( गतांक: मैंने कमरे से बाहर निकल जाना चाहा ,लेकिन केतकी मानो चंडिका का रूप धारण कर चुकी थी...उसने मेरी बाँह पकड़ दोबारा कमरे में खींच लिया...उसकी आँखों में आग थी...जिसे मेरे आँसूं चाहकर भी बुझा न पा रहे थे..अब आगे पढ़ें)
अपने आप को ऐसे मोड़ों पे खड़ा पा रही थी,जहाँ लगातार दिशा भ्रम महसूस होता...समझ नही पाती की,क्या करना चाहिए..किस राह निकलना सही होगा?
केतकी की मानसिकता समझ रही थी..वह लगातार दो पाटों के बीछ पीसी जा रही थी..अमन ने तो अपनेआप को अलग कर लिया था. ऐसे अशांत माहौल में शांती कैसे ला सकती थी मै? केतकी के लिए दिल तार तार हुआ जा रहा था. बेटी को माँ के आँचल तले भी दर्द से निजात न मिले तो जाये कहाँ?
(ये कहानी नही जीवनी है. किरदार सब के सब असली जीवन से हैं.इस बात को मद्दे नज़र रख,इस कड़ी का उर्वरित हिस्सा मैंने हटा दिया है . )
क्रमश:
6 टिप्पणियां:
याद है सब कुछ ! शक जिंदगी को जहन्नम बना देता है ! माफीनामा काफी देर से आया !
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
सच में दिल दहला देने वाला सत्य पढ़कर मैं तो कल रात सो भी नहीं पाई, हद होती है इंसान के गिरने की, कितना सहा पूज़ा ने दर्द जब ज्यादा होता है जब अपने उस दर्द में नश्तर चुभाते हैं...
bahut badiya...
acha laga aapko pad kar..
Meri Nayi Kavita par aapke Comments ka intzar rahega.....
A Silent Silence : Zindgi Se Mat Jhagad..
bahut achha...
आपकी कहानी कितना दर्द लेकर चल रही है । किसी एक के ही हिस्से में इतना दर्द ।
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