(गतांक: हमारी इतनी बात होही रही थी,की,एक फोन आया. फोन लतीफ़ का था. रहीमा ने लिया. दो चार पल बाद मुझे पकडाया...दूसरी ओरसे लतीफ़ चींख रहा था," मै पहले घरको और फिर पेट्रोल पम्प को आग लगाने जा रहा हूँ..साथ तुम्हारे बेटे को भी...बचाना चाहती हो तो अभी लौट आओ...." अब आगे पढ़ें.)
उफ़! क्या हो रहा था ये सब? मेरा दिमाग फिरभी तेज़ गती से काम कर रहा था. मैंने सब से पहले पुलिस कंट्रोल रूम को इस बात की ख़बर दी. पेट्रोल पम्प पे गार्ड देने की इल्तिजा की. पम्प रहीमा के घर के सामने ही था. लतीफ़ परिवार और हमारे परिवार का दोस्ताना उस छोटे से शहर में तक़रीबन सभी को मालूम था. मुझे इस तरह पुलिस कंट्रोल रूम से बातें करने में बड़ी शर्मिन्दगी महसूस हो रही थी.
अब आफताब का सवाल?? उसे घर से कैसे निकला जाये? इतने में एक और फोन बजा. फोन ज़ाहिद का था. रहीमा के लिए. वो दोनों में चाहे बरसों संपर्क ना रहा हो उनका प्यार बरक़रार था, इसमें शक नही. और इसमें ज़ाहिद का कोई स्वार्थ नही था. वो रहीमा को केवल ख़ुश देखना चाहता था,जो की नामुमकिन लगता जा रहा था. जब उसे लतीफ़ की बातों का पता चला तो उसने कहा," रहीमा,फ़िक्र ना करो..मै तुम्हारे घर जाता हूँ..मेरे होते लतीफ़ ऐसी कोई हरकत कर नही सकता...चाहे जो हो जाये.."
लेकिन मैंने और रहीमा,दोनों ने उसे मना किया.
इधर से मै रहीमा के घर पहुँच गयी.रहीमा को मेरे घरपे ही छोड़ा. पम्प के पास,घर के आगे,अपनी गाडी खड़ी कर मै रहीमा के घर में पहुँची और आफताब को ज़ोर से आवाज़ लगाई. जैसेही वो सामने आया ,उससे कहा," जाओ,अपनी ममा का गाडी से सामान ले आओ. उनकी तबियत ठीक नही है.उन्हें सहारा देके अन्दर ले आओ.",
तबतक लतीफ़ भी मेरे आगे खड़ा हो गया था. मैंने उससे कहा," एक मिनिट रुकिए...मै अभी आती हूँ.." ,कह के मै तेज़ी से घर के बाहर आयी और आफताब को हालात की इत्तेला दी. उसे घर में वापस लौटने से मना कर दिया और अपने साथ मेरे घर ले आयी.
मेरे घर पहुँचते ही लतीफ़ का फिर फोन आया. इस बार वो मुझ से बात करना चाह रहा था...उसने कहा," मै बहुत शर्मिन्दा हूँ..कुरआन शरीफ़ की क़सम खाके कहता हूँ,आइन्दा रहीमा को तकलीफ़ पहुँचे ऐसी कोई हरकत नही करुँगा...आप बस रहीमा और बच्चों को वापस ले आयें...!"
उसकी इन कसमों से रहीमा ने मुझे पूरी तरह वाबस्ता किया था.ना जाने कितनी बार उसने इन दिनों ऐसी कसमे खायीं थीं.
फिरभी मैंने कहा," ठीक है, इस वक़्त तो बहुत देर हो चुकी है. मैंने तो अब ड्राईवर की छुट्टी भी कर दी है. कल देखते हैं. "
देर रात मुझे मेरे पती का फोन आया. मैंने उन्हें हालात से वाबस्ता करना चाहा तो उन्हों ने चिढ के कहा," देखो, इन सब झमेलों में तुम्हें पड़ने की ज़रुरत नही. रहीमा को अभी के अभी उसके घर भेज दो. वो जाने और लतीफ़ जाने."
मै: "लेकिन इन हालात में मै रहीमा को कैसे उसके घर भेज दूं? वो तो उसकी पिटाई कर के उसे अधमरी कर देगा!"
पति:" मैंने जो कहना कह दिया. मुझे अपने घरमे ये मुसीबत नही चाहिए. रहीमा गर सुरक्षा चाहती है तो उसे पुलिस में कम्प्लेंट देने को कहो...उसका भाई है...वो क्या कर रहा है? और उसके अन्य रिश्तेदार?"
