मंगलवार, 31 जुलाई 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना...! २


और एक दिन बाप गुज़र जानेकी खबर आयी। उन दिनों वो गर्भवती भी थी। मायके जाकर अपनी माँ को अपने एक कमरे के घर मे ले आयी। पति  को बैंक की ओरसे घर बनवानेके अथवा खरीदनेके लिए क़र्ज़ मिलने वाला था। दोनोने मिलकर घर ढूढ़ ना शुरू किया। शहर के ज़रा सस्ते इलाकेमे मे दो कमरे और छोटी-सी रसोई वाला,बैठा घर उन्हें मिल गया। आगे पीछे थोडी-सी जगह थी। दोनो बेहद खुश हुए। कमसे कम अब अपना बच्चा पत्रे के छत वाले, मिट्टी की दीवारोंवालें , घुटन भरे कमरेमे जन्म नही लेगा!
वो और उसकी माँ , दोनोही बेहद समझदारीसे घरखर्च चलाती । कर्जा चुकाना था। माँ नेभी अडोस पड़ोस के कपडे रफू कर देना,उधडा हुआ सी देना, बटन टांक देना, मसाले बना देना तो कभी मिठाई बना देना, इस तरह छोटे मोटे काम शुरू कर दिए। वो बेटीपर कतई बोझ नही बनना चाहती थी और उनका समयभी कट जाता था।
एक दिन आशाने कुतुहल वश उनसे पूछा,"माँ, मैं तेरी कोख से सिर्फ एकही ऑलाद कैसे हूँ? जबकी आसपास तुझ जैसों को ढेरों बच्चे देखती हूँ?"
माँ धीरेसे बोली,"सच बताऊँ ? मैंने चुपचाप जाके ऑपेरशन  करवा लिया था। किसीको कानोकान खबर नही होने दी थी। तेरा बाप और तेरी दादी"बेटा चाहिए "का शोर मचाके मेरी खूब पिटाई लगाते थे। मेहनत मैं करुँ,शराब तेरा बाप पिए, ज़्यादा बच्चों का पेट कौन भरता?बहुत  पिटाई खाई मैंने,लेकिन तुझे देख के जी गयी। तेरी दादी कहती,तेरे बाप की दूसरी शादी करा देंगी , लेकिन उस शराबी को फिर किसीने अपनी बेटी नही दी। "

क्रमश:

हिंदी,कहानी,शादी,बेटी। 

सोमवार, 30 जुलाई 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.....1(Kahani)


शीघ्र सवेरे कुछ साढ़े चार बजे,आशाकी आँखे इस तरह खुल जाती मानो किसीने अलार्म लगाके उसे जगाया हो। झट-से आँखों पे पानी छिड़क वो छत पे दौड़ती और सूर्योदय होनेका इंतज़ार करते हुए प्राणायाम भी करती। फिर नीचे अपनी छोटी-सी बगियामे आती। कोनेमेकी हिना ,बाज़ू मे जास्वंदी,चांदनी,मोतियाकी क्यारी, गेट के कमानपे चढी जूहीकी बेलें,उन्हीमे लिपटी हुई मधुमालती। हरीभरी बगिया। लोग पूछते, क्या डालती हो इन पौधों मे ? हमारे तो इतने अच्छे नही होते? प्यार! वो मुस्कुराके कहती।

हौले,हौले चिडियांचूँ,चूँ करने लगती।पेडों परके पत्तों की शबनम कोमल किरनोमे चमकने लगती! पँछी इस टहनी परसे उस टहनी पर फुदकने लगते। बगियाकी बाड्मे एक बुलबुलने छोटा -सा घोंसला बनाके अंडे दिए थे। वो रोज़ दूरहीसे झाँक कर उसमे देखती। खुदही क्यारियोंमेकी घाँस फूँस निकालती। फिर झट अन्दर भागती। अपनेको और कितने काम निपटाने हैं,इसका उसे होश आता।

