( गतांक:इस प्रसंग से तो मै किसी तरह उभरी..मेरे भाई और बहनोई,दोनों ही ने गौरव को काफ़ी समझाया..इतने सालों में पहली बार,मेरे भाई ने अपना मूह खोला था..मुझे अपने घर और जीवन से रफा दफा करने की बात उस समय तो गौरव ने नही दोहराई....क्या ख़बर थी,की,एक और,इससे कहीँ अधिक भयानक प्रसंग मेरे इंतज़ार में था..?? अब आगे..)
कभी मुड़ के देखती हूँ, तो सोचती हूँ, अपने वैवाहिक जीवन को गर चंद पंक्तियों में बयाँ करना चाहूँ,तो कैसे करूँ? बहुत सरल है..गधे पे बैठे तो क्यों बैठे...उतरे तो क्यों उतरे..! अपना आत्मविश्वास कबका खो बैठी थी...सही गलत के फैसले,मै केवल अपने बलपे नही ले पाती थी..मुझे हर घटना को गौरव की निगाहों से देखना पड़ता..और उसमे सफल होना मुमकिन नही था...उसे किस वक़्त कौनसी बात अखरेगी यह शायद वह खुद भी नही बता सकता तो औरों की क्या कहूँ?
कभी फोन करके सलाह लेना चाहती तो वो कह देता, इतनी-सी बात के लिए तुम मेरा समय क्यों बरबाद करती हो? जो बात मुझे बहुत मामूली लगती और मै तय कर लेती तो मुझे सुनना पड़ता, मेरी सलाह लेना तुम्हें ज़रूरी नही लगा? इतनी बड़ी बात हो गयी और मुझे ख़बर ही नही?
फोनवाली घटना को हुए चंद माह गुज़रे..उस घटना के सदमे से, मेरे एक हफ्ते के भीतर नब्बे प्रतिशत बाल झड गए थे. उसकी ट्रीटमेंट के लिए मैंने एक क्लिनिक में जाना शुरू किया था..वहाँ के सभी स्टाफ के साथ मै बहुत घुलमिल गयी थी.
ट्रीटमेंट के दौरान वहाँ की डॉक्टर ने मुझे बताया:" आप यहाँ बहुत popular हो गयीं हैं ! आपके लिए एक surprise तोहफा है!"
शहर के एक मशहूर beauty पार्लर का गिफ्ट voucher था यह...! मै कभी पार्लर तो जाती नही थी..लेकिन सोचा,किसी दिन चल के सलाह लूँ की, बचे हुए केशों की रचना कैसे की जाये! मुझे हमेशा जूड़ा बनाने की आदत थी..!लेकिन उसका मुहूरत निकल नही पा रहा था.
एक सड़क दुर्घटना के कारण मुझे अचानक अस्पताल में भरती होना पड़ गया..इत्तेफाक़न, मेरा भाई शहर में मौजूद था..साथ हो लिया. एक शस्त्रक्रिया के बाद मुझे चौबीस घंटे ICU में रखा गया..उसने किसी तरह एक प्राइवेट नर्स का इंतज़ाम किया..रात तो गुज़र गयी...सुबह होने पर, चाय-नाश्ते के बहाने जो खिसक गयी तो देर शामतक उसका पता ही नही चला..खैर! मुझे प्राइवेट वार्ड में ले जाने से पहले x-ray के लिए ले जाया गया..वहाँ से कमरे में..
मेरा भाई रातभर मेरे कमरे में रुका रहा..सुबह कमरे को ताला लगा के उसने चाभी काउंटर पे पकड़ा दी..जब मुझे कमरे के सामने लाया गया तो कमरा खुला था! अन्दर प्रवेश करते ही देखा की, वह नर्स और मेरा ड्राइवर सोफे पे विराजमान थे और मेरे मोबाइल फोन के साथ कुछ छेड़छाड़ चली थी..मुझे देखते ही सकपका के ड्राइवर ने फोन मेरी साथ वाली टेबल पे रख दिया..उस वक़्त किसी को कुछ कहने की शक्ती मुझ में नही थी. वैसे भी मुझे इस बात का गुस्सा अधिक था,की, यह दोनों पूरा दिन मेरे पास फटके ही नही..
अगले दिन गौरव कुछ देर के लिए आके लौट गया..मुझे अस्पताल में हफ्ता भर रहना पडा. घर लौटी..कमजोरी महसूस हो रही थी..हर थोड़ी देरसे मुझे लेट जाना पड़ता..खैर! कुछ डेढ़ माह के बाद एक शादी में शरीक होने मुझे गौरव के पास जाना था.
जाने से दो तीन दिन पूर्व मैंने अपना नेटपे डाला हुआ प्रोफाइल खोला..इरादा था,की,गर कुछ बेहुदे कमेंट्स आए हों तो उन्हें डिलीट कर दूं...देखा तो एक कमेन्ट था," आप कहाँ हैं मोह्तरेमा?"
नाम और तसवीर तो थी,पर मुझे कुछ याद नही आ रहा था..मैंने उस व्यक्ती का प्रोफाइल खोला...वहाँ उसका परिचय था..अभिनय का शौक़ीन ..फ़िल्मी दुनिया में पैर ज़माने की कोशिश चल रही थी..
जवाब में मैंने लिखा:" मै बहुत कम अपना प्रोफाइल खोलती हूँ,इसलिए देर से जवाब दे रही हूँ..अगले माह मै स्वयं एक फिल्म making का course करने जा रही हूँ..देखती हूँ क्या हश्र होता है!"( इस course के बारे में मैंने गौरव से संमती ले ली थी).
वो on लाइन था..उसका तुरंत जवाब आया:" अरे वाह! एक बात और..मैंने आपका कथा संग्रह पढ़ा! आप visualise बहुत अच्छा करती हैं..एक के बाद एक तसवीर खींची जाती है! मुझे तो आपसे प्रत्यक्ष भेंट करने का मन कर रहा है! मुझे यक़ीन है,की,आप स्क्रिप्ट writing और स्क्रीन प्ले बहुत अच्छा लिख सकेंगी ! मै खुद एक भोजपुरी फिल्म के साथ जुड़ा हूँ,और स्क्रिप्ट writer खोजने का काम मुझे सौंपा गया है! "
मेरे प्रोफाइल पर से मैंने अपने शहर का नाम हटा दिया था! लेकिन मेरी किताब के पिछले पन्ने पे मेरे बारे में जानकारी थी...यह बात मुझे याद नही रही !
मैंने जवाब में लिखा:" अरे भाई! आप क्यों मुंबई आने लगे?"
उसने लिखा :" मुंबई? आप मुंबई में रहती हैं?"
मै:" हाँ..!
वो :" पर आपकी किताब के पिछले पन्नेपर तो कुछ और लिखा हुआ है! आप घबराईये मत! आपका अन्य कोई पता मेरे पास नही है! बिना इजाज़त के मै आप तक नही पहुँच सकता!"
मै शर्मिन्दा ज़रूर हुई..! पर उसे स्क्रैप पे लिखने के लिए मैंने एकदम से रोक दिया! मेरे कामसे जुडी हुई इ-मेल ID उसे दी और लिखा:" मै अब यह सब डिलीट करने जा रही हूँ..अपने scrap पर से भी यह सब संवाद कृपया हटा दें!"
उसी शाम,अपना नाम बताते हुए,एक sms आया.." माफ़ करें! मैंने यह नंबर आपके प्रोफाइल पर से हासिल किया..हो सकता है, कुछ अन्य लोगों ने भी लिख लिया हो! जब तक आप इजाज़त न दें,मै आपको फोन नही करूँगा."
मैंने पढ़ लिया पर उसका कोई जवाब नही दिया.
चंद रोज़ बाद मै गौरव के पास चली गयी. जिस दिन समारोह था,उसी दिन शाम को मेरे मोबाइल पे एक sms आया. कुछ संता बंता का घिसा पिटा जोक!
अचानक गौरव ने मेरे हाथों से मोबाइल छीन लिया..और कुर्सी पे बैठ, उसके विविध बटन दबाने लगा. मै कुछ देरके लिए बिस्तर पे लेट गयी. तक़रीबन आधे घंटे के बाद मैंने उससे पूछा:" आप क्या कर रहे हैं ?"
गौरव :" देख रहा हूँ, इसमें कौनसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं..."
मै खामोश रही.
तीन चार दिनों बाद मै पुनश्च बंगलौर लौट गयी.लौटे ही मेरे ड्राइवर ने छुट्टी की माँग की.गौरव के पास .जाने से पहले वो तक़रीबन हफ्ते भर की छुट्टे ले चुका था. वो बदतमीज़ी भी हदसे अधिक करने लगा था. मैंने उसे काम परसे हटा दिया..कई बार मुझसे बिना कहे, गाडी लेके अपने परिवार के कामों के ख़ातिर निकल जाया करता..बरदाश्त की भी एक सीमा होती है.....उसके पश्च्यात जब मैंने गाडी में पेट्रोल भरा तो पता चला की,वो हर बार मुझ से ३०० रुपये अधिक लेता रहा..यह सब सुन के भी,उसे हटाने पर गौरव बहुत नाराज़ हो गया..मेरी समझ में न आया,की,आखिर ऐसी भी क्या बात है जो मुझे ही दोष दिया जा रहा है..?
एक हफ्ते के पश्च्यात मुझे पास ही के एक शहर में,रोटरी द्वारा, महिला दिवस के आयोजन में शामिल होने का न्योता था. प्रमुख अतिथी के हैसियत से मुझे 'भाषण' देनेके लिए कहा गया था,पर मैंने इनकार करते हुए सवाल जवाब के ज़रिये, एक संवाद स्थापित करने की इच्छा ज़ाहिर की. वहाँ जाने के लिए तो मैंने एक ड्राइवर का इंतज़ाम कर दिया..माँ से बात हुई,तो उन्हों ने गाँव से एक ड्राइवर भेजने की बात कही. यह लड़का हमारे खेतों पढ़ी पला बढ़ा था..
अपने मनोवैज्ञानिक को मै हर बात बता दिया करती थी. यह भी बता दी. महिला दिवस का आयोजन बढ़िया रहा. स्थानिक अखबारों ने आयोजन को सचित्र सराहा. किसीने वहाँ से चलते समय एक अखबार मुझे थमा दिया.
मै बहुत जल्दी में लौट आयी. अमन का अगले दिन जन्मदिन था. उसका एक मित्र बंगलौर से वहाँ जानेवाला था. अमन ने मेरे हाथों बने केक तथा पेस्ट्रीज की माँग की थी..मैंने सहर्ष स्वीकार कर ली थी...घर पहुँच पूरी रात मै उस काम में जुटी रही..थोड़ा अधिक बन गया था..मैंने फ्रिज में रख दिया.
अगले दिन गौरव से पूछा:" कैसा लगा केक?"
गौरव:" मेरे लिए बचा ही नही.."
मै" कमाल है! आपने अपने लाल को झाड़ा नही? एक टुकडा बचा के नही रख सकता था!"
गौरव:" खैर..मै इन बातों को कोई तूल नही देना चाहता..हर कोई अपनी मर्जी का मालिक है...!"
बाद में मै मनही मन ख़ुश हुए की, केक और पेस्ट्रीज बचे हैं. गर अगले तीन या चार दिनों में गौरव आया,तो उसे खिला सकती हूँ!
शाम को उस प्रोफाइल वाले लड़के की ओर से एक और sms मुझे मिला. वो किसी काम से बंगलौर आनेवाला था. चाहता था,की,मै वाकई स्क्रिप्ट लिखने की ज़िम्मेदारी लूँ..उसने एक इ-मेल भेजी थी, इस मुतल्लक..और पढने की इल्तिजा की. मैंने पढ़ के अपने डॉक्टर को भी सब कुछ बताया. मन ही मन मुझे विश्वास नही हो रहा था,की, मुझे वाक़ई ऐसा मौक़ा मिल रहा है..बात निश्चित होने तक मैंने चुप्पी साध ली..
उस दरमियान गौरव भी आया. अगले दिन रात के भोजन के बाद मैंने रखे हुए व्यंजन परोसके उसे चकित करने की सोच रखी..लेकिन दोपहर के भोजन के बाद जब मै रसोई का छुटपुट काम निपटा रही थी...अचानक आके गौरव ने कहा:" मै निकल रहा हूँ.."
मै: " अरे? आप तो कल जानेवाले थे! "
गौरव:" मै अभी ही जा रहा हूँ.."
और वह निकल गया ! मै दंग रह गयी..!
अगले दिन सोमवार था..इस दिन मेरे डॉक्टर आया करते थे. रविवार की शाम मुझे अपने hair क्लिनिक से फोन आया..:' मैडम आप कल चलिए ना पार्लर! वरना vouchar की तारीख टल जायेगी!"
मैंने हाँ कर दी..उस दिन वह लड़का भी आनेवाला था..उसे अवि करके संबोधित करते हैं...पहले तो मैंने मना कर दिया था..जब गौरव चला गया तो मैंने उसे समय दे दिया.
सुबह पार्लर से उस लडकी,प्रिया के साथ लौटते हुए,मैंने अपने डॉक्टर को pick up कर लिया..मेरे नैहर से आया नया ड्राइवर था..उसे रास्तों की जानकारी क़तई भी नही थी.हर हाल में मुझे उसके साथ जाना ही जाना था...वह लडकी, प्रिया मेरे साथ थी..और मेरे लिए फूलों का गजरा ले आयी थी...मैंने हँसते हुए अपने डॉक्टर से कहा, मेरे बालों से तीन गुना बड़ा यह गजरा है..!"
घर पहुँच प्रिया बैठक में बैठ गयी और मै डॉक्टर से बात चीत करने लगी..अविके बारेमे भी उन्हें बताया...यह भी बताया,की,मैंने अभी घर में किसी को बताया नही है..सब मेरा मज़ाक उड़ाने लग जायेंगे...कुछ बात बने तो कहूँ..!"
डॉक्टर चलने लगे तो मै और प्रिया उनके साथ हो लिए..अवि को रेलवे स्थानक से लाना था..वही समस्या..ड्राइवर को स्थानक पता नही था..अवि को रास्ते पता नही थे..फिर भी उसने मुझे आने से रोकना चाहा..पर समय का भी अभाव था..डॉक्टर के सामने ही मैंने उसे फोन करके बता दिया,की, मै लाल साड़ी और काला ब्लाउज पहने हुए हूँ..
स्थानक पे अवि आसानी से मिल गया..घर जाते समय बोला:" मेरा बंगलौर आना बड़ा lucky साबित हो रहा है..मुझे एक छोड़ आठ फिल्मों का ऑफर है!"
मै:" मुबारक हो!"
हमारी बिल्डिंग पे पहुँचे तो नीचे गौरव का एक सह्कर्मी खडा मिला..वह गौरव से मिलने जा रहा था..गौरव ने अपना golf किट तथा टेनिस racket मंगवाया था...मै उसे लेके ऊपर आयी...सारा सामान पकड़ा दिया..उसके जाने के कुछ ही मिनटों में मैंने देखा,की, उसने टेनिस racket तो कुर्सी पे ही छोड़ दिया था...मैंने तुरंत उसे फोन लगाने की कोशिश की..लेकिन लगाही नही...गौरव को फोन कर मैंने बताया,की, racket यहीं रह गया..
दोपहर के दो बजने वाले थे..मैंने पिछली रात का ही रहा सहा खाना परोस दिया...जूली ने उस दिन अचानक छुट्टी माँगी थी..खैर! पिछली रात मुझे एक इंजेक्शन लेना पड़ गया था...डॉक्टर ने दवाई में भी हेरफेर किया था...मुझे बेहद नींद आने लगी..अंत में मैंने अवि से कह दिया:' मुझे कुछ देर सोना ही पडेगा.."
उसे ड्राइवर के साथ कहीँ घूमने भी नही भेज सकती थी,क्योंकि उसे रास्तेही पता नही थे ! अवि के आगे मैंने कुछ किताबें रख दी.ड्राइवर से कहा,की, फोन तथा दरवाज़े की घंटी की ओर ध्यान रखे..और अपना कमरा बंद कर सो गयी..
साढ़े चार पाँच बजे के करीब दरवाज़े पे बज रही घंटी से मेरी आँख खुली...कमरे से बाहर निकलते ही मैंने ड्राइवर को आवाज़ दी..वह भी सो गया था...जब तक आया तब तक मैंने दरवाज़ा खोल दिया..और अपने सामने खड़े लोगों को देख हैरान रह गयी...! लोग क्या, अब जब सोचती हूँ,तो एक भयानक तूफ़ान मेरे द्वार पे खडा था...मेरा द्वार? मेरा अपना कोई द्वार या घर था?
क्रमश:
शुक्रवार, 28 मई 2010
गुरुवार, 20 मई 2010
बिखरे सितारे भाग ३ गर्दिशमे क़िस्मत.
(गतांक: बेवफाई?..मै बेतहाशा रोने लगी...इस तरह का इलज़ाम मेरी कल्पना के परे था..क्या से क्या हो गया था..जिस परिवार के ख़ातिर ,बच्चों की ख़ातिर मै हर तकलीफ़ सह गयी,उनमे से कोई मेरे पास न था..क्या करूँ? क्या करूँ? कहाँ जाऊं? कौनसी ऐसी जगह थी इस दुनियामे,जिसे मै अपना कह सकती थी? जहाँ से निकल जाने के लिए मुझे कोई न कहता? मेरी बेटी के ससुरालवाले क्या सोचेंगे..?
यहभी नही जानती थी,की,यह तो एक भयानक सिलसिले की शुरुआत भर है....अब आगे पढ़ें.)
पता नहीं कैसे,पर यह ख़बर माँ को भी मिली..वो भी आ गयीं..एक दिन के लिए बेटा,अमन भी आया..गौरव ने ज़ाहिर है,उसे भी बताया..मै बेहद अपमानित महसूस कर रही थी..जानती थी,की, गौरव अक्सर अपनी बात इस तरह पेश करता है,की, सामने वाला उस वक्तव्य को सच समझ लेता है... उसकी इस आदत से परिचित लोग भी उसकी बातों में आ जाते हैं.....
मैंने अमन से पूछा:" अमन, तुझे विश्वास होता है की, मै सच कह रही हूँ? मै अपने आपको पुन: स्थापित करना चाह रही हूँ..लोग जानकारी के लिए फोन करते हैं..मिस कॉल के मै जवाब भी देती हूँ..ऐसे नंबर याद रखना मेरे बसकी बात नही.."
अमन: " पता नही...क्या देर रातको बात करना ज़रूरी है? ऐसी कौनसी आफत थी,की, रात को बात करनी पड़े?"
अमन का जवाब सुन मुझे सख्त चोंट पहुँची..गौरव ने अपनी पत्नी के बारेमे, अपनी ही औलाद को क्या बताया होगा? मुझे अधिक बहस में पढ़ना नही था..मेरी गरिमा के खिलाफ था..
बरसों बंजारों की तरह दिन काटे थे..कोई गिला शिकवा नही था..गौरव की सेवा निवृत्ती के बाद मैंने सोचा था, मै अपने कितने ही छंद दोबारा शुरू कर सकती हूँ..घर से दूर रह नौकरी करने का निर्णय गौरव का था..गाडी की सर्विसिंग, पूरे घरमे आए दिन होनेवाले मरम्मत के काम, कभी तरखान खोजना है,तो कभी प्लंबर..सारा ज़िम्मा मुझ पे था..और ऐसा अविश्वास?
ऐसा नही की, गौरव का यह रूप मुझे पता ही नही था..उसके सामने गर कोई मेरी तारीफ़ कर देता तो ,मै कुछ कहूँ,उससे पहले,वह खुद हँसते,हँसते कह देता," अरे भाई टाइम पास तो करना होता है न! "
अन्यथा मेहमानों को दीवारें चद्दरें आदि की ओर इंगित कर ,मेरी तारीफों के पुल भी बाँध लेता! लोगबाग कह उठते,कितना अभिमान है इसे अपनी पत्नी का! उसके रहते,किसी के सामने ,मै अपनी कला या काम के बारे में मूह खोलती ही न थी..पर यह इलज़ाम तो सारी हदें पार कर गया था..
गुज़रे सालों में मै कई नाकाम कोशिशें कर चुकी थी,की, कमसे कम हफ्ते में एकबार हम सब इकट्ठे बैठ, अपने,अपने मन की बातें एक दूसरे से साझा करें..लेकिन हर बार हश्र यह होता,की, गौरव छोड़ अन्य कोई बात ही न कर पाता..किसी और की बात को तवज्जो देना उसके मिज़ाज में ही नही था..इस हदतक की, गर उसके दोस्त या सहकर्मी मेरे पास कुछ मेसेज छोड़ते तो मुझे उसके मूड की प्रतीक्षा करनी पड़ती या,कागज़ पे लिख उसके PA के पास मै पुर्ज़ा पहुँचा देती..अवकाश प्राप्ती के बाद भी उसके पास सब्र न होता की, मेरी बात सुने..दो तीन बार हताश,हो मैंने इ-मेल लिख दी थी..आपसी संपर्क सहजता से बनाये रखने के मेरे सारे यत्न हमेशा असफल हुए..
माँ को तो मुझपे पूरा विश्वास हुआ..की, जोभी हुआ वो केवल एक हादसा था..मेरी बहन बहनोई उसी शहर में थे जहाँ गौरव को नौकरी मिली थी..अफ़सोस! जो बहन अपने जीजा को अच्छी तरह जानती थी, वो भी उसके झासे में आ गयी..बहन, जो मेरी सबसे अज़ीज़ सहेली थी..
मुझे याद नही,की मै किस तरह दिन काट रही थी..सोचने की शक्ती जवाब दे गयी..यह बात तो माँ ने कही:" इस हदतक जाने की गौरव को सूझी कैसे? "
कुछ हफ़्तों पहले की एक घटना,जिसे मैंने क़तई तूल नहीं दिया,था,याद आई..जूली, मेरी निरक्षर नौकरानी, जिसकी बेटी के पढाई लिखाई.....और बाद में ब्याह का ज़िम्मा मैंने ले रखा था...जो एक विधवा थी....जिसकी गलतियों पे मै अक्सर पर्दा डाल देती थी..के उसे डांट न पड़े..मेरे पास कॉर्ड लेस फोन ले आई. घुस्से में थी, की,वो शख्स ठीक से अपना परिचय नही दे रहा था..
दूसरी ओरसे,एक व्यक्ती पूछना चाह रहा था,की, क्या मै, शहर से काफ़ी दूर बने उसके फार्म हाउस का landscaping कर सकती हूँ?
पल भर सोच,मैंने कहा:" मै डिज़ाइन तो बना दे सकती हूँ..लेकिन मेरे पास अपनी टीम नहीं है...फिलहाल मेरा काम सुझाव तक सीमित है.."
उसने कहा:" गर मै आपको एक टीम बना दूँ,तो आप कभी कभार supervion कर सकती हैं?"
मै:" गर आप मुझे अपना नंबर दें,तो मै कलतक सोच के बता दूँगी...माफी चाहती हूँ,की,तुरंत नही बता सकती..!"
मैंने बात ख़त्म की ही थी,की, माँ का फोन आ गया..मैंने ही उठा लिया और हम दोनों बातें करने लगी...जूली दो तीन बार मुझ से कहने आई की, मै खाना खा लूँ..मै हरबार इशारे से ,'बस पाँच मिनट', जताती रही..
माँ से बातचीत ख़त्म कर मै बाथरूम में हाथ धोने चली गयी...मुझे पहले तो फोन बजने की आवाज़ आई..और फिर जूली के अलफ़ाज़ कान पे पड़े:" मैडम बाथरूम में हैं.."
कुछ पलके बाद:" हाँ..यह फोन बिजी था...वो किसी साहब का फोन था.. हमेशा आता है..ठीक से नाम नही बताता .."
इससे पहले की,मै उसके हाथ से रिसीवर लेलूँ,उसने रख दिया था..मैंने चिढ के कहा" जूली....! क्या बकवास कर रही है..अव्वल तो मै माताजी से बात कर रही थी..और तुझे क्या ज़रुरत पडी है किसी को यह सब बताने की?"
जूली:" साहब का फोन था..वो पूछ रहे थे,की फोन engage क्यों आ रहा था..तो मैंने बता दिया,की.."
मै:" तू क्या बदतमीज़ी कर रही,है,तुझे कुछ पता भी है?"
उसने मेरे साथ बहस करनी चाही, पर तबतक मैंने पलटके गौरव को फोन लगाया..उसकी आवाज़ परसे ही पता चला की वह बहुत घुस्सेमे है.." मै तुमसे बाद में बात करूँगा',कह उसने उधर से फोन रख दिया..
अचानक मुझे महसूस हुआ,की, हो न हो, इस तरह की गलत फहमी में अबके जूली का भी हाथ है..
पर क्या सिर्फ उसका था?
इस प्रसंग से तो मै किसी तरह उभरी..मेरे भाई और बहनोई,दोनों ही ने गौरव को काफ़ी समझाया..इतने सालों में पहली बार,मेरे भाई ने अपना मूह खोला था..मुझे अपने घर और जीवन से रफा दफा करने की बात उस समय तो गौरव ने नही दोहराई....क्या ख़बर थी,की,एक और,इससे कहीँ अधिक भयानक प्रसंग मेरे इंतज़ार में था..??
क्रमश:
यहभी नही जानती थी,की,यह तो एक भयानक सिलसिले की शुरुआत भर है....अब आगे पढ़ें.)
पता नहीं कैसे,पर यह ख़बर माँ को भी मिली..वो भी आ गयीं..एक दिन के लिए बेटा,अमन भी आया..गौरव ने ज़ाहिर है,उसे भी बताया..मै बेहद अपमानित महसूस कर रही थी..जानती थी,की, गौरव अक्सर अपनी बात इस तरह पेश करता है,की, सामने वाला उस वक्तव्य को सच समझ लेता है... उसकी इस आदत से परिचित लोग भी उसकी बातों में आ जाते हैं.....
मैंने अमन से पूछा:" अमन, तुझे विश्वास होता है की, मै सच कह रही हूँ? मै अपने आपको पुन: स्थापित करना चाह रही हूँ..लोग जानकारी के लिए फोन करते हैं..मिस कॉल के मै जवाब भी देती हूँ..ऐसे नंबर याद रखना मेरे बसकी बात नही.."
अमन: " पता नही...क्या देर रातको बात करना ज़रूरी है? ऐसी कौनसी आफत थी,की, रात को बात करनी पड़े?"
अमन का जवाब सुन मुझे सख्त चोंट पहुँची..गौरव ने अपनी पत्नी के बारेमे, अपनी ही औलाद को क्या बताया होगा? मुझे अधिक बहस में पढ़ना नही था..मेरी गरिमा के खिलाफ था..
बरसों बंजारों की तरह दिन काटे थे..कोई गिला शिकवा नही था..गौरव की सेवा निवृत्ती के बाद मैंने सोचा था, मै अपने कितने ही छंद दोबारा शुरू कर सकती हूँ..घर से दूर रह नौकरी करने का निर्णय गौरव का था..गाडी की सर्विसिंग, पूरे घरमे आए दिन होनेवाले मरम्मत के काम, कभी तरखान खोजना है,तो कभी प्लंबर..सारा ज़िम्मा मुझ पे था..और ऐसा अविश्वास?
ऐसा नही की, गौरव का यह रूप मुझे पता ही नही था..उसके सामने गर कोई मेरी तारीफ़ कर देता तो ,मै कुछ कहूँ,उससे पहले,वह खुद हँसते,हँसते कह देता," अरे भाई टाइम पास तो करना होता है न! "
अन्यथा मेहमानों को दीवारें चद्दरें आदि की ओर इंगित कर ,मेरी तारीफों के पुल भी बाँध लेता! लोगबाग कह उठते,कितना अभिमान है इसे अपनी पत्नी का! उसके रहते,किसी के सामने ,मै अपनी कला या काम के बारे में मूह खोलती ही न थी..पर यह इलज़ाम तो सारी हदें पार कर गया था..
गुज़रे सालों में मै कई नाकाम कोशिशें कर चुकी थी,की, कमसे कम हफ्ते में एकबार हम सब इकट्ठे बैठ, अपने,अपने मन की बातें एक दूसरे से साझा करें..लेकिन हर बार हश्र यह होता,की, गौरव छोड़ अन्य कोई बात ही न कर पाता..किसी और की बात को तवज्जो देना उसके मिज़ाज में ही नही था..इस हदतक की, गर उसके दोस्त या सहकर्मी मेरे पास कुछ मेसेज छोड़ते तो मुझे उसके मूड की प्रतीक्षा करनी पड़ती या,कागज़ पे लिख उसके PA के पास मै पुर्ज़ा पहुँचा देती..अवकाश प्राप्ती के बाद भी उसके पास सब्र न होता की, मेरी बात सुने..दो तीन बार हताश,हो मैंने इ-मेल लिख दी थी..आपसी संपर्क सहजता से बनाये रखने के मेरे सारे यत्न हमेशा असफल हुए..
माँ को तो मुझपे पूरा विश्वास हुआ..की, जोभी हुआ वो केवल एक हादसा था..मेरी बहन बहनोई उसी शहर में थे जहाँ गौरव को नौकरी मिली थी..अफ़सोस! जो बहन अपने जीजा को अच्छी तरह जानती थी, वो भी उसके झासे में आ गयी..बहन, जो मेरी सबसे अज़ीज़ सहेली थी..
मुझे याद नही,की मै किस तरह दिन काट रही थी..सोचने की शक्ती जवाब दे गयी..यह बात तो माँ ने कही:" इस हदतक जाने की गौरव को सूझी कैसे? "
कुछ हफ़्तों पहले की एक घटना,जिसे मैंने क़तई तूल नहीं दिया,था,याद आई..जूली, मेरी निरक्षर नौकरानी, जिसकी बेटी के पढाई लिखाई.....और बाद में ब्याह का ज़िम्मा मैंने ले रखा था...जो एक विधवा थी....जिसकी गलतियों पे मै अक्सर पर्दा डाल देती थी..के उसे डांट न पड़े..मेरे पास कॉर्ड लेस फोन ले आई. घुस्से में थी, की,वो शख्स ठीक से अपना परिचय नही दे रहा था..
दूसरी ओरसे,एक व्यक्ती पूछना चाह रहा था,की, क्या मै, शहर से काफ़ी दूर बने उसके फार्म हाउस का landscaping कर सकती हूँ?
पल भर सोच,मैंने कहा:" मै डिज़ाइन तो बना दे सकती हूँ..लेकिन मेरे पास अपनी टीम नहीं है...फिलहाल मेरा काम सुझाव तक सीमित है.."
उसने कहा:" गर मै आपको एक टीम बना दूँ,तो आप कभी कभार supervion कर सकती हैं?"
मै:" गर आप मुझे अपना नंबर दें,तो मै कलतक सोच के बता दूँगी...माफी चाहती हूँ,की,तुरंत नही बता सकती..!"
मैंने बात ख़त्म की ही थी,की, माँ का फोन आ गया..मैंने ही उठा लिया और हम दोनों बातें करने लगी...जूली दो तीन बार मुझ से कहने आई की, मै खाना खा लूँ..मै हरबार इशारे से ,'बस पाँच मिनट', जताती रही..
माँ से बातचीत ख़त्म कर मै बाथरूम में हाथ धोने चली गयी...मुझे पहले तो फोन बजने की आवाज़ आई..और फिर जूली के अलफ़ाज़ कान पे पड़े:" मैडम बाथरूम में हैं.."
कुछ पलके बाद:" हाँ..यह फोन बिजी था...वो किसी साहब का फोन था.. हमेशा आता है..ठीक से नाम नही बताता .."
इससे पहले की,मै उसके हाथ से रिसीवर लेलूँ,उसने रख दिया था..मैंने चिढ के कहा" जूली....! क्या बकवास कर रही है..अव्वल तो मै माताजी से बात कर रही थी..और तुझे क्या ज़रुरत पडी है किसी को यह सब बताने की?"
जूली:" साहब का फोन था..वो पूछ रहे थे,की फोन engage क्यों आ रहा था..तो मैंने बता दिया,की.."
मै:" तू क्या बदतमीज़ी कर रही,है,तुझे कुछ पता भी है?"
उसने मेरे साथ बहस करनी चाही, पर तबतक मैंने पलटके गौरव को फोन लगाया..उसकी आवाज़ परसे ही पता चला की वह बहुत घुस्सेमे है.." मै तुमसे बाद में बात करूँगा',कह उसने उधर से फोन रख दिया..
अचानक मुझे महसूस हुआ,की, हो न हो, इस तरह की गलत फहमी में अबके जूली का भी हाथ है..
पर क्या सिर्फ उसका था?
इस प्रसंग से तो मै किसी तरह उभरी..मेरे भाई और बहनोई,दोनों ही ने गौरव को काफ़ी समझाया..इतने सालों में पहली बार,मेरे भाई ने अपना मूह खोला था..मुझे अपने घर और जीवन से रफा दफा करने की बात उस समय तो गौरव ने नही दोहराई....क्या ख़बर थी,की,एक और,इससे कहीँ अधिक भयानक प्रसंग मेरे इंतज़ार में था..??
क्रमश:
रविवार, 16 मई 2010
बिखरे सितारे:अध्याय ३इल्ज़ामे बेवफाई..
(गतांक :बैठे,बैठे एक दिन मैंने किसी नेट वर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाल दिया...मै जो कुछ करती,वो सब लिखा..और मेरा contact नंबर भी दिया ....सोचा, गर फ्री lancing का तरीका अपना के काम किया जाय तो ठीक रहेगा..नही पता था,की, मुझे इसके क्या परिणाम भुगतने पड़ेंगे..ख्वाबो-ख़याल में जो नही सोची थी, ऐसी परेशानियों का एक सिलसिला मेरे इंतज़ार में था...अब आगे).
जीवन के इस हिस्से पे लिखना सबसे अधिक कठिन है मेरे लिए..इतनी ठहरी हुई ज़िंदगी..कितने छंद रहे मेरे..लेकिन इतनी लम्बी कालावधी के बाद इन्हीं छंदों को बढ़ाते हुए व्यावसायिक रूप देना नामुमकिन-सा नज़र आ रहा था मुझे..
केतकी के मेल का रोज़ इंतज़ार रहता मुझे..नही,उसकी शादी के बाद,उसकी कभी चिंता नही हुई मुझे..चश्मे-बद-दूर! उसका हमसफ़र बेहद संजीदा था..है..बहुत खुला,दोस्ती भरा रिश्ता..लेकिन वो इतनी दूर..मेरे पहुँच के परे लगती मुझे,की,मै अपनेआप को बेबस महसूस करती..जानती थी की,मेरी सेहत देखते हुए,मै उसके घर कभी न जा पाऊँगी..
ऐसी ही एक तनहा रात ....करवटें बदल,बदल बीत रही थी...अंत में मै उठी और इस रचना में अपना दर्द उंडेल दिया..बहुत दिनों से उसकी कोई मेल मुझे नही मिली थी...मन बहुत ही उदास था..
तुझसे जुदा होके,
जुदा हूँ,मै ख़ुद से ,
यादमे तेरी, जबभी,
होती हैं नम, पलकें मेरी,
भीगता है सिरहाना,
खुश रहे तू सदा,
साथ आहके एक,
निकलती है ये दुआ
जहाँ तेरा मुखड़ा नही,
वो आशियाँ मेरा नही,
इस घरमे झाँकती
किरणों मे उजाला नही!
चीज़ हो सिर्फ़ कोई ,
उजाले जैसी, हो जोभी,
मुझे तसल्ली नही!
वार दूँ, दुनिया सारी,
तुझपे मेरी,लम्हा घड़ी,
तू नज़र तो आए सही,
कहाँ है मेरी लाडली..
ये आँखें भीगी, भीगी,
कर लेती हूँ बंदभी,
तू यहाँसे हटती नही...!
मेरी गिरती हुई मानसिक अवस्था को देख, माँ ने ज़िद की के मै किसी अच्छे मानसोपचार तग्य के पास जाके सलाह मशवरा लूँ.. मै राज़ी हो गयी ..दवाईयाँ भी शुरू हो गयीं..अपनी नानी से मिलने डॉक्टर हर हफ्ते हमारे घरके करीब आते रहते..वहाँ से मै अपना ड्राईवर गाडी भेज अपने यहाँ बुला लेती. उनका कहीँ क्लिनिक नही था..या तो वो अपने घरपे मरीज़ को देखते या फिर मरीज़ के घर जाते..
