कई बार सोचती हूँ...मैंने क्या लिखना चाहिए? क्या लिखना चाहती हूँ? मैंने सामाजिक दायित्व निभाना है? या बिखरते परिवारों के बारेमे लिखना है?अंदरसे कोई आवाज़ नहीं आती....एक खालीपन का एहसास मात्र रह जाता है.
बरसों बीत गए इस बात को. mai अपने नैहर गयी थी. शाम को बगीचे में टेबल लगाके mai ,दादी अम्म्मा और दादा बैठे हुए गप लगा रहे थे. अचानक दादा को नमाज़ के समय का ख्याल आया. वो दादी अम्मासे बोले," चलो,नमाज़ का वक़्त हो गया है."
दादी अम्मा बोलीं," अरे यही बच्चे तो मेरी नमाज़ हैं....यही तो मेरी दुनिया हैं....आप जाईये,पढ़िए....mai इसी के साथ बातें करती बैठुंगी. इसने कहाँ बार बार आना है!"
दादी अम्मा का ये जवाब मुझे बेहद पसंद आ गया और ज़ेहन में बैठ गया.
और बरस बीते. मेरी बेटी विद्यालय के आखरी साल में पढ़ रही थी. mai उसके लिए जलपान ले गयी और उसके सरपे हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से कहा," तुम्ही बच्चे तो मेरी दुनिया हो!"
बिटिया ने झट से अपने सरपर से मेरा हाथ हटाया और कहा," माँ! तुम अपनी दुनिया अलग बनाओ. हमारी दुनिया से अलग.....हमें अलग से जीने दो!"
मुझे लगा जैसे किसी ने एक तमाचा जड़ दिया हो. mai अपनी पलकों पे आंसूं तोलते हुए अपने कमरे में चली गयी और जी भर के रो ली. गलत कौन था....मेरी समझ में नहीं आया...माँ या बेटी? या दोनों अपनी,अपनी जगह पे सही थे?मुझे भीतर तक कुछ कचोट गया था...
मेरे छंद तो बहुत से थे. लेकिन जीवनका अधिकतर समय घरकी देखभाल,रसोई,खानपान,सफाई,फूल पौधे,बागवानी, कमरों में फूल सजाना,बच्चों की पढ़ाई,पति के अति व्यस्त जीवन के साथ मेलजोल....इसी में व्यतीत होता रहा...अचानक से इन सभी से भिन्न mai अपनी अलग एक दुनिया कैसे बना लेती?
कौन सही है ,कौन गलत ?है किसी के पास जवाब?
39 टिप्पणियां:
अब सभी को अपनी-अपनी दुनिया की ही पड़ी है.
रिश्तों को उकेरती भावुक पोस्ट,आभार.
क्षमा जी नमस्कार,
बहुत अच्छा लगा आपको पढकर....
शायद.....वक़्त का बदलता आवरण.....सबकुछ बदल देता है....
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है....
गलत कौन था....मेरी समझ में नहीं आया...माँ या बेटी? या दोनों अपनी,अपनी जगह पे सही थे?मुझे भीतर तक कुछ कचोट गया था...
..kshama ji galat koi nahi sab aane aane wale parivartan ke shikar hai....aur soch me fark ka asar hai waise mujhe puraani pidhi ke vichaar jyada achche lagte hai.....
दीदी, एक मां की दुनिया तो उसके बच्चों के इर्द-गिर्द ही बसी होती है. शायद बच्चे ही अपनी अलग दुनिया बसाने के बारे में सोचने लगते हैं. बेटी की बेटी जिस दिन उसे ऐसा कठोर जवाब देगी उस दिन उसे ज़रूर अहसास होगा कि उसने मां के साथ ग़लत व्यवहार किया था.
बहुत तक़लीफ़देह है ये.
शायद सभी को अपने लिये एक नयी दुनिया बनानी ही पडती है नही तो ये दुनिया अलग थलग कर देती है।
मैं क्या कहूँ.. कभी लगता है कि आपके अंदर कितना तूफ़ान भरा है.. आपके सवालों का जवाब देना इतना सहज नहीं होता है.. एक अज़ाब है वो सब सहना और तब जवाब देना..
रमजान की शुभकामनाएं!!ये दान करने का माह है.. शायद दुखों का दान कर सकें आप, अल्लाह आपको इतनी शक्ति दे!!
