बुधवार, 22 अगस्त 2012

रोई आँखें मगर.....4


मेरे ब्याह्के कई वर्षों बाद एक बार मैं अपने मायके आई थी कुछ दिनोके लिए। शयनकक्ष से बाहर निकली तो देखा बैठक मे दादाजी के साथ एक सज्जन बैठे हुए थे। दादा ने झट से कहा,"बेटा, इन्हे प्रणाम करो!'
मैंने किया और दादाजी से हँसके बोली,"दादा अब मेरी उम्र चालीस की हो गई है! आप ना भी कहते तो मैं करती!"
दादा कुछ उदास,गंभीर होके बोले,"बेटा, मेरे लिए तो तू अब भी वही चालीस दिनकी है, जैसा कि  मैंने तुझे पहली बार देखा था, जब तुझे लेके तेरी माँ अपने मायके से लौटी थी....!!"

मेरे दादा -दादी गांधीवादी थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम मे भाग लिया था तथा जब गांधीजी ने युवा वर्ग को ललकारा की वे ग्राम सुधार मे तथा ग्राम जागृती मे लग जाएं, तो दोनों मुम्बई का मेहेलनुमा,संगेमरमर का पुश्तैनी मकान छोड़ गाँव आ बसे और खेती तथा ग्राम सुधार मे लग गए। गाँव मे कोई किसी भी किस्म की सुविधा नही थी। दोनों को जेलभी आना जाना पड़ता था, इसलिए उन्होंने उस ज़मानेमे परिवार नियोजन अपनाकर सिर्फ़ एकही औलाद  को जन्म दिया, और वो हैं मेरे पिता। मुझे मेरे दादा-दादी पे बेहद गर्व रहा है। उन्हें लड़कीका बड़ा शौक़ था। मेरे जन्म की ख़बर सुनके उन्हों ने टेलेग्राम वालेको उस ज़मानेमे, खुश होके १० रुपये दे दिए!!वो बोला ,आपको ज़रूर पोता हुआ होगा!!

उनके अन्तिम दिनोंके दौरान एकबार मैं अपने पीहर गयी हुई थी। अपनी खेती की जगह जो एकदम बंजर थी(उसके छायाचित्र मैंने देखे थे),उसको वाकई उन्होंने नंदनवन मे परिवर्तित कर दिया था। एक शाम उन्होंने अचानक मुझसे एक सवाल किया,"बेटा, तुझे ये जगह लेनेका मेरा निर्णय कैसा लगा?"
ना जाने मेरे दिलमे उस समय किस बातकी झुन्ज्लाहट थी,मैं एकदमसे बोल पडी,"निर्णय कतई अच्छा नही लगा, हमे स्कूल आने जाने के लिए कितने कष्ट उठाने पड़ते थे, और...."ना जाने मैंने क्या-क्या बक दिया। वे बिलकूल खामोश हो गए। मुझे तुरंत उनकी क्षमा मांगनी चाहिए थी, लेकिन मैंने ऐसा नही किया।दूसरे दिन मैं वापस लौट गयी। उन दिनों हमलोग मुम्बई मे थे। बादमे मैंने सोचा, उन्ह्ने एक माफी का ख़त लिख दूंगी। लिखा भी। लेकिन पोस्ट लिया उसी दिन उनके देहान्तकी ख़बर आयी। जिस व्यक्ती ने मेरे लिए इतना कुछ किया था, उसी व्यक्ती को मैंने उनके अन्तिम समयमे ऐसे कटु शब्द सुना दिए! क्या हासिल हुआ मुझे!मैं अपनी ही निगाहोंमे ख़ुद गिर गयी।

जबतक हमलोग मेरे पीहर पहुँचे , उनकी अर्थी उठ चुकी थी। वे बेहद सादगी से अपना अन्तिम कार्य करना चाहते थे। अपने लिए खादी  का कफ़न दोनोहीने पहलेसे लेके रखा हुआ था। पर जब शहर  और गाँव वालों को उनके निधन की वार्ता मिली, तो सैकडों लोग इकट्ठा हो गए। हर जाती-पाती के लोगोंने कान्धा दिया। एक नज्म है,"मधु" के नामसे लिखनेवाले शायर की, जो दादी सुनाया करती थी,"मधु"की है चाह बहुत , मेरी बाद वफात ये याद रहे,खादीका कफ़न हो मुझपे पडा, वंदेमातरम आवाज़ रहे,मेरी माता के सरपे ताज रहे"।
उनकी मृत्यु जिस दिन हुई, वो उनकी शादी की ७२वी वर्ष गाँठ थी। जिस दिन उन दोनों का सफर साथ शुरू हुआ उसी दिन ख़त्म भी हुआ।

मेरी दादी के मुंह से मैंने अपनी जिन्दगीके बारेमे कभी कोई शिकायत नही सुनी। मेहेलसे आ पहुँची  एक मिट्टी के घरमे, जहाँ पानी भी कुएसे भरके लाना होता था,ना वैद्यकीय सुविधाएँ,ना कोई स्कूल,ना बिजली....अपने इकलौते बेटेको सारी पढाई होने तक दूर रखना पड़ा। उन्हें राज्यसभाका मेंबर बननेका मौक़ा दिया गया,लेकिन उन्होंने अपने गाँव मे ही रहना चाहा।

दादाजी के जानेके बाद दो सालके अन्दर-अन्दर दादी भी चल बसी। जब वे अस्पतालमे थी, तब एकदिन किसी कारण, ५/६ नर्सेस उनके कमरेमे आयी। उन्होंने दादी से पूछा," अम्मा आपको कुछ चाहिए?"
दादी बोली," मुझे तुम सब मिलके 'सारे जहाँसे अच्छा,हिन्दोस्ताँ हमारा',ये गीत सुनाओ!"

सबने वो गीत गाना शुरू किया। गीत ख़त्म हुआ और दादी कोमा मे चली गयी। उसके बाद उन्हें होश नही आया।

इन दोनोने एक पूरी सदी देखी थी। अब भी जब मैं पीहर जाती हूँ तो बरामदेमे बैठे वो दोनों याद आते हैं। एक-दूजे को कुछ पढ़ के सुनाते हुए, कभी कढाई करती हुई दादी, घर के पीतल को पोलिश करते दादा.....मेरी आँखें छलक उठती हैं....जीवन तो चलता रहता है....मुस्कुराके...या कभी दिलपे पत्थर रखके,जीनाही पड़ता है....
पर जब यादें उभरने लगती हैं,बचपनकी,गुज़रे ज़मानेकी तो एक बाढ़ की तरह आतीं हैं.....अब उन्हें रोक लगाती हूँ, एक बाँध बनाके।
समाप्त 
 
इसी पोस्ट के साथ मै  अपने ब्लॉगर दोस्तों की बिदा लेती हूँ।...ये मेरी शायद आखरी पोस्ट होगी।

सोमवार, 20 अगस्त 2012

रोई आँखें मगर... 3

दादीअम्मा जब ब्याह करके अपनी ससुराल आई,तो ज्यादा अंग्रेज़ी पढी-लिखी नही थी, लेकिन दादाके साथ रहते,रहते बेहद अच्छे-से ये भाषा सीख गयीं। इतनाही नही, पूरे विश्वका इतिहास-भूगोलभी उन्होंने पढ़ डाला। हमे इतने अच्छे से इतिहास के किस्से सुनाती मानो सब कुछ उनकी आँखोंके सामने घटित हुआ हो!
उनके जैसी स्मरण शक्ती विरलाही होती है। उर्दू शेरो-शायरीभी वे मौका देख, खूब अच्छे से कर लेती। दादा-दादी मे आपसी सामंजस्य बहुत  था। वे एकदूसरे का पूरा सम्मान करते थे और एक दूसरेकी सलाह्के बिना कोई निर्णय नही लेते।

जब मैने आंतर जातीय ब्याह करनेका निर्णय लिया तो, एक दिन मेरे भावी पति  के रहते दादा ने  मुझे अपने पास लेकर सरपे हाथ फेरा और सर थपथपाया........ मानो कहना चाह रहे हों, काँटा भी ना चुभने पाये कभी, मेरी लाडली तेरे पाओंमे.... और तब मैने चुनी राह पर कितने फूल कितने काँटें होंगे,ये बात ना वो जानते थे ना मैं! फ़िर उन्होंने इनका  हाथ अपने हाथोंमे लिया और देर तक पकड़े रखा, मानो उनसे आश्वासन माँग रहे हों कि, तुम इसे हरपल नयी बहार देना........

