( गतांक:केतकी ने अंत में इस बात की इत्तेला मेरे जेठ जेठानी को दी..उनको गौरव ने नही बताया था..सगे भाई जो नही थे..लेकिन जेठानी ने गौरव को तुरंत फोन किया..और कह दिया:' तुम गर हमारी बहू को घर से निकालोगे,तो,मेरा मरा मूह देखोगे..हम दोनों को उसके चरित्र पे किंचित भी शंका आ नहीं सकती.."
यह बात सुन,गौरव ना जाने क्यों सकपका गया..और उसने उन्हें कहा," ठीक है भाभी,आपकी बात रख लेता हूँ.."
इस के पश्च्यात वो दोनों मेरे पास पहुँच गए...अब आगे पढ़ें...)
भाभी-भैया आ गए. मुझे अच्छा भी बहुत लगा,की,वो दोनों आए तो..मेरे साथ तो खड़े रहे. लेकिन मेरे समझ से परे था,की,गौरव ने उनकी बात कैसे रख ली?
माँ को भी इसी बात का अचरज था. और माँ ने जो अंदाज़ लगाया,वो भी एकदम सही था. मुझे छोड़ देना गौरव के अहम को ठेस थी. इसके अलावा वह यह भी जताना चाह रहा था,की, पत्नी ने किये छल के बावजूद उसने,बड़ा दिल कर के माफ़ कर दिया..और कोई होता,तो घर से धक्के मार के निकाल देता..भविष्य में मैंने यह अलफ़ाज़ गौरव के मुख से अनगिनत बार सुने.गर मेरे पास एक भी पर्याय मौजूद होता,तो शायद मै स्वयं उस घर में नही ठहरती. यही हमारे समाज की विडम्बना है.खैर!
भाभी-भैया कुछ रोज़ रुक के लौट गए.
माँ के मन से भी अविश्वास धुंद हट गयी. भाई ने भी इतना तो कह दिया: मै बाजी के चरित्र पर शक कर ही नही सकता. और यह भी सच है,की, उन्हों ने जीजा जी से इजाजात भी माँगी होती,तो वो कौन देनेवाले थे!"
काश! मेरी बहन का भी यही रवैय्या रहता!
इस घटना के कुछ ही दिन पूर्व,मुझे एक सहेली ने दो चित्र नेट पे फॉरवर्ड किये थे. माँ पास ही खड़ी थीं. मैंने उन्हें पहला चित्र दिखाया और पूछा: आपको क्या नज़र आ रहा है इस चित्र में?"
माँ:" किसी बगीचे में एक बेंच है. उसपे एक लड़का, किसी सुनहरी बालवाली लडकी के गले में हाथ डाले बैठा है".
मै: " अच्छा! यह तो जो पीछे से दिख रहा है,वो है....अब इसी तसवीर को सामने से देखिये!"
मैंने अगली तसवीर पे क्लिक किया और माँ हँस ने लगीं! सामने से देखा तो समझे,की,वो सुनहरे बालवाली लडकी नही,बल्कि,एक कुत्ता था!
क्या ख़बर थी,की,मेरे साथ यही होगा? के तसवीर की एक ही बाज़ू देखी जायेगी?
केतकी अब मेरे पीछे पड़ गयी,की,मैंने कुछ ना कुछ अपना काम शुरू करना ही चाहिए. चाहत मेरी भी यही थी. लेकिन हम चाहें,और तुरंत वैसा हो जाये....जीवन में ऐसा तो होता नही. मैंने अपने दिमाग के दरवाज़े पूरी तरह खोल दिए.
केतकी वैसे बेहद चिड चिडी हो गयी थी. बात बात पे उलझ पड़ती. इतनी,की,मेरी माँ,जो उसे अपनी जान से बढ़ के प्यार करतीं,उनसे भी वह कई बार बड़ी बदतमीज़ी से पेश आती. माँ और मै,दोनों ही उसकी इस मानसिक अवस्था को समझ रहे थे. बरसों उस पे ना इंसाफी हुई थी. मुझ पे भी हुई थी,जिसकी वह गवाह थी. और जैसे भी हो,उसने मेरा साथ निभाया था. अवि के समय भी वह और उसका पति,दोनों मेरे साथ खड़े रहे. वरना मै ज़लालत से ही मर जाती.
चंद दिनों बाद केतकी लौट गयी.
फिल्म मेकिंग के दौरान चंद लोगों से परिचय हुआ. बड़ा मन करता की,समाज की ज्वलंत समस्याओं पे छोटी,छोटी फ़िल्में बनाऊं . आर्थिक हालत तो ऐसी न थी,की,बना सकूँ. तलाश में थी की,कोई producer या distributer मिले.
मै भी एक कोष में चली गयी थी. अपने आप से सवाल करती,क्या सच में मुझे,इतनी सहजता से,अपना मन पसंद काम मिल गया है? शायद कोई आंतरिक शक्ती होती है,जो हमें आगाह कराती है.लेकिन किस बात से मैंने आगाह होना था? हर क़दम फूँक फूँक के उठा रही थी...!
केतकी दोबारा आनेवाली थी. उसे कुछ अपने काम के लिहाज़ से assignments मिले थे. वह पहले गौरव के पास पहुँची. बाद में मेरे पास. उसका मिज़ाज कुछ और अधिक चिडचिडा महसूस हुआ मुझे....
किसी अन्य शहर वो अपने काम से गयी थी और मैंने उसे कुछ पूछने के ख़ातिर फोन किया. वह फोन पे मुझपे कुछ इस तरह बरस पडी,जैसे मैंने पता नही क्या कर दिया हो...! फोन को कान पे पकडे,पकडे ही,मै मूर्छित हो फर्श पे गिर गयी...घर पे सफाई करनेवाली बाई थी और मेरा एक टेलर भी..उसने घबराके मेरे भाई को फोन कर दिया....वो आभी गया...नही जानती थी,की,क़िस्मत ने अपनी गुदडी में और कितने सदमे छुपा रखे थे...
हर हँसी की कीमत
अश्कोंसे चुकायी हमने,
पता नही और कितना
कर्ज़ रहा है बाक़ी,
आँसू हैं कि थमते नही!
क्रमश:
कड़ी का काफ़ी अंश डिलीट कर दिया है. क्षमा करें !
यह बात सुन,गौरव ना जाने क्यों सकपका गया..और उसने उन्हें कहा," ठीक है भाभी,आपकी बात रख लेता हूँ.."
इस के पश्च्यात वो दोनों मेरे पास पहुँच गए...अब आगे पढ़ें...)
भाभी-भैया आ गए. मुझे अच्छा भी बहुत लगा,की,वो दोनों आए तो..मेरे साथ तो खड़े रहे. लेकिन मेरे समझ से परे था,की,गौरव ने उनकी बात कैसे रख ली?
माँ को भी इसी बात का अचरज था. और माँ ने जो अंदाज़ लगाया,वो भी एकदम सही था. मुझे छोड़ देना गौरव के अहम को ठेस थी. इसके अलावा वह यह भी जताना चाह रहा था,की, पत्नी ने किये छल के बावजूद उसने,बड़ा दिल कर के माफ़ कर दिया..और कोई होता,तो घर से धक्के मार के निकाल देता..भविष्य में मैंने यह अलफ़ाज़ गौरव के मुख से अनगिनत बार सुने.गर मेरे पास एक भी पर्याय मौजूद होता,तो शायद मै स्वयं उस घर में नही ठहरती. यही हमारे समाज की विडम्बना है.खैर!
भाभी-भैया कुछ रोज़ रुक के लौट गए.
माँ के मन से भी अविश्वास धुंद हट गयी. भाई ने भी इतना तो कह दिया: मै बाजी के चरित्र पर शक कर ही नही सकता. और यह भी सच है,की, उन्हों ने जीजा जी से इजाजात भी माँगी होती,तो वो कौन देनेवाले थे!"
काश! मेरी बहन का भी यही रवैय्या रहता!
इस घटना के कुछ ही दिन पूर्व,मुझे एक सहेली ने दो चित्र नेट पे फॉरवर्ड किये थे. माँ पास ही खड़ी थीं. मैंने उन्हें पहला चित्र दिखाया और पूछा: आपको क्या नज़र आ रहा है इस चित्र में?"
माँ:" किसी बगीचे में एक बेंच है. उसपे एक लड़का, किसी सुनहरी बालवाली लडकी के गले में हाथ डाले बैठा है".
मै: " अच्छा! यह तो जो पीछे से दिख रहा है,वो है....अब इसी तसवीर को सामने से देखिये!"
मैंने अगली तसवीर पे क्लिक किया और माँ हँस ने लगीं! सामने से देखा तो समझे,की,वो सुनहरे बालवाली लडकी नही,बल्कि,एक कुत्ता था!
क्या ख़बर थी,की,मेरे साथ यही होगा? के तसवीर की एक ही बाज़ू देखी जायेगी?
केतकी अब मेरे पीछे पड़ गयी,की,मैंने कुछ ना कुछ अपना काम शुरू करना ही चाहिए. चाहत मेरी भी यही थी. लेकिन हम चाहें,और तुरंत वैसा हो जाये....जीवन में ऐसा तो होता नही. मैंने अपने दिमाग के दरवाज़े पूरी तरह खोल दिए.
केतकी वैसे बेहद चिड चिडी हो गयी थी. बात बात पे उलझ पड़ती. इतनी,की,मेरी माँ,जो उसे अपनी जान से बढ़ के प्यार करतीं,उनसे भी वह कई बार बड़ी बदतमीज़ी से पेश आती. माँ और मै,दोनों ही उसकी इस मानसिक अवस्था को समझ रहे थे. बरसों उस पे ना इंसाफी हुई थी. मुझ पे भी हुई थी,जिसकी वह गवाह थी. और जैसे भी हो,उसने मेरा साथ निभाया था. अवि के समय भी वह और उसका पति,दोनों मेरे साथ खड़े रहे. वरना मै ज़लालत से ही मर जाती.
चंद दिनों बाद केतकी लौट गयी.
फिल्म मेकिंग के दौरान चंद लोगों से परिचय हुआ. बड़ा मन करता की,समाज की ज्वलंत समस्याओं पे छोटी,छोटी फ़िल्में बनाऊं . आर्थिक हालत तो ऐसी न थी,की,बना सकूँ. तलाश में थी की,कोई producer या distributer मिले.
मै भी एक कोष में चली गयी थी. अपने आप से सवाल करती,क्या सच में मुझे,इतनी सहजता से,अपना मन पसंद काम मिल गया है? शायद कोई आंतरिक शक्ती होती है,जो हमें आगाह कराती है.लेकिन किस बात से मैंने आगाह होना था? हर क़दम फूँक फूँक के उठा रही थी...!
केतकी दोबारा आनेवाली थी. उसे कुछ अपने काम के लिहाज़ से assignments मिले थे. वह पहले गौरव के पास पहुँची. बाद में मेरे पास. उसका मिज़ाज कुछ और अधिक चिडचिडा महसूस हुआ मुझे....
किसी अन्य शहर वो अपने काम से गयी थी और मैंने उसे कुछ पूछने के ख़ातिर फोन किया. वह फोन पे मुझपे कुछ इस तरह बरस पडी,जैसे मैंने पता नही क्या कर दिया हो...! फोन को कान पे पकडे,पकडे ही,मै मूर्छित हो फर्श पे गिर गयी...घर पे सफाई करनेवाली बाई थी और मेरा एक टेलर भी..उसने घबराके मेरे भाई को फोन कर दिया....वो आभी गया...नही जानती थी,की,क़िस्मत ने अपनी गुदडी में और कितने सदमे छुपा रखे थे...
हर हँसी की कीमत
अश्कोंसे चुकायी हमने,
पता नही और कितना
कर्ज़ रहा है बाक़ी,
आँसू हैं कि थमते नही!
क्रमश:
कड़ी का काफ़ी अंश डिलीट कर दिया है. क्षमा करें !
8 टिप्पणियां:
हर हँसी की कीमत
अश्कोंसे चुकायी हमने,
पता नही और कितना
कर्ज़ रहा है बाक़ी,
आँसू हैं कि थमते नही!
-जारी रहिये, पढ़ रहे हैं.
हां वही सब कुछ वैसा ही ! काश मैं आँखें बंद करके पढ़ सकता ! शक की बुनियाद पर खड़े अस्थिर मकानों से पनाह की उम्मीद ?...
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
बेहतरीन प्रस्तुती! लिखते रहिये और हमें आपका हर एक पोस्ट बेहद पसंद है!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
aapki bhavnayen bahut sundar hain thanks for nice comment
बेटी भी माँ के खिलाफ । यह तो आँसुओं से धुलने वाला दाग नही ।
क्षमाजी!...आप की सभी रचनाएं मेरे दिल को छू कर ही आगे का सफर तय करती है!....आपकी भाषा और लेखनी की मै कायल हूं!...आप के साथ ही चल रही हूं!...मेरी अनेको शुभ-कामनाएं हंमेशा आप के साथ है!
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