क्षमा जी , आपके टूटे दिल के बिखराव को महसूस किया जा सकता है . ये भी सच है कि कोई भी इस तरह अलग दुनिया नहीं बसा सकता ...अतीत क्या कभी पीछा छोड़ता है ...और हमारे प्यारे लोग क्या कभी बदल सकते हैं ...हमारे लिए जिन्दगी के मायने ही उनसे बने हैं ....जब बेटी ने ये कहा ...तो मुझे लगता है वो कहीं आहत है ...चोट खाई हुई है ...वो तो छोटी है ..अनुभव भी नहीं है ...कहते हैं ...love is one way traffic...और हमें अपना आधार लेना चाहिए ...इस भरी दुनिया में हमें अकेले ही चलना होता है ...जिस दिन मन ये स्वीकार कर लेता है ....सुखी हो जाता है ...आपके पास तो इतने सारे शौक हैं ...मैं जानती हूँ सब कुछ बेकार लगता है जब मन शांत नहीं होता ...तो इलाज मन की शान्ति के पास है ...
यह ऐसा प्रश्न है जिससे हम सबको दो-चार होना पड़ता है। शायद यह सब बदलते वक़्त का प्रभाव है जिससे हमें ताल-मेल बैठाना सहज नहीं है।
सच्चाई को उजागर करती... दिल को कचोटने वाली मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
kathor savaal uthana bhi lekhak ki zimmendari hai...aapne nibhaayi hai...
http://teri-galatfahmi.blogspot.com/
आज कल बच्चे अपनी दुनिया में ही मस्त रहते हैं ..किसी कि भी दखलंदाजी पसंद नहीं करते ... वक्त बदल रहा है ..हमें दुनियाँ के साथ चलना है तो खुद को बदलना पड़ेगा .. सही गलत के बारे में न सोच कर वक्त के हाथों ही सौंप देना चाहिए ..
शमा जी
क्या कहा जाए .. आपके शब्दों ने भीतर बहुत कुछ कसोट लिया है .. कुछ समझ नहीं आता है , कि क्या कहा जाए .. बच्चे बहुत जल्दी ही अपनी दुनिया में चले जाते है ...
आभार
विजय
कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
very nice
ऐसी परिस्थिति से आजकल दो -चार होना ही पड़ता है .....सब अपनी अलग दुनिया में व्यस्त रहते हैं
सब अपनी अपनी जगह सही हैं । हम और हमारे बच्चे दो समानांतर रेखाओं के समान जिंदगी जी रहे हैं हमें चाहिये कि ये रेखाएं एक दूसरे को ना काटें । N.o clash of interest .
bahut gahri baate hai aur taklifdeh bhi kyonki hamare hi lagaye vriksh hame chhaya dene se jahan inkaar kar de wahan tapne ke siva koi rasta samjh nahi aata ,aaj hum wahan khade hai jahan nirwaah har haal me hame hi karna hai aaj aur kal ke saath .uchit anuchit ka prashn kahan rah gaya apne paas .sundar man ko chhoo gayi baat .
रिश्तों के बनते बिगडते समीकरण. बहुत सुंदर.
बहुत ही सुन्दर...
सबकी अलग दुनिया होती ही है.. लेकिन एक दूसरे की दुनिया से बेखबर सब अपनी दुनिया में जीने को प्रेरित करते हैं या फिर धकेलते हैं..
एक बहू से पूछिए उसकी दुनिया क्या है?
एक बेटे से पूछिये वह कहाँ जाना चाहता है..
एक पिता से पूछिए वह अपने परिवार को किस तरफ घसीटना चाह रहा है..
हर रोज नई दुनिया बनती ही रहती है..
बड़ा मुश्किल है कि दुनिया हमारे हिसाब से चले...
सच्चाई को उजागर करती... एक सार्थक लेख...
यथार्थ का सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण...
क्षमा जी, कड़वी सच्चाई है पर सच्चाई है...हर किसी को अपनी एक दुनिया बनानी ही पड़ती है...एक दूसरे के करीब रहते हुए भी अपने लिए कुछ बचाकर रखना पड़ता है...बेटी अपनी जगह सही थी पर उसका इस तरह कहना किसी को भी चोट पहुँचा सकता है, फिर उस माँ पर क्या बीती होगी जो जी रही है बच्चों के लिए ही...पर यही ज़िंदगी है..हर कदम पर एक नई सीख, हर कदम पर एक नई दुनिया...
जिनको पालने के लिए दिन रात एक किया , अगर उनसे ऐसा जबाब मिले तो विरक्ति हो जाती है . आज दुनिया ऐसी ही है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता , के लिए रिश्तों का अपमान भी करते है लोग .
बदलते वक़्त के साथ बदलते परिपेक्ष ...सुंदर आलेख ..!!
shubhkamnayen.
यही आज का सच है
बहुत सुंदर
nishbd hoo ye padhkar .
bs andar kuchh tut gya hai jise josna mushkil hai .
A very deep philosophical question. All our life is the quest to get answers....
Back to this lovely blog after ages. I will be regular from now.
