शनिवार, 4 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना !5


आशाने एक पार्ट time और एक फुल time ऐसी दो औरते कामके लिए  रखही ली थी। अस्मिता दादीका आँचल नही छोड़ती थी।

कुछ ही दिनोंमे मायाको बेटा हुआ। लड़के के नामों की लिस्ट बनी। 'कुशल' नाम सभीको अच्छा लगा। नामकरण हो गया। अस्मिता के सामने अगर आशा कुशल के लाड करती तो वो तूफान मचा देती। आशा और उसका पति  दोनो तृप्त थे। ज़िंदगी उन्हें इतना कुछ देगी ऐसा कभी सोचाही नही था।

यथासमय संजूका भी ब्याह हो गया। बादमे शुभदा भी बालरोग विशेषज्ञ हो गयी और उसका भी एक विशिष्ट दैनिक क्रम शुरू हो गया। संजू-शुभदा उसी अस्पतालमे काम करने लगे जहाँ राजू करता था। बच्चे,बहुएँ आपसमे हिलमिलकर रहते, आशाने सबको एक डोरमे बाँध रखा था। सबने मिलकर घरको अन्दर बाहरसे सुन्दर बना रखा था। और फिर शुभदानेभी खुश खबरी सुनाई। उसे जुडवाँ बच्चे हुए। दोनो लड़के। इस कारण अस्मिता सभीकी औरभी लाडली हो गयी।

आशा हमेशा "दयाकी दृष्टी सदाही रखना..."गाना गुनगुनाया करती। कई बार राजू-संजू जब वो रसोयी मे होती और ये गाना गुनगुना रही होती तो उसके गलेमे बाहें डालकर कहते,"माँ,ऊपरवालेकी दया तो है ही लेकिन तेरी मेहनत कई गुना ज्यादा। उसके बिना ये दिन हमे देखने को ही नही मिलते।"

अब भी उसके कान्धोंको कोई स्पर्श कर रहा था। "राजू?संजू?" वो बुदबुदा रही थी।
"माजी!मैं लीलाबाई!चलिए,मैं आपको बाथरूम ले चलती हूँ। कुल्ला कीजिए,फिर चाय लीजिये,"वृद्धाश्रम   मे खास आशाके लिए तैनात की गयी लीलाबाईने कहा।
"लीलाबाई? तू कौन??राजू,संजू कहाँ हैं??अभी तो मुझे पीछेसे आकर गले लगाया। कहाँ गए?,"आशाने कुछ न समझते हुए कहा।
"माँ जी,पहले उठिए तो। राजू, संजू को बादमे बुलाएँगे,"लीलाबाईने कहा।

नियतीकी कैसी विडम्बना थी! आशा वास्तव और कल्पना इसमेका फासला पूरी तरह भूल गयी थी। पिछले दो सालोंसे इस आश्रम मे पडी हुई थी। उसे तो आगे पढ़नेको भी नही मिला था। गराज मे काम करने वाले पति ने  इजाज़त दी ही नही थी।पति  को पढ़नेका बिलकुल शौक नही था! उनको दो लड़के हुए थे ये वस्तुथिति थी। दोनो डाक्टर बने थे ये भी वस्तुस्थिति । लेकिन किसतरह?ये अलग कहानी थी.......

आशा जिस स्कूलमे सफाई का काम करती थी, वहाँ की मुख्याध्यापिका ने उसके बच्चो की स्मार्टनेस देख ली और उसे एक अपत्यहीन , बहुत  दौलतमंद,लेकिन उतनी ही नेकदिल पारसी औरतके पास ले गयी।
"मैं बच्चों का सब खर्च करुँगी उन्हें बहुत  अच्छे बोर्डिंग स्कूलमे भरती करवा दूँगी.... बच्चे बहुत  होशियार हैं । उनका भविष्य उज्वल हो जाएगा। तुम्हे पछताना नही पड़ेगा," उस दयालु ,पारसी औरत,मिसेज़ सेठना ने, आशासे कहा।

आशाको क्या कहा जाय कुछ सूझ नही रहा था। क्या अपने पति को पसंद आएगा ये सब? उनको छोडो, उसका मन लगेगा इन कलेजों के टुकडों के बिना? वो स्तब्ध खडी हो गयी। बच्चे उसका आँचल थामे खडे थे। उस पारसी औरत का बड़ा-सा बंगला फटी-फटी आँखों से देख रहे थे।

क्रमश: 


6 टिप्‍पणियां:

Ramakant Singh ने कहा…

बिखरते सितारों को समेटती कहानी खूबसूरती से सिमटती

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत रोचक जगह पर है कथा।

उम्मतें ने कहा…

मैं कथा को लगातार पढता चल रहा हूँ !

रचना दीक्षित ने कहा…

बहुत बढ़िया जा रही है यह कहानी.

रचना दीक्षित ने कहा…

मंत्रमुग्ध सी पढ़ गयी और मन बेहद द्रवित हो गया.

बहुत सुंदर लेखन.

Asha Joglekar ने कहा…

अच्छी जा रही है कहानी । इन्सान को जो हकीकत में नही मिलता वह कल्पना में ढूँढ लेता है ।