पूजा की माँ, मासूमा भी, कैसी क़िस्मत लेके इस दुनियामे आयी थी? जब,जब उस औरत की बयानी सुनती हूँ, तो कराह उठती हूँ...
लाख ज़हमतें , हज़ार तोहमतें,
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
वो अनारकली तो नही थी,
ना वो उसका सलीम ही,
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने...
इसी इतिहास की पूजा के जीवन में पुनरावृती हुई...अभी उस तलक आने में देर है..कई मील के पत्थर पार करने हैं...रु-ब-रु होना है, एक मासूमियत से......
अपनी माँ की साडियाँ ओढे, उनकी बड़ी बड़ी चप्पलें पैरों में पहने, वो ६/७ सालकी बच्ची, 'बड़े' होने के सपने देखती रही...दिन ब दिन बचपन फिसलता गया...छोटे,छोटे घरौंदे बनाना , झूठ मूट की दावतें...मेलों में जाना...कांच की चूडियाँ...पीतल के गहने...हर रात परियों की कहानियाँ सुनते,सुनते सो जाना...बचपन की बीमारियाँ..और दादा-दादी का परेशाँ होना...दादा उसके साथ खूब खेला करते...उसे सायकल चलाना उन्हीं ने सिखाई...आगे चलके कार चलना भी,पूजा,उन्हीं के बदौलत सीखी...
फिर भी एक डर का साया मंडराता रहा...कभी माँ को लेके...कभी ख़ुद को लेके...खेतों पे खेलने मज़दूरों के बच्चे आते...और इस बच्ची पे बुरी निगाह रखते....
किसी एक दिवाली की छुट्टी में काफ़ी सारा गृह पाठ मिला था...ख़त्म तो करना ही था..पूजा बीमार हो गयी...ये चंद लड़के गाँव की स्कूल में पढ़ते थे..पूजा से बड़े थे...लड़कों ने गृहपाठ पूरा करने में मदत की...और फिर उसे अकेले में पाके, उसकी अस्मत पे हाथ डालना चाहा...पूजा को ये सब समझ में तो नही आता...और जब उसे ये बताया जाता,कि, उसके माता पिता ने ऐसा ही कुछ किया..तभी वो जन्मी,तो उसका नन्हा मन मान लेने को राज़ी नही होता..
वो ये सब बातें माँ को या दादी को पूछे या बताये भी कैसे? दूसरी ओर, ये लड़के उसे एक अपराध बोध के तले दबाते रहते...कहते," हमने तुम्हारी इतनी मदद कर दी...तुम एहसान फ़रामोश हो...इतना भी नही कर सकती?"
ईश्वर ने सदबुद्धी दी ....उसे इन सब हरकतों से घृणा भी हुई...पाठशाला से जब वो बस लेके लौटती,अक्सर तो दादा दादी उसे सड़क किनारे लेने आ जाते..लेकिन कई बार मुमकिन न होता...सुनसान रास्ते...ईख के खेत...इन सब को पार करते हुए, पूजा कई बार इन भयावह दुर्घटनाओं से बाल बाल बची...वो अपनी ओर से घर वालों कहती,कि, उसे लेने आया करें...लेकिन वजह नही बता पाती...बाल मन पे एक सदमा-सा लगता गया...
दूसरी तरफ़,वो माँ को तड़पता देखती...कितना सही है,जब कहा जाता है, बच्चों के आगे बड़ों ने संभल के बातें करनी चाहियें...उनके बेहद दूरगामी असर हो सकते हैं...! जब कि, दादा अपनी पोती के प्रती, हर तरह से इतने संवेदन शील थे...अपनी बहू को डांटते समय यही बात भूल जाते...!
समय गुज़रता रहा.....और पूजा के मनमे अपने पिता के प्रती भी,एक तिरस्कार की भावना पनपने लगी...पर वो किसे सुनाये? और क्या कहे? उसे उनका बर्ताव समझ में तो नही आता...लेकिन कहीँ तो कुछ ग़लत हो रहा है, इस बात की गवाही उसका बाल मन देता...अपनी माँ के प्रती भी ग़लत हो रहा है...पर क्या..कैसे? अपने डर को वो बरसों शब्द बद्ध नही कर पायी...लेकिन इन काले सायों ने उसे ता-उम्र डरा दिया...
इन माँ-बेटी की कहानी, हाथ में हाथ डाले आगे बढ़ती रहेगी...कभी मासूमा का बचपन तो कभी पूजा का...कभी माँ का यौवन तो कभी पूजा का लड़कपन...एक दूसरेसे इन किस्सों को जुदा करना मुमकिन नही...
क्रमश:
लाख ज़हमतें , हज़ार तोहमतें,
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
वो अनारकली तो नही थी,
ना वो उसका सलीम ही,
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने...
इसी इतिहास की पूजा के जीवन में पुनरावृती हुई...अभी उस तलक आने में देर है..कई मील के पत्थर पार करने हैं...रु-ब-रु होना है, एक मासूमियत से......
अपनी माँ की साडियाँ ओढे, उनकी बड़ी बड़ी चप्पलें पैरों में पहने, वो ६/७ सालकी बच्ची, 'बड़े' होने के सपने देखती रही...दिन ब दिन बचपन फिसलता गया...छोटे,छोटे घरौंदे बनाना , झूठ मूट की दावतें...मेलों में जाना...कांच की चूडियाँ...पीतल के गहने...हर रात परियों की कहानियाँ सुनते,सुनते सो जाना...बचपन की बीमारियाँ..और दादा-दादी का परेशाँ होना...दादा उसके साथ खूब खेला करते...उसे सायकल चलाना उन्हीं ने सिखाई...आगे चलके कार चलना भी,पूजा,उन्हीं के बदौलत सीखी...
फिर भी एक डर का साया मंडराता रहा...कभी माँ को लेके...कभी ख़ुद को लेके...खेतों पे खेलने मज़दूरों के बच्चे आते...और इस बच्ची पे बुरी निगाह रखते....
किसी एक दिवाली की छुट्टी में काफ़ी सारा गृह पाठ मिला था...ख़त्म तो करना ही था..पूजा बीमार हो गयी...ये चंद लड़के गाँव की स्कूल में पढ़ते थे..पूजा से बड़े थे...लड़कों ने गृहपाठ पूरा करने में मदत की...और फिर उसे अकेले में पाके, उसकी अस्मत पे हाथ डालना चाहा...पूजा को ये सब समझ में तो नही आता...और जब उसे ये बताया जाता,कि, उसके माता पिता ने ऐसा ही कुछ किया..तभी वो जन्मी,तो उसका नन्हा मन मान लेने को राज़ी नही होता..
वो ये सब बातें माँ को या दादी को पूछे या बताये भी कैसे? दूसरी ओर, ये लड़के उसे एक अपराध बोध के तले दबाते रहते...कहते," हमने तुम्हारी इतनी मदद कर दी...तुम एहसान फ़रामोश हो...इतना भी नही कर सकती?"
ईश्वर ने सदबुद्धी दी ....उसे इन सब हरकतों से घृणा भी हुई...पाठशाला से जब वो बस लेके लौटती,अक्सर तो दादा दादी उसे सड़क किनारे लेने आ जाते..लेकिन कई बार मुमकिन न होता...सुनसान रास्ते...ईख के खेत...इन सब को पार करते हुए, पूजा कई बार इन भयावह दुर्घटनाओं से बाल बाल बची...वो अपनी ओर से घर वालों कहती,कि, उसे लेने आया करें...लेकिन वजह नही बता पाती...बाल मन पे एक सदमा-सा लगता गया...
दूसरी तरफ़,वो माँ को तड़पता देखती...कितना सही है,जब कहा जाता है, बच्चों के आगे बड़ों ने संभल के बातें करनी चाहियें...उनके बेहद दूरगामी असर हो सकते हैं...! जब कि, दादा अपनी पोती के प्रती, हर तरह से इतने संवेदन शील थे...अपनी बहू को डांटते समय यही बात भूल जाते...!
समय गुज़रता रहा.....और पूजा के मनमे अपने पिता के प्रती भी,एक तिरस्कार की भावना पनपने लगी...पर वो किसे सुनाये? और क्या कहे? उसे उनका बर्ताव समझ में तो नही आता...लेकिन कहीँ तो कुछ ग़लत हो रहा है, इस बात की गवाही उसका बाल मन देता...अपनी माँ के प्रती भी ग़लत हो रहा है...पर क्या..कैसे? अपने डर को वो बरसों शब्द बद्ध नही कर पायी...लेकिन इन काले सायों ने उसे ता-उम्र डरा दिया...
इन माँ-बेटी की कहानी, हाथ में हाथ डाले आगे बढ़ती रहेगी...कभी मासूमा का बचपन तो कभी पूजा का...कभी माँ का यौवन तो कभी पूजा का लड़कपन...एक दूसरेसे इन किस्सों को जुदा करना मुमकिन नही...
क्रमश:
8 टिप्पणियां:
लाख ज़हमतें , हज़ार तोहमतें,
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
कहानी की मार्मिकता इन्हीं पँक्तिओं मे महसूस की जा सकती है। अगली कडी का इन्तजार।
बहुत मार्मिक लग रही है शुरुआत से ही ये कहानी...आगे जैसे दिल दर रहा है की न जाने क्या होग...लेकिन इंतज़ार रहेगा.
Hum intezaar karenge.......
bahut hi marmik prastuti....
बदकिस्मती से किशोर होती लड़कियों के लिए आम समस्या है ये ! जो बच गये वो तक़दीर वाले !
aapkr shabdon kaa jabbab nahi..bahut marmik. agli kadi kaa intejaar rahegaa.
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने...bahut khoob
PARNAAM PEHLE BOLNA THA TIPANI BAAD ME DENI THI..
SORRY MAA....
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