मन से लिखी है पीढ़ियों के अंतर की पीड़ा
जब अटे पड़े है
बाजार
कपड़ो से
फिर भी
जार जार
महसूस होती
जिन्दगी |
कितना सच है और इस सच का दर्द शायद हर पीढी महसूस करती है । बेहद सुंदर अभिव्यक्ति ।
आपको एवं आपके परिवार को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
ise hee kahte hai generation gap......
samay aur anubhav hee soch badalne me saksham honge......
housala banae rakhe......sab theek hoga......
नमस्कार....
बहुत ही सुन्दर लेख है आपकी बधाई स्वीकार करें
मैं आपके ब्लाग का फालोवर हूँ क्या आपको नहीं लगता की आपको भी मेरे ब्लाग में आकर अपनी सदस्यता का समावेश करना चाहिए मुझे बहुत प्रसन्नता होगी जब आप मेरे ब्लाग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराएँगे तो आपकी आगमन की आशा में पलकें बिछाए........
आपका ब्लागर मित्र
नीलकमल वैष्णव "अनिश"
इस लिंक के द्वारा आप मेरे ब्लाग तक पहुँच सकते हैं धन्यवाद्
1- MITRA-MADHUR: ज्ञान की कुंजी ......
2- BINDAAS_BAATEN: रक्तदान ...... नीलकमल वैष्णव
3- http://neelkamal5545.blogspot.com
एक बेटी के मुख से ऐसा सुनकर खेद हुआ। शायद उसे अपनी गलती का एहसास हो कभी।
वक़्त और विचार बदल रहे है और हम कुछ नहीं कर पाते..बहुत संवेदनशील प्रस्तुति..
क्षमा जी
नमस्कार !
बदलते वक़्त के साथ बदलते परिपेक्ष एक सार्थक लेख...
nice post,thanks
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.
मैंने कहीं सुना था, आज आपसे भी शेयर कर रहा हूं...इस पोस्ट को पढऩे के बाद याद आया है...औलाद जब पैदा होती है तो जीवन के 10 वर्षों तक उसके मां-पिता ही भगवान होते हैं. पिता दुनिया के सबसे काबिल और ताकतवर इंसान होते हैं. वही औलाद 10 से 16 वर्ष तक अपनी टीचर या गुरू को सबसे काबिल इंसान मानने लगती है. 16 से 23 साल की उम्र में उसे लगने लगता है कि मां-पिता जो कहते हैं, वो गलत है, जो वह सोचता या सोचती है वही सही है. फिर 23 से 30 साल की उम्र में मां-पिता तकलीफ देने लगते हैं. औलाद किसी तरह उनके साथ एडजस्ट कर रही होती है या दूर होने की कोशिश करती है. फिर आती है 31 की उम्र यहां से औलाद यह कहने लगती है कि मेरे मां-पिता जो कहते हैं ठीक ही तो कहते हैं. 40 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते वही औलाद अपने मां-पिता को वापस दुनिया का सबसे काबिल या कहें भगवान का दर्जा देने लगती है, जो अंतिम समय तक स्थायी सोच रहती है. आपकी बेटी शायद 16 वर्ष के आसपास रही होगी, जब उसने ऐसा कहा. मेरी राय है कि उसकी बातों को दिल पर न लें. फिर आप तो मां हैं.
मैंने कहीं सुना था, आज आपसे भी शेयर कर रहा हूं...इस पोस्ट को पढऩे के बाद याद आया है...औलाद जब पैदा होती है तो जीवन के 10 वर्षों तक उसके मां-पिता ही भगवान होते हैं. पिता दुनिया के सबसे काबिल और ताकतवर इंसान होते हैं. वही औलाद 10 से 16 वर्ष तक अपनी टीचर या गुरू को सबसे काबिल इंसान मानने लगती है. 16 से 23 साल की उम्र में उसे लगने लगता है कि मां-पिता जो कहते हैं, वो गलत है, जो वह सोचता या सोचती है वही सही है. फिर 23 से 30 साल की उम्र में मां-पिता तकलीफ देने लगते हैं. औलाद किसी तरह उनके साथ एडजस्ट कर रही होती है या दूर होने की कोशिश करती है. फिर आती है 31 की उम्र यहां से औलाद यह कहने लगती है कि मेरे मां-पिता जो कहते हैं ठीक ही तो कहते हैं. 40 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते वही औलाद अपने मां-पिता को वापस दुनिया का सबसे काबिल या कहें भगवान का दर्जा देने लगती है, जो अंतिम समय तक स्थायी सोच रहती है. आपकी बेटी शायद 16 वर्ष के आसपास रही होगी, जब उसने ऐसा कहा. मेरी राय है कि उसकी बातों को दिल पर न लें. फिर आप तो मां हैं.
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