गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

बिखरे सितारे १५:फिर एक इम्तिहान!

 (गतांक : तीन अखबारों में अब मेरे साप्ताहिक column छपने लगे..लेकिन ,लेकिन..बच्चों की याद..खासकर केतकी की, मुझे रुलाती रही...जीवन में उसे चैन नही हासिल हुआ...और चाहे गलती किसीकी हो...उसकी ज़िम्मेदार,एक माँ की तौरपे मै भी थी..आज माँ की मामता मुझे चैन नही लेने दे रही थी...)

ऐसेही दिन बीतते रहे...मुझे रोज़ केतकी के मेलका इंतज़ार रहता.. चाहे वो दो पंक्तियाँ क्यों न हो..उसके जानेके चंद दिनों बाद गौरव का ऐसी जगह तबादला हुआ जहाँ घर नहीं था. नयी पोस्ट बनी थी और उसे deputation पे बुलाया गया था..मै कुछ दिन अपने नैहर  रह आयी..

'सामान बाँध के तैयार रहो...ताकि मकान मिलतेही निकल सको..." ,गौरव ने मुझे कह रखा था..तीन माह बीत गए लेकिन मकान का इंतज़ाम नहीं हुआ...बच्चों से दूर होके मुझे वैसेही उदासी ने घेर रखा था..अब तो गौरव के न होने के कारण घरपे लोगों का आना जानाभी बहुत कम हो गया..
केतकी जब गयी तब मैंने सोचा था,की, अब मै अपनी कला प्रदर्शनी करुँगी...कुछ तो मन लगेगा..मैंने उस लिहाज़ से कपड़ा,धागे आदि खरीद लिए...और बस तभी गौरव का तबादला हो गया..किसी भी समय सामान समेट दूसरी जगह जाना होगा सोच मैंने प्रदर्शनी का ख़याल दिलसे निकाल दिया..
सरकारी नियम के अनुसार मै उस मकान में तीन माह्से अधिक नही रह सकती थी..किसी ने मुझे मकान खाली करनेको कहा नहीं था,लेकिन मेराही मन मानता नहीं था...गौरव की जगह जो अफ़सर आए थे,वो अथिति गृह में रह रहे थे..क्या करूँ? सामान लेके कहाँ जाऊँ   ?  सिर्फ मेरे रहनेकी बात होती तो मै अपने नैहर में रह लेती..
अंतमे गौरवही लौट आया..उसे राज्य सरकार ने बुला तो लिया लेकिन कोई पोस्ट खाली नही थी..वो बिना पोस्ट का था,तो मकान का सवाल आही गया..अंत में बंगलौर में एक बेडरूम और रसोई वाला फ्लैट किरायेपर लेनेका तय हुआ..पर वो नौबत नहीं आयी,और उसकी पोस्टिंग बंगलौर में ही हो गयी...

देखते ही देखते केतकी को जाके तक़रीबन एक साल हो गया. वो दो सप्ताह के लिए भारत आयी. उस समय हम उसके भावी ससुराल वालों से मिले. कोशिश थी की, राघव तथा उसकी पढाई ख़त्म होतेही ब्याह कर दिया जाय...लेकिन ससुराल वालों के लिहाजसे कोई मुहूर्त अगले साल भरमे नही था...
केतकी के स्वभाव में आया परिवर्तन कायम था...बहुत चिडचिडी हो गयी थी...ख़ास कर मेरे साथ..कई बार मै अकेलेमे रो लेती..इतने बरसोंका तनाव अब उसपे असर दिखा रहा था..अपने पितासे तो वो कुछ कह नहीं सकती लेकिन भड़ास मुझपे निकलती..और उसके लौटने का समय भी आ गया..बिटिया आई और गयी...मै उसे आँख भर देख भी न पाई..बातचीत तो दूर..
मेरी चिड़िया फिर एकबार सात समंदर पार चली गयी..
इधर अमनकी पढ़ाई भी ख़त्म हो गयी..उसने M.B.A कर लिया और उसे चंडीगढ़ में नौकरी मिल गयी. केतकी पढाई के  साथ नौकरी भी कर रही थी. ...उसे final परिक्षा में अवार्ड भी मिला..मै बहुत ख़ुश हुई..लगा,बच्ची की मेहनत रंग लाई..
उसने भी नौकरी के लिए अर्ज़ियाँ दे रखी थी....उसे उसी शहर में नौकरी मिली जहाँ राघव को मिली थी..
एक दिन शाम गौरव घर आया और  मुझ से बोला," केतकी का फोन था..वो और राघव अगले माह रजिस्टर  पद्धती  से ब्याह कर ले रहे हैं..."
सुनके कुछ देर तो मेरी कोई प्रतिक्रया नही हुई...पर धीरे,धीरे मनमे बात उतरी..बिटिया का ब्याह और मै नही जा सकूँगी...कहाँ तो उसके ब्याह को लेके इतने सपने संजोये थे...उसके सारे कपडे मै खुद डिजाईन करने वाली थी...' बाबुल की दुआएँ लेती जा',इस गीत के पार्श्वभूमी में उसकी बिदाई करने वाली थी..जानती थी,की, वो नही रोयेगी, लेकिन मै अपनी माँ के गले लग खूब रोने वाली थी...
मेरी आँखों के आगे से गौरव का चेहरा ना जाने कब हट गया और मै ज़ारोज़ार रोने लगी...चंद घंटों की बिटिया मेरी निगाहों में समा गयी...वो आँखें भींचा हुआ कोमल मुखड़ा..जिसके इर्द गिर्द मै सपने बुनने वाली थी...उसे अपनी बाहों में लिया तो अनायास एक दुआ निकली...हे ईश्वर! इसकी राह के सारे काँटे मुझे दे देना...उसकी राहों में फूल ही फूल बिछा देना...

उसके जीवन का इतना अहम दिन और मै वहाँ हाज़िर नही...? दिल को मनाना मुश्किल था...नियती पे मेरा कोई वश नही था...ईश्वर क्यों मेरी ममता का इस तरह इम्तेहान ले रहा था? मैंने ऐसा कौनसा जुर्म कर दिया था? किया था..मेरे रहते,मेरी बिटियाको ज़ुल्म सहना पड़ा था..मुझे क़ीमत चुकानी थी...पर मेरा मन माने तो ना...

क्रमश:

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

बिखरे सितारे १४: खाली घोंसला!

(गतांक :पूजा के आँखों से पिछले महीनों से रोका हुआ पानी बह निकला था...उसने अपनी लाडली के आँखों में झाँका...वहाँ भविष्य के सपने चमक रहे थे..जुदाई का एकभी क़तरा उन आँखों में नही था...एक क़तरा जो पूजा को उस वक़्त आश्वस्त करता,की, उसकी बेटी उसे याद करेगी ..उसकी जुदाई को महसूस करेगी...उसे उस स्कूल के दिनका एक आँसू याद आ रहा था,जो नन्हीं केतकी  ने बहाया था...जब स्कूल बस बच्ची को पीछे भूल आगे निकल गयी थी...समय भी आगे निकल गया था...माँ की ममता पीछे रह गयी थी...अब आगे पढ़ें...आज मै,पूजा ,अपने पाठकोंसे मुखातिब होती हूँ...)

हवाई अड्डे से अतिथि गृह  और वहाँ से अपनी पोस्टिंग की जगह गौरव और मै  लौट आए.. तकरीबन छ: एकरों में बना ,छ: हज़ार square फीट से बड़ा घर ....और सिर्फ दो बाशिंदे...पति अपने कामों में व्यस्त..

 मै ऐसे ही,बेमकसद,अमन के कमरे में गयी..कुछ ही दिन पूर्व ,अमन आके लौटा  था....करीने से लगा हुआ, साफ़ सुथरा कमरा..मेरा मन अपने बच्चों के बचपन में विहार करने लगा...अपने नन्हें मुन्नों की आवाजें कानों में गूँजने लगीं   और उनमे मेरी आवाज़ भी शामिल हो गयी..
" माँ, देखो ना...इसने बाथरूम में कितने बाल बिखराएँ हैं...!छी :!इसे हटाने को कहिये न...!" अमन केतकी की शिकायत कर रहा था..
"माँ! इसने मेरे यूनीफ़ॉर्म पे अपना गीला तौलिया लटका दिया है..इसे पहले वो हटाने के लिए कहो ना...!" केतकी ने अपनी शिकायत सामने रखी...
" चुप करो दोनों! मुझे किसी की कोई बात नही सुननी है...!" मै भी खीज उठी..
" माँ! मेरी एकही जुराब है...प्लीज़,मुझे दूसरी वाली खोज  दो न...!" यह अमन बोला..
" खोजो अपने आप...रात को अपनी जगह पे अपना सामान नही रखोगे तो ऐसाही होगा..!"मै भी चिंघाड़ उठी...
" माँ! मेरी कम्पस में रूलर नही है...अमन ने लिया होगा..."केतकी शोर मचा रही थी..
"उफ़ ! अभी स्कूल बस आनेवाली होगी...तुम दोनों ने क्या आफत उठा रखी है...अमन! यह लो तुम्हारी जुराब...और केतकी, यह रहा तुम्हारा रूलर..यहीं तो पड़ा था...चलो,चलो टिफिन और पानी की बोतलें उठाओ..बस आ गयी होगी...",मेरी आवाज़...!

दोनों चले जाने के बाद एक प्याली चाय की फ़ुरसत होती...मुझे तस्वीरों वाले सजे,सजाये कमरे कितने सुन्दर लगते...!
"लो तुम्हारा तस्वीरों वाला कमरा...ख़ुश? अब यहाँ की चद्दर पे एक सिलवट भी नही पड़ेगी...देख लो! डेस्क पे बेतरतीब किताबों का ढेर नही...इस्त्री किये कपड़ों पे गीला तौलिया नही...न कम्पस की खोज न जुराब की...टीवी चैनल परसे झगडा नही...अंत में "कोई कुछ नही देखेगा", ऐसा झल्लाके कहने वाली मै खामोश खड़ी..
" और लेलो फ़ुरसत...", मेरे मनने एक और उलाहना दी..आज मुझे वो सुबह की व्यस्तता याद आ रही थी...पीती रहो चाय...मैंने कैसे कभी सोचा नही,की, घोंसले से एकबार पँछी उड़ गए तो पता नही कब लौटेंगे? मै इंतज़ार करुँगी और वो आकाश में उड़ान भर लेंगे..!
मेरी आँखों से पानी बहने लगा..मै अमन के कमरे से केतकी के कमरेमे आ गयी...किसी के अस्तित्व की कोई निशानी नही...हाँ ! एक कोने में केतकी की कोल्हापुरी  चपलें पडी हुई थी..बस! पलंग फेंका हुआ दुपट्टा नही, अधखुली सूटकेसेस नही, पोर्टफोलियो के कागजात नही...खाली ड्रेसिंग टेबल...वैसे भी केतकी कोई सिंगार नही करती...इतने दिनों से ड्रेसिंग टेबल पे कागज़ात ही बिखरे हुए थे..वहाँ के हलके से अँधेरे  से घबराके मैंने बिजली जला दी..मन फिर एकबार विगत में दौड़ा...

अमन अंगूठा चूसा करता था..मेरे परिवारवाले मेरे पीछे पड़े रहते...'इसकी यह आदत छुडाओ..'दो साल के अमन को मै एक बार अपने बिस्तर पे लेके बैठी...उसने मेरी गोदीमे सर रख दिया..मैंने कहा,
"तुमने देखा बेटे? तुम्हारे पापा अंगूठा नही चूसते, मै नही चूसती, नाना नानी नही चूसते'...और न जाने कितनी लम्बी फेहरिस्त सुना दी..
उसने मूह से अंगूठा निकला..मुझे लगा, वाह! कुछ तो असर हुआ..अगले पल वो बोला," माँ ! इन छब को बोलो अंगूठा चूछ्ने को..", अंगूठा वापस अन्दर..
कई बार सोने से पहले वो काहानी की ज़िद करता और मै हज़ार काम आगे कर, टाल जाती..." देखो, दादी माँ को रोटी देनी है न?."..आदि,आदि...
काश मैंने वो सब छोड़ कहानी सुना ही दी होती...
केतकी को मेरी सहत को लेके हमेशा चिंता रहती...ख़ास कर मेरा मायग्रेन...जब वो होस्टल में थी तो दिल खोल के ख़त लिखती..अंत में हमेशा दो चेहरे अंकित करती...एक चिंतित , ख़त लिखने के पहले का और दूसरा...निश्चिन्त.... ख़त लिख लेने के बाद का..काश मैंने वो ख़त संभाल के रखे होते! अब अपने हस्ताक्षर में केतकी मुझे थोड़े ही ख़त लिखेगी...और वो भी लम्बे,लम्बे..अब तो इ-मेल आ जाया करेगी...चंद शब्दों की ...तबादलों के चक्कर में मैंने सब फेंक दिया था...कहाँ पता था की, ऐसे खाली घर में मुझे रहना पडेगा?

पिछले कई महीनों से उसने मुझसे बस काम की ही बात चीत की थी...मै समझ रही थी की, इतने सालों का दर्द उसपे हावी हो गया है..मेरी ज़िंदगी एक तारपर की कसरत थी, जिस में मेरी बेटी ने मुझे हमेशा सहारा दिया था..अब मुझे उसकी खामोशी या चिडचिड, दोनों बरदाश्त करने ही होंगे...राघव के रूप में उसे मनमीत मिल गया था..जिसके साथ वो अपने सब दुःख दर्द बाँट सकती थी...
आँखों की धारा और तेज़ हो गयी...मैंने उस कमरेसे बाहर निकल फट से टीवी चला दिया...बस इंसानी आवाज़ के खातिर...अब इंतज़ार  के अलावा अन्य चारा नही था...मेरे अनगिनत छंद थे..लेकिन इस वक़्त मुझे, इंसानी सोहबत की चाह थी...
मन में आ रहे विचार मैंने कागज़ पे उतार दिए..और तीन भिन्न भाषाओँ में लिख, अखबारों को भेज दिए...पढने वाले रो पड़े..मुझे अनगिनत ख़त आए..फोन आए..लोग मिलने भी पहुँचे और मेरे पास बैठ अपनी,अपनी कहानी  सुना, ज़रोजार रो गए....तीन अखबारों में अब मेरे साप्ताहिक colunm छपने लगे..लेकिन ,लेकिन..बच्चों की याद..खासकर केतकी की, मुझे रुलाती रही...जीवन में उसे चैन नही हासिल हुआ...और चाहे गलती किसीकी हो...उसकी ज़िम्मेदार,एक माँ की तौरपे मै भी थी..आज माँ की मामता मुझे चैन नही लेने दे रही थी...

क्रमश: