अबतक के संस्मरण का सारांश:कहानी शुरू होती है पूजा-तमन्ना के जनम से..लक्ष्मी पूजन का जनम इसलिए उसके दादा ने तमन्ना नाम के साथ पूजा जोड़ दिया..बच्ची सभी के आँखों का तारा बनती है.(शुरुके कुछ हिस्सों में तस्वीरें दी हैं)गांधीवादी दादा-दादी शहर छोड़, देश सेवा करने कर्नाटक के एक दूरदराज़ गाँव में आ बसे हौं..पूजाकी परवरिश तथा पाठ शाला की पढाई पास वाले एक छोटे शहर में होती है..महाविद्यालयीन शिक्षण हेतु वो बड़े शहर में आती है..
दूसरा वर्ष ख़त्म कर पूजा अपने गाँव लौटती है.वहाँ उसकी मुलाक़ात एक आईएस अफसरसे होती है..पहलीही नज़रमे प्यार हो जाता है..इस प्यार का अंत दुखदायी होता है..लड़के के घरसे विरोध तथा धर्मान्तरण की माँग पूजा के परिवार को अमान्य है..उनके विचार से पूजा बस एक हिन्दुस्तानी लडकी है..जात-पात की बातें मायने नहीं रखती..जब यह सब उस लड़के के सहकर्मी, गौरव को पता चलता है,तो वह आगे बढ़ पूजा का थाम लेता है....उन दोनों का ब्याह करा दिया जाता है..
ऊपरसे स्नेहिल,समंजस लगने वाला गौरव हक़ीक़त में बड़ा ही गुस्सैल किस्म का व्यक्ति निकलता है.. उसका पूरा परिवार ही बेहद रूढीवादी होता है..एक पुर ख़तर और तकलीफदेह सहजीवन शुरू होता है..ख़ास कर पूजा के लिए,जो स्वयं सरल तथा सर्व गुण संपन्न लडकी है..साथ,साथ उतनी ही मृदु और सुन्दर..
दिन गुज़रते रहते हैं..पूजा एक लडकी की माँ बनती है..लेकिन सभी को लड़के की चाह होने के कारण नन्हीं बच्ची,केतकी उपेक्षित रहती है...लाड प्यार से महरूम...पूजा के ऊपर एक और ज़िम्मेदारी आन पड़ती है..बिटिया को पारिवारिक द्वेष से बचाए रखना..केतकी अपने ननिहाल में तो बहुत लाडली होती है..
केतकी अभी दो सालकी भी नहीं होती के उसके भाई,अमन का आगमन होता है..
केतकी वास्तुशास्त्र में पदवी धर बन जाती है..उन्हीं दिनों उसका अपने भावी जीवन साथी से परिचय होता है..जो अमरीकामे पहले पढने और बाद में नौकरी के ख़ातिर रहता है..केतकी आगे की पढाई के लिए अमरीका चली जाती है..पूजा का दिल बैठ-सा जाता है...और फिर उसे खबर मिलती है,की, पढाई ख़त्म होते,होते दोनों ब्याह कर लेंगे...बिटिया का ब्याह और मै नहीं...इस विचार से पूजा टूट-सी जाती है).
.(गतांक: उसके जीवन का इतना अहम दिन और मै वहाँ हाज़िर नही...? दिल को मनाना मुश्किल था...नियती पे मेरा कोई वश नही था...ईश्वर क्यों मेरी ममता का इस तरह इम्तेहान ले रहा था? मैंने ऐसा कौनसा जुर्म कर दिया था? किया था..मेरे रहते,मेरी बिटियाको ज़ुल्म सहना पड़ा था..मुझे क़ीमत चुकानी थी...पर मेरा मन माने तो ना...) अब आगे पढ़ें...
बिखरे सितारे(अध्याय २) १६ हर खुशी हो वहाँ..
मै अपनी दिनचर्या केवल यंत्रवत करती रहती..कहीं कोई उमंग नहीं..कैसे कैसे सपने,कैसे,कैसे अरमान संजोये थे मैंने अपनी बिटिया के ब्याह को लेके..दादी परदादी से मिले नायाब वस्त्र,कमख्वाब, लेसेस,हाथ से काढ़े हुए,कामदार दुपट्टे तथा लहेंगे...क्या कुछ मैंने संभाल के रखा हुआ था अपनी बिटिया के लिए...उसमे से मै उसकी चोलियाँ सीने वाली थी..मेरी बेटी एक अलाहिदा,हट के दुल्हन बननेवाली थी..और यहाँ तो उसके ब्याह में मेरी शिरकत भी मुमकिन न थी...मै अंदरही अन्दर घुट के रह गयी..
ब्याह के पश्च्यात उसका फोन तथा मेल आया..मैंने पूछा," बेटे ,तुम यहाँ से जो साड़ियाँ ले गयी थी उसमे से कौनसी पहनी? और केशभुषा कैसे की?"
उसका उत्तर: "ओह माँ! साड़ी पहननेकी किसे फ़ुरसत थी? मैंने तो pant टी-शर्ट पहना था..और बाल पोनी टेल में बांधे थे!"
इस पर मैंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही की...उसे आशीर्वाद देते हुए एक मेल लिखी..जिसमे एक हिंदी फ़िल्मके गीतकी चंद पंक्तियाँ दोहराईं....असल में यह गीत नायिका अपने प्रीतम को याद करते हुए गाती है पर ऐसी भावनाएं कोई भी,किसीभी अपने के ख़ातिर ज़ाहिर कर सकता है..
"हर खुशी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
चाँद धुन्दला सही,ग़म नही है मुझे,
दूसरा वर्ष ख़त्म कर पूजा अपने गाँव लौटती है.वहाँ उसकी मुलाक़ात एक आईएस अफसरसे होती है..पहलीही नज़रमे प्यार हो जाता है..इस प्यार का अंत दुखदायी होता है..लड़के के घरसे विरोध तथा धर्मान्तरण की माँग पूजा के परिवार को अमान्य है..उनके विचार से पूजा बस एक हिन्दुस्तानी लडकी है..जात-पात की बातें मायने नहीं रखती..जब यह सब उस लड़के के सहकर्मी, गौरव को पता चलता है,तो वह आगे बढ़ पूजा का थाम लेता है....उन दोनों का ब्याह करा दिया जाता है..
ऊपरसे स्नेहिल,समंजस लगने वाला गौरव हक़ीक़त में बड़ा ही गुस्सैल किस्म का व्यक्ति निकलता है.. उसका पूरा परिवार ही बेहद रूढीवादी होता है..एक पुर ख़तर और तकलीफदेह सहजीवन शुरू होता है..ख़ास कर पूजा के लिए,जो स्वयं सरल तथा सर्व गुण संपन्न लडकी है..साथ,साथ उतनी ही मृदु और सुन्दर..
दिन गुज़रते रहते हैं..पूजा एक लडकी की माँ बनती है..लेकिन सभी को लड़के की चाह होने के कारण नन्हीं बच्ची,केतकी उपेक्षित रहती है...लाड प्यार से महरूम...पूजा के ऊपर एक और ज़िम्मेदारी आन पड़ती है..बिटिया को पारिवारिक द्वेष से बचाए रखना..केतकी अपने ननिहाल में तो बहुत लाडली होती है..
केतकी अभी दो सालकी भी नहीं होती के उसके भाई,अमन का आगमन होता है..
केतकी वास्तुशास्त्र में पदवी धर बन जाती है..उन्हीं दिनों उसका अपने भावी जीवन साथी से परिचय होता है..जो अमरीकामे पहले पढने और बाद में नौकरी के ख़ातिर रहता है..केतकी आगे की पढाई के लिए अमरीका चली जाती है..पूजा का दिल बैठ-सा जाता है...और फिर उसे खबर मिलती है,की, पढाई ख़त्म होते,होते दोनों ब्याह कर लेंगे...बिटिया का ब्याह और मै नहीं...इस विचार से पूजा टूट-सी जाती है).
.(गतांक: उसके जीवन का इतना अहम दिन और मै वहाँ हाज़िर नही...? दिल को मनाना मुश्किल था...नियती पे मेरा कोई वश नही था...ईश्वर क्यों मेरी ममता का इस तरह इम्तेहान ले रहा था? मैंने ऐसा कौनसा जुर्म कर दिया था? किया था..मेरे रहते,मेरी बिटियाको ज़ुल्म सहना पड़ा था..मुझे क़ीमत चुकानी थी...पर मेरा मन माने तो ना...) अब आगे पढ़ें...
बिखरे सितारे(अध्याय २) १६ हर खुशी हो वहाँ..
मै अपनी दिनचर्या केवल यंत्रवत करती रहती..कहीं कोई उमंग नहीं..कैसे कैसे सपने,कैसे,कैसे अरमान संजोये थे मैंने अपनी बिटिया के ब्याह को लेके..दादी परदादी से मिले नायाब वस्त्र,कमख्वाब, लेसेस,हाथ से काढ़े हुए,कामदार दुपट्टे तथा लहेंगे...क्या कुछ मैंने संभाल के रखा हुआ था अपनी बिटिया के लिए...उसमे से मै उसकी चोलियाँ सीने वाली थी..मेरी बेटी एक अलाहिदा,हट के दुल्हन बननेवाली थी..और यहाँ तो उसके ब्याह में मेरी शिरकत भी मुमकिन न थी...मै अंदरही अन्दर घुट के रह गयी..
ब्याह के पश्च्यात उसका फोन तथा मेल आया..मैंने पूछा," बेटे ,तुम यहाँ से जो साड़ियाँ ले गयी थी उसमे से कौनसी पहनी? और केशभुषा कैसे की?"
उसका उत्तर: "ओह माँ! साड़ी पहननेकी किसे फ़ुरसत थी? मैंने तो pant टी-शर्ट पहना था..और बाल पोनी टेल में बांधे थे!"
इस पर मैंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही की...उसे आशीर्वाद देते हुए एक मेल लिखी..जिसमे एक हिंदी फ़िल्मके गीतकी चंद पंक्तियाँ दोहराईं....असल में यह गीत नायिका अपने प्रीतम को याद करते हुए गाती है पर ऐसी भावनाएं कोई भी,किसीभी अपने के ख़ातिर ज़ाहिर कर सकता है..
"हर खुशी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
चाँद धुन्दला सही,ग़म नही है मुझे,
तेरी रातों पे रातों का साया न हो,
चांदनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
रौशनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे.."
लिखते,लिखते मेरी आँखें भर भर आयीं..केतकी के जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ था..मै न सही मेरी दुआ तो पलपल उसके साथ थी..हे ईश्वर! इसे अपने प्रीतम का, अपने पति का खूब प्यार मिले..जिस प्यार से वह अपने बचपन और लड़कपन में महरूम रही,वो सब दुगुना उसके जीवन में मिले..
उन दोनों ने घर लिया और मैंने यहाँ से पार्सल भेजने शुरू किये..कितनी चीज़ें अपने हाथों से उसके घर के लिए बनायीं थीं..कितनी अनोखी चीज़ें मैंने विविध प्रदर्शनियों में से इकठ्ठा कर के रखी थी..पिछले कुछ बरसों से..घरका फर्नीचर छोड़ सब कुछ....उसे पसंद आती तो मै ख़ुश हो लेती..
एक दिन उसकी मेल आयी," माँ! राघव के घरवाले चाहते हैं,की,वैदिक विधी से हम दोनों का ब्याह हो...इस साल १५ दिसंबर आखरी शुभ महूरत है..ऐसा राघव की दादी ने कहा है..विधी तो उनके शहर में होगी...उन्हें वहीँ का पंडित चाहिए...अब आपलोग उन लोगों से संपर्क कर समन्वय कर लें...विधी के केवल ३ दिन पूर्व हम आ पाएँगे.."
मेरा उदास मन खुशी से झूम उठा..! मेरे कुछ तो अरमान पूरे होंगे...मेरी बिटिया मेरे सामने दुल्हन बनेगी...मैंने इस दिन के खातिर क्या कुछ संजोया/बनाया नही था..हमारे सारे सगे सम्बन्धियों,रिश्तेदारों,दोस्तो ं को, मै तोहफा देना चाह रही थी...पिछले कुछ सालों से , चीज़ें इकट्ठी करती चली आयी थी..हरेक को अलग, उसके मन पसंद का तोहफा मुझे देना था..थोक में कुछ नहीं..हाथ से बनी चद्दरें,भित्ती चित्र......अलग,अलग जगहों से ली हुई साड़ियाँ...मैंने अपनी कमाई से खरीदे हुए सोने के सिक्के,जिनसे मै बेहद पारंपरिक और अलाहिदा गहने गढ़ने वाली थी..केतकी के लिए और करीबी रिश्तेदारों के लिए..जहाँ कहीं इतने सालों में गौरव के तबादले हुए थे...उनके लिए वस्त्र...चाहे वो अर्दली हो या महरी....शादी के पूर्व सब को उनके तोहफे पहुँचाने का मेरा इरादा था..फेहरिस्त तैयार थी..जिस किसी शहरमे जो कोई जाने वाला होता,उसके हाथों मै उपहार भेजने लगी..
अपना घरभी सजाने संवार ने लगी.. हरेक कोना सुन्दर दिखना था..छोटी,छोटी चीज़ों से..जैसे candle स्टैंड,या साबुनदानी...या baath mat ..सुरुचि , नफासत और परंपरा मद्देनज़र रखते हुए..एक विशिष्ट बजेट के भीतर...घरके मध्य खड़ी हो,मै हर दीवार,हर कोना निहारती...और उसे निखरने के तरीके ईजाद करती..कब,कहाँ कौनसी चद्दरें बिछेंगी ...अपने हाथों से पुष्प-सज्जा करुँगी...हमारे परिधानों के साथ घर का रूप भी रोज़ बदलेगा...अचानक एक शांत लम्हा मुझे याद दिलाता,'पगली! संभाल खुद को..बिटिया के ब्याह के बाद तक़रीबन चार माह के अन्दर गौरव का retirement था..तेरा डेरा उठेगा..सब रौनक़ ख़त्म होते ही तुझे सारी सजी सजाई दीवारें नोंच लेनी होंगी..' लेकिन पल भरमे उस ख़याल को मनसे हटा देती...
ओह! बिटिया को मै हर दिन का ब्यौरा लिखती..एक दिन उसने लिखा," अब बस भी करो माँ!"
मैंने कहा, जीवन में यह पल बार बार आनेवाले नही.." जोभी है,बस यही इक पल है..कर ले तू पूरी आरज़ू...." कल किसने देखा है? कलकी किसको खबर?
और कितना सच था...आनेवाले कलमे क़िस्मत ने मेरे लिए क्या परोसा था? मुझे कतई अंदाज़ नही था...
चांदनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
रौशनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे.."
लिखते,लिखते मेरी आँखें भर भर आयीं..केतकी के जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ था..मै न सही मेरी दुआ तो पलपल उसके साथ थी..हे ईश्वर! इसे अपने प्रीतम का, अपने पति का खूब प्यार मिले..जिस प्यार से वह अपने बचपन और लड़कपन में महरूम रही,वो सब दुगुना उसके जीवन में मिले..
उन दोनों ने घर लिया और मैंने यहाँ से पार्सल भेजने शुरू किये..कितनी चीज़ें अपने हाथों से उसके घर के लिए बनायीं थीं..कितनी अनोखी चीज़ें मैंने विविध प्रदर्शनियों में से इकठ्ठा कर के रखी थी..पिछले कुछ बरसों से..घरका फर्नीचर छोड़ सब कुछ....उसे पसंद आती तो मै ख़ुश हो लेती..
एक दिन उसकी मेल आयी," माँ! राघव के घरवाले चाहते हैं,की,वैदिक विधी से हम दोनों का ब्याह हो...इस साल १५ दिसंबर आखरी शुभ महूरत है..ऐसा राघव की दादी ने कहा है..विधी तो उनके शहर में होगी...उन्हें वहीँ का पंडित चाहिए...अब आपलोग उन लोगों से संपर्क कर समन्वय कर लें...विधी के केवल ३ दिन पूर्व हम आ पाएँगे.."
मेरा उदास मन खुशी से झूम उठा..! मेरे कुछ तो अरमान पूरे होंगे...मेरी बिटिया मेरे सामने दुल्हन बनेगी...मैंने इस दिन के खातिर क्या कुछ संजोया/बनाया नही था..हमारे सारे सगे सम्बन्धियों,रिश्तेदारों,दोस्तो
अपना घरभी सजाने संवार ने लगी.. हरेक कोना सुन्दर दिखना था..छोटी,छोटी चीज़ों से..जैसे candle स्टैंड,या साबुनदानी...या baath mat ..सुरुचि , नफासत और परंपरा मद्देनज़र रखते हुए..एक विशिष्ट बजेट के भीतर...घरके मध्य खड़ी हो,मै हर दीवार,हर कोना निहारती...और उसे निखरने के तरीके ईजाद करती..कब,कहाँ कौनसी चद्दरें बिछेंगी ...अपने हाथों से पुष्प-सज्जा करुँगी...हमारे परिधानों के साथ घर का रूप भी रोज़ बदलेगा...अचानक एक शांत लम्हा मुझे याद दिलाता,'पगली! संभाल खुद को..बिटिया के ब्याह के बाद तक़रीबन चार माह के अन्दर गौरव का retirement था..तेरा डेरा उठेगा..सब रौनक़ ख़त्म होते ही तुझे सारी सजी सजाई दीवारें नोंच लेनी होंगी..' लेकिन पल भरमे उस ख़याल को मनसे हटा देती...
ओह! बिटिया को मै हर दिन का ब्यौरा लिखती..एक दिन उसने लिखा," अब बस भी करो माँ!"
मैंने कहा, जीवन में यह पल बार बार आनेवाले नही.." जोभी है,बस यही इक पल है..कर ले तू पूरी आरज़ू...." कल किसने देखा है? कलकी किसको खबर?
और कितना सच था...आनेवाले कलमे क़िस्मत ने मेरे लिए क्या परोसा था? मुझे कतई अंदाज़ नही था...
क्रमश:
5 टिप्पणियां:
संस्मरण श्रृंखला बहुत बढ़िया चल रही है!
मां के अरमानों का अन्दाज़ बखूबी है हमें !
संस्मरण पढ्ते हुये एक ख्याल आया है ज़रा बताइयेगा ...केतकी का नामकरण कैसे हुआ ?
mujhe ye nahi samjh aata ki ladka ladki ka bhed man me kyo rahta hai jabki pahli santaan ka swagat dhoom dham se hona chahiye .kya fark padta hai kuchh bhi ho ,insaan hona kafi nahi ,apni santaan hona hi bahut khushi ki baat hai ,marmik rachna .
interesting.
संस्मरण श्रृंखला बहुत बढ़िया
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