यों उनको परेशान कर रही थी? अपने बड़ों ऐसे परेशान करते हैं?"

सारा वर्ग ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा..अन्य बच्चों को डांट मिल रही देख,अक्सर बच्चे मज़ा लेते हैं...! पूजा को बेहद अपमानित महसूस हुआ...!



वह हैरान भी हो गयी....! उसने कहा,

"लेकिन कल तो मै पूरा दिन घर पे थी.....कल तो इतवार था...! मै तो कहीँ नही गयी..और दुकान में तो मुझे दादा ले जाते हैं..मै नही कहती ले जाने को...!"



बस..इतना कहना था,कि, गुरूजी उसपे बरस पड़े," मै झूठ बोल रहा हूँ? तू सही बोल रही है? ये मजाल तेरी....? तुझे घर पे ऐसा सिखाया है? कि गुरूजी का अपमान करे..?चल,निकल वर्ग के बाहर...जा खड़ी हो जा, उस खंभे के पास..धूप में.."



अप्रैल माह की चिलचिलाती धूप थी..और पूजा, अपने आँसू चुपचाप बहाते हुए, धूप में जाके खड़ी हो गयी...उसे दोपहर का खाना खाने की इजाज़त भी नही मिली...उसे अपने तीसरे वर्ग के गुरूजी बड़े याद आए...वो कितना प्यार से समझाया करते थे..जब वो कुछ गलती कर जाती...और पूरा वर्ग उसपे हँस पड़ता,तो गुरूजी पूरे वर्ग को डांट के चुप करते..वैसे भी, पूजा सुंदर थी, नाज़ुक थी..और कई लड़कियाँ उसपे जलती भी थीं..



बच्ची ने घर जाके यह बात अपने दादा को बताई..दादा तो सत्य के पुजारी थे..उन्हों ने तुंरत इस घटना का ब्योरा मुख्याध्यापक को दे दिया...उसके बात तो गुरूजी ने उसपे और अधिक खुन्नस पकड़ ली...उसके दिमाग़ से बरसों ये बात निकल नही पायी,कि, आख़िर वो गुरूजी उससे झूठ क्यों बुलवाना चाहते थे?





क्रमश:

सोमवार, 5 अगस्त 2013

Bikhare sitare:4और समय बीत रहा था

नन्हीं पूजा को आंध्र के, निज़ामाबाद शहर ले जाया गया...उसे क्या ख़बर थी,कि, वो अपने दादा-दादी से दूर चली जा रही है? जब निज़ामाबाद पहुँचे,तो उसने कुछ देर बाद अपने घर वापस लौटने के बारेमे पूछना शुरू किया...ट्रेन में तो सोयी रही थी..फिर उसे लगा,अब चंद लोगों से मिल भी लिए..अब वहीँ रुक जानेका क्या मतलब? लेकिन, उसे समझाया गया,कि, कुछ रोज़ यहीँ रुकना होगा...



जिस परिवार के साथ वो लोग रुके थे,उनका एक out house था..इन तीनों का इन्तेजाम वहीँ किया गया था..पूजा के पिता तो दिन में फलों के बगीचों में निकल पड़ते..लेकिन ,अपनी माँ पे क्या बीतती रहती ये नन्हीं पूजा आजतलक नही भूली..वो तो तब केवल ढाई सालकी थी...



वो देखती रहती,कि, उसकी माँ जब कभी उस घरकी रसोई में जाती, उस घरकी गृहिणी उनके साथ बेहद बुरा बर्ताव करती..गर माँ पूजा के लिए दूध बनाना चाहती,तो वो औरत चीनी हटा देती....वह ऐसा क्यों करती,यह एक रहस्य ही बना रहा...



एक दिन की बात ,उसके दिलपे ऐसा नक्श बना गयी,कि, वो बेहाल हो गयी..आदम क़द आईने में देखी अपनी ही शक्ल उसे ताउम्र याद रह गयी...माँ के आँसू देख उदास,घबराया हुआ उसका अपना चेहरा,उसकी अपनी निगाहोंसे कभी नही हटा..



उस घरकी गृहिणी ने उसकी माँ के हाथ से बच्ची का खाना छीन लिया था...और माँ को रसोई से बाहर निकल जाना पड़ा..अपनी माँ के आँखों में भरे आँसू देख,बौखलाई बच्ची उसके पीछे,पीछे चली गयी..कमरेमे प्रवेश करते ही उसे अपनी माँ और अपनी ख़ुद की सूरत, आईने में दिखी..बच्ची का निहायत डरा-सा संजीदा चेहरा ...उसे उस 'चाची पे आया घुस्सा..असहायता ..सब कुछ एक चित्र की भाँती अंकित हो गया..माँ कमरेमे जाके,नीचे बिछे गद्दे पे बैठ गयी,और आखोँ से झर झर आँसू झरने लगे..पूजा उनकी गोद में जा बैठी...उसे अपने होंठ काँपते -से महसूस हुए...कुछ देर रुक वो बोली," हम दादा दादी के पास क्यों नही जाते...हम यहाँ क्यों रह रहे हैं? "

ये कहते हुए,उन छोटी,छोटी उँगलियों ने माँ के आँसू पोंछे...

फिर बोली," क्यों कि मै हेमंत के साथ खेलती हूँ,इसलिए हम यहाँ से नही जाते ? तो मै उसके साथ नही खेलूँगी...मुझे यहाँ नही रहना है..."



हेमंत उस परिवार का बच्चा था, पूजा से कुछ साल भर बड़ा..



वो महिला बेहद विक्षिप्त थी..पूजा की माँ, मासूमा , से बहद जलन थी उसे...मासूमा सुंदर थी..सलीक़ेमन्द थी...और उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी पढी लिखी भी...खाने के मेज़ पे वो महिला , सामने नही आती..तो मासूमा खाना खा सकती..क्योंकि घरके बड़े,पूजाके पिता,तथा मासूमा, एक साथ खाना खाने बैठते...लेकिन,दिन में जैसे ही घर के पुरूष चले जाते, उस महिला का बर्ताव ऐसा हो जाता मानो, मासूमा उसकी कोई दुश्मन हो..सौतन हो...बेचारी पूजा को बात समझ में नही आती,कि, आख़िर उसकी माँ के साथ ये चाची ऐसी हरकत क्यों करती हैं...?



पूजा को आज भी याद है,उसका तीसरा जनम दिन...जिस समय उसकी दादी ने उसके लिए एक निहायत खूबसूरत frock सीके भेजा..काश उस frock का चित्र उपलब्ध होता...!

इन सब बातों के चलते, पूजा ,अपने माँ और पिता के साथ, निज़ामाबाद में कुल छ: माह गुज़ार लौट आयी...अपने दादा दादी को इतना खुश देखा उसने...समझ नही पायी,कि, उन्हें छोड़ उसे जाना  ही क्यों पड़ा?



लेकिन, ये भी सच धीरे,धीरे उसके आगे उजागर होने लगा कि, उसकी माँ, इस घर में भी ख़ुश नही थी...आँसू तो उसे यहाँ भी बहाने पड़ते ..मासूम पूजा , अपनी उम्र से अधिक संजीदा होती चली गयी...एक ओर भोला, मासूम बचपन...दूसरी ओर अपनी माँ का कई बार दर्द की परछाइयों से धूमिल होता चेहरा...



और समय बीतता गया..उसके पढ़ने लिखने के दिन भी आ गए..उसे तीसरी क्लास तक तो घर में ही पढाया लिखाया गया..उसके बाद गाँव से कुछ दूर,एक पाठशाला में दाखिल कराया गया...कैसे गुज़रे उसके वो दिन? दादा दादी का प्यार तो बरक़रार था ही...पर उसके अलावा भी बचपन की, कुछ मधुर , कुछ डरावनी यादें, उसके जीवन में शामिल होती रहीँ.....





क्रमश:

और समय बीत रहा था.

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

बिखरे सितारे : वो दिनभी क्या दिन थे!

धीरे, धीरे चलती बैलगाडी, तकरीबन एक घंटा लगाके घर पहुँची...दादी उतरी...बहू की गोद से बच्ची को बाहों में भर लिया...दादा भी लपक के ताँगे से उतरे...दोनों ताँगों को हिदायत थी कि,एक आगे चलेगा,एक बैलगाडी के पीछे...आगे नही दौड़ना..! तांगे वालों को उनकी भेंट मिल गयी...दोनों खुशी,खुशी, लौट गए...

बच्ची को दादी ने तैयार रखी प्राम में रखा...और दादा ने अपने पुरातन कैमरा से उसकी दो तस्वीरें खींच लीं...उसने हलकी-सी चुलबुलाहट की,तो दादी ने तुंरत रोक लगा दी..वो भूखी होगी...बाहर ठंड है...उसे अन्दर ले चलो...अच्छे -से लपेट के रखो...

बहू बच्ची को दूध पिला चुकी,तो दादी,अपनी बहू के पास आ बैठीं...बोलीं," तुम अब आराम करो..जब तक ये सोती है,तुम भी सो जाना..और इसे जब भूख लगे,तब दूध पिला देना..जानती हो, बाबाजानी तो ( उनके ससुर ) घड़ी देख के मेरे बच्चे को मेरे हवाले करते..अंग्रेज़ी नियम...बच्चे को बस आधा घंटा माँ ने अपने पास रखना होता..बाद में उसे अलग कमरे में ले जाया जाता..और चाहे कितना ही रोये,तीन घंटों से पहले मेरे पास उसे दिया नही जाता...अंतमे मेरा दूध सूख गया..जब ससुराल से यहाँ लौटी तो हमने एक माँ तलाशी, जिसे छोटा बच्चा था...हमारे पास लाके रखा..उसकी सेहत का खूब ख़याल रखते...वो अपने और मेरे,दोनों बच्चों को दूध पिला देती...तुम अपना जितना समय इस बच्ची को देना चाहो देना.."

और इस तरह,उस नन्हीं जान के इर्द गिर्द जीवन घूमने लगा..दादा-दादी उसे सुबह शाम प्राम में रख, घुमाने ले जाया करते...उन्हें हर रोज़ वो नयी हरकतों से रिझाया करती...कभी वो चम्पई कली लगती तो, तो कभी चंचल-सी तितली...! उसके साथ कब सुबह होती और कब शाम,ये उस जोड़े को पता ही नही चलता...

गर उसे छींक भी आती तो दादा सबसे अधिक फिक्रमंद हो जाते...एक पुरानी झूलती कुर्सी थी...दादी उसे उस कुर्सी पे लेके झुलाती रहती...और पता नही कैसे, लेकिन उस बच्ची को एक अजीब आदत पड़ गयी...झूलती कुर्सी पे लेते ही उसपे छाता खोलना होता ...तभी वो सोती...! उस परिवार में अब वो कुर्सी तो नही रही, लेकिन वो वाला..दादी वाला, छाता आज तलक है...

दिन माह बीतते गए...और साथ,साथ साल भी...

बच्ची जब तीन साल की भी नही हुई थी, तो उसके पिता को आंध्र प्रदेश में कृषी संशोधन के काम के लिए बुलाया गया..वहाँ दो साल गुज़ारने के ख़याल से युवा जोड़ा अपनी बच्ची के साथ चला गया...दादा-दादी का तो दिल बैठ गया...

बच्ची का तीसरा साल गिरह तो वहीँ मना..दादी ने एक सुंदर-सा frock सिलके पार्सल द्वारा उसे भेज दिया..उस frock को उस बच्ची ने बरसों तक सँभाले रखा...उसके बाद तो कई कपड़े उसके लिए उसकी माँ और दादी ने सिये..लेकिन उस एक frock की बात ही कुछ और थी...

इस घटना के बरसों बाद, दादी ने एक एक बड़ी ही र्हिदय स्पर्शी याद सुनाई," जब ये तीनो गए हुए थे,तो एक शाम मै और उसके दादा अपने बरामदे में बैठे हुए थे...एकदम उदास...कहीँ मन नही लगता था..ऐसे में दादा बोले...'अबके जब ये लौटेंगे तो मै बच्ची को मैले पैर लेके चद्दर पे चढ़ने के लिए कभी नही रोकूँगा...ऐसी साफ़ सुथरी चादरें लेके क्या करूँ? उसके मिट्टी से सने पैरों के निशाँ वाली एक चद्दर ही हम रख लेते तो कितना अच्छा होता....' और ये बात कहते,कहते उनकी आँखें भर, भर आती रहीँ..."

जानते हैं, वो बच्ची इतनी छोटी थी,लेकिन उसे आजतलक उन दिनों की चंद बातें याद हैं...! कि उसकी माँ के साथ आंध्र में क्या,क्या गुजरा...वो लोग समय के पूर्व क्यों लौट आए...और उसके दादा दादी उसे वापस अपने पास पाके कितने खुश हो गए...! वो दिन लौटाए नही लौटेंगे..लेकिन उन यादों की खुशबू उस लडकी के साँसों में बसी रही...बसा रहा उसके दादा दादी का प्यार...

क्रमश:

इस के बाद ये मालिका अधिक तेज़ी पकड़ लेगी...तस्वीरें scan नही हो पा रही हैं..इसलिए क्षमा चाहती हूँ..जैसे ही scanner ठीक होगा, वो पोस्ट कर दूँगी..हासिल हो गयी हैं,इतना बताते चलती हूँ..




जीवन ,पूजा,हिंदी,संस्मरण