(गतांक :बैठे,बैठे एक दिन मैंने किसी नेट वर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाल दिया...मै जो कुछ करती,वो सब लिखा..और मेरा contact नंबर भी दिया ....सोचा, गर फ्री lancing का तरीका अपना के काम किया जाय तो ठीक रहेगा..नही पता था,की, मुझे इसके क्या परिणाम भुगतने पड़ेंगे..ख्वाबो-ख़याल में जो नही सोची थी, ऐसी परेशानियों का एक सिलसिला मेरे इंतज़ार में था...अब आगे).
जीवन के इस हिस्से पे लिखना सबसे अधिक कठिन है मेरे लिए..इतनी ठहरी हुई ज़िंदगी..कितने छंद रहे मेरे..लेकिन इतनी लम्बी कालावधी के बाद इन्हीं छंदों को बढ़ाते हुए व्यावसायिक रूप देना नामुमकिन-सा नज़र आ रहा था मुझे..
केतकी के मेल का रोज़ इंतज़ार रहता मुझे..नही,उसकी शादी के बाद,उसकी कभी चिंता नही हुई मुझे..चश्मे-बद-दूर! उसका हमसफ़र बेहद संजीदा था..है..बहुत खुला,दोस्ती भरा रिश्ता..लेकिन वो इतनी दूर..मेरे पहुँच के परे लगती मुझे,की,मै अपनेआप को बेबस महसूस करती..जानती थी की,मेरी सेहत देखते हुए,मै उसके घर कभी न जा पाऊँगी..
ऐसी ही एक तनहा रात ....करवटें बदल,बदल बीत रही थी...अंत में मै उठी और इस रचना में अपना दर्द उंडेल दिया..बहुत दिनों से उसकी कोई मेल मुझे नही मिली थी...मन बहुत ही उदास था..
तुझसे जुदा होके,
जुदा हूँ,मै ख़ुद से ,
यादमे तेरी, जबभी,
होती हैं नम, पलकें मेरी,
भीगता है सिरहाना,
खुश रहे तू सदा,
साथ आहके एक,
निकलती है ये दुआ
जहाँ तेरा मुखड़ा नही,
वो आशियाँ मेरा नही,
इस घरमे झाँकती
किरणों मे उजाला नही!
चीज़ हो सिर्फ़ कोई ,
उजाले जैसी, हो जोभी,
मुझे तसल्ली नही!
वार दूँ, दुनिया सारी,
तुझपे मेरी,लम्हा घड़ी,
तू नज़र तो आए सही,
कहाँ है मेरी लाडली..
ये आँखें भीगी, भीगी,
कर लेती हूँ बंदभी,
तू यहाँसे हटती नही...!
मेरी गिरती हुई मानसिक अवस्था को देख, माँ ने ज़िद की के मै किसी अच्छे मानसोपचार तग्य के पास जाके सलाह मशवरा लूँ.. मै राज़ी हो गयी ..दवाईयाँ भी शुरू हो गयीं..अपनी नानी से मिलने डॉक्टर हर हफ्ते हमारे घरके करीब आते रहते..वहाँ से मै अपना ड्राईवर गाडी भेज अपने यहाँ बुला लेती. उनका कहीँ क्लिनिक नही था..या तो वो अपने घरपे मरीज़ को देखते या फिर मरीज़ के घर जाते..
मैंने जिस नेटवर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाला था,वहाँ से तो निराशाही हाथ लग रही थी..कई बार बकवास पोस्ट्स आती और उन्हें डिलीट करने के लिहाज़ से मै उसे खोल लिया करती..मैंने चंद दिनों के भीतर वहाँ से अपना फोन नम्बर तो हटा दिया था..लेकिन कुछ लोगों के हाथ वह लग गया था..पर यह भी सच था..मेरा नम्बर हासिल करना कठिन नही था..मै अपने काम के लिहाज़ से मौक़ा मिलने पे,प्रेज़ेंटेशन देती रहती...अपने विज़िटिंग कार्ड्स भी देती रहती..कई बार मेरी कुछ गद्य/पद्य रचनाएँ, किताब या पत्रिकाओं के ज़रिये किसी के हाथ लग जाती..कभी,कभी सम्मलेन में सहभागी होने के लिए भी फोन आते..
एक दिन गौरव के रहते एक फोन आया और उसे गौरव ने रिसीव किया..और गुस्से में आके पटक भी दिया..हम दोनों कहीं बाहर जानेवाले थे..फोन फिर बजा..फिर गौरव ने उठाया..तमतमा के फिर से पटक दिया..तीसरी बार मै पास खड़ी थी,सो मैंने उठा लिया..किसी सम्मलेन की इत्तेला और आमंत्रण देने के लिए यह फोन बज रहा था..मैंने शांती से जवाब दे दिया:" इस वक़्त मै अपने परिवार के साथ व्यस्त हूँ...आप फिर कभी फोन करें..."मैंने भी रख दिया..
गौरव दुसरे दिन लौट गए..मैंने रात ८ बजेसे लेके ११ बजे तक नियमसे लेखन करना जारी किया था..सलाह मेरे डॉक्टर की थी..उसी दिन रात ९ बजे के करीब एक फोन आया,जिसे मेरी रात दिनकी नौकरानी ने उठाया..जब उसने आके मुझसे कहा,तो मैंने जवाब दिया:" तू उनसे कह दे मै व्यस्त हूँ...कल सुबह १० या ११ बजे फोन करें.."
लेखन ख़त्म कर मै सोने चली गयी.और फोन बजा..मैंने कहा:" माफ़ करें,देर हो गयी है ..सोना चाहती हूँ.."
इतना कह मैंने रिसीवर रख दिया..फोन फिर बजा..इस वक़्त मैंने बिना बात किये बंद कर दिया..यह लैंड लाइन का नंबर था..कुछ रोज़ पहले ही लगा था..उसमे उपलब्ध सुविधाएँ मैंने नही देखी थीं..इन जनाब को पता नही क्या सूझ गयी थी,की,वो करतेही चले जा रहे थे..अंत में मैंने उसे एक रजाई के नीचे दबा दिया..! उसे स्विच ऑफ़ कर सकते हैं,यह दूसरे दिन मेरे डॉक्टर ने मुझे बताया..मैंने सहज भाव में उन्हें रातवाली घटना बता दी थी..
तीन दिनों बाद गौरव का फिर आना हुआ..हम दोनों किसी दोस्त के घर भोजन के लिए गए..वहाँ देर लगते देख मै पहले निकल आयी...मेरा भाई मुझसे कुछ देर मिलने आना चाह रहा था..हमारी बिल्डिंग के लिफ्ट के बाहर ही भाई और उसके साथ अपनी बहन को भी देख मै कुछ हैरान भी हुई और ख़ुश भी..बहन के आने का मुझे कोई संदेसा,अंदेसा नही था..
हम तीनो जाके मेरे कमरे में बैठ गए..बहन बोली: "आपसे कुछ बात करनी है..जीजाजी का कहना है,की,आप रात बेरात गैर मरदों से बातें करती हैं..लेकिन गर आपको सच में किसी से emotional attachment है,तो हम आपका साथ देंगे.."
मै हैरान रह गयी..बोली:" क्या बात करते हो? ऐसा कुछ भी नही है...! होता तो सबसे पहले तुम दोनों को और माँ को बता देती..किसी सती सावित्री का अभिनय नही कर रही हूँ...मुझे कभी कोई मिलाही नही..!"
मै अपना जुमला ख़त्म ही कर रही थी,की,गौरव वहाँ पहुँच गए...अपने कमरे से कुछ कागज़ के परचे उठा लाये...बोले:" इसपे सभी नंबर और समय दर्ज है...सब अपनी आँखों से देख लो...इन में कई नंबरों की तहकीकात भी हो चुकी है..."
कहते हुए उसने परचे मेरे सामने धर दिए..सच तो यह था,की,उसमे से एकभी नंबर मेरे परिचय का नही था..! इसके अलावा मेरे मोबाईल पे आए और किये गए फोन भी इनके पास दर्ज थे! इन में भी ज़्यादातर नंबर मेरे परिचित नही थे..मैंने गर किये भी होते तो,उन्हें याद रखना मुमकिन न था..
गौरव को मेरी किसी बात पे यक़ीन नही हो रहा था..मेरे छोटे भाई बहन, घरकी नौकरानी, ड्राईवर ...इन सब के आगे मुझे ज़लील करने से पहले गौरव ने एक बार सीधे मुझसे बात तो करनी थी..यह बातें मेरे मन ही में रह गयीं...सुबह तडके गौरव चला गया...और कह गया की,अब वो मुझ से रिश्ता रखना नही चाहता..
दिनमे ११ बजे डॉक्टर आने वाले थे..उस समय भाई वहीँ था...डॉक्टर से बोला:" मै अब जाता हूँ...शायद यह मेरे सामने खुलके बात नही करेगी.."
मैंने तो बिस्तर ही पकड़ लिया था..सर दर्द से फटा जा रहा था..पर अपने भाई को मैंने रोक लिया,कहा:" तू कहीँ नही जाएगा...यहीं बैठ..मुझे कुछ छुपाना नही है..छुपाने जैसा कुछ हैही नही..!"
मै बेतहाशा रोने लगी...इस तरह का इलज़ाम मेरी कल्पना के परे था..क्या से क्या हो गया था..जिस परिवार के ख़ातिर ,बच्चों की ख़ातिर मै हर तकलीफ़ सह गयी,उनमे से कोई मेरे पास न था..क्या करूँ? क्या करूँ? कहाँ जाऊं? कौनसी ऐसी जगह थी इस दुनियामे,जिसे मै अपना कह सकती थी? जहाँ से निकल जाने के लिए मुझे कोई न कहता? मेरी बेटी के ससुरालवाले क्या सोचेंगे..?
यहभी नही जानती थी,की,यह तो एक भयानक सिलसिले की शुरुआत भर है....
क्रमश:
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25 टिप्पणियां:
हौलनाक ....ये वक़्त किसी पे ना गुज़रे ! जितनी बार पढता हूँ चोट सी लगती है !
उफ़ बहुत ही भयानक परिणाम रहा………………ऐसा तो कोई सोच भी नही सकता था…………………………और अभी आगे भी मुश्किलों भरा सफ़र जान दुख हो रहा है…………कोई कैसे इतना सह सकता है।
बहुत सी बातें हैं जो बिन कहे ही की जाती हैं. सुंदर.
बहुत ही मर्मिक !
संवेदनशील रचना।
आगे का इंतज़ार।
यह प्रस्तुति बहुत रोचकता लिए है ,आगे की प्रतीक्षा है.
बहुत ही मर्मिक !
सुंदर.
Hi..
Aapki pratadna ne dil dravit kar diya.. Ek aisa shakhs jis ke sath jeevan ke etne din bitaye hon wo etna pashan hrudayee kaise ho sakta hai ki etna bada abhiyog lagane se pahle apne sathi se poochhna bhi gawara na kiya..
Yahi jeevan ka khel hai..kabhi kabhi wo sabse pahle dhokha deta hai, jis par sabse jyada vishwas hota hai..
Aapka akelapan aapko khane laga tha lagta hai.., doc, med sab yahi bata rahe hain..
Khair.. Dard aahen deta hai..par jeevan hai to sahna padta hai..
DEEPAK..
कहानी मार्मिक है मगर यह समझने में मुश्किल हो रही है कि कथा की नायिका की मनस्थिति समझने में सभी लोग क्यों असफल हो रहे हैं. संवाद में इतनी बड़ी बाधा कहाँ है और क्यों है? मनोपचार के बाद स्थिति में कोई परिवर्तन आया क्या?
तुझसे जुदा होके,
जुदा हूँ,मै ख़ुद से ,
यादमे तेरी, जबभी,
होती हैं नम, पलकें मेरी,
भीगता है सिरहाना,
खुश रहे तू सदा,
साथ आहके एक,
निकलती है ये दुआ
बहुत ही मार्मिक पोस्ट!
Heartbreaking! This is becoming more and more painful---. How can a person bear all this?
I feel crying after reading your story.
ज़माना अपनों के प्रति इतना भी बेदर्द हो सकता है.....
कहानी का यह भाग, मर्म स्पर्शी ! हमेशा की तरह !! जीवन मे पग पग पर समस्याए !!!! और कितना संघर्ष है , पूजा के जीवन मे??? यहां पति अपनी पत्नी की भावनाओ और उसकी परेशानियों को समझना ही नही चाहता है । पूजा के जीवन को जटिल बना कर रख दिया है ।
क्षमा जी , मेरे ब्लोग पर आपने सन्देश भेजा, इसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद!!! वास्तव मे पिछले कुछ दिनो मे मेरी अत्यधिक व्यस्तता के कारण ब्लोग पर कुछ लिख नही पायी हूँ । परंतु आपका ब्लोग नियमित रूप से पढ रही हूँ । इस मार्मिक कहानी ने मुझे बान्ध के रखा है ।
पुन: आशावादी हूँ ,कि अगली कडीयों मे शायद पूजा के जीवन मे खुशियो के पल आयेंगे।
जहाँ तेरा मुखड़ा नही,
वो आशियाँ मेरा नही,
इस घरमे झाँकती
किरणों मे उजाला नही!
चीज़ हो सिर्फ़ कोई ,
उजाले जैसी, हो जोभी,
मुझे तसल्ली नही!
...bahut marmik. samvedanshil....pataa nahi aap itna dard kahan se laati hain...vah... bahut sundar.
मानसोपचार तग्य नहीं समझ आया मनोवैज्ञानिक क्या?? या साइकेट्रिस्ट?? तकलीफ भरे दिल से ही अच्छे कविता निकलती है, तभी ना जितना दुःख झेल लिया उतने अच्छे कवि/शायर बन गए. कहानी बांधे हुए है हमेशा कि तरह.
भावुक...मार्मिक...
ATYANT MARMIK.///KINTU KAHI NA KAHI ISE SANVAD SUNNYATA KA PARINAM MANNA HOGA. AB MAHILAON KO KISHI BETUKE SHAK SUBHO KE AAGE JHUKNA NAHI CHAHIYE PARTU AISE ISTHITI KO BHARPUR AVOID DONO HI PACCHO KO KARNA CHAHIYE. MY BEST REGAR TO HER.
क्षमा!... ऐसे दौर, ऐसी परिस्थितियां काले बादलों की तरह जीवन में आती है...तो चली भी जाती है!... सूर्य की तेज रोशनी में फिर जीवन-आकाश दमकने लगता है!... बस!...इतना समझलो कि ऐसी परिस्थिति से सामना करने वाली तुम अकेली नहीं हो!... और अपने थके हुए मन को बीमार समझने की भूल कभी मत करना!...समय अपना काम करता ही है!... अपनेआप समय के साथ सब ठीक हो जाता है!... मौसम आते है जाते है!...
....मै एक सर्व-साधारण स्त्री हूं!... लेकिन मेरे जरिए शायद मेरा अनुभव बोल रहा है!
.... तुम्हारे ब्लोग पर आना मुझे हंमेशा अच्छा लगता है!....आती रहूंगी!.... अनेक शुभ-कामनाएं!
क्षमा जी ,दिल छू लेने वाली रचना ....पिछले भाग तो मैंने नहीं पढ़े लेकिन पढूंगी जरूर ...आपके पास सच्चे भाव है ....शब्द जहाँ सधे हुए और इसी कारण रचना कुछ अलग सी है ..बधाई-बधाई
samvedana se paripoorn.....agli kadi ki pratiksha...
माँ,मर्म और मार्मिक पोस्ट
बेहद दुःख भरा मोड लिया है कहानी ने अब...अकेलापन 'किसी को भी मानसिक रोगी बना सकता है.
shama ji badhai.....!! Main itna nhi janta lakhan ke bare m lakin jo likha seedhe dil ko chho gya...
Mujhe lagta hai sachha kalakar wahi ho sakta hai ...jiske ahsas, bhawnayen sachhi ho ! jo aapke lakhan se spasth hai ....shama ji aapne jo kiya ji bhar k kiya....ye jo lakha wah bhi ji bhar k !!
Jai HO Mangalmay Ho
मार्मिक ।
क्षमा जी ! रोचक एवं प्रवाहपूर्ण ।
मार्मिक ... बहुत गहरे तक चोट करती है आपकी कहानी ... आज तो साथ में ये नज़्म भी है ...
कुछ-कुछ ऐसी ही आशंका कर रहा था मैं...कुछ ऐसे ही परिणाम की आशंका।
पूजा के प्रकाशित आलेख, कालम्स शायद हम आम पाठकों की नजरों के सामने से भी गुजरे होंगे- है ना?
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