रविवार, 13 जून 2010

बिखरे सितारे: ६: और भी सिलसिले...

( गतांक:केतकी ने अंत में इस बात की इत्तेला मेरे जेठ जेठानी को दी..उनको गौरव ने नही बताया था..सगे भाई जो नही थे..लेकिन जेठानी ने गौरव को तुरंत फोन किया..और कह दिया:' तुम गर हमारी बहू को घर से निकालोगे,तो,मेरा मरा मूह देखोगे..हम दोनों को उसके चरित्र पे किंचित भी शंका आ नहीं सकती.."
यह बात सुन,गौरव ना जाने क्यों सकपका गया..और उसने उन्हें कहा," ठीक है भाभी,आपकी बात रख  लेता हूँ.."
इस के पश्च्यात वो दोनों मेरे पास पहुँच गए...अब आगे पढ़ें...)

भाभी-भैया आ गए. मुझे अच्छा भी बहुत लगा,की,वो दोनों आए तो..मेरे साथ तो खड़े रहे. लेकिन मेरे समझ से परे था,की,गौरव ने उनकी बात कैसे रख ली?

माँ को भी इसी बात का अचरज था. और माँ ने जो अंदाज़ लगाया,वो भी एकदम सही था. मुझे छोड़ देना गौरव के अहम को ठेस थी. इसके अलावा वह यह भी जताना चाह रहा था,की, पत्नी ने किये छल के बावजूद उसने,बड़ा दिल कर के माफ़ कर दिया..और कोई होता,तो घर से धक्के मार के निकाल देता..भविष्य में मैंने यह अलफ़ाज़ गौतम के मुख से अनगिनत बार सुने.गर मेरे पास एक भी पर्याय मौजूद होता,तो शायद मै स्वयं उस घर में नही ठहरती. यही हमारे समाज की विडम्बना है.खैर!
भाभी-भैया कुछ रोज़ रुक के लौट गए.

माँ के मन से भी अविश्वास धुंद हट गयी. भाई ने भी इतना तो कह दिया: मै आपा    के चरित्र पर शक कर ही नही सकता. और यह भी सच है,की, उन्हों ने जीजा जी से इजाजात भी माँगी होती,तो वो कौन देनेवाले थे!"
काश! मेरी बहन का भी यही रवैय्या रहता!
इस घटना के कुछ ही दिन पूर्व,मुझे एक सहेली ने दो चित्र नेट पे फॉरवर्ड किये थे. माँ पास ही खड़ी थीं. मैंने उन्हें पहला चित्र दिखाया और पूछा: आपको क्या नज़र आ रहा है इस चित्र में?"
माँ:" किसी बगीचे में एक बेंच है. उसपे एक लड़का, किसी सुनहरी बालवाली लडकी के गले में हाथ डाले बैठा है".
मै: " अच्छा! यह तो जो पीछे से दिख रहा है,वो है....अब इसी तसवीर को सामने से देखिये!"
मैंने अगली तसवीर पे क्लिक किया और माँ हँस ने लगीं! सामने से देखा तो समझे,की,वो सुनहरे बालवाली लडकी नही,बल्कि,एक कुत्ता था!
क्या ख़बर थी,की,मेरे साथ यही होगा? के तसवीर की एक ही बाज़ू देखी जायेगी?

केतकी अब मेरे पीछे पड़ गयी,की,मैंने कुछ ना कुछ अपना काम शुरू करना ही चाहिए. चाहत मेरी भी यही थी. लेकिन हम चाहें,और तुरंत वैसा हो जाये....जीवन में ऐसा तो होता नही. मैंने अपने दिमाग के दरवाज़े पूरी तरह खोल दिए.

केतकी वैसे बेहद चिड चिडी हो गयी थी. बात बात पे उलझ पड़ती. इतनी,की,मेरी माँ,जो उसे अपनी जान से बढ़ के प्यार करतीं,उनसे भी वह कई बार बड़ी बदतमीज़ी से पेश आती. माँ और मै,दोनों ही उसकी इस मानसिक अवस्था को समझ रहे थे. बरसों उस पे ना इंसाफी हुई थी. मुझ पे भी हुई थी,जिसकी वह गवाह थी. और जैसे भी हो,उसने मेरा साथ निभाया था. अवि के समय भी वह और उसका पति,दोनों मेरे साथ खड़े रहे. वरना मै ज़लालत से ही मर जाती.
चंद दिनों बाद केतकी लौट गयी.

फिल्म मेकिंग के दौरान चंद लोगों से परिचय हुआ. बड़ा मन करता की,समाज की ज्वलंत समस्याओं पे छोटी,छोटी फ़िल्में बनाऊं . आर्थिक हालत तो ऐसी न थी,की,बना सकूँ. तलाश में थी की,कोई producer या distributer मिले.

मै भी एक कोष में चली गयी थी. अपने आप से सवाल करती,क्या सच में मुझे,इतनी सहजता से,अपना मन पसंद काम मिल गया है? शायद कोई आंतरिक  शक्ती होती है,जो हमें आगाह कराती है.लेकिन किस बात से मैंने आगाह होना था? हर क़दम फूँक  फूँक के उठा रही थी...!

