बुधवार, 29 जुलाई 2009

२) वो सुबह्का तारा...!

उस सुबह का उस जोडेको कबसे इंतज़ार था...जब उस ग्राम से कुछ मील दूर के एक स्टेशन पे एक ट्रेन, २४ घंटों के सफर के बाद, उनकी तमन्ना को लिए चली आयेगी...!

रोज़ सुबह का तारा निकलने से पूर्व साढ़े चार बजे, उठ जानेकी दोनोको आदत थी..वुज़ू, नमाज़ अदि होनेतक,भैसें दोहने के लिए हाज़िर हो जातीं.....उनकी पैनी नज़र रहती...दूध बिकने जाता,लेकिन पानीकी एक बूँद भी कोई चाकर मिलाये, उन्हें बरदाश्त नही होता...

और 'वो' दिन तो खासही था...दोनों को रात भर नींद कहाँ? बैलगाडी सजी रखी थी..खूबसूरत-सा छत चढाया गया था...रेशमी रूई से गद्दा और छोटी-सी रज़ाई भरी गयी थी...देव कपास कहलाने वाला रूई का पेड़ बगीचे में लगा हुआ था..उसकी नाज़ुक, नाज़ुक रूई लेके, अपने नाज़ुक नाज़ुक हाथोंसे, दादी ने उसमेके छोटे,छोटे बीज अलग किए थे..अपने हाथों से वो गद्दा और रज़ाई भरी थी...एक एक टांका फूलों -सी नज़ाकत से डाला गया था...उस नाज़नीन, नन्हीं,फूल-सी जानको कुछ चुभे ना...!!

जाडों का मौसम...उस रूई,रूई-सी नाज़ुक कली को, ट्रेन से उतरने के बाद एकदम से दुबका लेना होगा...स्टेशन पे तो छत थी नही...स्टेशन पे पहुँच ने के लिए रेलवे क्रॉसिंग पार करनी होती..तो बैलगाडी लेके घरसे कमसे कम डेढ़ घंटा पहले निकल जाना चाहिए...क्रॉसिंग का गेट बंद ना मिले...! दोनों आपस में बतियाते जा रहे थे..गाडीवान खड़ा था....! बैलों की सफ़ेद जोड़ी लिए....दादा-दादी के बड़े लाडले बैल...! दादी ने बड़े प्यारसे बैलों को गुडकी रोटी खिलायी...!

मुँह अंधेरे बैल गाडी स्टेशन की ओर चल पडी..उनके साथ लौटनेवाला था,उनका ख़ास खज़ाना...पौं फंटने लगी..सुबह का तारा कहीँ से नज़र आ रहा था? दादी ने बैलगाडी का परदा हटा के झाँक ने की कोशिश की...

दादा बोले :" अभी तो अपनी आँखों का तारा आनेवाला है...उसे मै पहले अपनी गोद में लूँगा या तुम? "

दादी : " आपको पकड़ना भी आयेगा? चलो,चलो, मै पहले लूँगी,फिर आपको बताउंगी,कि, बच्चे को कैसे पकड़ा जाता है...!

दादा :" अच्छा....जैसा कहोगी वैसाही करूँगा...पर कुछ पल मुझे अपने हाथों में लेने तो दोगी ना?"

दादी : " अरे, बाबा, आने तो दो गाडी...अभी तो एक घंटा होगा....पर कैसा लग रहा है हैना...वक़्त जैसे उड़ भी रहा है,और थम भी रहा है...उसके आने के बाद तो हम सब उसी के अतराफ़ में घूमेंगे..एक चुम्बक की भाँती होता है एक बच्चा...और ये तो हमारी तमन्ना थी...है...."

गाडी बढ़ी चली जा रही थी...स्टेशन क़रीब आ गया...जैसे ही वो दोनों बैलगाडी से उतरे, स्टेशन परके कुली, स्टेशन मास्टर, और अन्य जोभी लोग अपने रिश्तेदारों को लेने पहुँचे थे, इन दोनोकी इर्द गिर्द जमा हो गए...सभी को पता था, ये जोड़ा, किसे लेने आया है...हर कोई वो मिलन का नज़ारा देखना चाहता था..उस स्टेशन परके दो तांगेवाले भी बेक़रार थे...आपस में झगड़ रहे थे,कि, कौन बाप बेटे को ले जाएगा...बैलगाडी में तो केवल दादी, पोती,और माँ की जगह होगी.....तांगा तो ज़रूरी होगा..और बहू का सामान भी तो होगा...अंत में दादा-दादी ने बहस बंद करवा दी...दोनों टाँगे चलेंगे...एक में सामान, एकमे वो दोनों बाप बेटे...दोनों तांगेवालों ने कहा,इसबार तो हम पैसा नही लेंगे...
दादा: " अरे बाबा, पैसे ना लेना, लेकिन हमारी अपनी खुशीसे तुम्हें देंगे वो तो लेना...!