मेरी दादी badminton और लॉन टेनिस दोनों खेलती थीं। एक उम्र के बाद उन्हें गठियाका दर्द रहने के  कारण ये सब छोड़ना पडा। मेरे ब्याह्के दो दिन पहले मैने हमारे पूरे खेतका एक चक्कर लगाया था। वहाँ उगा हर तिनका, घांसका फूल, पेड़, खेतोंमे उग रही फसलें,मैं अपने ज़हन  मे सदाके लिए अंकित कर लेना चाहती थी। लौटी तो कुछ उदास-उदास सी थी। दादीअम्माने मेरी स्थिती भांप ली। हमारे आँगन मे badminton कोर्ट बना हुआ था। मुझसे बोलीं,"चल हम दोनों एकबार badminton खेलेगे।"
उस समय उनकी उम्र कोई चुराहत्तर सालकी रही होगी। उन्होंने साडी खोंस ली, हम दोनोने racket लिए और खेलना शुरू किया। मुझे shuttlecock जैसे नज़रही नही आ रहा था। आँखोके आगे एक धुंद -सी छा गयी थी।हम दोनोने कितने गेम्स खेले मुझे याद नही, लेकिन सिर्फ़ एक बार मैं जीती थी।

उनमे दर्द सहकर खामोश रहने की  अथाह शक्ती थी। उनके ग्लौकोमा का ऑपेरशन  कराने हम पती-पत्नी उन्हें हमारी पोस्टिंग की जगाह्पे ले आए। वहाँ औषध -उपचार की बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध थी। दादी की उम्र तब नब्बे पार कर चुकी थी, इसलिए सर्जन्स उन्हें जनरल अनेस्थिशिया नही देना चाहते थे। केवल लोकल अनेस्थेशिया पे सर्जरी की गयी। मेरे पतीभी ऑपेरशन  थिअटर मे मौजूद थे। दादीअम्माने एक दो बार डॉक्टर से पूछा ,"और कितनी देर लगेगी?"
डॉक्टर हर बार कहते,"बस, और दस मिनिट्..."
अंत मे वो बोली,"आप तो घंटें भरसे सिर्फ़ दस मिनिट कह रहे हैं!!"

खैर, जब ऑपरेशन पूरा हुआ तो पता चला कि , लोकल अनेस्थिशिया का उनपे कतई असर नही हुआ था!सर्जन्स भी उनका लोहा मान गए। जब दूसरी आँख की सर्जरी थी तब भी वे मुझसे सिर्फ़ इतना बोली,"बेटा, इस बार जनरल अनेस्थिशिया देके सर्जरी हो सकती है क्या? पहली बार मुझे बहुत  दर्द हुआ था"!
बस, इसके अलावा उनको हुई किसी तकलीफ का उन्होंने कभी किसी से ज़िक्र नही किया।

क्रमश:

रविवार, 19 अगस्त 2012

रोई आँखे मगर....2


मुझे गर्मियोंकी छुट्टी की वो लम्बी-लम्बी दोपहारियाँ याद है, जब हम बच्चे ठंडक ढूँढ नेके लिए पलंगके नीचे गीला कपड़ा फेरकर लेटते थे। कभी कोई कहानीकी किताब लेकर तो कभी ऐसेही शून्यमे तकते हुए..... चार साढे चार बजनेका इंतज़ार करते हुए जब हमे बाहर निकलनेकी इजाज़त मिलती।
मेरी दादीको उनके भाईने एक केरोसीनपे चलनेवाला फ्रिज दिया था। वे हमारे लिए कुछ ठंडे व्यंजन बनाती, उनमेसे एकको "दूधके फूल" कहती। फ्रिजमे दूध-चीनी मिलके जमातीं   और फिर उसे खूब फेंटती जाती, उसका झाग हमारे गिलासोंमे डालती और खालिहानसे लाई गेहुँकी "स्ट्रा" से हम उसे पीते। खेतमे बहती नेहरमे डुबकियाँ लगाते,आमका मौसम तो होताही। माँ हमे आम काटके देती और नेहरपे बनी छोटी-सी पुलियापे बिठा देती। हमलोग ना जाने कितने आम खा जाते!!तब मोटापा नाम की चीज़ पता जो ना थी!!
माँ और दादी हम दोनों बेहनोके लिए सुंदर-सुंदर कपड़े सिया करती। दादी द्वारा मेरे लिए कढाई करके सिला हुआ एक frock अब भी मैंने सँभाल के रखा है!!
छुट्टी के दिन,जैसे के हर रविवार को, माँ आवला, रीठा तथा सीकाकायी से हमारे बाल धोती।फिर लोबानदान मे जलते कोयलोंपे बुखुर और अगर डालके उसके धुएँसे हमारे बाल सुखाती। उसकी भीनी-भीनी खुशबू आजभी साँसोंमे रची-बसी है।

यादोंकी नदीमे जब घिरके हम हिचकोले खाते हैं, तो उसका कोई सिलसिला नही होता। जिस दिन जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई थी, मुझे याद है,उनकी अन्तिम यात्राका आँखों देखा हाल आकाशवाणी पे सुनके मैं जारोज़ार रोई...कमेंटेटर के साथ-साथ...... उस दिन भयानक तूफान आया था। हमारे खेतके पुराने,पुराने पेड़ उखड के गिर पड़े थे, मोटी,मोटी डालें टूट गयी थी, मानो सम्पूर्ण निसर्ग मातम मना रहा हो। ये तूफान पूरे देशमे आया था उस दिन।
औरभी कैसी -कैसी यादें उमड़ रही हैं!!जब कॉलेज की पढाई के लिए मैं गाँव छोड़ शहर गयी तो दादीअम्मा के कंप कपाते होंठ और आँखों से बहता पानी याद आ रहा है।याद आ रही उनकी बताई एक बडीही र्हिदयस्पर्शी बात.....
जब मैं केवल तीन सालकी थी, तब मेरे पिता आन्ध्र मे फलोंका संशोधन करनेके लिए मेरे और माके साथ जाके रहे थे। हम तीनो चले तो गए,लेकिन किसी कारन कुछ ही महीनोमे लौटना पडा।
जब मैं थोडी बड़ी हुई तो दादीअम्मा ने बताया कि, हम लोगोंके जानेके बाद वे और दादाजी सूने-से बरामदेमे बैठ के एक दूसरेसे बतियाते थे और कहते थे अगर ये लोग लौट आए तो मैं मेरी पोती को गंदे पैर लेके पलंग पे चढ़ने के लिए कभी नही गुस्सा करूँगा , ....इन साफ सुथरी चद्दरों से तो वो छोटे-छोटे, मैले, पैरही भले!!घर के कोने-कोनेसे उसकी किलकारियाँ सुनायी पड़ती हैं.....!!!

क्रमश:


शनिवार, 18 अगस्त 2012

रोयीं आँखें मगर.....

मई महीने की गरमी भरी दोपहर थी। घर से कही बाहर निकलने का तो सवाल ही नही उठता था। सोचा कुछ दराजें साफ कर लूँ । कुछ कागज़ात  ठीकसे फाइलो मे रखे जाएं तो मिलने मे सुविधा होगी।
 मैं फर्शपे बैठ गई और अपने टेबल की सबसे निचली दराज़ खोली। एक फाइलपे लेबल था,"ख़त"। उसे खोलके देखने लग गई और बस यादोंकी नदीमे हिचकोले खाने लगी।वो दिन १५ मई का था .......दादाजी का जन्म दिन....!!!

पहला ही ख़त था मेरे दादाजी का बरसों पहले लिखा हुआ!!!पीलासा....लगा,छूनेसे टूट ना जाय!!बिना तारीख देखे,पहली ही पंक्ती से समझ आया कि  ये मेरी शादीके तुरंत बाद उन्होंने अपनी लाडली पोति को लिखा था!! कितने प्यारसे कई हिदायतें दी थी!!!"खाना बनते समय हमेशा सूती साड़ी पहना करो...."!"बेटी, कुछ ना कुछ व्यायाम ज़रूर नियमसे करना....सेहेतके लिए बेहद ज़रूरी है....."!
मैंने इन और ऐसी कई अन्य  हिदायतोको बरसों टाल दिया था। पढ़ते,पढ़ते मेरी आँखें नम होती जा रही थी.....और भी उनके तथा दादीके लिखे ख़त हाथ लगे...बुढापे के कारन कांपते हाथोसे लिखे हुए, जिनमे प्यार छल-छला रहा था!! ये कैसी धरोहर अचानक मेरे हाथ लग गई,जिसे मैं ना जाने कब भुला बैठी थी!!ज़हन मे सिर्फ़ दो शब्द समा गए ..."मेरा बाबुल"..."मेरा बचपन"!!

बाबुल.....इस एक लफ्ज्मे क्या कुछ नही छुपा? विश्वास,अपनत्व,बचपना,और बचपन,किशोरावस्था और यौवन के सपने,अम्मा-बाबाका प्यार, दादा-दादीका दुलार,भाई-बेहेनके खट्टे मीठे झगडे,सहेलियों के साथ बिताये निश्चिंत दिन, खेले हुए खेल, सावनके झूले, रची हुई मेहँदी, खट्टी इमली और आम, सायकल सीखते समय गिरना, रोना, और संभालना, बीमारीमे अम्मा या दादीको अपने पास से हिलने ना देना, उनसे कई बार सुनी कहानियाँ बार-बार सुनना, लकडी के चूल्हेपे बना खाना और सिकी रोटियां, लालटेन के उजालेमे की गई पढाई, क्योंकि मेरा नैहर तो गाँव मे था...बल्कि गांवके बाहर बने एक कवेलू वाले घरमे ,जहाँ मेरे कॉलेज जानेके बाद किसी समय बिजली की सुविधा आई थी। सुबह रेहेट्की आवाज़से आँखें खुलती थी। रातमे पेडोंपे जुगनू चमकते थे और कमरोंमे भी घुस आते थे जिसकी वजहसे एक मद्धिम-सी रौशनी छाई रहती।


दादा मेरे साथ खूब खेला करते थे। वो मेरे पीछे दौड़ते और हम दोनों आँखमिचौली खेलते। मैं पेडोंपे चढ़ जाया करती और वो हार मान लेते। सायकल चलाना उन्ह्नोनेही मुझे सिखाया और बादमे कार भी।और सिखाई वक्त की पाबंदी, बडोंकी इज्ज़त करना और हमेशा सच बोलना, निडरता से सच बोलना। बाकी घरवालोने भी यही सीख दी। हम गलती  भी कर बैठते, लेकिन उसे स्वीकार लेते तो डांट नही बल्कि पीठ्पे थप-थपाहट मिलती। निडरता से सच बोलनेकी सीखपे चलना मुश्किल था। कई बार क़दम डगमगा जाते, झूठ बोलके जान बचा लेनेका मोह होता, लेकिन हमेशा दादा याद आते,उनके बोल याद आते की जब कोई इंसान मृत्युशय्या पे हो तो उसके दिलमे कोई पश्चाताप नही होना चाहिए।
 इसी बातपे मुझे बचपन की एक घटना याद आयी। हम तीनो भाई-बेहेन स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस से स्कूल आया जाया करते थे। एक दिन माँ ने हिदायत देके स्कूल भेजा मुझे की शामको शायद हमारी कार शहर  आयेगी। अगर एक विशिष्ट जगह् पे कार दिखे तो छोटे भाई को बस स्टेशन पे ठीक से देख लेना तथा उसे साथ लेके आना। ना जाने क्यों, उस भीड़ भरी जगह् पे मैंने बहुत ही  सरसरी तौरसे नज़र दौडाई और कारमे बैठ के घर आ गयी। माँ के पूछ्ने पे कहा कि , मैंने तो ठीकसे देखा, राजू वहाँ नही था। माँ को शंका हुई की कहीँ  बेटा किसी बुरी संगत मे तो नही पड़ गया??जब देर शाम भाई बस से घर लौटा तो माँ ने उससे सवाल किया की वो शाम को बस स्टेशन पे नही था ...कहाँ गया था??उसने बताया कि , वो तो बस स्टेशन पे ही था। माँ ने  उसे चांटा लगाया। उसने माँ से  कहा,"माँ तुम चाहो तो मुझे मारो,लेकिन मैं वहीं पे था...बल्कि मैंने दीदी को देखा भी....इससे पहले कि  मैं उनतक जाता,वो चली गयी...."।
माँ ने  मेरी तरफ़ मुखातिब होके कहा,"तुमने राजूको ठीकसे देखा था?"
मेरी निगाहें झुक गयी। मुझे अपने आपपे बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई। आज भी जब वो घटना याद आती है तो मेरी आँखें भर आती हैं।

एकबार दादा से रूठ्के मैं पैदलही स्कूल निकल पडी। तब मेरी उम्र होगी कुछ दस- ग्यारह सालकी। स्कूल तकरीबन आठ किलोमीटर दूर था। दादाजी ने अपनी सायकल उठायी और मेरे साथ-साथ चलने लगे। क़रीब दो-तीन किलोमीटर चल चुके तो एक बस आयी। बसका चालक दादाजी को जानता था। उसने मुझसे बसमे बैठने के लिए खूब मनुहार की ,लेकिन मैं थी की रोती जा रही थी,और अपनी ज़िद्पे अडी हुई थी। अन्तमे दादाजीने उसे जानेके लिए कह दिया। मैं पैदल चलकेही स्कूल पहुँची ।जब शाम मे स्कूल छूटी तो मैं बस स्टेशन के लिए निकल पडी। थोडीही दूरपे एक छोटी-सी पुलियापर दादाजी मेरा इंतज़ार कर रहे थे!!दिनभर के भूके-प्यासे!!बोले,"अब तुझे बसमे बिठाके मैं सायकल से घर आऊँगा।"
 मुझे आजतक इस बातपे ग्लानी होती है....काश.....काश,मैं इतनी जिद्दी ना बनी होती....!
क्रमश:


शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना !9


रोज़ शामको आशा लीलाबाई से पूछती,"अभीतक राजू-संजू,माया- शुभदा, कोयी भी नही आया???बच्चों की आवाजें नही आ रही???"फिर ,"अस्मिता,अस्मिता,आजा तो...देख मैं लड्डू दूँगी तुझे,"इसतरह पुकारती रहती....