नहा धोकर बच्चों तथा पतीके लिए चाय नाश्ता बनाती। पती बैंक मे नौकरी करता था। वो स्वयम शिक्षिका। बच्चे डॉक्टरी की पढाई मे लगे हुए। कैसे दिन निकल शादी होकर आयी थी तब वो केवल बारहवी पास थी बाप शराबी था। माँ ने कैसे मेहनत कर के उसे पाला पोसा था। तब पती गराज मे नौकरी करता था।

शादी के बाद झोपड़ पट्टी मे रहने आयी। पड़ोस की भाभी ने एक हिन्दी माध्यम के स्कूलमे झाडू आदि करने वाली बाई की नौकरी दिलवा थी । बादमे उसी स्कूलकी मुख्याध्यापिकाके घर वो कपडे तथा बर्तन का काम भी कर ने लगी। पढ़ने का उसे शौक था। उसे उन्हों ने बाहर से बी ए करने की सलाह दी। वो अपने पतीके भी पीछे लग गयी। खाली समयमे पढ़ लो,पदवीधर बन जाओ,बाद मे बैंक की परीक्षाएँ देना,फायदेमे रहोगे।
धीरे,धीरे बात उसकी भी समझ मे आयी। कितनी मेहनत की थी दोनो ने! पढाई होकर,ठीक-से नौकरी लगनेतक बच्चों को जन्म न देनेका निर्णय लिया था दोनोने। पती को बैंक मे नौकरी लगी तब वो कितनी खुश हुई थी !

क्रमश:

मेरा कथासंग्रह,"नीले पीले फूल" इस किताब से ये कहानी ली है।


रविवार, 15 जुलाई 2012

कहानी किस किसकी?

पता नहीं मैंने कौनसा बटन दबा दिया कि , इसके पहले की पोस्ट गायब हो गयी! खैर।..

आज मैंने आमिर खान का 'सत्यमेव जयते' ये व्रुद्धों की समस्यायों पे आधारित कार्यक्रम देखा... बड़े दिनों से एक परिवार के बारे में लिखना चाह रही थी पर  उसे लिखने की चाहत खो चुकी थी।...वो चाहत फिर से जागृत हो गयी।

बात मेरे नैहर के एक परिवार की है...महाराष्ट्रियन परिवार...मेरी पाठशाला उस परिवार के पास में थी....दोपहरक का भोजन खाने,मई अपना टिफिन लेके उनके घर जाती थी ....उस परिवार की मुखिया एक 50 वर्षीय बेवा महिला थी...मुझे अचार आदि परोस देतीं....उन्हें मै  'आजी' मतलब दादी कहके बुलाती... मेरी दादी के साथ उनकी अच्छी खासी पटती थी। दादी उन्हें काफी सारे हाथ के हुनर सिखाये। वो महिला उन  हुनर के सहारे थोड़ा बहुत कमा भी लेती थीं।

उनके चार बेटे थे।उनके पति फ़ौज में डॉक्टर थे।सबसे छोटा बेटा जब 2 साल का था,तब उनका देहांत हो गया।इस 4 जमात पास महिला ने अपने बच्चों को बड़ा किया....पढाया लिखाया...उनका घर एक दो मंज़िले इमारत  में था। पहले माले पे...पैखाना नीचे उतर के था.... पूरी इमारत के लिए केवल एक ....!

समय आगे बढ़ता गया...बेटे बड़े होते गए।...पढ़े लिखे.... दो बेटे आयुर्वेदिक डॉक्टर बने....एक बेटे ने अपने पिता  की practice संभाली।( वो  की जगह को इस महिलाने छोड़ा नहीं था). उसका ब्याह उस महिला ने अपने भाई के बेटी के साथ कर दिया..उसे भी दो बेटे हुए ..... मै  अन्य  बेटों के परिवार की बारीकियों में नहीं जाउंगी ,क्योंकि इसी बेटे की पत्नी के बारेमे लिखना चाहती हूँ ...उस वृद्धा के अलावा ...