मै:" ठीक है..."
कह के मैंने फोन तो रख दिया लेकिन रहीमा को उसके हाल पे बेसहारा छोड़ देनेका मेरा इरादा क़तई नही था. कुछ देर में एक और फोन आया. फोन रहीमा के भाई का था. रहीमा ने उसे ख़बर तो दी ही थी.
उसने कहा," मै और जीजा जी, जो परसों सुबह तक अमरीका से मुंबई पहुँच जायेंगे , परसों दोपहर तक वहाँ पहुँच रहे हैं. तबतक धीरज धरे रहो."
परसों शाम तक तक तो इन्हों ने भी आही जाना था. इनके आने के बाद तो रहीमा को अपने घर पनाह देनेका सवाल ही नही उठता था...मनमे आया," सभी मर्द एक जैसे..हमेशा सब गलती औरत के ही सरपे मढना चाहते हैं..."
दूसरे दिन सुबह की शुरुआत फिर लतीफ़ के फोन से हुई. उसने कहा ," मै अपनी बंदूक लिए तुम्हारे घर आ रहा हूँ...रहीमा से बात करके रहूँगा...उसे और बच्चों को वापस लाके ही दम लूँगा..."
वैसे बेवक़ूफ़ लतीफ़,इतने नशे में धुत रहता था,की,इन हालात में वो एक वरदान ही साबित हुआ...! गर उसका शातिर दिमाग काम करता तो मेरे अपने बच्चों को स्कूल से आते जाते अगुवा कर लेना मुश्किल काम नही था...!पहली और तीसरी जमात के तो बच्चे थे!! वो दोनों किसी पुलिस सुरक्षा में स्कूल नही आते जाते थे. स्कूल घर के करीब था. रास्ता पार करना उन्हें सिखा दिया गया था. वैसे भी उस रस्ते पे ज़्यादा रहगुज़र नही होती थी. शुरू के कुछ दिन हमारे मकान के पीछे बने नौकरों के मकानों में से एक महिला साथ चली जाया करती थी.
लतीफ़ की धमकी सुन,मैंने हमारे गेट पे तैनात पहरे को इत्तेला दी,की,गर कोई बंदूक लेके घर के परिसर में घुसना चाहे तो रोक देना...चाहे वो कोई भी हो और कुछ भी कहे. बंदूक ना भी तो भी, गेट से अन्दर,बिना मेरी इजाज़त के कोई घुस ना पाए. "
क्रमश:
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20 टिप्पणियां:
अच्छी प्रस्तुति.
रोचक प्रस्तुति। अगली कड़ी का इंतज़ार।
सस्पेंस बढता जा रहा है...मगर ये इंसान पागल है..वैसे लगता है मैंने इंसान लफ्ज़ भी बेकार ही ज़ाया किया उस दरिंदे के लिए!!
लतीफ जैसे इन्सानभी होते हैं और आप जैसी सहेली भी । कहानी बढिया जा रही है ।
मन में आया,"सभी मर्द एक जैसे..हमेशा सब गलती औरत के ही सरपे मढना चाहते हैं..."
?.
?
..
?...फिल्हाल इस पर कोई टीप नहीं !
बहरहाल कथा में घटनाक्रम पढते हुए तनाव सा हो रहा है !
रोचक कडी। आगे का इन्तज़ार। आभार।
बहुत रोचक! अगली कड़ी का इंतज़ार।
आज आपका ब्लॉग चर्चा मंच की शोभा बढ़ा रहा है.. आप भी देखना चाहेंगे ना? आइये यहाँ- http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/blog-post_6216.html
बेहतर...आप जिज्ञासा बनाए रखती हैं...
इस अंक में थोड़ा ठहराव है...देखें कल क्या हो
bhaoot achchhi kahani............aage ka besabri se intjar hai.----------
आगे का इन्तज़ार। आभार।
जल्दी आगे की कड़ी डालिये.
जिग्यासा बढ गयी है क्या होगा रहीमा और बच्चों का। अगली कडी का इन्तज़ार।
kahani bahut achchi chal rahi hai.kavitayon ki tarah gadya mein bhi sunder pravah hai .
बहुत रोचक कडी। अगली कड़ी का इंतज़ार।
बहुत ही बेहतरीन शब्द प्रस्तुति ।
"सभी मर्द एक जैसे..हमेशा सब गलती औरत के ही सरपे मढना चाहते हैं..."
यह बात सच होती तो खुदा जाने दुनिया का अब तक क्या हाल हुआ होता। ;)
bhut sundar post and very thanks for your nice comments
very nice post thanks for nice comments
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