माया-शुभदा,अस्मिता....ये सब उसकी ज़िन्दगीमे कभी आयी ही नही,इसका होश कब था उसे???कभी वो अपने आपसे ही बुदबुदाती,हाथ जोड़कर प्रणाम करती,तथा लीलाबाई से कहती,"ईश्वरकी कितनी कृपा है मुझपे! माँगा हुआ सब मिला,जो नही माँगा वो भी उस दयावान ने दे दिया। ऐसे जान न्योछावर करने वाले बच्चे, ऐसी हिलमिलके रहनेवाली बहुए, इतने प्यारे पोते-पोती....बता ऐसा सौभाग्य कितने लोगोको मिलता है??"

कई बार लीलाबाई अपने पल्लूसे आँखे पोंछती। उसके तो बच्चे ही नही थे। उसके मनमे आता, इस दुखियारी के जीवन से तो मेरा जीवन कहीं बेहतर!बच्चे होकर इसने क्या पाया??और वो भी उन्हें इतना पढा लिखाकर??

और एक दिन मिसेस सेठना के घर संजू अचानक आ धमका...!!उनके पैरोपे पड़ गया। सिसक सिसक कर रोने लगा। मिसेस सेठना अब काफी बूढी हो गयी थी। उन्हें संजूको पहचानने मे समय लगा।

"आंटी, मुझसे बहुत  बड़ी भूल हो गयी.... माफीके काबिल नही हूँ,फिर भी माफी माँगता हूँ। मैं भारत लौट  आया हूँ.... अब माँ बापके साथ ही रहूँगा उन्हें सुखी रखूँगा,कमसे कम कोशिश करूँगा," संजू रो-रोके बोल रहा था।
मिसेस सेठना ने उसे बीच मे घटी सारे घटनाओका ब्योरा सुनाया,फिर पूछा,"तुम्हारी भूल तुम्हारे ध्यान मे कैसे आयी?"
"आंटी, वहाँ पर एक वृद्धाश्रम मे मुझे विज़िट पे बुलाया था। वहाँ ऐसे कई जोड़े रहते हैं । दोनो साथ,साथ होते हैं  तब तक खुश भी होते है। उस दिन एक भारतीय स्त्री मुझे मिली। माँ के उम्र की होगी। पगला-सी गयी थी। मेरा हाथ छोड़ने को तैयार नही थी।
"मेरे बच्चो को मरे पास ले लाओ। ये देखो, ये पता है। यहाँ के लोग उन्हें बुलाते ही नही। कोई मेरी बात ही नही सुनता है....बेचारी रो-रोके बोल रही थी।
मैंने आश्रम मे तलाश की तो पता चला कि उसके बच्चे आना ही नही चाहते। पैसे भेज देते है। वीक एंड पे घूमने चले जाते हैं । मेरी आखोंके सामने मेरी माँ आ गयी। मुझ पर मानो बिजली-सी बरस पडी। मैंने उसी पल भारत लौटने का निर्णय ले लिया। ब्याह तो किया ही नही था, इसलिए किसीके सलाह मश्वरेकी ज़रूरत नही थी। आंटी मुझे अभी,इसीवक्त माँ के पास ले चलिए....! "

दोनो निकल ही रहे कि आश्रमसे फ़ोन आया,आशाकी तबियत बहुत  खराब है। वो लोग पहुंचे  तबतक मुख्याध्यापिका भी पहुँच  गयी थी। डाक्टर भी वहीं  थे। संजू को किसीने पहचाना नही। मिसेस सेठना ने परिचय करवाया। लीलाबाई आँखे पोंछते हुए बोली,"आज सुबह्से कुछ नही खाया पिया। बस,राजू-संजू आएँगे तभी लूँगी, यही कहती रहती हैं... ।"
मिसेस सेठना अपने साथ मोसंबी लाईं थीं ..... लीलाबाई को झट से रस निकालने को कहा। ड्रिप लगी हुई थी। मिसेस सेठना ने डाक्टर से धीमी आवाज़ मे कुछ कहा ......उन्होने गर्दन हिलाई...... संजूकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने माँ का एक हाथ पकडा, दूसरा डाक्टर ने।
"माँ! देख हम आ गए है। अब ये रस ले ले, वो बोला। आशाने संजूके हाथों रस ले लिया। उसके होंठ कुछ बुदबुदाने लगे। सबने एक दूसरेकी तरफ  प्रश्नार्थक दृष्टी से देखा। लीलाबाई बोली ,"वो कह रही है,'दयाकी दृष्टी सदाही रखना,'जो हमेशा गाती रहती हैं ।"
आसपास खडे लोगो की आँखे भर आयीं........ संजू तो लौट ही आया था, डाक्टर के रूपमे राजू भी मिल गया।

समाप्त ।


बुधवार, 8 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! 8


फिर दिन महीने साल खिसकने लगे। इस प्रसंग के बाद आशा एकदम बुढ़िया-सी गयी। बेचारा उसका पति  फिर भी उसके लिए गजरे, बडे, कपडे लाता गया। एक दिन  वो उससे बोला,"मैं आज जल्दी आऊँगा। हम पिक्चर देखने चलेंगे। तू तैयार रहना। "
उसकी कतई इच्छा नही थी। फिर भी वो तैयार होके बैठ गयी। इतनेमे उसने देखा,बस्तीके लोग, बच्चे, मेन रोड की तरफ   भागे चले जा रहे थे। पता नही क्या है, उसके मनमे आया, फिर वो भी उस तरफ चल पडी । उसे आते देख भीड़ थोडी हटने लगी। अपघात???किसका??तभी उसे कुछ अंतरपर पडा गजरा दिखा, बिखरे हुए आलू बडे दिखे, टूटी हुई साइकल दिखी और वो बेहोश हो गयी।

जब होशमे आयी ,तो अपनी टपरी मे थी। टपरी के बाहर सफ़ेद कपडेमे लिपटा उसका सुहाग पडा था। साथ मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका भी थी। अन्तिम सफर की तैय्यारियाँ हो रहीं थीं। पंडित कुछ कर रहा था, कुछ-कुछ बोल रहा था। फिर सब ख़त्म हो गया। उसका जीवनसाथी भी उस छोड़ किसी अनजान सफरपे निकल पडा था। वो फूट फूट के रो पडी।

इसके बाद वो पगला-सी गयी। कभी काम पे जाती थी तो कभी नही। दिन,महीनों की गिनती उसे रही नही। अडोस-पड़ोस का कोई उसे खिला देता,नलकेपे ले जाके उसे नेहला देता, तथा कभी कभार कंघी कर देता। एक दिन ऐसीही अवस्थामे वो अपने झोंपडेसे बाहर निकली। अँधेरा था। किसी चीज़ से ठोकर खाके गिर पडी और गिरते समय जब चीखी तो अडोस-पड़ोस के लोग दौडे। उसे अस्पताल ले जाया गया। मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका को खबर दी गयी। दोनोही तुरंत भागी चली आयी। मिसेस सेठनाने खर्च की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली।

सुबह जब उसे आधा-अधूरा होश आया तब वो कुछ बुदबुदा रही थी, किसीको बुला रही थी। डाक्टर के अनुसार वो बेहद कमज़ोर तो हो ही गयी थी,उसके मस्तिष्क पे भी भारी सदमा पहुंचा  था। उसके लिए अकेले झोंपड़े मे रहना खतरेसे खाली नही था......