मेरी दादी अपनी सहेली को हमेशा कहती रहती की,अपनी जायदाद,अपने जीते जी किसी के नाम नहीं करना ....लेकिन उसने ये सलाह नहीं मानी .....बँटवारा कर दिया .....और नतीजा ये की,अंत में चारों ने किनारा कर लिया! वो बेचारी कभी किसी बेटे के घर तो कभी किसी के घर रहतीं ....सभी की गृहस्थी में अपना हाथ बंटाती ....खाना बनाती,सफाई करतीं...बचे हुए समय कढ़ाई बुनाई करतीं ... कुछ साल तो ये सिलसिला थी रहा।लेकिन धीरे,धीरे समय बदलता गया ..बेटों को बूढ़ीमाँ अखरने  लगी।...उनका मिज़ाज भी ज़रा तेज़ था ..पर वो बहू बेटों का ख़याल भी बहुत करतीं .....अपने पोते  पोतियों की देखभाल कर लेतीं..

और एक दिन वो भी आया जब सबसे छोटे बेटे ने उन्हें घरसे धक्का मार निकाल दिया! वो धाम से जा गिरी .....हड्डियाँ टूट गयीं।...अस्पताल में दाखिल कराया गया.....मेरा तो तबतक ब्याह हो चुका था। बाद में उन्हें उस बेटे के घर लाया गया जिसकी पत्नी उनके अपने सगे भाई की बेटी थी।

अब ये वृद्ध अधिकतर बीमार रहने लगीं।...एक बार मई उन्हें मिलने गयी तो बेचारी बिस्तर में पड़े,पड़े बहुत रोने लगीं।...बोलीं," देख मेरा क्या हाल हो गया है! ईश्वर  मुझे उठा क्यों नहीं लेता? मेरा कौनसा इम्तेहान ले रहा है? मै  सीढियाँ  उतरके पैखाने में भी नहीं जा सकती.... "
मै  क्या कहती?उन्हें अपने साथ भी नहीं ले जा सकती ....हम लोग खुद ही बंजारों की-सी ज़िंदगी जी रहे थे ....ना घर का पता रहता न दरका...उनकी देख भाल कैसे करती....? और एक दिन ख़बर  मिली की वो चल बसीं .....उन्हें दर्द से मुक्ती तो मिली पर कई अनसुलझे  सवालात हम सभी के मन में घिर गए।

समय बीतता रहा ....जिस पुत्र ने  अपने पिता  का दवाखाना सँभाला  था ....जिसकी पत्नी उसकी खुद की मुमेरी बहन थी .... उसके बेटों का भी ब्याह हो गया ... बड़े वाला पुणे  में नौकरी करने लगा और छोटे वाला ,जिसने homeopathy पढी( पर सुना  है वो भी पूरी नहीं),अपने पिता  के साथ काम करने लगा ....पिता  की शोहरत बहुत थी ....उसे अपने पिता की शोहरत का लाभ हुआ और इस बेटे को उस के पिता की शोहरत का!

मेक बार मई अपने मायके गयी हुई थी और अचानक खबर सूनी की,उसके पिता  का,जो हमारे परिवार के भी डॉक्टर रहे थे,अचानक निधन हो गया! हम सभी को बहुत दुःख हुआ....उनकी बहू भी homeopath थी।....उन्ही के दवाखाने में अपनी practice करती थी।...मै  एक दो बार जब उससे मुखातिब हुई थी,तो मुझे वो बेहद सडियल लगी थी....

फिर सुननेमे आया ....अपनी आँखों से देखा भी,की इस बहू ने और बेटे ने अपनी माँ के साथ बहुत बुरा सुलूक शुरू किया.. हम लोग भाई बहन उन्हें भाभी कह के बुलाया करते....अब दरबदर भटकने की भाभी की बारी आ गयी! समय ने एक पूरा चक्र घुमा लिया था! मेरी दादी हमेशा कहा करतीं," रानी के साथ भी वही होगा,जो उसने उसकी सास के साथ किया।..देखते रहना!"

कितना सत्य था दादी के वचन में ....लेकिन भाभी ने तो अपने बच्चों के साथ ना अपनी बहुओं के साथ कभी ऊंची आवाज़ में बात नहीं की थी।...उनके साथ ऐसा क्यों? हमारे मन में सवाल ज़रूर था....जवाब ये की उनके अपने पति  ने अपने मृत्यु पत्र  में उनके लिए कोई सुविधा नहीं की थी! जबकि बेटे को एक घर बनवा दिया था ....उनका लड़का उस घर में रहने भी नहीं गया,क्योंकि दवाखाना इस घर के नीचे था।भाभी के नाम कोई जमा पूँजी  नहीं थी ....उनके पति को ये विश्वास था कि ,दो दो कमाऊ बेटे हैं,पोते पोती हैं,जिनकी देखभाल उनकी दादी करती है तो उसे कमी किस बात की होगी?वो ये बात भूल गए कि ,स्वयं उनकी माँ के साथ क्या हुआ था ....!

मेरे बेटे के ब्याह में भाभी आनेवालीं थीं। हमने बहुत राह देखी लेकिन वो नहीं आयीं ....उनके पास तो मोबाईल फोन भी नहीं था,की,हम पता कर पाते  ! सुना  था कि  लैंड लाइन  पे उन्हें बात ही नहीं करने दी जाती है....जब बेटा बहू नीचे अपने दवाखाने  में जाते तो फोन को ताला  लगा के जाते!

कुछ दिनों बाद पता चला ,भाभी मेरे बेटे के ब्याह के लिए जिस दिन हमारे शहर से निकलने वालीं थीं, उन्हें उनकी ईमारत के सामने,किसी स्कूटर वाले ने दे गिराया  .....उनकी कई हड्डियाँ  टूट गयीं .....आनन् फानन में उन्हें पुणे लाया गया और अस्पताल में दाखिल करने से पूर्व उनकी फीस वो खुद देंगी .. किसी बेटे की ज़िम्मेदारी नहीं रहेगी, ये बात भी तय कर ली गयी ! सुनके मेरा दिल दहल गया! बाद में उन्हें उनके बड़े बेटे ने, जो पुणे में कार्यरत था, वापस उन्हें उसी शहर भेज दिया जहाँ पैखाने जाने के लिए उन्हें सीढ़ियाँ  उतरनी पडतीं! इस 'सुपुत्र' को भी उसके पिता ने घर ले दिया था! दोनों बेटों के पास अपने माँ बाप की बदौलत अपने अपने घर थे लेकिन माँ के लिए जगह नहीं थी! जगह उनके मन में नहीं थी ....या है!भाभी ने बाद में अपना सारा ज़ेवर ,जो उन्हें अपने पिता से मिला था,बेच दिया ....इस बात पे भी उन के बेटों ने बहुत नाराज़गी  व्यक्त की ! भाभी ने कहा," आख़िर  मै  अपनी दावा दारु के .....अपनी देखभाल के पैसे कहाँ से लाती? मै  तो अब ठीक से चल भी नही  पाती !"

भाभी आज भी अपने दो बेटों के बीछ बाँट के रहती हैं ....बेचारी इतना सब कष्ट उठा के भी ज़िंदगी से कभी कोई शिकायत नहीं करतीं ....कहती हैं, "मेरे नसीब में यही लिखा हुआ था ...किसी से क्या शिकायत करूँ? उनका बैंक का सारा काम मेरे भाई का बेटा देखता है ....उन्हें बैंकिंग के बारे में कुछ पता नहीं ....उसने उनके लिए शेयर के द्वारा आमदनी हो,इस बात की सुविधा भी कर दी ...लेकिन सोचती हूँ,ऐसा कब तक चलेगा? भाभी की ज़िंदगी की क्या यही कहानी है? कोई उपाय नहीं?