शनिवार, 27 अगस्त 2011

हद है खुदगर्जी की!!

   हफ्ता दस दिन मेरे पास रह के माँ पिताजी आज गाँव वापस लौट गए. माँ कैंसर की मरीज़ हैं. उनका चेक अप करवाना था. 

    Mai चाह रही थी की आये ही हैं तो कुछ रोज़ और रुक जाते. ख़ास कर जब माँ ने ये कह दिया,"बेटा ! समझ लो इसके बाद हम ना आ पाएंगे! सफ़र ने बहुत थका दिया!"      
 लेकिन पिताजी जिद पे अड़े रहे की नियत दिन लौटना ही लौटना है. कहते हुए दुःख होता है और शर्म भी आती है की वो हमेशा से बेहद खुदगर्ज़ किस्म के इंसान रहे. खुद की छोड़ किसी और की इच्छाओं या ज़रूरतों से उन्हें कभी कोई सरोकार रहा ही नहीं. माँ की तो हर छोटी बड़ी इच्छा को उन्हों ने हमेशा दरकिनार ही किया. माँ हैं की उनपे वारे न्यारे जाती रहती हैं! कैंसर की इतनी बड़ी सर्जरी के बाद जब उन्हें होश आया तो पहली बात मूह से निकली, "इन्हों ने ठीक से खाना खाया था? इनको दवाईयां दी गयीं थीं?" 
पिताजी किसी तरह से अपाहिज नहीं हैं! अपनी दवाई खुद ले सकते हैं! लेकिन आदत जो हो गयी थी की हरेक चीज़ सामने परोसी जाए! एक ग्लास पानी भी कभी अपने हाथों से लिया हो, मुझे याद नहीं! बहुत बार माँ पे गुस्सा भी आ जाता है की, इतना परावलम्बी क्यों बना दिया पिताजी को?
        माँ पिताजी गाँवसे अपनी कार से आये थे. सर्जरी के बाद माँ को मिलने के लिए लोग लगातार आते रहते. ऐसे में ज़रूरी था की, आने जाने वालों के साथ कोई बोले बैठे. मेरा अधिकतर समय रसोई में लग जाता. पिताजी ये ज़िम्मेदारी निभा सकते थे . उन्हें बातें करना बहुत भाता है! यहाँ फर्क इतना था, की, बातचीत का केंद्र वो नहीं,उनकी पत्नी थी! ये बात उनके बस की नहीं थी! वो केवल अपने बारे में बातें कर सकते हैं! सर्जरी के तीसरे दिन उन्हों ने गाडी ड्राईवर लिया और गाँव लौट गए! अपनी पत्नी के सेहत की ऐसी के तैसी! सोचती हूँ, कोई व्यक्ती इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है?


बुधवार, 3 अगस्त 2011

कौन सही है ,कौन गलत ?

कई बार सोचती हूँ...मैंने क्या लिखना चाहिए? क्या लिखना चाहती हूँ? मैंने सामाजिक दायित्व निभाना है? या बिखरते परिवारों के बारेमे लिखना है?अंदरसे कोई आवाज़ नहीं आती....एक खालीपन का एहसास मात्र रह जाता है.

बरसों बीत गए इस बात को. mai    अपने नैहर गयी थी. शाम को बगीचे में टेबल लगाके mai ,दादी अम्म्मा और दादा बैठे हुए गप लगा रहे थे. अचानक दादा को नमाज़ के समय का ख्याल आया. वो दादी अम्मासे  बोले," चलो,नमाज़ का वक़्त हो गया है."
दादी अम्मा बोलीं," अरे यही बच्चे तो मेरी नमाज़ हैं....यही तो मेरी दुनिया हैं....आप जाईये,पढ़िए....mai इसी के साथ बातें करती बैठुंगी. इसने कहाँ बार बार आना है!"
दादी अम्मा का ये जवाब मुझे बेहद पसंद आ गया और ज़ेहन में  बैठ  गया.
और बरस बीते. मेरी बेटी विद्यालय  के आखरी साल में पढ़ रही थी. mai उसके लिए जलपान ले गयी और उसके सरपे हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से कहा," तुम्ही बच्चे तो मेरी दुनिया  हो!"
बिटिया ने झट से अपने सरपर से मेरा हाथ हटाया और कहा," माँ! तुम अपनी दुनिया  अलग बनाओ. हमारी दुनिया से अलग.....हमें अलग से जीने दो!"
मुझे लगा जैसे किसी ने एक तमाचा जड़ दिया हो. mai अपनी पलकों पे आंसूं तोलते हुए अपने कमरे में चली गयी और जी भर के रो ली. गलत कौन था....मेरी समझ में नहीं आया...माँ या बेटी? या दोनों अपनी,अपनी जगह पे  सही थे?मुझे भीतर तक कुछ कचोट गया था...
मेरे छंद तो बहुत से थे. लेकिन जीवनका अधिकतर समय घरकी देखभाल,रसोई,खानपान,सफाई,फूल पौधे,बागवानी, कमरों में फूल सजाना,बच्चों की पढ़ाई,पति  के अति व्यस्त जीवन के साथ मेलजोल....इसी में व्यतीत होता रहा...अचानक से इन सभी से भिन्न mai अपनी अलग एक दुनिया कैसे बना लेती?
कौन  सही  है ,कौन  गलत ?है किसी के पास जवाब?