सरपर का ज़ख्म ठीक होनेके बाद मिसेस सेठना ने उसे वृद्धाश्रम मे रखनेका निर्णय लिया। उन्होने आश्रम को डोनेशन भी दिया, लीलाबाई नामकी एक आया आशा की खिदमत मे रखवा दी। एक पहचानवाले डाक्टर को रोज़ शाम क्लिनिक जानेसे पहले एक बार आशा को चेक करनेकी विनती की। बेचारी मिसेस सेठना, आशा पे पडी आपत्ती के लिए खुदको ही ज़िम्मेदार ठहराती रही।

आशा कुछ रोज़ बाद घूमने फिरने लगी,लेकिन वो कहाँ है ये उसे समझमे आना बंद हो गया। स्पप्न और सत्यके बीछ्का अंतर मिटता चला गया। रोज़ सवेरे वो लीलाबाई से कहती,"मुझे बगियामे ले चल",और रोजही वहाँ आके कहती,"मेरी जूही की बेल कहाँ है??मोतियाभी दिख नही रहा!!मेरे बगीचेका किसने सत्यानास किया???शामको राजू-संजू आएँगे तो मैं उनसे कहूँगी मेरी बगिया फिरसे ठीक कर दो।"
क्रमशः

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! 7

बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल मे भेजकर , अमरीका जानेकी इजाज़त देकर कोई गलती तो नही की,बार,बार उसके मनमे आने लगा। अब बहुत  देर हो चुकी थी।
उसने हताश निगाहों से मिसेस सेठना को देखा। बच्चों को उच्च  शिक्षण उपलब्ध कर देने मे उनकी कोई भी खुदगर्ज़ी नही थी । आशा ये अच्छी तरह जानती थी। मिसेस सेठना आगे आयी,उसके हाथ थामे,कंधे थपथपाए, धीरज दिया... राजू चला गया.... सात समंदर पार.... अपनी माँ  की पहुँच  से बहुत  दूर।

आशा और उसका पति  फिर एकबार अपनी झोपडी मे एकाकी जीवन जीने लगे। दिन मे स्कूल का काम, मुख्याधापिका के घर के बर्तन-कपडे,फिर खुद् के घरका काम.... उसके पति को उसके मन की दशा दिखती थी । गराजसे घर आते समय कभी कभार वो उसके लिए गजरा लाता,कभी बडे, तो कभी ब्लाऊज़ पीस।

दो साल बाद संजू भी अमरीका चला गया । आशा और उसके पती की दिनचर्या वैसीही चलती रही। कभी कभी कोई ग्राहक खुश होके उसे टिप देता तो वो आशाके लिए साडी ले आता। भगवान् की दयासे उसे कोई व्यसन नही था। एक बार बहुत  दिनों तक वो कुछ नही लाया। दीवाली पास थी। थोडी बहुत  मिठाई,नमकीन बनाते समय आशाको छोटे,छोटे राजू-संजू याद आ रहे थे। लड्डू, चकली,चेवडा,गुजिया बनाते समय कैसी ललचाई निगाहोंसे इन सब चीजों को देखते रहते, उससे चिपक कर बैठे रहते।

आँचल से आँसू पोंछते ,पोंछते वो यादों मे खो गयी थी । पती कब पीछे आके खड़ा हो गया, उसे पता भी नही चला। उसने हल्केसे आशाके हाथोंमे एक गुलाबी कागज़ की पुडिया दी तथा एक थैली पकडाई। पुडियामे सोनेका मंगलसूत्र था, थैलीमे ज़री की साडी.......!
आशा बेहद खुश हो उठी! मुद्दतों बाद उसके चेहरेपे हँसी छलकी!! वो भी उठी..... उसने एक बक्सा खोला.... उसमेसे एक थैली निकली, जिसमे अपनी तन्ख्वाह्से बचाके अपने पति के लिए खरीदे हुए कपडे थे.... टीचर्स ने समय,समय पे दी हुई टिप्स्मे से खरीदी हुई सोनेकी चेन थी.....
पतिको भी बेहद ख़ुशी हुई। एक अरसे बाद दोनो आपसमे बैठके बतियाते रहे, वो अपने ग्राह्को के बारेमे बताता रहा, वो अपने स्कूलके बारेमे बताती रही।

समय बीतता गया। बच्चे शुरुमे मिसेस सेठनाके पतेपे ख़त भेजते रहते थे। आहिस्ता,आहिस्ता खतोंकी संख्या कम होती गयी और फिर तकरीबन बंद-सी हो गयी। फ़ोन आते, माँ-बापके बारेमे पूछताछ होती। एक बार मिसेस सेठ्नाने आशाको घर बुलवाया और उसके हाथमे एक लिफाफा पकडा के कहा," आशा ये पैसे है,तेरे बच्चों ने मेरे बैंक मे तेरे लिए ट्रान्सफर किये थे। रख ले। तेरे बच्चे एहसान फरामोश नही निकलेंगे। तुझे नही भूलेंगे।"

आशा पैसे लेके घर आयी। उसने वो लिफाफा वैसाही रख दिया। बहुओं के लिए कुछ लेगी कभी सोंचके.... इसी तरह कुछ समय और बीत गया। एक दिन सहज ही मिसेस सेठना का हालचाल पूछने वो उनके घर पहुँच        गयी। मिसेस सेठना हमेशा बडे ही अपनेपन से उससे मिलती। तभी उनका फ़ोन बजा, उनकी बातों परसे आशा समझ गयी कि फ़ोन राजूका है।
कुछ समय बाद मिसेस सेठना गंभीर हो गयी और सिर्फ"हूँ,हूँ" ऐसा कुछ बोलती रही। फिर उन्होंने आशा को फ़ोन पकडाया और खुद सोफेपे बैठ गयीं......
मुद्दतों बाद आशा राजूकी आवाज़ सुननेवाली थी। "हेलो " कहते,कह्ते ही उसकी आँखें और गला दोनो ही भर आये.....और फिर वो खबर उसके कानोपे टकराई ........
राजूने शादी कर ली थी, वहीँ की एक हिन्दुस्तानी लड़कीसे........ वहीँ बसनेका निर्णय ले लिया था। वो अपनी माँ को नियमसे पैसे भेजता रहेगा..... । कुछ देर बाद आशाको सुनाई देना बंद हो गया.......
उसने फ़ोन रख दिया। सुन्न-सी होके वो खडी रह गयी। मिसेस सेठना ने उसे अपने पास बिठा लिया। उनकी आँखों मे भी आँसू थे।

"आशा ,मैं तेरी बहुत  बड़ी गुनाहगार हूँ । मैं खुद को कभी माफ़ नही कर पाऊँगी । बच्चे ऐसा बर्ताव करेंगे इसकी मुझे ज़राभी कल्पना होती तो मैं उन्हें परदेस नही भेजती," बोलते,बोलते वो उठ खडी हुई।
" राजूने सिर्फ शादीही नही की बल्की अपनी पत्नी तथा उसके घरवालोंको बताया कि उसके माँ-बाप बचपन मे ही मर चुके हैं! मुझे....मुझे कह रहा था कि मैं.....मैं इस बातमे साझेदार बनूँ!!शेम ऑन हिम!!भगवान् मुझे कभी क्षमा नही करेंगे....!ये मेरे हाथोंसे क्या हो गया?"

वो अब ज़ोर ज़ोर से रो रही थीं। चीखती जा रही थीं।आशाका सारा शरीर बधीर हो गया था। वो क्या सुन रही थी? उसके बेटेने उसे जीते जी मार दिया था??उसे अपने गरीब माँ-बापकी शर्म आती थी??और उसने सारी उम्र उसके इन्तेज़ारमे बिता दी थी? ममताका गला घोंट,घोंटके एकेक दिन काटा था!

अंतमे जब वो घर लौटनेके लिए खडी हुई तो उसकी दशा देख कर मिसेस सेठ्नाने अपनी कारसे उसे बस्तीमे छुड़वा दिया। झोंपडीमे आके वो कहीँ दूर शून्यमे ताकती रही। बाहर बस्तीमे के बच्चे खेल रहे थे। उसका आँगन बरसोंसे सूना था। वैसाही रहनेवाला था........

बस्तीके कितनेही लोग उससे जलते थे, लेकिन वो अपने सीनेकी आग किसे बताती??ज़िंदगी ने कैसे,कैसे मोड़ लेके उसे ऐसा अकेला कर डाला था! उसके कान मे कभी उसके छुटकों  के स्वर गूँजते तो कभी आँखोंसे रिमझिम सपने झरते। उसका पति  जब घर आया तो उसने मनका सारा गुबार निकाला , खूब रोई।
पति  एकदम खामोश हो गया। फिर कुछ देर बाद बोला,"सच!  अगर तेरी बात सुनी होती,हम पढ़ लिख गए होते, तो अपने ही बलबूते पे बच्चे पढे होते... जो भी पढे होते, ये समय आताही नही।"
 आशाने कुछ जवाब दिया नही। उस रात दोनो ही खाली पेट ही सो गए। सो गए केवल कहनेके लिए, आशाकी आँखोंसे नींद कोसों दूर थी।
 क्रमश:





सोमवार, 6 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! 6


मुख्याध्यापिकाने कहा,"आशा, बच्चों का इसीमे कल्याण है। ऐसा सुनहरा अवसर इन्हें फिरसे नही मिलेगा। तुम दोनो मिलकर इनको कितना पढा लोगे?और मिसेज़ सेठना अगर इसी शहर मे किसी बडे स्कूल मी प्रवेश दिला दें, सारा खर्चा कर दें, फिर भी अगर तुम्हारे बच्चों के मित्रों को असली स्थिती का पता चलेगा तब इनमे बेहद हीनभाव भर जाएगा। ज्यादा सोंचो मत। "हाँ" कर दो। "

आशा ने "हाँ" तो भर दी लेकिन घर आकर वो खूब रोई । बच्चे उससे चिपक कर बैठे रहे। कुछ देर बाद आँसूं की धाराएँ रूक गयी। वो अपलक टपरी के बाहर उड़नेवाले कचरे को देखती रही। उसमे का काफी कचरा पास ही मे बहनेवाली खुली नाली मे उड़कर गिर रहा था........

हाँ!! उसका बंगला,उसका सपनोंका बंगला,उसका अपना बंगला, कभी अस्तित्व मे थाही नही। वो हिना, वो जूही का मंडुआ ,बाम्बू का जमघट, उससे लिपटी मधुमालती, वो बगिया जिसमे पँछी शबनम चुगते थे,जिस बंगले की छतसे वो सूर्योदय निहारती ,कुछ,कुछ्भी तो नही था!

बच्चे गए। उससे पहले मिसेस सेठना ने उनके लिए अंग्रेजी की ट्यूशन लगवाकर बहुत  अच्छी तैय्यारी करवा ली। उनके लिए बढिया कपडे सिलवाये! सब तेहज़ीब सिखलाई। एक हिल स्टेशन पे खुद्की जिम्मेदारी पे प्रवेश दिलवा दिया। वहाँ के मुख्याध्यापक तथा trustees उनके अच्छे परिचित थे। सब ने सहयोग किया।

बच्चों पर शुरू मे खास ध्यान दिया गया। मिसेस सेठना ने पत्रव्यवहार के लिए अपना पता दिया। अपने माँ-बाप देश के  दूसरे  कोने मे रहते हैं, तथा उनकी तबादले की नौकरी है, इसलिए हम सेठना आंटी के घर जाएँगे तथा हमारे ममी-पापा हमे वहीं मिलने आएँगे, यही सब क्लास के बच्चों को कहने की हिदायत दी गयी। शुरुमे बच्चे भौंचक्के से हो गए, लेकिन धीरे,धीरे उन्हें आदत हो गयी।

स्कूलमे साफ-सुथरे स्नानगृह,समयपे खाना (माँ के हाथों का स्वाद न सही),टेबल कुर्सियाँ , सोनेके लिए पलंग, पढाई के  लिए हरेक को स्वतंत्र डेस्क, बिजलीकी सुविधा,अलग,अलग,खेल,पहाडोंका सौंदर्य.....ये सब धीरे,धीरे बच्चों को आकर्षित करने लगा।


पहली  बार छुट्टीयों मे बच्चे मिसेस सेठना के पास आये और फिर वहाँ से माँ के पास मिलने गए तो ,क्या क्या कहे क्या न कहें,ऐसी उनकी हालत हो गयी थी। लेकिन रातमे सेठना आंटी के घर पे  रहनेका हठ करने लगे। वहाँ बाथरूम कितने साफ-सुथरे हैं,कमरेसे लगे हैं, गरम पानी जब चाहो नलकेमे आ जाता है। फिर आंटी  सोनेके लिए कमरा भी अलग देंगी,नरम,नरम गद्दे होंगे, टी.वी.होगा,कार्टून देखने को मिलेंगे, हम कल फिर आएंगे ना....आदि  कारण बता कर बच्चे रात मे लौट  गए। आशा का दिल छलनी हो गया। उनका विश्व बदल जाएगा,इस बातकी उसको एक झलक मिल गयी।


छुट्टियाँ समाप्त होने आयीं तब उसने बच्चों के लिए लड़दो,चकली,चिवडा आदी चीज़ें बनाईं। पाकेट बनाकर मिसेस सेठना के घर ले गयी। बच्चों ने खोलके देखा तो कहने लगे,माँ,आंटी ने हमे बहुत  कुछ दिया है। ये देखो,केक,बिस्किट और ना जाने क्या,क्या!!"


इतनेमे मिसेस सेठना वहाँ पहुँच गयी और आशा का उदास -सा चेहरा और उसके हाथ की पुडियाँ देखकर जान गयी। तुंरत अन्दर जाके कुछ डिब्बे ले आयीं और बोलीं," ये चीज़ें तुम्हारे लिए तुम्हारी माँ  ने अपने हाथोंसे बनाई हैं। ये बहुत अच्छी होंगी । रख लो इन्हें। "

स्कूलमे साफ-सुथरे स्नानगृह,समयपे खाना (माँ के हाथों का स्वाद न सही),टेबल कुर्सियाँ , सोनेके लिए पलंग, पढ़ईके लिए हरेक को स्वतंत्र डेस्क बिजलीकी सुविधा,अलग,अलग,खेल,पहाडोंका सौंदर्य,ये सब धीरे,धीरे बच्चों को आकर्षित करने लगा।


पहली बार बार छुट्टीयों मे बच्चे मिसेस सेठना के पास आये और फिर वहाँसे माँ के पास मिलने गए तो ,क्या क्या कहे क्या न कहें,ऐसी उनकी हालत हो गयी थी। लेकिन रातमे सेठना आंटी के घर रहनेका हठ करने लगे। वहाँ बाथरूम कितने साफ-सुथरे हैं,कमरेसे लगे हैं, गरम पानी जब चाहो नलकेमे आ जाता है। फिर आंटी  सोनेके लिए कमरा भी अलग देंगी,नरम,नरम गद्दे होंगे, टी.वी.होगा,कार्टून देखने को मिलेंगे, हम कल फिर आएंगे ना....आदि  कारण बता कर बच्चे रात मे लौट  गए। आशा का दिल छलनी हो गया। उनका विश्व बदल जाएगा,इस बातकी उसको एक झलक मिल गयी।


छुट्टियाँ समाप्त होने आयीं तब उसने बच्चों के लिए लड़दो,चकली,चिवडा आदी चीज़ें बनाईं। पाकेट बनाकर मिसेस सेठना के घर ले गयी। बच्चों ने खोलके देखा तो कहने लगे,माँ,आंटी ने हमे बहुत  कुछ दिया है। ये देखो,केक,बिस्किट और ना जाने क्या,क्या!!"


इतनेमे मिसेस सेठना वहाँ पहुँच  गयी और आशा का उदास -सा चेहरा और उसके हाथ की पुडियाँ देखकर जान गयी। तुंरत अन्दर जाके कुछ खाली  डिब्बे ले आयीं और बोलीं," ये चीज़ें तुम्हारे लिए तुम्हारी माँ  ने अपने हाथोंसे बनाई हैं। ये बहुत  अच्छी होंगी । रख लो इन्हें। "


ऐसी कितनीही छुट्टियाँ आयी और गयी। आशा बच्चों का साथ पाने के लिए तरसती रही और बच्चे उसे तरसाते रहे। माँ का त्याग उनके समझ मे आया ही नही,बल्कि माँ-बापने अपनी जिम्मेदारी झटक के सेठना आंटी पे डाल दी,यही बात कही उनके मनमे घर कर गयी। बारहवी के बाद राजीव मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया। मिसेस सेठना सारा खर्च उठाती रही। बादमे संजूभी मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया।
पोस्ट ग्राजुएशन के लिए पहले राजू और फिर संजू इस तरह दोनो ही अमेरिका चले गए। मिसेस सेठ्नाने फिर उनपे बहुत  खर्च किया।

राजू के एअरपोर्ट चलने से पहले दोनो पती-पत्नी राजूको विदा करने मिसेस सेठना के घर गए। आशाकी आँखों से पानी रोके नही रूक रहा था।
 राजूको गुस्सा आया,बोला,"माँ लोगों के बच्चे परदेस जाते हैं तो वे मिठाई बाँटते हैं, और यहाँ तुम हो कि रोये चली जा रही हो!!अरे मैं हमेशाके लिए थोडेही जा रहा हूँ??लौट  कर आऊँगा!! एक बार कमाने लगूँगा तो अच्छा घर बना सकेंगे, और कितनी सारी चीजे कर सकेंगे। ज़रा धीरज रखो।"
"बेटा,अब तुम्हारीही राह तकती रहूँगी अपने बच्चों से बिछड़ कर एक माँ के कलेजे पे क्या गुज़रती है,तुम नही समझोगे ,"आशा आँचल से आँसू पोंछते हुए बोली।
क्रमश: 




शनिवार, 4 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना !5


आशाने एक पार्ट time और एक फुल time ऐसी दो औरते कामके लिए  रखही ली थी। अस्मिता दादीका आँचल नही छोड़ती थी।

कुछ ही दिनोंमे मायाको बेटा हुआ। लड़के के नामों की लिस्ट बनी। 'कुशल' नाम सभीको अच्छा लगा। नामकरण हो गया। अस्मिता के सामने अगर आशा कुशल के लाड करती तो वो तूफान मचा देती। आशा और उसका पति  दोनो तृप्त थे। ज़िंदगी उन्हें इतना कुछ देगी ऐसा कभी सोचाही नही था।

यथासमय संजूका भी ब्याह हो गया। बादमे शुभदा भी बालरोग विशेषज्ञ हो गयी और उसका भी एक विशिष्ट दैनिक क्रम शुरू हो गया। संजू-शुभदा उसी अस्पतालमे काम करने लगे जहाँ राजू करता था। बच्चे,बहुएँ आपसमे हिलमिलकर रहते, आशाने सबको एक डोरमे बाँध रखा था। सबने मिलकर घरको अन्दर बाहरसे सुन्दर बना रखा था। और फिर शुभदानेभी खुश खबरी सुनाई। उसे जुडवाँ बच्चे हुए। दोनो लड़के। इस कारण अस्मिता सभीकी औरभी लाडली हो गयी।

आशा हमेशा "दयाकी दृष्टी सदाही रखना..."गाना गुनगुनाया करती। कई बार राजू-संजू जब वो रसोयी मे होती और ये गाना गुनगुना रही होती तो उसके गलेमे बाहें डालकर कहते,"माँ,ऊपरवालेकी दया तो है ही लेकिन तेरी मेहनत कई गुना ज्यादा। उसके बिना ये दिन हमे देखने को ही नही मिलते।"

अब भी उसके कान्धोंको कोई स्पर्श कर रहा था। "राजू?संजू?" वो बुदबुदा रही थी।
"माजी!मैं लीलाबाई!चलिए,मैं आपको बाथरूम ले चलती हूँ। कुल्ला कीजिए,फिर चाय लीजिये,"वृद्धाश्रम   मे खास आशाके लिए तैनात की गयी लीलाबाईने कहा।
"लीलाबाई? तू कौन??राजू,संजू कहाँ हैं??अभी तो मुझे पीछेसे आकर गले लगाया। कहाँ गए?,"आशाने कुछ न समझते हुए कहा।
"माँ जी,पहले उठिए तो। राजू, संजू को बादमे बुलाएँगे,"लीलाबाईने कहा।

नियतीकी कैसी विडम्बना थी! आशा वास्तव और कल्पना इसमेका फासला पूरी तरह भूल गयी थी। पिछले दो सालोंसे इस आश्रम मे पडी हुई थी। उसे तो आगे पढ़नेको भी नही मिला था। गराज मे काम करने वाले पति ने  इजाज़त दी ही नही थी।पति  को पढ़नेका बिलकुल शौक नही था! उनको दो लड़के हुए थे ये वस्तुथिति थी। दोनो डाक्टर बने थे ये भी वस्तुस्थिति । लेकिन किसतरह?ये अलग कहानी थी.......

आशा जिस स्कूलमे सफाई का काम करती थी, वहाँ की मुख्याध्यापिका ने उसके बच्चो की स्मार्टनेस देख ली और उसे एक अपत्यहीन , बहुत  दौलतमंद,लेकिन उतनी ही नेकदिल पारसी औरतके पास ले गयी।
"मैं बच्चों का सब खर्च करुँगी उन्हें बहुत  अच्छे बोर्डिंग स्कूलमे भरती करवा दूँगी.... बच्चे बहुत  होशियार हैं । उनका भविष्य उज्वल हो जाएगा। तुम्हे पछताना नही पड़ेगा," उस दयालु ,पारसी औरत,मिसेज़ सेठना ने, आशासे कहा।

आशाको क्या कहा जाय कुछ सूझ नही रहा था। क्या अपने पति को पसंद आएगा ये सब? उनको छोडो, उसका मन लगेगा इन कलेजों के टुकडों के बिना? वो स्तब्ध खडी हो गयी। बच्चे उसका आँचल थामे खडे थे। उस पारसी औरत का बड़ा-सा बंगला फटी-फटी आँखों से देख रहे थे।

क्रमश: 


गुरुवार, 2 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! 4


अब राजूकी शादीके सपने वो देखने लगी। अपने पर,इस घर पर,प्यार करनेवाली लडकी वो तलाशने लगी। अव्वल तो उसने राजूको पूछ लिया कि उसने पहले ही किसीको पसंद तो नही कर रखा है। लेकिन वैसा कुछ नही था। एक दिन किसी समरोह्मे देखी लडकी उसे बड़ी पसंद आयी। उसने वहीं के वहीं थोडी बहुत  जानकारी हासिल की। लडकी दूसरे शहर से आयी थी। उसके माँ-पिता भी उस समारोह मे   थे। उसने खुद्ही लडकी की माँ को अपने मनकी बात बताई। लड़की की माँ को प्रस्ताव अच्छा लगा। दोनोने मिलकर लड़का-लडकी के बेमालूम मुलाक़ात का प्लान बनाया। रविवार के रोज़ लडकी तथा उसके माता पिता आशा के घर आये। राजू घरपर ही  था। सब एक-दूसरेके साथ मिलजुल कर हँसे-बोले। लडकी सुन्दर थी,घरंदाज़ दिख रही थी,और बयोलोजी लेकर एम्.एससी.किया था।
जब वे लोग चले गए तो आशा ने धीरे से बात छेड़ी। राजू चकित होकर बोला,"माँ!!तुम भी क्या चीज़ हो! क्या बेमालूम अभिनय किया! पहले लड़कीको तो पूछो। और इसके अलावा हमे कुछ बार मिलना पड़ेगा तभी कुछ निर्णय होगा!"
"एकदम मंज़ूर! मैं लड़कीकी माँ को वैसी खबर देती हूँ। हमने पहलेसेही वैसा तय किया था. लड़कीको पूछ्के,मतलब माया को पूछ के वो मुझे बताएंगी। फिर तुम्हे जैसा समय हो,जब ठीक लगे,जहाँ ठीक लगे, मिल लेना, बातें कर लेना,"आशा खुश होकर बोली। उसे लड़कीका नाम बहुत  प्यारा लगा,'माया'।
राजू और माया एक -दूसरेसे आनेवाले दिनोमे मिले। कभी होटल मे तो कभी तालाब के किनारे। राजीवने अपने कामका स्वरूप मायाको समझाया। उसकी व्यस्तता समझाई। रात-बेरात आपातकालीन कॉल आते हैं,आदि,आदि सब कुछ। अंत मे दोनोने विवाह का निर्णय लिया। आशा हवामे उड़ने लगी। बिलकुल मर्जीके मुताबिक बहू जो आ रही थी।
झटपट मंगनी हुई और फिर ब्याह्भी। कुछ दिन छुट्टी लेकर राजीव और माया हनीमून पेभी हो आये। बाद मे माया ने भी घरवालोंकी सलाह्से नौकरीकी तलाश शुरू की और उसे एक कॉलेज से कॉल आया,वहीँ पर उसने फुल टाइम के बदले पार्ट टाइम नौकरी स्वीकार की,अन्यथा घरमे सास पर कामका पूरा ही बोझ पड़ता।
साल भरमे उनके द्वारपर एक और खुशीने दस्तक दी। मायके पैर भरी हो गए। आशा फिर सपनोके दुनियामे खो गयी। मैं ऐसा करूंगी,मैं वैसा करूंगी,मायाकी सहेलियोंको बुलाऊंगी ,मायाकी खूब खबर रखूंगी। इश्वर मेरे आंचल मेभी समां न सके इतना भर भरके दान तू मुझे दे रहा है। बच्चे अलग रहने चले जाते है,बूढे माँ-बाप निराधार हो जाते है,पोते,पोतियोंका लाड प्यार करनेकी किस्मत कितनोको मिलती है?वो बार इश्वर के चरणों मे नतमस्तक हो जाती।
माया को यथासमय लडकी हुई। आशाको लड़कीका बेहद शौक था। लड़कियोंको सजाने-सवारनेका कुछ औरही मज़ा होता है। चलने लगेगी तो रुनझुन पाजेब बजेंगे। क्या करू और क्या न ,ऐसी उसकी हालत हो गयी। नामों की सूची बनती गयी। 'अस्मिता'नाम सबको अच्छा लगा।
नामकरण की तैय्यारी,फ़ोन,दिन महीने सरकते गए। अस्मिता बैठने लगी, चलने लगी, पाज़ेब बजने लगे,तोतले बोल और किलकारियाँ घरमे गूँजने लगीं.....

अबतक आशा तथा उसका पती सेवानिवृत्त हो चुके थे। फिर अस्मिताकी नर्सरी ,उसका खान पान,उसे पार्क मे घुमाना, लोरी गा कर सुलाना,सारा,सारा सुख वो भोग रही थी.......

इस सबके चलते एक दिन संजीव अपनी माँ को बताया कि उसे एक लडकी पसंद आयी है। उसीके कॉलेज मे पढ़ ने वाली लेकिन उसकी जूनियर । संजू बालविभागमे पोस्ट ग्राजुएशन कर रहा था। आशाने किसी भी किस्म की आपत्ती नही दिखाई,बल्कि खुद लड़किवालोंको आमंत्रित किया। लडकी के माँ-बाप दोनोही डाक्टर थे। लडकी स्मार्ट थी। उसकी एम्.बी.बी.एस के बादकी internship रह गयी थी। internship के बाद ब्याह तय हुआ।


बुधवार, 1 अगस्त 2012

दयाकी दृष्टी सदाही रखना..! 3


ये सुनकर उसका अपनी अशिक्षित माँ के प्रती आदर एकदम से बढ़ गया। कितने धीरज से ज़िंदगी का सामना किया था उस अनपढ़ औरत ने!
आशाके दिन पूरे हो गए। सरकारी अस्पताल मे  उसका प्रसव हुआ। सबकुछ ठीक ठाक हो गया। नामकरण के समय पतीने कहा,"नाम मे कहीं तो 'राजा' होना चाहिए। यथानाम तथा गुण। मन से धन से वो राजा बनेगा। अंत मे "राजीव"नाम रखा और उसका राजू बन गया। सबकुछ कैसा मनमुताबिक चल रहा था। भगवान्! मेरे नसीब को कहीँ नज़र न लग जाये, कभी,कभी आशाके मनमे विचार आता।

राजू दो सालका हुआ न था कि आशाके पैर फिर भारी हुए। उसे फिर लड़काही हुआ। वो थोडी-सी मायूस हुई। लडकी होती तो शायद आगे चलके सहेली बन गयी होती...... इस लड़केका नाम इन लोगोंने संजीव रखा। राजू-संजूकी जोड़ी!
उसने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलमे डाला। बच्चे आज्ञाकारी थे। माँ-बाप तथा दादीका हमेशा आदर करते। समय पर पढाई खेल कभी कभार हठ्भी, जो कभी पूरा किया जाता कभी नही। दिन पखेरू बनके सरकते रहे......

इस बीच उसने बी.एड.भी कर लिया। पतीने बैंकिंग की औरभी परीक्षाएँ दी तथा तरक़्क़ी पाई। राजू दसवी तथा बारहवी कक्षा तक बहुत बोहोत बढिया नमबरोंसे पास होता गया और उसे सहजही मेडिकल कॉलेज मे प्रवेश मिल गया।
जब संजू बारवी मे था तब आशा की माँ गुज़र गयी। सिर्फ सर्दी-खाँसी तथा तेज़ बुखार का निमित्त हुआ और क्या हो रहा है ये ध्यान मे आनेसे पहलेही उसके प्राण उड़ गए। न्युमोनिया का निदान तो बादमे हुआ।

बहुत  दिनो तक माँ की यादों मे उसकी पलके नम हो जाती। आशा स्कूलसे आती तो माँ चाय तैयार रखती। खाना तैयार रखती। सासकी इस चुस्ती पर उसका पतीभी खुश रहता। धीरे,धीरे खाली घरका ताला खोल के अन्दर जानेकी उसे आदत हो गयी।
संजूको भी बारहवी मे  बहुत अच्छे  गुण मिले राजू के बाद वो भी मेडिकल कॉलेज  दाखिल हो गया। देखतेही देखते राजू एम्.बी.बी.एस.हो गया।
internship पूरी करके सर्जन भी बन गया। उसकी प्रगल्भ बुद्धीमत्ता की शोहरत शहरभर मे फ़ैल गयी और एक मशहूर प्राइवेट अस्पताल मे उसे नौकरी भी मिल गयी। इस दरमियाँ पतीके पीछे लगके उसने छतपे दो सुन्दरसे कमरे भी बनवा लिए थे। राजू संजूके ब्याह्के बाद तो ये आवश्यक ही होगा।

क्रमश: