बुधवार, 8 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! 8


फिर दिन महीने साल खिसकने लगे। इस प्रसंग के बाद आशा एकदम बुढ़िया-सी गयी। बेचारा उसका पति  फिर भी उसके लिए गजरे, बडे, कपडे लाता गया। एक दिन  वो उससे बोला,"मैं आज जल्दी आऊँगा। हम पिक्चर देखने चलेंगे। तू तैयार रहना। "
उसकी कतई इच्छा नही थी। फिर भी वो तैयार होके बैठ गयी। इतनेमे उसने देखा,बस्तीके लोग, बच्चे, मेन रोड की तरफ   भागे चले जा रहे थे। पता नही क्या है, उसके मनमे आया, फिर वो भी उस तरफ चल पडी । उसे आते देख भीड़ थोडी हटने लगी। अपघात???किसका??तभी उसे कुछ अंतरपर पडा गजरा दिखा, बिखरे हुए आलू बडे दिखे, टूटी हुई साइकल दिखी और वो बेहोश हो गयी।

जब होशमे आयी ,तो अपनी टपरी मे थी। टपरी के बाहर सफ़ेद कपडेमे लिपटा उसका सुहाग पडा था। साथ मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका भी थी। अन्तिम सफर की तैय्यारियाँ हो रहीं थीं। पंडित कुछ कर रहा था, कुछ-कुछ बोल रहा था। फिर सब ख़त्म हो गया। उसका जीवनसाथी भी उस छोड़ किसी अनजान सफरपे निकल पडा था। वो फूट फूट के रो पडी।

इसके बाद वो पगला-सी गयी। कभी काम पे जाती थी तो कभी नही। दिन,महीनों की गिनती उसे रही नही। अडोस-पड़ोस का कोई उसे खिला देता,नलकेपे ले जाके उसे नेहला देता, तथा कभी कभार कंघी कर देता। एक दिन ऐसीही अवस्थामे वो अपने झोंपडेसे बाहर निकली। अँधेरा था। किसी चीज़ से ठोकर खाके गिर पडी और गिरते समय जब चीखी तो अडोस-पड़ोस के लोग दौडे। उसे अस्पताल ले जाया गया। मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका को खबर दी गयी। दोनोही तुरंत भागी चली आयी। मिसेस सेठनाने खर्च की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली।

सुबह जब उसे आधा-अधूरा होश आया तब वो कुछ बुदबुदा रही थी, किसीको बुला रही थी। डाक्टर के अनुसार वो बेहद कमज़ोर तो हो ही गयी थी,उसके मस्तिष्क पे भी भारी सदमा पहुंचा  था। उसके लिए अकेले झोंपड़े मे रहना खतरेसे खाली नही था......

सरपर का ज़ख्म ठीक होनेके बाद मिसेस सेठना ने उसे वृद्धाश्रम मे रखनेका निर्णय लिया। उन्होने आश्रम को डोनेशन भी दिया, लीलाबाई नामकी एक आया आशा की खिदमत मे रखवा दी। एक पहचानवाले डाक्टर को रोज़ शाम क्लिनिक जानेसे पहले एक बार आशा को चेक करनेकी विनती की। बेचारी मिसेस सेठना, आशा पे पडी आपत्ती के लिए खुदको ही ज़िम्मेदार ठहराती रही।

आशा कुछ रोज़ बाद घूमने फिरने लगी,लेकिन वो कहाँ है ये उसे समझमे आना बंद हो गया। स्पप्न और सत्यके बीछ्का अंतर मिटता चला गया। रोज़ सवेरे वो लीलाबाई से कहती,"मुझे बगियामे ले चल",और रोजही वहाँ आके कहती,"मेरी जूही की बेल कहाँ है??मोतियाभी दिख नही रहा!!मेरे बगीचेका किसने सत्यानास किया???शामको राजू-संजू आएँगे तो मैं उनसे कहूँगी मेरी बगिया फिरसे ठीक कर दो।"
क्रमशः

9 टिप्‍पणियां:

शारदा अरोरा ने कहा…

bahut dardnak kahani hai kisi ko bhi hila kar rakh de...aapne bahut achchha likha hai...pravaah my...

Bhawna Kukreti ने कहा…

dil dukh gaya

शिवनाथ कुमार ने कहा…

दुखद !
मैं सीधे आठवीं कड़ी पढ़ रहा हूँ इसलिए पीछे की कड़ियों का पता नहीं !
समय मिलने पर फिर आऊंगा और पढूंगा !
सुंदर भावमयी प्रवाह !
सादर !

Ramakant Singh ने कहा…

कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं ..अच्छे लोगों के साथ ऐसा क्यों होता है

Ramakant Singh ने कहा…

कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं ..अच्छे लोगों के साथ ऐसा क्यों होता है

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

itna dard kyun??

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

जिसकी बगिया उजाड गयी हो, उसके लिए तो संसार असार हो जाता है, ऐसे में विक्षिप्त आशा के लिए क्या कोई आशा की किरण भी है कहीं?? देखें आपने उसके लिए क्या छिपा रखा है आगे की मालिकों में!!

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुंदर भावमयी
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ...!!!

Asha Joglekar ने कहा…

दर्द का हद से गुजर जाना.............।
स्वतंत्रता दिवस अच्छा मना होगा ।