धीरे, धीरे चलती बैलगाडी, तकरीबन एक घंटा लगाके घर पहुँची...दादी उतरी...बहू की गोद से बच्ची को बाहों में भर लिया...दादा भी लपक के ताँगे से उतरे...दोनों ताँगों को हिदायत थी कि,एक आगे चलेगा,एक बैलगाडी के पीछे...आगे नही दौड़ना..! तांगे वालों को उनकी भेंट मिल गयी...दोनों खुशी,खुशी, लौट गए...
बच्ची को दादी ने तैयार रखी प्राम में रखा...और दादा ने अपने पुरातन कैमरा से उसकी दो तस्वीरें खींच लीं...उसने हलकी-सी चुलबुलाहट की,तो दादी ने तुंरत रोक लगा दी..वो भूखी होगी...बाहर ठंड है...उसे अन्दर ले चलो...अच्छे -से लपेट के रखो...
बहू बच्ची को दूध पिला चुकी,तो दादी,अपनी बहू के पास आ बैठीं...बोलीं," तुम अब आराम करो..जब तक ये सोती है,तुम भी सो जाना..और इसे जब भूख लगे,तब दूध पिला देना..जानती हो, बाबाजानी तो ( उनके ससुर ) घड़ी देख के मेरे बच्चे को मेरे हवाले करते..अंग्रेज़ी नियम...बच्चे को बस आधा घंटा माँ ने अपने पास रखना होता..बाद में उसे अलग कमरे में ले जाया जाता..और चाहे कितना ही रोये,तीन घंटों से पहले मेरे पास उसे दिया नही जाता...अंतमे मेरा दूध सूख गया..जब ससुराल से यहाँ लौटी तो हमने एक माँ तलाशी, जिसे छोटा बच्चा था...हमारे पास लाके रखा..उसकी सेहत का खूब ख़याल रखते...वो अपने और मेरे,दोनों बच्चों को दूध पिला देती...तुम अपना जितना समय इस बच्ची को देना चाहो देना.."
और इस तरह,उस नन्हीं जान के इर्द गिर्द जीवन घूमने लगा..दादा-दादी उसे सुबह शाम प्राम में रख, घुमाने ले जाया करते...उन्हें हर रोज़ वो नयी हरकतों से रिझाया करती...कभी वो चम्पई कली लगती तो, तो कभी चंचल-सी तितली...! उसके साथ कब सुबह होती और कब शाम,ये उस जोड़े को पता ही नही चलता...
गर उसे छींक भी आती तो दादा सबसे अधिक फिक्रमंद हो जाते...एक पुरानी झूलती कुर्सी थी...दादी उसे उस कुर्सी पे लेके झुलाती रहती...और पता नही कैसे, लेकिन उस बच्ची को एक अजीब आदत पड़ गयी...झूलती कुर्सी पे लेते ही उसपे छाता खोलना होता ...तभी वो सोती...! उस परिवार में अब वो कुर्सी तो नही रही, लेकिन वो वाला..दादी वाला, छाता आज तलक है...
दिन माह बीतते गए...और साथ,साथ साल भी...
बच्ची जब तीन साल की भी नही हुई थी, तो उसके पिता को आंध्र प्रदेश में कृषी संशोधन के काम के लिए बुलाया गया..वहाँ दो साल गुज़ारने के ख़याल से युवा जोड़ा अपनी बच्ची के साथ चला गया...दादा-दादी का तो दिल बैठ गया...
बच्ची का तीसरा साल गिरह तो वहीँ मना..दादी ने एक सुंदर-सा frock सिलके पार्सल द्वारा उसे भेज दिया..उस frock को उस बच्ची ने बरसों तक सँभाले रखा...उसके बाद तो कई कपड़े उसके लिए उसकी माँ और दादी ने सिये..लेकिन उस एक frock की बात ही कुछ और थी...
इस घटना के बरसों बाद, दादी ने एक एक बड़ी ही र्हिदय स्पर्शी याद सुनाई," जब ये तीनो गए हुए थे,तो एक शाम मै और उसके दादा अपने बरामदे में बैठे हुए थे...एकदम उदास...कहीँ मन नही लगता था..ऐसे में दादा बोले...'अबके जब ये लौटेंगे तो मै बच्ची को मैले पैर लेके चद्दर पे चढ़ने के लिए कभी नही रोकूँगा...ऐसी साफ़ सुथरी चादरें लेके क्या करूँ? उसके मिट्टी से सने पैरों के निशाँ वाली एक चद्दर ही हम रख लेते तो कितना अच्छा होता....' और ये बात कहते,कहते उनकी आँखें भर, भर आती रहीँ..."
जानते हैं, वो बच्ची इतनी छोटी थी,लेकिन उसे आजतलक उन दिनों की चंद बातें याद हैं...! कि उसकी माँ के साथ आंध्र में क्या,क्या गुजरा...वो लोग समय के पूर्व क्यों लौट आए...और उसके दादा दादी उसे वापस अपने पास पाके कितने खुश हो गए...! वो दिन लौटाए नही लौटेंगे..लेकिन उन यादों की खुशबू उस लडकी के साँसों में बसी रही...बसा रहा उसके दादा दादी का प्यार...
क्रमश:
इस के बाद ये मालिका अधिक तेज़ी पकड़ लेगी...तस्वीरें scan नही हो पा रही हैं..इसलिए क्षमा चाहती हूँ..जैसे ही scanner ठीक होगा, वो पोस्ट कर दूँगी..हासिल हो गयी हैं,इतना बताते चलती हूँ..
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16 टिप्पणियां:
honestly...
i feel myself dipped in completely when i read your posts...
awesome...
keep writing...
thanks...
kshama ji...
thanks a lot again...
pls give me ur gmail id so that i can add you in my frnd list....
thanks.
kshama ji,
word verification hata diya hai...
main toh aapka follower ban gaya hoon toh aata rahunga...
aur padhta rahunga aapko...
shukriya once again!
मेडम ,मेरे ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी देख कर आपके ब्लॉग पर आया |बिखरे सितारे की पहली व दूसरी कड़ी तो पढ़ नहीं पाया यह तीसरी कड़ी बहुत अच्छी लगी |
मेरे ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी का अर्थ मैं समझ नहीं पाया ,कहीं ऐसा तो नहीं की टिप्पणी किसी दूसरे लेख पर लिखी हो और गलती से मेरे ब्लॉग पर आगई हो ?
बहुत सुन्दर कहनी चल रही है मैने भी पहली बार देखा है आपका ब्लाग बहुत बहुत शुभकामनायें अगलि कदी का इन्तज़र रहेगा आभार्
कहानी में रवानी है।
बढ़िया लेखन की यही तो निशानी है।
बधाई।
भावात्मक अभिव्यक्ति.... वाह..
हां उसी की बात कर रहा था जिसे सच का सामना कहा जाता है आप ही बतलाइए क्या ऐसी बातें सच होते हुए भी क्या एक आदर्श परिवार के हित में हैं ?
मुझे दादा दादी का प्यार...नसीब न हुआ
क्युकी वे मेरे जनम से पहले ही शरीर त्याग चुके थे ...आपकी पोस्ट ने उनकी कमी महसूस करा दी
http://som-ras.blogspot.com
Man ko baandh leni ki shakti hai aapki kalam men, Badhaayi.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बढ़िया लेखन
क्षमाजी आपके लेखन में प्रवाह है...कहानी कहने की कला में ये सबसे अधिक जरूरी बात होती है...कहानी का कथ्य भी बहुत मार्मिक है...आगे क्या हुआ की सतत उत्सुकता बनी हुई है...
नीरज
nice write !!
makes one involved .
cONGRATS ...
and...thanks....
feeling encouraged.
---MUFLIS---
"उसके मिट्टी से सने पैरों के निशाँ वाली एक चद्दर ही हम रख लेते तो कितना अच्छा होता...."
कितनी अच्छी बात कही है - काश यह समझदारी सब में नैसर्गिक ही होती तो दुनिया कितनी खूबसूरत होती!
क्षमा जी !
सादर प्रणाम !
आज तीसरी कड़ी पढ़ी । अच्छा लगी । बड़े-बुजुर्गों का स्नेह भाव और उनकी तन्हाई का सुंदर चित्रण हुआ है ।
इस घटना के बरसों बाद, दादी ने एक एक बड़ी ही र्हिद्य याद सुनाई,"
इस वाक्य में र्हिद्य क्या है ? इसी प्रकार की छोटी-छोटी भाषा संबंधी भूलों की मैं बात कर रहा था । अन्यथा आपकी लेखनी प्रभावित करती है ।
दादा जी की वो चादर पे नन्हीं पूजा के पाँव के निशान को सँभाल कर रख लेने वाली बात अंदर तक छू गयी। मुझे नहीं लगता कि इससे पहले ऐसे भाव को किसी ने इतने सुंदर ढ़ंग से कहा होगा।
...अच्छा लग रहा है छुटकी पूजा की इस कहानी को यूं किश्त-दर-किश्त पढ़ना और फिर हर पड़ाव पर थमक कर टिप्पणी लिखना।
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