( गतांक: ब्याह अच्छे से हो गया...लडकी बिदा हो गयी...उसी शहरमे...और दीपा भयानक depression में चली गयी. उसका nervous breakdown ही हो गया! बरसों उसने अपनेआप को सहेजे रखा था...अब वो बिखर,बिखर गयी..
अब आगे पढ़ें.)
अब दीपा को लगने लगा जैसे उसके जीवन का मकसद ख़त्म हो गया! एक भयानक अकेलेपन ने उसे घेर लिया. एक खालीपन,जिसे वो किसी के साथ चाहकर भी बाँट नहीं सक रही थी...क्योंकि कोई थाही नहीं उसके जीवन में! अब उसे एक साथी की कमी बेहद खलने लगी. अपना समाज इतना परम्परावादी है,की, औरत की इस ज़रुरत को समझना उसके परे है.
अब उसे अजय याद आता जो बहुत संजीदा था. अगर दीपा उसके पीछे लग उसका ब्याह न करवाती तो शायद वो अबतक रुका रहता! शायद नरेंद्र भी रुक जाता! लेकिन वो हालात अलग थे. बेटी का भविष्य उसके लिए अपनी हर निजी खुशी से बढ़के मायने रखता था! जब बेटी की ज़िम्मेदारी से वो फारिग हो गयी तो ज़िंदगी अचानक नीरस,बेमक़सद बन गयी.
ऐसे समय में बच्चों ने काफी समझदारी और परिपक्वता का दर्शन दिया. दोनों ने माँ को दोबारा ब्याह करने की सलाह दी. इस तरह की संस्थाओं में उसका नाम भी दर्ज कराया. इस कारण दीपाका संकुचित दायरा थोडा विस्तारित होने लगा. चंद सज्जन मर्दों से उसका नेट की सहायता से परिचय हुआ. वो स्वयं अपने आप को टटोल रही थी. उसे खुद नहीं पता था की,आखिर जीवन में वो चाहती क्या है?शादी चाहती है या केवल दोस्ती?शायद ऐसी दोस्ती,जिसमे समर्पण हो,ज़िम्मेदारी हो,लेकिन बंधन का बोझ न हो! कई विधुर और विभक्त हुए लोगों ने उसके आगे शादी के प्रस्ताव रखे. वो कुछ लोगों से मिली भी. पर सच तो ये था,की,शादी के ख्याल से उसे डर लगता!
और इन्हीं दिनों उसका परिचय प्रसाद से हुआ. वो डिवोर्सी था. पर उससे उम्र में करीब १० साल छोटा. बहुत दिनों तक तो दीपा ने उसे टाल दिया. अंत में जाके दोस्ती स्वीकार की. दोनों का ईमेल तथा फ़ोन के ज़रिये आपस में ख़यालों का आदान प्रदान शुरू हुआ. प्रसाद तो पूरी तरह से उसके प्यार में डूब गया था. उसके हर ख़त में," मै तुमसे बेहद प्यार करता हूँ," ये वाक्य कुछ नहीं तो दस बार होता! प्रसाद अहमदाबाद का बाशिंदा था. अंत में दीपा ने अहमदाबाद जाके उससे मिलने का फैसला किया और वो गयी. वो खुद अब किसी किशोरी की तरह उसे मिलने के लिए बेताब हो उठी थी.
क्रमश: