( गतांक: और फिर नरेंद्र से बात होती. उसके ख़त मुझे एक सहेली के पते पे आते. उन्हें पढ़ती...उसकी बातें सुनती,तो सारा डर...अनिर्णय की अवस्था हवा हो जाती...लगता,उसके प्यार में वो शक्ती है,जिसके सहारे मै कठिन से कठिन समय का, मुसीबतों का मुकाबला कर सकती हूँ....यही आभास,यही विश्वास मेरे जीने का सहारा बन रहा था. नरेंद्र से दूर रहते हुए भी ज़िंदगी नरेंद्र से जुड़ गयी थी. नरेंद्र मेरा इंतज़ार कर रहा था....और कहता,की,ता-उम्र करेगा! और मुझे उसपे पूरा विश्वास था!उसका ख़याल आते ही मनसे सारी दुविधा दूर हो जाती. एक नयी फुर्ती नस नसमे दौड़ जाती...." अब आगे)
जो भी था,दीपा कश्मकश में ज़रूर थी. अहमदनगर में रहते हुए उसे सोचने का खूब समय मिला.......और वो भी स्थिती से बाहर निकलके सोचने का...कौनसा पलड़ा भारी पड़ने वाला था? नरेंद्र के प्यार का या सारासार विचार शक्ती का? क्या सही था?
जितना अधिक गहराई में जाके दीपा सोचती गयी, उतना अधिक दिलो-दिमाग चकराता गया...........
दीपा : " इन्हीं सब बातों के चलते मैंने डिवोर्स केस फ़ाइल कर दिया. माँ और पिता का वैसे तो विरोध था,लेकिन मै रोज़ रोज़ के पिटने से तंग आ चुकी थी. आखिर बरदाश्त की भी एक सीमा होती है. मुझे एक आस की किरन नज़र आ रही थी. शायद नरेंद्र के साथ जीवन बेहतर हो......!
केस चलता रहा महीनों...और अंत में जब फैसला सुनाया गया तो मै दंग रह गयी......मुझे मेरे पतिकी ओरसे केवल ३००/- माहवार मिलनेवाला था! मै और दो बच्चे उसमे कैसे गुज़ारा करते?"
मै: " लेकिन बच्चों की ज़िम्मेदारी तो नरेंद्र निभाने के लिए तैयार था! "
दीपा:" हाँ! तैयार था....पर ज़िंदगी का क्या भरोसा? गर भविष्य में हमारे रिश्तेमे खटास पड़ जाए तो? गर हमें और बच्चें हों और नरेंद्र के मन में तब पछतावा हो ,फिर क्या??मेरा लोगों परसे, रिश्तों परसे,जीवन परसे विश्वास उठता जा रहा था....कमसे कम अपने बच्चों के लिए मै एक सुरक्षित भविष्य चाहती थी..."
मै:" तो फिर?? हमें कहीँ तो विश्वास करना ही पड़ता है! जीवन में कुछ पाने के लिए कुछ दाँव पे भी लगाना पड़ता है!"
दीपा:" ये सब किताबी बातें हैं! हक़ीक़त की धरातल पे आके देखो तो मेरे बच्चे अपनी पिता की जायदाद से महरूम रह जाते,गर मै न्यायालय का फैसला मान लेती....उनका भविष्य, उनकी पढ़ाई लिखाई....इन सब बातों की मुझे सब से अधिक फ़िक्र थी.उनका क्या दोष था??मै अकेली उन्हें वो सब देनेमे समर्थ नही थी,जिसके वो हक़दार थे! "
मै:" तो क्या निर्णय लिया तुमने?"
दीपा:" मैंने डिवोर्स लेने से इनकार कर दिया. और चाराही नही था...!"
मै:" और नरेंद्र?? उसे क्या कहा??"
दीपा:" दिल पे पत्थर रख के मुझे उसे इनकार करना पडा....जहाँ तक बच्चों का सवाल था,मै भावावेग में कोई भी निर्णय लेना नही चाहती थी..."
मै:" ओह! तो नरेंद्र की क्या प्रतिक्रया हुई?"
दीपा:" नरेंद्र ने कहा,मै इंतज़ार करुँगा!"
क्रमश:
जो भी था,दीपा कश्मकश में ज़रूर थी. अहमदनगर में रहते हुए उसे सोचने का खूब समय मिला.......और वो भी स्थिती से बाहर निकलके सोचने का...कौनसा पलड़ा भारी पड़ने वाला था? नरेंद्र के प्यार का या सारासार विचार शक्ती का? क्या सही था?
जितना अधिक गहराई में जाके दीपा सोचती गयी, उतना अधिक दिलो-दिमाग चकराता गया...........
दीपा : " इन्हीं सब बातों के चलते मैंने डिवोर्स केस फ़ाइल कर दिया. माँ और पिता का वैसे तो विरोध था,लेकिन मै रोज़ रोज़ के पिटने से तंग आ चुकी थी. आखिर बरदाश्त की भी एक सीमा होती है. मुझे एक आस की किरन नज़र आ रही थी. शायद नरेंद्र के साथ जीवन बेहतर हो......!
केस चलता रहा महीनों...और अंत में जब फैसला सुनाया गया तो मै दंग रह गयी......मुझे मेरे पतिकी ओरसे केवल ३००/- माहवार मिलनेवाला था! मै और दो बच्चे उसमे कैसे गुज़ारा करते?"
मै: " लेकिन बच्चों की ज़िम्मेदारी तो नरेंद्र निभाने के लिए तैयार था! "
दीपा:" हाँ! तैयार था....पर ज़िंदगी का क्या भरोसा? गर भविष्य में हमारे रिश्तेमे खटास पड़ जाए तो? गर हमें और बच्चें हों और नरेंद्र के मन में तब पछतावा हो ,फिर क्या??मेरा लोगों परसे, रिश्तों परसे,जीवन परसे विश्वास उठता जा रहा था....कमसे कम अपने बच्चों के लिए मै एक सुरक्षित भविष्य चाहती थी..."
मै:" तो फिर?? हमें कहीँ तो विश्वास करना ही पड़ता है! जीवन में कुछ पाने के लिए कुछ दाँव पे भी लगाना पड़ता है!"
दीपा:" ये सब किताबी बातें हैं! हक़ीक़त की धरातल पे आके देखो तो मेरे बच्चे अपनी पिता की जायदाद से महरूम रह जाते,गर मै न्यायालय का फैसला मान लेती....उनका भविष्य, उनकी पढ़ाई लिखाई....इन सब बातों की मुझे सब से अधिक फ़िक्र थी.उनका क्या दोष था??मै अकेली उन्हें वो सब देनेमे समर्थ नही थी,जिसके वो हक़दार थे! "
मै:" तो क्या निर्णय लिया तुमने?"
दीपा:" मैंने डिवोर्स लेने से इनकार कर दिया. और चाराही नही था...!"
मै:" और नरेंद्र?? उसे क्या कहा??"
दीपा:" दिल पे पत्थर रख के मुझे उसे इनकार करना पडा....जहाँ तक बच्चों का सवाल था,मै भावावेग में कोई भी निर्णय लेना नही चाहती थी..."
मै:" ओह! तो नरेंद्र की क्या प्रतिक्रया हुई?"
दीपा:" नरेंद्र ने कहा,मै इंतज़ार करुँगा!"
क्रमश:
16 टिप्पणियां:
मजा आ गया मै तो खो गया इस कथा कहानी में...आप बहुत अच्छा लिखती है।
क्षमा जी आप तो सस्पेंस बढाती जा रही हैं जल्दी सस्पेंस दूर कीजिये. इस एपिसोड ने तो पहले की सारी उमीदों पर पानी फेर दिया. चलिए देखते हैं आगे आगे होता है क्या?
उत्सुकता बनी हुई है.
रोचक,आगे का इंतज़ार.
एक और समझौता...स्त्री का सबसे बड़ा त्रासद पक्ष...
behtatin deepa jee...i am waiting next...
सच मे सस्पेंस बढता ही जा रहा है ……………और हाँ बेटे की शादी की हार्दिक शुभकामनायें।
गुज़ारा भत्ता ३०० रुपये माह ? बात हजाम नहीं हुई ! इन हालात में कोई इंसान अपने लिए नए रास्ते भी नहीं खोल सकता ! दुखद !
गुज़ारा तीन सौ रुपये माहवार और बच्चों की परवरिश भी.. अमूमन ऐसे मामलों में कोर्ट बच्चों की ज़िम्मेदारी बाप को देती है..और तब दीपा उनकी ज़िम्मेदारी से आज़ाद भी हो सकती थी! लेकिन एक प्र्श्न चिह्न पर समाप्त हुआ यह एपिसोड!!
आद.क्षमा जी,
कहानी में आगे जानने की उत्सुकता बढ़ गई है !अगली कड़ी का इंतज़ार है !
बेहतर...
अब सभी ब्लागों का लेखा जोखा BLOG WORLD.COM पर आरम्भ हो
चुका है । यदि आपका ब्लाग अभी तक नही जुङा । तो कृपया ब्लाग एड्रेस
या URL और ब्लाग का नाम कमेट में पोस्ट करें ।
http://blogworld-rajeev.blogspot.com
SEARCHOFTRUTH-RAJEEV.blogspot.com
आगे का इंतज़ार.... अच्छा लगा आपको पढ़ना ...
इस कहानी में जिज्ञासा चरम सीमा पर पहुँच गयी है ...अगले अंक में देखेंगे क्या होता है ..आपका आभार
कहानी अच्छी जा रही हैं ।
सुरक्षित भविष्य की अभिलाषा ही तो कई स्तरों पर समझौते के लिये अग्रसर करती है...
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