केतकी दोबारा आनेवाली थी. उसे कुछ अपने काम के लिहाज़ से assignments मिले थे. वह पहले गौरव के पास पहुँची. बाद में मेरे पास. उसका मिज़ाज कुछ और अधिक चिडचिडा महसूस हुआ मुझे....

किसी अन्य शहर वो अपने काम से गयी थी और मैंने उसे कुछ पूछने के ख़ातिर फोन किया. वह फोन पे मुझपे कुछ इस तरह बरस पडी,जैसे मैंने पता नही क्या कर दिया हो...! फोन को कान पे पकडे,पकडे ही,मै मूर्छित हो फर्श पे गिर गयी...घर पे सफाई करनेवाली बाई थी और मेरा एक टेलर भी..उसने घबराके मेरे भाई  को फोन कर दिया....वो आभी गया...नही जानती थी,की,क़िस्मत ने अपनी गुदडी में और कितने सदमे छुपा रखे थे...

हर हँसी  की  कीमत
अश्कोंसे चुकायी हमने,
पता नही और कितना
कर्ज़ रहा है बाक़ी,
आँसू  हैं  कि थमते नही!

क्रमश:

इस कड़ी का काफ़ी मौलिक अंश डिलीट कर दिया गया है...क्षमा करें! 

20 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

शमा जी
बहुत डरा दिया एक बार फिर्………………।लग रहा था सब ठीक होने लगा होगा मगर आखिरी लाईन ने फिर डरा दिया।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपका संस्मरण अच्छा है!

Smart Indian ने कहा…

कहानी एक रोचक मोड पर आ गयी है. गौरव का व्यव्हार अभी भी एक पहेली सा है. हो सके तो क्षमा पर यह छोटी सी पोस्ट देखिये.

उम्मतें ने कहा…

ओह ...ओह ये तनाव अच्छा नहीं लगता मुझे

उम्मतें ने कहा…

ओह ...ओह ये तनाव अच्छा नहीं लगता मुझे

Basanta ने कहा…

It's so heartbreaking again--! How can a person endure so much?

निर्मला कपिला ने कहा…

पिछली कडियाँ अभी नही पढ पाई इस लिये पूरी कहानी समझ नही आयी फुर्सत मे पढती हूँ शुभकामनायें

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

मैं थोडा सा उलझन में हूँ की ये कहानी हैं या वास्तविकता? जो कुछ भी लिखा गया है वो वास्तविक सा लगता है और ऊपर लिखा भी है ek jivanee. तो क्या ये सब सच हैं या फिर एक शानदार कहानी?

bhagyareema ने कहा…

Life is unfair, some get whatever they wish for, some have to struggle for simple joys..

pragya ने कहा…

पढ़कर लगता है कि इस जीवनी के लेखक के लिए दर्द ने खुद अपनी सभी सीमाएँ मिटा दी हैं..

arvind ने कहा…

ये सब सच हैं या फिर एक शानदार कहानी?
...ओह ...

दीपक 'मशाल' ने कहा…

आजकल ब्लोगरोल खुलने में बहुत वक़्त लगता है इसलिए देख ही नहीं पाया
शाम को घर पे पढ़ता हूँ..

रचना दीक्षित ने कहा…

उफ्फ़ इतना दर्द कैसे दे सकता है भगवान किसी को !!!!!!!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

पढ रही हूं, सांस रोके....अगली किस्त जल्दी पोस्ट करें.

ज्योति सिंह ने कहा…

हर हँसी की कीमत
अश्कोंसे चुकायी हमने,
पता नही और कितना
कर्ज़ रहा है बाक़ी,
आँसू हैं कि थमते नही!
bahut dilchsp kisse hai aur marmik bhi .

दीपक 'मशाल' ने कहा…

भविष्य में मैंने यह अलफ़ाज़ गौतम के मुख से अनगिनत बार सुने.गर मेरे पास एक भी पर्याय मौजूद होता,तो शायद मै स्वयं उस घर में नही ठहरती. यही हमारे समाज की विडम्बना है.खैर
जितना ये कहानी पढ़ता जाता हूँ दिल तकलीफ से भरता जाता है...

Vinashaay sharma ने कहा…

बहुत ही मार्मिक इन्सान को कैसी,कैसी तक़लीफ से गुजरना पड़्ता है,गोरव का व्यवहार बहुत दर्द दे गया ।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कुछ कुछ कहानी इस बार सुखांत की तरफ चल रही थी ... पर अंत ....
आपकी कहानी दर्द की अभिव्यक्ति बनती जा रही है ....

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

bejor kahani, lekin samay ke kami ke karan pichhe ke post ko padh nahi paya hooon.......lagta hai samay nikalna hoga......:)

गौतम राजऋषि ने कहा…

पूजा की जिंदगी में लौटी व्यस्तता और स्थायित्व से जैसे ही सकून महसूस करने लगा कि केतकी के बदले व्यवहार ने और कड़ी की आखिरी पंक्तियों ने फिर से डरा दिया...

डरे मन से जा रहा हूँ अगली कड़ी पे...