तांगेवाले: " अरे बाबा! वो तो हम माँग के लेंगे....! सारा गाँव जाने है,आप कितने खुश हैं...!"

स्टेशन पे ट्रेन के आगमान की घंटी बजाई गयी...ट्रेन दो स्टेशन दूर होती तो ये घंटी बजती...अब एकेक पल गिनना शुरू हो गया..और फिर दो मील की दूरी परसे, घूमती हुई ट्रेन दिखी...अब तो दादी की होंठ कंपकंपाने लगे....बेताब हो गयीं...कब उस नन्हीं जान को अपनी बाहों में लें..इतनी बेसब्री शायद जीवन में कभी नही हुई थी..हाँ...आज़ादी के वो पल छोड़...जब जवाहरलाल ,लाल क़िले परसे अपना ऐतिहासिक भाषण देनेवाले थे...उसके बाद आज...अब....ट्रेन platform पे आ गयी...रुकने लगी...सभी जमा लोग उसी डिब्बेके पास पहुँचे....

जो लोग उस गाडी से उतरे,वो भी ये नज़ारा देखने के लिए आतुर थे...! बहु उतरी...अपनी बाहोंमे उस नन्हीं जान लिपटाये हुए..उसकी भींची आँखें..सूरज की पहली किरण उसके मुखड़े पे पडी..शायद, आँखों में भी पडी...हलकी-सी पलकें हिली...और अचानक से अपने अतराफ़ में इतने सारे चेहरे देख, चंद पल फटीं फटीं -सी रह गयीं...! दादी ने लपक उसे अपने सीने से भींच लिया..दादा एक पल रुके,फिर बोले," अभी मुझे भी एक नज़र भर देख लेने दो ना....!"

दादी ने बड़ी ही एहतियात से उन्हें बच्ची को पकडाया.... उस दिनका नज़ारा वो दादा,ताउम्र नही भूला...उसे वो बच्ची ४२ दिनकी ही निगाहों में समा गयी...!

जमा लोग, दुआएँ देते हुए बिखरने लगे...ये सब अपनी बैलगाडी और तांगे की ओर चल पड़े...दादी, अपनी बहू और पोतीके साथ, फूली,फूली बैलगाडी में बैठ गयी, गाडीवान को सख्त हिदायत,:" गाडी धीरे, धीरे चलाना....!

कैसा प्यारा सफर था वो...अपनी लाडली पोती को अपने घर ले जानेका...वहाँ उतार उसकी एक दो तस्वीरें तो ज़रूर खींचनी थीं...लेकिन उसे रुलाना नही था बिल्कुल....! एक प्राम गाडी तैयार थी...वो प्राम गाडी, इस बच्ची के पिता की ही थी...जिसे बडेही शिद्दतसे दादा-दादी ने मिल, खूब अच्छे से ठीक ठाक की थी..आराम देह बनाई थी...

घर पास आता रहा...सपने सजते रहे...उस एक नन्हें चुम्बक के अतराफ़ अब दादा-दादी की दिनचर्या घूमने वाली थी..बरसों...! उनके आँखोंका सितारा..उनकी तमन्ना...'पूजा' तमन्ना...फिलहाल हम इसे ऐसे ही बुलाया करेंगे...!....

एक सफ़रनामा बस अभी, अभी शुरू हुआ है..अपने उतार चढावों के साथ, जारी रहेगा। सफर में शामिल रहें...आपकी रहनुमाई भी ज़रूरी है,इस सफ़र को बढानेके लिए....

रविवार, 26 जुलाई 2009

बिखरे सितारे.!१).एक वो भी दिवाली थी...! ...

क्यों हम किसी की या ख़ुद की ज़िंदगानी किसी के साथ साँझा करना चाहते हैं? क्यों एक दास्ताँ बयाँ करना चाहते हैं? हर किसी के अलाहिदा वजूहात हो सकते हैं...मैं यहाँ किस कारण आयी हूँ, ये बता दूँ....
एक ऐसी दास्ताँ सुनाने आयी हूँ, जो शायद आपको चौंका दे...हो सकता है,आप कुछ कहने के लिए आतुर हो जायें..या स्तब्ध हो जाएँ...नही जानती...
विधाता ने हमें इस तरह घडा है,कि, एक उँगली के निशाँ दूसरी से नही मेल खाते...तो एक ज़िंदगी, किसी अन्य ज़िंदगी से कितना मेल खा सकती है ?
मेल खा सकती है, एक हद तक......ज़रूर..लेकिन, एक जैसी कभी नही हो सकती....चंद वाक़यात मेल खा जायें..पर एक सम्पूर्ण जीवन.....चाहे कितना ही छोटा रहा हो ? मुमकिन नही...
यहीँ से एक क़िस्सा गोई आरम्भ होगी...एक दर्द का सफर...जिस में चंद खुशियाँ शामिल..जिस में बेशुमार हादसे शामिल...एक नन्हीं जान इस दुनियामे आयी...और उसके इर्द गिर्द ये दास्ताँ बुनती रही..रहेगी...शायद पढने वाले इस दास्ताँ से हैरान हो जाएँ......कि, ऐसी राहों में, जो इस कथानक के मुख्य किरदार ने चुनी, कितने खतरे पेश आ सकते हैं...इन पुर-ख़तर राहों का अंदेसा तो कभी किसी को नही होता...लेकिन, जिस राह से एक राही गुज़रा हो,वो, पीछे से आनेवाले मुसाफिरों की रहनुमाई ज़रूर कर सकता है...इसी मकसद को लेके शुरुआत कर रही हूँ...

ये तो नही जानती,कि, इस सत्य कथा का अंत कहाँ होगा...कैसे होगा...आप सफर में शामिल हों, ये इल्तिजा कर सकती हूँ...!

१)एक वो भी दिवाली थी...!

क़िस्सा शुरू होता है, आज़ादी के दो परवानों से...जो अपने देश पे हँसते, हँसते मर मिटने को तैयार थे..एक जोड़ा...जो अपने देश को आजाद देखना चाहता था...एक ऐसा जोड़ा,जो, उस महात्मा की एक आवाज़ पे सारे ऐशो आराम तज, हिन्दुस्तान के दूरदराज़ गाँव में आ बसा...उस महात्मा की आवाज़, जिसका नाम गांधी था...

गाँव में आ बसने का मक़सद, केवल अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी कैसे हो सकता है? आज़ादी तो एक मानसिकता से चाहिए थी...एक विशाल जन जागृती की ज़रूरत ...इंसान को इंसान समझे जाने की जागृती...ऊँच नीच का भरम दूर करनेकी एक सशक्त कोशिश...काम कठिन था...लेकिन हौसले बुलंद थे...नाकामी शब्द, अपने शब्द कोष से परे कर दिया था,इस युवा जोड़े ने..और उस तरफ़ क़दम बढ़ते जा रहे थे...

अपने जीते जी, देश आज़ाद होगा, ये तो उस जोड़े ने ख्वाबो ख़याल में नही सोचा था...लेकिन,वो सपना साकार हुआ...! आज हम जिसे क़ुरबानी कहें, लेकिन उनके लिए वो सब करना,उनकी खुश क़िस्मती थी...कहानी को ८५ साल पूर्व ले चलूँ, तो परिवार नियोजन अनसुना था...! इस जोड़े ने उन दिनों परिवार नियोजन कर, केवल एक ही औलाद को जन्म दिया...जिसे पूरे पच्चीस साल अपने से दूर रखना पड़ा...गर ये दोनों कारावास के अन्दर बाहर होते रहते तो, एक से अधिक औलाद किस के भरोसे छोड़ते? उस गाँव में ना कोई वैद्यकीय सुविधा थी, ना पढाई की सुविधा थी...इन सारी सुविधाओं की खातिर इस जोड़े ने काफी जद्दो जहद की...लेकिन तबतक तो अपनी इकलौती औलाद,जो एक पुत्र था,उसे, अपने से दूर रखना पडा ही पडा...

कौन था ये जोड़ा? पत्नी राज घराने से सम्बन्ध रखती थी...नज़ाकत और नफ़ासत उसके हर हाव भाव मे टपकती थी..पती भी, उतने ही शाही खानदान से ताल्लुक रखता था...लेकिन सारा ऐशो आराम छोड़ आने का निर्णय लेने में इन्हें पल भर नही लगा...
महलों से उतर वो राजकुमारी, एक मिट्टी के कमरे मे रहने चली आयी...अपने हाथों से रोज़ गाँव मे बने कुएसे पानी खींच ने लगी...हर ऐश के परे, उन दोनों ने अपना जीवन शुरू किया...ग्राम वासियों के लिए,ये जोड़ा एक मिसाल बन गया...उनका कहा हर शब्द ग्राम वासी मान लेते...हर हाल मे सत्य वचन कहने की आदत ने गज़ब निडरता प्रदान की थी..ग्राम वासी जानते थे,कि, इन्हें मौत से कोई डरा नही सकता...

बेटा बीस साल का हुआ और देश आज़ाद हुआ...गज़ब जश्न मने......! और एक साल के बाद, गांधी के मौत का मातम भी...

पुत्र पच्चीस साल का हुआ...पढाई ख़त्म हुई,तो उसका ब्याह कर दिया गया...लडकी गरीब परिवार की थी,जो अपने पिता का छत्र खो चुकी थी..लेकिन थी बेहद सुंदर और सलीक़ेमन्द...ब्याह के दो साल के भीतर,भीतर माँ बनने वाली थी...

कहानी तो उसी क़िस्से से आरंभ होती है...बहू अपनी ज़चगी के लिए नैहर गयी हुई थी...बेटा भी वहीँ गया था..बस ३/४ रोज़ पूर्व...इस जोड़े को अब अपने निजी जीवन मे इसी ख़ुश ख़बरी का इंतज़ार था...! दीवाली के दिन थे...३ नवेम्बर .. ...उस दिन लक्ष्मी पूजन था..शाम के ५ बज रहे होंगे...दोनों अपने खेत मे घूमने निकलने ही वाले थे,कि, सामने से, टेढी मेढ़ी पगडंडी पर अपनी साइकल चलाता हुआ, तारवाला उन्हें नज़र आया...! दोनों ने दिल थाम लिया...! क्या ख़बर होगी...? दो क़दम पीछे खड़ी पत्नी को पती ने आवाज़ दे के कहा:" अरे देखो ज़रा..तार वाला आ रहा है..जल्दी आओ...जल्दी आओ...!"

तार खोलने तक मानो युग बीते..दोनों ने ख़बर पढी और नए, नए दादा बने पुरूष ने अपने घरके अन्दर रुख किया...!

कुछ नक़द उस अनपढ़ तार वाले को थमाए...आज से अर्ध शतक पहले की बात है...अपने हाथ मे पच्चीस रुपये पाके तारवाला गज़ब खुश हो गया..उन दिनों इतने पैसे बहुत मायने रखते थे....दुआएँ देते हुए बोल पड़ा,
"बाबा, समझ गया... पोता हुआ है...! ये दीवाली तो आपके लिए बड़ी शुभ हुई...आपके पीछे तो कितनी दुआएँ हैं...आपका हमेशा भला होगा...!"

दादा: " अरे पगले....! पोता हुआ होता तो एक रुपल्ली भी नही देता..पोती हुई है पोती...इस दिनके लिए तो पायी पायी जोड़ इतने रुपये जोड़े थे..कि, तू ये ख़बर लाये,और तुझे दें...!"

तारवाला : " बाबा...तब तो आपके घर देवी आयी है...वरना तो हर कोई बेटा,बेटा ही करता रहता है..आपके लिए ये कन्या बहुत शुभ हो..बहुत शुभ हो...!"

दादा :" और इस बच्ची का आगे चलके जो भी नाम रखा जाएगा...उसके पहले,'पूजा' नाम पुकारा जाएगा...!"
तारवाला हैरान हो उनकी शक्ल देखने लगा...! क्या बात थी उसमे हैरत की...?वो पती पत्नी मुस्लिम परिवार से ताल्लुक़ रखते थे...!
तारवाले ने फिर एक बार उन दोनों के आगे हाथ जोड़े...अपनी साइकल पे टाँग चढाई और खुशी,खुशी लौट गया..! उसकी तो वाक़ई दिवाली मन गयी थी...! मुँह से कई सारे आशीष दिए जा रहा था...!

कौन थी वो खुश नसीब जो इस परिवार के आँखों का सितारा बनने जा रही थी...? जो इनकी तमन्ना बनने जा रही थी...उस नन्हीं जान को क्या ख़बर थी,कि, उसके आगमन से किसी की दुनिया इतनी रौशन हो गयी...?

दादी के होंठ खुशी के मारे काँप रहे थे...नवागत के स्वागत मे बुनाई कढाई तो उसने कबकी शुरू कर दी थी..लेकिन अब तो लडकी को मद्दे नज़र रख,वो अपना हुनर बिखेरने वाली थी...पूरे ४२ दिनों का इंतज़ार था, उस बच्ची का नज़ारा होने मे...सर्दियाँ शुरू हो जानी थी...ओह...क्या,क्या करना था...!

दोनों ने मिल कैसे, कैसे सपने बुनने शुरू किए..!

क्रमश:

आगे, आगे कोशिश रहेगी,कि, उस बच्ची की जो भी तस्वीरें उपलब्ध हैं, उन्हें ब्लॉग पे पोस्ट करूँगी..अलावा...उसका वो पुश्तैनी मकान...जिसे बाद मे मिट्टी के घरसे निकल, उस जोड़े ने पत्थर का बना लिया...गाँव से कुछ बाहर...कवेलू वाला...जिसकी कहानी कहना शुरू की है,उससे बेहद अच्छी तरह वाबस्ता हूँ..बेहद क़रीब से जाना है उसे ...
क्रमश: