शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

बिखरे सितारे ४)कहाँ ले चली ज़िंदगी ?

नन्हीं पूजा को आंध्र के, निज़ामाबाद शहर ले जाया गया...उसे क्या ख़बर थी,कि, वो अपने दादा-दादी से दूर चली जा रही है? जब निज़ामाबाद पहुँचे,तो उसने कुछ देर बाद अपने घर वापस लौटने के बारेमे पूछना शुरू किया...ट्रेन में तो सोयी रही थी..फिर उसे लगा,अब चंद लोगों से मिल भी लिए..अब वहीँ रुक जानेका क्या मतलब? लेकिन, उसे समझाया गया,कि, कुछ रोज़ यहीँ रुकना होगा...

जिस परिवार के साथ वो लोग रुके थे,उनका एक out house था..इन तीनों का इन्तेजाम वहीँ किया गया था..पूजा के पिता तो दिन में फलों के बगीचों में निकल पड़ते..लेकिन ,अपनी माँ पे क्या बीतती रहती ये नन्हीं पूजा आजतलक नही भूली..वो तो तब केवल ढाई सालकी थी...

वो देखती रहती,कि, उसकी माँ जब कभी उस घरकी रसोई में जाती, उस घरकी गृहिणी उनके साथ बेहद बुरा बर्ताव करती..गर माँ पूजा के लिए दूध बनाना चाहती,तो वो औरत चीनी हटा देती....

एक दिन की बात ,उसके दिलपे ऐसा नक्श बना गयी,कि, वो बेहाल हो गयी..आदम क़द आईने में देखी अपनी ही शक्ल उसे ताउम्र याद रह गयी...माँ के आँसू देख उदास,घबराया हुआ उसका अपना चेहरा,उसकी अपनी निगाहोंसे कभी नही हटा..

उस घरकी गृहिणी ने उसकी माँ के हाथ से बच्ची का खाना छीन लिया था...और माँ को रसोई से बाहर निकल जाना पड़ा..अपनी माँ के आँखों में भरे आँसू देख,बौखलाई बच्ची उसके पीछे,पीछे चली गयी..कमरेमे प्रवेश करते ही उसे अपनी माँ और अपनी ख़ुद की सूरत, आईने में दिखी..बच्ची का निहायत डरा-सा संजीदा चेहरा ...उसे उस 'चाची पे आया घुस्सा..असहायता ..सब कुछ एक चित्र की भाँती अंकित हो गया..माँ कमरेमे जाके,नीचे बिछे गद्दे पे बैठ गयी,और आखोँ से झर झर आँसू झरने लगे..पूजा उनकी गोद में जा बैठी...उसे अपने होंठ काँपते -से महसूस हुए...कुछ देर रुक वो बोली," हम दादा दादी के पास क्यों नही जाते...हम यहाँ क्यों रह रहे हैं? "
ये कहते हुए,उन छोटी,छोटी उँगलियों ने माँ के आँसू पोंछे...
फिर बोली," क्यों कि मै हेमंत के साथ खेलती हूँ,इसलिए हम यहाँ से नही जाते ? तो मै उसके साथ नही खेलूँगी...मुझे यहाँ नही रहना है..."

हेमंत उस परिवार का बच्चा था, पूजा से कुछ साल भर बड़ा..

वो महिला बेहद विक्षिप्त थी..पूजा की माँ, मासूमा , से बहद जलन थी उसे...मासूमा सुंदर थी..सलीक़ेमन्द थी...और उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी पढी लिखी भी...खाने के मेज़ पे वो महिला , सामने नही आती..तो मासूमा खाना खा सकती..क्योंकि घरके बड़े,पूजाके पिता,तथा मासूमा, एक साथ खाना खाने बैठते...लेकिन,दिन में जैसे ही घर के पुरूष चले जाते, उस महिला का बर्ताव ऐसा हो जाता मानो, मासूमा उसकी कोई दुश्मन हो..सौतन हो...बेचारी पूजा को बात समझ में नही आती,कि, आख़िर उसकी माँ के साथ ये चाची ऐसी हरकत क्यों करती हैं...?

पूजा को आज भी याद है,उसका तीसरा जनम दिन...जिस समय उसकी दादी ने उसके लिए एक निहायत खूबसूरत frock सीके भेजा..काश उस frock का चित्र उपलब्ध होता...!
इन सब बातों के चलते, पूजा ,अपने माँ और पिता के साथ, निज़ामाबाद में कुल छ: माह गुज़ार लौट आयी...अपने दादा दादी को इतना खुश देखा उसने...समझ नही पायी,कि, उन्हें छोड़ उसे जन ही क्यों पड़ा?

लेकिन, ये भी सच धीरे,धीरे उसके आगे उजागर होने लगा कि, उसकी माँ, इस घर में भी ख़ुश नही थी...आँसू तो उसे यहाँ भी बहाने पड़ते ..मासूम पूजा , अपनी उम्र से अधिक संजीदा होती चली गयी...एक ओर भोला, मासूम बचपन...दूसरी ओर अपनी माँ का कई बार दर्द की परछाइयों से धूमिल होता चेहरा...

और समय बीतता गया..उसके पढ़ने लिखने के दिन भी आ गए..उसे तीसरी क्लास तक तो घर में ही पढाया लिखाया गया..उसके बाद गाँव से कुछ दूर,एक पाठशाला में दाखिल कराया गया...कैसे गुज़रे उसके वो दिन? दादा दादी का प्यार तो बरक़रार था ही...पर उसके अलावा भी बचपन की, कुछ मधुर , कुछ डरावनी यादें, उसके जीवन में शामिल होती रहीँ.....

क्रमश:

10 टिप्‍पणियां:

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

apki post padh ke ek main tay nahi kar pa rahi thi ki kya likhun..puja ka chehra mere man me ban aya tha..apni umar se pahle sanjida ho jan bachpan ke sath anaye hai....bachpan ki madhur yadein hi honi chihye...boht achhi post...

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

kshama ji,
bahut he marmik post ki hai aapne, nazar nahi hata paaya aur padhne ke bad kaafi der tak sochta raha...

sundar abhivyakti....

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

aapka blog bikhre sitaare padha......... padh ke bahut hi achcha laga........

दिगम्बर नासवा ने कहा…

MAARMIK....DIL KO CHOONE WAALA LIKHA HAI....

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

क्या कहते हैं हमारे यहां...
मूल से ज्यादा प्यारा ब्याज होता है...

आपकी लेखनी ने सामान्य परिघटना को एक विशेष अनुभव में तब्दील कर दिया है...

अच्छा लगा...

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

kya likhti hai aap..
bas kamal karti hai aap..
peeda, marm, dard, aur jitne bhi paryay hain sab kuch is post par mil gaya hai..
aati hi rahungi baar-baar..

मनोज भारती ने कहा…

एक नन्हीं बच्ची और उसके आस-पास के परिवेश से उपजी संवेदनाओं को आप ने बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है । यद्यपि अढ़ाई वर्ष की छोटी बच्ची की स्मृतियाँ कुछ अतिश्योक्तिपूर्ण लगी । और निजामाबाद में उनके घर पर एक विक्षिप्त महिला कौन थी ? क्या थी ? घर में क्यूँ थी ? प्रश्न निरुत्तर ही रह गए । यदि बच्ची की स्मृतियों से देखा जा रहा है, तो ठीक है । लेकिन इसे थोड़ा और संवारा जा सकता था । मुझे आलोचक न समझें, मैं तो वही लिख रहा हूँ जो पढ़ते समय मेरे मन में आ रहा है ।

kshama ने कहा…

kshama said...

Manoj ji, Is waqt sirf aapka sawal :"wo vikshipt mahila kaun thee?"
iska uttar kathan me aa chuka hai: wo vikshipt mahila us baagaan ke malik kee patnee thee.
Balika ke sansmaran: ye baten mujhe khud us balikane tatha uskee maa ne kahee hain.Aur mai maan isliye saktee hun,ki, mujhe khudko kuchh itnee umr kee chand ghatnayen yaad hain..

गौतम राजऋषि ने कहा…

हम्म्म चौथी किश्त में कथा तनिक उलझी रह गयी है। मासूमा{खूबसूरत नाम} के साथ वो महिला क्यों बदसलूकी करती थी, ये हर पाठक यकीनन जानना चाहेगा...और फिर इतने स्नेहील दादा-दादी के पास पूजा की माँ को क्या कष्ट हो सकता था?

खैर शाय्द ये अगली किश्त में खुल जाये...देखता हूँ...

बेनामी ने कहा…

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