नन्हीं पूजा को आंध्र के, निज़ामाबाद शहर ले जाया गया...उसे क्या ख़बर थी,कि, वो अपने दादा-दादी से दूर चली जा रही है? जब निज़ामाबाद पहुँचे,तो उसने कुछ देर बाद अपने घर वापस लौटने के बारेमे पूछना शुरू किया...ट्रेन में तो सोयी रही थी..फिर उसे लगा,अब चंद लोगों से मिल भी लिए..अब वहीँ रुक जानेका क्या मतलब? लेकिन, उसे समझाया गया,कि, कुछ रोज़ यहीँ रुकना होगा...
जिस परिवार के साथ वो लोग रुके थे,उनका एक out house था..इन तीनों का इन्तेजाम वहीँ किया गया था..पूजा के पिता तो दिन में फलों के बगीचों में निकल पड़ते..लेकिन ,अपनी माँ पे क्या बीतती रहती ये नन्हीं पूजा आजतलक नही भूली..वो तो तब केवल ढाई सालकी थी...
वो देखती रहती,कि, उसकी माँ जब कभी उस घरकी रसोई में जाती, उस घरकी गृहिणी उनके साथ बेहद बुरा बर्ताव करती..गर माँ पूजा के लिए दूध बनाना चाहती,तो वो औरत चीनी हटा देती....वह ऐसा क्यों करती,यह एक रहस्य ही बना रहा...
एक दिन की बात ,उसके दिलपे ऐसा नक्श बना गयी,कि, वो बेहाल हो गयी..आदम क़द आईने में देखी अपनी ही शक्ल उसे ताउम्र याद रह गयी...माँ के आँसू देख उदास,घबराया हुआ उसका अपना चेहरा,उसकी अपनी निगाहोंसे कभी नही हटा..
उस घरकी गृहिणी ने उसकी माँ के हाथ से बच्ची का खाना छीन लिया था...और माँ को रसोई से बाहर निकल जाना पड़ा..अपनी माँ के आँखों में भरे आँसू देख,बौखलाई बच्ची उसके पीछे,पीछे चली गयी..कमरेमे प्रवेश करते ही उसे अपनी माँ और अपनी ख़ुद की सूरत, आईने में दिखी..बच्ची का निहायत डरा-सा संजीदा चेहरा ...उसे उस 'चाची पे आया घुस्सा..असहायता ..सब कुछ एक चित्र की भाँती अंकित हो गया..माँ कमरेमे जाके,नीचे बिछे गद्दे पे बैठ गयी,और आखोँ से झर झर आँसू झरने लगे..पूजा उनकी गोद में जा बैठी...उसे अपने होंठ काँपते -से महसूस हुए...कुछ देर रुक वो बोली," हम दादा दादी के पास क्यों नही जाते...हम यहाँ क्यों रह रहे हैं? "
ये कहते हुए,उन छोटी,छोटी उँगलियों ने माँ के आँसू पोंछे...
फिर बोली," क्यों कि मै हेमंत के साथ खेलती हूँ,इसलिए हम यहाँ से नही जाते ? तो मै उसके साथ नही खेलूँगी...मुझे यहाँ नही रहना है..."
हेमंत उस परिवार का बच्चा था, पूजा से कुछ साल भर बड़ा..
वो महिला बेहद विक्षिप्त थी..पूजा की माँ, मासूमा , से बहद जलन थी उसे...मासूमा सुंदर थी..सलीक़ेमन्द थी...और उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी पढी लिखी भी...खाने के मेज़ पे वो महिला , सामने नही आती..तो मासूमा खाना खा सकती..क्योंकि घरके बड़े,पूजाके पिता,तथा मासूमा, एक साथ खाना खाने बैठते...लेकिन,दिन में जैसे ही घर के पुरूष चले जाते, उस महिला का बर्ताव ऐसा हो जाता मानो, मासूमा उसकी कोई दुश्मन हो..सौतन हो...बेचारी पूजा को बात समझ में नही आती,कि, आख़िर उसकी माँ के साथ ये चाची ऐसी हरकत क्यों करती हैं...?
पूजा को आज भी याद है,उसका तीसरा जनम दिन...जिस समय उसकी दादी ने उसके लिए एक निहायत खूबसूरत frock सीके भेजा..काश उस frock का चित्र उपलब्ध होता...!
इन सब बातों के चलते, पूजा ,अपने माँ और पिता के साथ, निज़ामाबाद में कुल छ: माह गुज़ार लौट आयी...अपने दादा दादी को इतना खुश देखा उसने...समझ नही पायी,कि, उन्हें छोड़ उसे जन ही क्यों पड़ा?
लेकिन, ये भी सच धीरे,धीरे उसके आगे उजागर होने लगा कि, उसकी माँ, इस घर में भी ख़ुश नही थी...आँसू तो उसे यहाँ भी बहाने पड़ते ..मासूम पूजा , अपनी उम्र से अधिक संजीदा होती चली गयी...एक ओर भोला, मासूम बचपन...दूसरी ओर अपनी माँ का कई बार दर्द की परछाइयों से धूमिल होता चेहरा...
और समय बीतता गया..उसके पढ़ने लिखने के दिन भी आ गए..उसे तीसरी क्लास तक तो घर में ही पढाया लिखाया गया..उसके बाद गाँव से कुछ दूर,एक पाठशाला में दाखिल कराया गया...कैसे गुज़रे उसके वो दिन? दादा दादी का प्यार तो बरक़रार था ही...पर उसके अलावा भी बचपन की, कुछ मधुर , कुछ डरावनी यादें, उसके जीवन में शामिल होती रहीँ.....
क्रमश:
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
9 टिप्पणियां:
पूजा की कहानी बढ़िया चल रही है!
अभी पहली कड़ी नहीं पढ़ पाई हूँ...पर लगता है यात्रा बहुत मन को लुभाएगी...
nice
अगली कड़ी पढनी ही होगी
एक साँस में चारो कड़ी पढ गया... मज़ा आ रहा है... कहानी में सस्पेंस का एलेमेंट बहुत बेहतर ढंग से इस्तेमाल हुआ है, जो परत दर परत कहानी के साथ साथ खुलता जाता है और नया सस्पेंस बनता जाता है. बहुत बारीकी से किया गया चरित्र चित्रण और कथानक. बँध जाता है पढ़ने वाला. चलिए अब जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ेगी जुड़ाव बढता जाएगा.
जी हाज़िर हुए और पढ़ा !
मुझे तो आप सारी एक साथ दे दीजिए.. ये सोने के अंडे १-१ कर नहीं समेटे जाते मुझसे..
बहुत बढ़िया प्रवाह चल रहा है.
बहुत अच्छी चल रही है कहानी। इन्तजार---- शुभकामनायें
एक टिप्पणी भेजें