मैंने जिस नेटवर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाला था,वहाँ से तो निराशाही हाथ लग रही थी..कई बार बकवास पोस्ट्स आती और उन्हें डिलीट करने के लिहाज़ से मै उसे खोल लिया करती..मैंने चंद दिनों के भीतर वहाँ से अपना फोन नम्बर तो हटा दिया था..लेकिन कुछ लोगों के हाथ वह लग गया था..पर यह भी सच था..मेरा नम्बर हासिल करना कठिन नही था..मै अपने काम के लिहाज़ से मौक़ा मिलने पे,प्रेज़ेंटेशन देती रहती...अपने विज़िटिंग कार्ड्स भी देती रहती..कई बार मेरी कुछ गद्य/पद्य रचनाएँ, किताब या पत्रिकाओं के ज़रिये किसी के हाथ लग जाती..कभी,कभी सम्मलेन में सहभागी होने के लिए भी फोन आते..
एक दिन गौरव के रहते एक फोन आया और उसे गौरव ने रिसीव किया..और गुस्से में आके पटक भी दिया..हम दोनों कहीं बाहर जानेवाले थे..फोन फिर बजा..फिर गौरव ने उठाया..तमतमा के फिर से पटक दिया..तीसरी बार मै पास खड़ी थी,सो मैंने उठा लिया..किसी सम्मलेन की इत्तेला और आमंत्रण देने के लिए यह फोन बज रहा था..मैंने शांती से जवाब दे दिया:" इस वक़्त मै अपने परिवार के साथ व्यस्त हूँ...आप फिर कभी फोन करें..."मैंने भी रख दिया..
गौरव दुसरे दिन लौट गए..मैंने रात ८ बजेसे लेके ११ बजे तक नियमसे लेखन करना जारी किया था..सलाह मेरे डॉक्टर की थी..उसी दिन रात ९ बजे के करीब एक फोन आया,जिसे मेरी रात दिनकी नौकरानी ने उठाया..जब उसने आके मुझसे कहा,तो मैंने जवाब दिया:" तू उनसे कह दे मै व्यस्त हूँ...कल सुबह १० या ११ बजे फोन करें.."
लेखन ख़त्म कर मै सोने चली गयी.और फोन बजा..मैंने कहा:" माफ़ करें,देर हो गयी है ..सोना चाहती हूँ.."
इतना कह मैंने रिसीवर रख दिया..फोन फिर बजा..इस वक़्त मैंने बिना बात किये बंद कर दिया..यह लैंड लाइन का नंबर था..कुछ रोज़ पहले ही लगा था..उसमे उपलब्ध सुविधाएँ मैंने नही देखी थीं..इन जनाब को पता नही क्या सूझ गयी थी,की,वो करतेही चले जा रहे थे..अंत में मैंने उसे एक रजाई के नीचे दबा दिया..! उसे स्विच ऑफ़ कर सकते हैं,यह दूसरे दिन मेरे डॉक्टर ने मुझे बताया..मैंने सहज भाव में उन्हें रातवाली घटना बता दी थी..
तीन दिनों बाद गौरव का फिर आना हुआ..हम दोनों किसी दोस्त के घर भोजन के लिए गए..वहाँ देर लगते देख मै पहले निकल आयी...मेरा भाई मुझसे कुछ देर मिलने आना चाह रहा था..हमारी बिल्डिंग के लिफ्ट के बाहर ही भाई और उसके साथ अपनी बहन को भी देख मै कुछ हैरान भी हुई और ख़ुश भी..बहन के आने का मुझे कोई संदेसा,अंदेसा नही था..
हम तीनो जाके मेरे कमरे में बैठ गए..बहन बोली: "आपसे कुछ बात करनी है..जीजाजी का कहना है,की,आप रात बेरात गैर मरदों से बातें करती हैं..लेकिन गर आपको सच में किसी से emotional attachment है,तो हम आपका साथ देंगे.."
मै हैरान रह गयी..बोली:" क्या बात करते हो? ऐसा कुछ भी नही है...! होता तो सबसे पहले तुम दोनों को और माँ को बता देती..किसी सती सावित्री का अभिनय नही कर रही हूँ...मुझे कभी कोई मिलाही नही..!"
मै अपना जुमला ख़त्म ही कर रही थी,की,गौरव वहाँ पहुँच गए...अपने कमरे से कुछ कागज़ के परचे उठा लाये...बोले:" इसपे सभी नंबर और समय दर्ज है...सब अपनी आँखों से देख लो...इन में कई नंबरों की तहकीकात भी हो चुकी है..."
कहते हुए उसने परचे मेरे सामने धर दिए..सच तो यह था,की,उसमे से एकभी नंबर मेरे परिचय का नही था..! इसके अलावा मेरे मोबाईल पे आए और किये गए फोन भी इनके पास दर्ज थे! इन में भी ज़्यादातर नंबर मेरे परिचित नही थे..मैंने गर किये भी होते तो,उन्हें याद रखना मुमकिन न था..
गौरव को मेरी किसी बात पे यक़ीन नही हो रहा था..मेरे छोटे भाई बहन, घरकी नौकरानी, ड्राईवर ...इन सब के आगे मुझे ज़लील करने से पहले गौरव ने एक बार सीधे मुझसे बात तो करनी थी..यह बातें मेरे मन ही में रह गयीं...सुबह तडके गौरव चला गया...और कह गया की,अब वो मुझ से रिश्ता रखना नही चाहता..
दिनमे ११ बजे डॉक्टर आने वाले थे..उस समय भाई वहीँ था...डॉक्टर से बोला:" मै अब जाता हूँ...शायद यह मेरे सामने खुलके बात नही करेगी.."
मैंने तो बिस्तर ही पकड़ लिया था..सर दर्द से फटा जा रहा था..पर अपने भाई को मैंने रोक लिया,कहा:" तू कहीँ नही जाएगा...यहीं बैठ..मुझे कुछ छुपाना नही है..छुपाने जैसा कुछ हैही नही..!"
मै बेतहाशा रोने लगी...इस तरह का इलज़ाम मेरी कल्पना के परे था..क्या से क्या हो गया था..जिस परिवार के ख़ातिर ,बच्चों की ख़ातिर मै हर तकलीफ़ सह गयी,उनमे से कोई मेरे पास न था..क्या करूँ? क्या करूँ? कहाँ जाऊं? कौनसी ऐसी जगह थी इस दुनियामे,जिसे मै अपना कह सकती थी? जहाँ से निकल जाने के लिए मुझे कोई न कहता? मेरी बेटी के ससुरालवाले क्या सोचेंगे..?
यहभी नही जानती थी,की,यह तो एक भयानक सिलसिले की शुरुआत भर है....
क्रमश:
जीवन के इस हिस्से पे लिखना सबसे अधिक कठिन है मेरे लिए..इतनी ठहरी हुई ज़िंदगी..कितने छंद रहे मेरे..लेकिन इतनी लम्बी कालावधी के बाद इन्हीं छंदों को बढ़ाते हुए व्यावसायिक रूप देना नामुमकिन-सा नज़र आ रहा था मुझे..
केतकी के मेल का रोज़ इंतज़ार रहता मुझे..नही,उसकी शादी के बाद,उसकी कभी चिंता नही हुई मुझे..चश्मे-बद-दूर! उसका हमसफ़र बेहद संजीदा था..है..बहुत खुला,दोस्ती भरा रिश्ता..लेकिन वो इतनी दूर..मेरे पहुँच के परे लगती मुझे,की,मै अपनेआप को बेबस महसूस करती..जानती थी की,मेरी सेहत देखते हुए,मै उसके घर कभी न जा पाऊँगी..
ऐसी ही एक तनहा रात ....करवटें बदल,बदल बीत रही थी...अंत में मै उठी और इस रचना में अपना दर्द उंडेल दिया..बहुत दिनों से उसकी कोई मेल मुझे नही मिली थी...मन बहुत ही उदास था..
तुझसे जुदा होके,
जुदा हूँ,मै ख़ुद से ,
यादमे तेरी, जबभी,
होती हैं नम, पलकें मेरी,
भीगता है सिरहाना,
खुश रहे तू सदा,
साथ आहके एक,
निकलती है ये दुआ
जहाँ तेरा मुखड़ा नही,
वो आशियाँ मेरा नही,
इस घरमे झाँकती
किरणों मे उजाला नही!
चीज़ हो सिर्फ़ कोई ,
उजाले जैसी, हो जोभी,
मुझे तसल्ली नही!
वार दूँ, दुनिया सारी,
तुझपे मेरी,लम्हा घड़ी,
तू नज़र तो आए सही,
कहाँ है मेरी लाडली..
ये आँखें भीगी, भीगी,
कर लेती हूँ बंदभी,
तू यहाँसे हटती नही...!
मेरी गिरती हुई मानसिक अवस्था को देख, माँ ने ज़िद की के मै किसी अच्छे मानसोपचार तग्य के पास जाके सलाह मशवरा लूँ.. मै राज़ी हो गयी ..दवाईयाँ भी शुरू हो गयीं..अपनी नानी से मिलने डॉक्टर हर हफ्ते हमारे घरके करीब आते रहते..वहाँ से मै अपना ड्राईवर गाडी भेज अपने यहाँ बुला लेती. उनका कहीँ क्लिनिक नही था..या तो वो अपने घरपे मरीज़ को देखते या फिर मरीज़ के घर जाते..
मैंने जिस नेटवर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाला था,वहाँ से तो निराशाही हाथ लग रही थी..कई बार बकवास पोस्ट्स आती और उन्हें डिलीट करने के लिहाज़ से मै उसे खोल लिया करती..मैंने चंद दिनों के भीतर वहाँ से अपना फोन नम्बर तो हटा दिया था..लेकिन कुछ लोगों के हाथ वह लग गया था..पर यह भी सच था..मेरा नम्बर हासिल करना कठिन नही था..मै अपने काम के लिहाज़ से मौक़ा मिलने पे,प्रेज़ेंटेशन देती रहती...अपने विज़िटिंग कार्ड्स भी देती रहती..कई बार मेरी कुछ गद्य/पद्य रचनाएँ, किताब या पत्रिकाओं के ज़रिये किसी के हाथ लग जाती..कभी,कभी सम्मलेन में सहभागी होने के लिए भी फोन आते..
एक दिन गौरव के रहते एक फोन आया और उसे गौरव ने रिसीव किया..और गुस्से में आके पटक भी दिया..हम दोनों कहीं बाहर जानेवाले थे..फोन फिर बजा..फिर गौरव ने उठाया..तमतमा के फिर से पटक दिया..तीसरी बार मै पास खड़ी थी,सो मैंने उठा लिया..किसी सम्मलेन की इत्तेला और आमंत्रण देने के लिए यह फोन बज रहा था..मैंने शांती से जवाब दे दिया:" इस वक़्त मै अपने परिवार के साथ व्यस्त हूँ...आप फिर कभी फोन करें..."मैंने भी रख दिया..
गौरव दुसरे दिन लौट गए..मैंने रात ८ बजेसे लेके ११ बजे तक नियमसे लेखन करना जारी किया था..सलाह मेरे डॉक्टर की थी..उसी दिन रात ९ बजे के करीब एक फोन आया,जिसे मेरी रात दिनकी नौकरानी ने उठाया..जब उसने आके मुझसे कहा,तो मैंने जवाब दिया:" तू उनसे कह दे मै व्यस्त हूँ...कल सुबह १० या ११ बजे फोन करें.."
लेखन ख़त्म कर मै सोने चली गयी.और फोन बजा..मैंने कहा:" माफ़ करें,देर हो गयी है ..सोना चाहती हूँ.."
इतना कह मैंने रिसीवर रख दिया..फोन फिर बजा..इस वक़्त मैंने बिना बात किये बंद कर दिया..यह लैंड लाइन का नंबर था..कुछ रोज़ पहले ही लगा था..उसमे उपलब्ध सुविधाएँ मैंने नही देखी थीं..इन जनाब को पता नही क्या सूझ गयी थी,की,वो करतेही चले जा रहे थे..अंत में मैंने उसे एक रजाई के नीचे दबा दिया..! उसे स्विच ऑफ़ कर सकते हैं,यह दूसरे दिन मेरे डॉक्टर ने मुझे बताया..मैंने सहज भाव में उन्हें रातवाली घटना बता दी थी..
तीन दिनों बाद गौरव का फिर आना हुआ..हम दोनों किसी दोस्त के घर भोजन के लिए गए..वहाँ देर लगते देख मै पहले निकल आयी...मेरा भाई मुझसे कुछ देर मिलने आना चाह रहा था..हमारी बिल्डिंग के लिफ्ट के बाहर ही भाई और उसके साथ अपनी बहन को भी देख मै कुछ हैरान भी हुई और ख़ुश भी..बहन के आने का मुझे कोई संदेसा,अंदेसा नही था..
हम तीनो जाके मेरे कमरे में बैठ गए..बहन बोली: "आपसे कुछ बात करनी है..जीजाजी का कहना है,की,आप रात बेरात गैर मरदों से बातें करती हैं..लेकिन गर आपको सच में किसी से emotional attachment है,तो हम आपका साथ देंगे.."
मै हैरान रह गयी..बोली:" क्या बात करते हो? ऐसा कुछ भी नही है...! होता तो सबसे पहले तुम दोनों को और माँ को बता देती..किसी सती सावित्री का अभिनय नही कर रही हूँ...मुझे कभी कोई मिलाही नही..!"
मै अपना जुमला ख़त्म ही कर रही थी,की,गौरव वहाँ पहुँच गए...अपने कमरे से कुछ कागज़ के परचे उठा लाये...बोले:" इसपे सभी नंबर और समय दर्ज है...सब अपनी आँखों से देख लो...इन में कई नंबरों की तहकीकात भी हो चुकी है..."
कहते हुए उसने परचे मेरे सामने धर दिए..सच तो यह था,की,उसमे से एकभी नंबर मेरे परिचय का नही था..! इसके अलावा मेरे मोबाईल पे आए और किये गए फोन भी इनके पास दर्ज थे! इन में भी ज़्यादातर नंबर मेरे परिचित नही थे..मैंने गर किये भी होते तो,उन्हें याद रखना मुमकिन न था..
गौरव को मेरी किसी बात पे यक़ीन नही हो रहा था..मेरे छोटे भाई बहन, घरकी नौकरानी, ड्राईवर ...इन सब के आगे मुझे ज़लील करने से पहले गौरव ने एक बार सीधे मुझसे बात तो करनी थी..यह बातें मेरे मन ही में रह गयीं...सुबह तडके गौरव चला गया...और कह गया की,अब वो मुझ से रिश्ता रखना नही चाहता..
दिनमे ११ बजे डॉक्टर आने वाले थे..उस समय भाई वहीँ था...डॉक्टर से बोला:" मै अब जाता हूँ...शायद यह मेरे सामने खुलके बात नही करेगी.."
मैंने तो बिस्तर ही पकड़ लिया था..सर दर्द से फटा जा रहा था..पर अपने भाई को मैंने रोक लिया,कहा:" तू कहीँ नही जाएगा...यहीं बैठ..मुझे कुछ छुपाना नही है..छुपाने जैसा कुछ हैही नही..!"
मै बेतहाशा रोने लगी...इस तरह का इलज़ाम मेरी कल्पना के परे था..क्या से क्या हो गया था..जिस परिवार के ख़ातिर ,बच्चों की ख़ातिर मै हर तकलीफ़ सह गयी,उनमे से कोई मेरे पास न था..क्या करूँ? क्या करूँ? कहाँ जाऊं? कौनसी ऐसी जगह थी इस दुनियामे,जिसे मै अपना कह सकती थी? जहाँ से निकल जाने के लिए मुझे कोई न कहता? मेरी बेटी के ससुरालवाले क्या सोचेंगे..?
यहभी नही जानती थी,की,यह तो एक भयानक सिलसिले की शुरुआत भर है....
क्रमश:
बुधवार, 12 मई 2010
Bikhare sitare:17 जा, उड़ जा रे पँछी..!
( गतांक : ओह! बिटिया को मै हर दिन का ब्यौरा लिखती..एक दिन उसने लिखा," अब बस भी करो माँ!"
मैंने कहा, जीवन में यह पल बार बार आनेवाले नही.." जोभी है,बस यही इक पल है..कर ले तू पूरी आरज़ू...." कल किसने देखा है? कलकी किसको खबर?
और कितना सच था...आनेवाले कलमे क़िस्मत ने मेरे लिए क्या परोसा था? मुझे कतई अंदाज़ नही था...
अब आगे पढ़ें..)
देखते ही देखते वो दिन भी आ गया ,जब बिटिया राघव के साथ भारत पहुँच गयी..और पंख लगा के दिन उड़ने लगे..उन्हें नए सिरेसे वीसा बनवाना था..वह भागदौड़...राघव अपने घर जाय उससे पहले उसका सूट सिलना था..नाप देने थे...बिटिया की चोलियाँ सिलनी थी..और मेहंदी..यह सब तीन दिनों के भीतर..
चौथे दिन हम बिटियाके ससुराल पहुँच गए..हमारा इंतज़ाम हमने चंद अतिथि गृह बुक करके किया था..एकेक विधि संपन्न होते,होते ३ दिन तेज़ीसे गुज़र गए..विवाह सपन्न होते ही मेरे आँसूं बह निकले..मै अपनी माँ के गले लग रो पडी...माँ की आँखों में भी झड़ी लगी हुई थी...बोलीं :" यही तो जगरीती है...तू भी ऐसे ही एक दिन विदा हुई थी..हाँ...फ़र्क़ यह है,की, केतकी सात समंदर पार जा रही है..तू इसी देश में थी..पर फिर भी तेरे लिए मन तरस जाता था.."
बिटियाके साथ हम घर लौटे..अब हमारी ओरसे स्वागत समारोह की तैय्यारी..मेहमानों की व्यवस्था..बिटिया के ससुराल के लोगों की ठहरने की व्यवस्था..स्वागत समारोह के एक दिन पूर्व, राघव और उसका परिवार आदि आ गए..समारोह के ३ रे दिन केतकी और राघव ने अमरीका वापस लौटना था..वो शाम भी आही गयी..
रात की उड़ान थी..गौरव और अमन हवाई अड्डे पे उन्हें बिदा करने जा रहे थे..मै बेहद थकी हुई थी..मुझे सब ने रोक लिया...वैसे भी क्या फ़र्क़ पड़ता? दोनों एक बार अन्दर प्रवेश कर लेते ... हमें तो बाहर से ही लौट जाना होता..
गौरव ने आवाज़ लगाई:" चलो सामान नीचे लाने लगो...!"
केतकी की आँखें सूखी थीं...उनकी गाडी निगाहों से परे होने तक मैंने अपने आँसूं रोक रखे..भीगा मन, भीगी आँखें उसे आशीष दे रहीं थीं..जा, उड़ जा रे पँछी..! खुले आसमाँ में उड़ जा..! अपना घोंसला बना ले..अब तो तेरे मेरे क्षितिज भी भिन्न हो गए..जब तेरे आशियाँ को सुबह की किरने चूमेंगी, मेरी सूनी-सी शाम रात में तबदील होगी...
माँ तो एक दिन पहले ही जा चुकी थीं..मै अपनी जेठानी के गले लग रो पडी..आए हुए महमान लौटने लगे..और दो तीन दिनों के भीतर घर खाली हो गया..
गौरव के retirement का दिन करीब आ गया..इस घरकी,सजी सजाई दीवारें खाली होने लगीं.. दरवाज़े खिड़कियाँ बेपर्दा...बंजारों का डेरा उठा..हम तीन माह पूर्व लिए अपने फ्लैट में रहने चले आए..
यह घर भी लग गया..ज़िंदगी में अचानक से एक खालीपन,एक ठहराव महसूस हुआ...मै अपने छंदों में मन लगाने की कोशिश में जुट गयी..एक कला प्रदर्शनी की..पर अब महसूस हुआ,की,दस साल पूर्व की और अबकी बात फ़र्क़ थी..अब malls बन जाने के कारण लोग, वहाँ जाना अधिक पसंद करते थे..जिन्हों ने मेरी कला तथा डिज़ाइन के तरीके देखे ही नही थे,वो प्रदर्शनी में क्या होगा इसका अंदाज़ नहीं लगा सकते थे..अब मै अपने समय का इस्तेमाल कैसे करूँ? यह परेशानी मेरी थी, लोगों की नही..
गौरव भी बैठे रहना तो पसंद नही कर रहे थे..उन्हें काम मिल गया,लेकिन हमारे शहरसे काफ़ी दूर..अमन भी दूसरे शहर में ही था..बाद में जहाँ गौरव था वहाँ आ गया..
इस घर में मै एकदम अकेली पड़ गयी..तभी माँ को कैंसर होने का निदान हुआ..वो मेरे पास आ गयीं...उनकी आनन् फानन में शस्त्र क्रिया कराई गयी..हम भाई बहनों को सदमा तो बहुत लगा था..कुछ ठीक महसूस करने पर वो अपने घर लौट गयीं..उनकी सेहत देखते हुए मैंने तय कर लिया..मै ऐसा कोई काम शुरू नही करुँगी,जिसे छोड़ ना सकूँ..माँ को किसी भी समय मेरी ज़रुरत महसूस हो सकती थी..और गाँव में,मेरे नहैर में, वैद्यकीय सुविधाएँ बहुत कम थीं..
बैठे,बैठे एक दिन मैंने किसी नेट वर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाल दिया...मै जो कुछ करती,वो सब लिखा..और मेरा contact नंबर भी दिया ....सोचा, गर फ्री lancing का तरीका अपना के काम किया जाय तो ठीक रहेगा..नही पता था,की, मुझे इसके क्या परिणाम भुगतने पड़ेंगे..ख्वाबो-ख़याल में जो नही सोची थी, ऐसी परेशानियों का एक सिलसिला मेरे इंतज़ार में था...
मैंने कहा, जीवन में यह पल बार बार आनेवाले नही.." जोभी है,बस यही इक पल है..कर ले तू पूरी आरज़ू...." कल किसने देखा है? कलकी किसको खबर?
और कितना सच था...आनेवाले कलमे क़िस्मत ने मेरे लिए क्या परोसा था? मुझे कतई अंदाज़ नही था...
अब आगे पढ़ें..)
देखते ही देखते वो दिन भी आ गया ,जब बिटिया राघव के साथ भारत पहुँच गयी..और पंख लगा के दिन उड़ने लगे..उन्हें नए सिरेसे वीसा बनवाना था..वह भागदौड़...राघव अपने घर जाय उससे पहले उसका सूट सिलना था..नाप देने थे...बिटिया की चोलियाँ सिलनी थी..और मेहंदी..यह सब तीन दिनों के भीतर..
चौथे दिन हम बिटियाके ससुराल पहुँच गए..हमारा इंतज़ाम हमने चंद अतिथि गृह बुक करके किया था..एकेक विधि संपन्न होते,होते ३ दिन तेज़ीसे गुज़र गए..विवाह सपन्न होते ही मेरे आँसूं बह निकले..मै अपनी माँ के गले लग रो पडी...माँ की आँखों में भी झड़ी लगी हुई थी...बोलीं :" यही तो जगरीती है...तू भी ऐसे ही एक दिन विदा हुई थी..हाँ...फ़र्क़ यह है,की, केतकी सात समंदर पार जा रही है..तू इसी देश में थी..पर फिर भी तेरे लिए मन तरस जाता था.."
बिटियाके साथ हम घर लौटे..अब हमारी ओरसे स्वागत समारोह की तैय्यारी..मेहमानों की व्यवस्था..बिटिया के ससुराल के लोगों की ठहरने की व्यवस्था..स्वागत समारोह के एक दिन पूर्व, राघव और उसका परिवार आदि आ गए..समारोह के ३ रे दिन केतकी और राघव ने अमरीका वापस लौटना था..वो शाम भी आही गयी..
रात की उड़ान थी..गौरव और अमन हवाई अड्डे पे उन्हें बिदा करने जा रहे थे..मै बेहद थकी हुई थी..मुझे सब ने रोक लिया...वैसे भी क्या फ़र्क़ पड़ता? दोनों एक बार अन्दर प्रवेश कर लेते ... हमें तो बाहर से ही लौट जाना होता..
गौरव ने आवाज़ लगाई:" चलो सामान नीचे लाने लगो...!"
केतकी की आँखें सूखी थीं...उनकी गाडी निगाहों से परे होने तक मैंने अपने आँसूं रोक रखे..भीगा मन, भीगी आँखें उसे आशीष दे रहीं थीं..जा, उड़ जा रे पँछी..! खुले आसमाँ में उड़ जा..! अपना घोंसला बना ले..अब तो तेरे मेरे क्षितिज भी भिन्न हो गए..जब तेरे आशियाँ को सुबह की किरने चूमेंगी, मेरी सूनी-सी शाम रात में तबदील होगी...
माँ तो एक दिन पहले ही जा चुकी थीं..मै अपनी जेठानी के गले लग रो पडी..आए हुए महमान लौटने लगे..और दो तीन दिनों के भीतर घर खाली हो गया..
गौरव के retirement का दिन करीब आ गया..इस घरकी,सजी सजाई दीवारें खाली होने लगीं.. दरवाज़े खिड़कियाँ बेपर्दा...बंजारों का डेरा उठा..हम तीन माह पूर्व लिए अपने फ्लैट में रहने चले आए..
यह घर भी लग गया..ज़िंदगी में अचानक से एक खालीपन,एक ठहराव महसूस हुआ...मै अपने छंदों में मन लगाने की कोशिश में जुट गयी..एक कला प्रदर्शनी की..पर अब महसूस हुआ,की,दस साल पूर्व की और अबकी बात फ़र्क़ थी..अब malls बन जाने के कारण लोग, वहाँ जाना अधिक पसंद करते थे..जिन्हों ने मेरी कला तथा डिज़ाइन के तरीके देखे ही नही थे,वो प्रदर्शनी में क्या होगा इसका अंदाज़ नहीं लगा सकते थे..अब मै अपने समय का इस्तेमाल कैसे करूँ? यह परेशानी मेरी थी, लोगों की नही..
गौरव भी बैठे रहना तो पसंद नही कर रहे थे..उन्हें काम मिल गया,लेकिन हमारे शहरसे काफ़ी दूर..अमन भी दूसरे शहर में ही था..बाद में जहाँ गौरव था वहाँ आ गया..
इस घर में मै एकदम अकेली पड़ गयी..तभी माँ को कैंसर होने का निदान हुआ..वो मेरे पास आ गयीं...उनकी आनन् फानन में शस्त्र क्रिया कराई गयी..हम भाई बहनों को सदमा तो बहुत लगा था..कुछ ठीक महसूस करने पर वो अपने घर लौट गयीं..उनकी सेहत देखते हुए मैंने तय कर लिया..मै ऐसा कोई काम शुरू नही करुँगी,जिसे छोड़ ना सकूँ..माँ को किसी भी समय मेरी ज़रुरत महसूस हो सकती थी..और गाँव में,मेरे नहैर में, वैद्यकीय सुविधाएँ बहुत कम थीं..
बैठे,बैठे एक दिन मैंने किसी नेट वर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाल दिया...मै जो कुछ करती,वो सब लिखा..और मेरा contact नंबर भी दिया ....सोचा, गर फ्री lancing का तरीका अपना के काम किया जाय तो ठीक रहेगा..नही पता था,की, मुझे इसके क्या परिणाम भुगतने पड़ेंगे..ख्वाबो-ख़याल में जो नही सोची थी, ऐसी परेशानियों का एक सिलसिला मेरे इंतज़ार में था...
सोमवार, 3 मई 2010
बिखरे सितारे:अध्याय २: 16 हर खुशी हो वहाँ..
अबतक के संस्मरण का सारांश:कहानी शुरू होती है पूजा-तमन्ना के जनम से..लक्ष्मी पूजन का जनम इसलिए उसके दादा ने तमन्ना नाम के साथ पूजा जोड़ दिया..बच्ची सभी के आँखों का तारा बनती है.(शुरुके कुछ हिस्सों में तस्वीरें दी हैं)गांधीवादी दादा-दादी शहर छोड़, देश सेवा करने कर्नाटक के एक दूरदराज़ गाँव में आ बसे हौं..पूजाकी परवरिश तथा पाठ शाला की पढाई पास वाले एक छोटे शहर में होती है..महाविद्यालयीन शिक्षण हेतु वो बड़े शहर में आती है..
दूसरा वर्ष ख़त्म कर पूजा अपने गाँव लौटती है.वहाँ उसकी मुलाक़ात एक आईएस अफसरसे होती है..पहलीही नज़रमे प्यार हो जाता है..इस प्यार का अंत दुखदायी होता है..लड़के के घरसे विरोध तथा धर्मान्तरण की माँग पूजा के परिवार को अमान्य है..उनके विचार से पूजा बस एक हिन्दुस्तानी लडकी है..जात-पात की बातें मायने नहीं रखती..जब यह सब उस लड़के के सहकर्मी, गौरव को पता चलता है,तो वह आगे बढ़ पूजा का थाम लेता है....उन दोनों का ब्याह करा दिया जाता है..
ऊपरसे स्नेहिल,समंजस लगने वाला गौरव हक़ीक़त में बड़ा ही गुस्सैल किस्म का व्यक्ति निकलता है.. उसका पूरा परिवार ही बेहद रूढीवादी होता है..एक पुर ख़तर और तकलीफदेह सहजीवन शुरू होता है..ख़ास कर पूजा के लिए,जो स्वयं सरल तथा सर्व गुण संपन्न लडकी है..साथ,साथ उतनी ही मृदु और सुन्दर..
दिन गुज़रते रहते हैं..पूजा एक लडकी की माँ बनती है..लेकिन सभी को लड़के की चाह होने के कारण नन्हीं बच्ची,केतकी उपेक्षित रहती है...लाड प्यार से महरूम...पूजा के ऊपर एक और ज़िम्मेदारी आन पड़ती है..बिटिया को पारिवारिक द्वेष से बचाए रखना..केतकी अपने ननिहाल में तो बहुत लाडली होती है..
केतकी अभी दो सालकी भी नहीं होती के उसके भाई,अमन का आगमन होता है..
केतकी वास्तुशास्त्र में पदवी धर बन जाती है..उन्हीं दिनों उसका अपने भावी जीवन साथी से परिचय होता है..जो अमरीकामे पहले पढने और बाद में नौकरी के ख़ातिर रहता है..केतकी आगे की पढाई के लिए अमरीका चली जाती है..पूजा का दिल बैठ-सा जाता है...और फिर उसे खबर मिलती है,की, पढाई ख़त्म होते,होते दोनों ब्याह कर लेंगे...बिटिया का ब्याह और मै नहीं...इस विचार से पूजा टूट-सी जाती है).
.(गतांक: उसके जीवन का इतना अहम दिन और मै वहाँ हाज़िर नही...? दिल को मनाना मुश्किल था...नियती पे मेरा कोई वश नही था...ईश्वर क्यों मेरी ममता का इस तरह इम्तेहान ले रहा था? मैंने ऐसा कौनसा जुर्म कर दिया था? किया था..मेरे रहते,मेरी बिटियाको ज़ुल्म सहना पड़ा था..मुझे क़ीमत चुकानी थी...पर मेरा मन माने तो ना...) अब आगे पढ़ें...
बिखरे सितारे(अध्याय २) १६ हर खुशी हो वहाँ..
मै अपनी दिनचर्या केवल यंत्रवत करती रहती..कहीं कोई उमंग नहीं..कैसे कैसे सपने,कैसे,कैसे अरमान संजोये थे मैंने अपनी बिटिया के ब्याह को लेके..दादी परदादी से मिले नायाब वस्त्र,कमख्वाब, लेसेस,हाथ से काढ़े हुए,कामदार दुपट्टे तथा लहेंगे...क्या कुछ मैंने संभाल के रखा हुआ था अपनी बिटिया के लिए...उसमे से मै उसकी चोलियाँ सीने वाली थी..मेरी बेटी एक अलाहिदा,हट के दुल्हन बननेवाली थी..और यहाँ तो उसके ब्याह में मेरी शिरकत भी मुमकिन न थी...मै अंदरही अन्दर घुट के रह गयी..
ब्याह के पश्च्यात उसका फोन तथा मेल आया..मैंने पूछा," बेटे ,तुम यहाँ से जो साड़ियाँ ले गयी थी उसमे से कौनसी पहनी? और केशभुषा कैसे की?"
उसका उत्तर: "ओह माँ! साड़ी पहननेकी किसे फ़ुरसत थी? मैंने तो pant टी-शर्ट पहना था..और बाल पोनी टेल में बांधे थे!"
इस पर मैंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही की...उसे आशीर्वाद देते हुए एक मेल लिखी..जिसमे एक हिंदी फ़िल्मके गीतकी चंद पंक्तियाँ दोहराईं....असल में यह गीत नायिका अपने प्रीतम को याद करते हुए गाती है पर ऐसी भावनाएं कोई भी,किसीभी अपने के ख़ातिर ज़ाहिर कर सकता है..
"हर खुशी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
चाँद धुन्दला सही,ग़म नही है मुझे,
चांदनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
रौशनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे.."
लिखते,लिखते मेरी आँखें भर भर आयीं..केतकी के जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ था..मै न सही मेरी दुआ तो पलपल उसके साथ थी..हे ईश्वर! इसे अपने प्रीतम का, अपने पति का खूब प्यार मिले..जिस प्यार से वह अपने बचपन और लड़कपन में महरूम रही,वो सब दुगुना उसके जीवन में मिले..
उन दोनों ने घर लिया और मैंने यहाँ से पार्सल भेजने शुरू किये..कितनी चीज़ें अपने हाथों से उसके घर के लिए बनायीं थीं..कितनी अनोखी चीज़ें मैंने विविध प्रदर्शनियों में से इकठ्ठा कर के रखी थी..पिछले कुछ बरसों से..घरका फर्नीचर छोड़ सब कुछ....उसे पसंद आती तो मै ख़ुश हो लेती..
एक दिन उसकी मेल आयी," माँ! राघव के घरवाले चाहते हैं,की,वैदिक विधी से हम दोनों का ब्याह हो...इस साल १५ दिसंबर आखरी शुभ महूरत है..ऐसा राघव की दादी ने कहा है..विधी तो उनके शहर में होगी...उन्हें वहीँ का पंडित चाहिए...अब आपलोग उन लोगों से संपर्क कर समन्वय कर लें...विधी के केवल ३ दिन पूर्व हम आ पाएँगे.."
मेरा उदास मन खुशी से झूम उठा..! मेरे कुछ तो अरमान पूरे होंगे...मेरी बिटिया मेरे सामने दुल्हन बनेगी...मैंने इस दिन के खातिर क्या कुछ संजोया/बनाया नही था..हमारे सारे सगे सम्बन्धियों,रिश्तेदारों,दोस्तों को, मै तोहफा देना चाह रही थी...पिछले कुछ सालों से , चीज़ें इकट्ठी करती चली आयी थी..हरेक को अलग, उसके मन पसंद का तोहफा मुझे देना था..थोक में कुछ नहीं..हाथ से बनी चद्दरें,भित्ती चित्र......अलग,अलग जगहों से ली हुई साड़ियाँ...मैंने अपनी कमाई से खरीदे हुए सोने के सिक्के,जिनसे मै बेहद पारंपरिक और अलाहिदा गहने गढ़ने वाली थी..केतकी के लिए और करीबी रिश्तेदारों के लिए..जहाँ कहीं इतने सालों में गौरव के तबादले हुए थे...उनके लिए वस्त्र...चाहे वो अर्दली हो या महरी....शादी के पूर्व सब को उनके तोहफे पहुँचाने का मेरा इरादा था..फेहरिस्त तैयार थी..जिस किसी शहरमे जो कोई जाने वाला होता,उसके हाथों मै उपहार भेजने लगी..
अपना घरभी सजाने संवार ने लगी.. हरेक कोना सुन्दर दिखना था..छोटी,छोटी चीज़ों से..जैसे candle स्टैंड,या साबुनदानी...या baath mat ..सुरुचि , नफासत और परंपरा मद्देनज़र रखते हुए..एक विशिष्ट बजेट के भीतर...घरके मध्य खड़ी हो,मै हर दीवार,हर कोना निहारती...और उसे निखरने के तरीके ईजाद करती..कब,कहाँ कौनसी चद्दरें बिछेंगी ...अपने हाथों से पुष्प-सज्जा करुँगी...हमारे परिधानों के साथ घर का रूप भी रोज़ बदलेगा...अचानक एक शांत लम्हा मुझे याद दिलाता,'पगली! संभाल खुद को..बिटिया के ब्याह के बाद तक़रीबन चार माह के अन्दर गौरव का retirement था..तेरा डेरा उठेगा..सब रौनक़ ख़त्म होते ही तुझे सारी सजी सजाई दीवारें नोंच लेनी होंगी..' लेकिन पल भरमे उस ख़याल को मनसे हटा देती...
ओह! बिटिया को मै हर दिन का ब्यौरा लिखती..एक दिन उसने लिखा," अब बस भी करो माँ!"
मैंने कहा, जीवन में यह पल बार बार आनेवाले नही.." जोभी है,बस यही इक पल है..कर ले तू पूरी आरज़ू...." कल किसने देखा है? कलकी किसको खबर?
और कितना सच था...आनेवाले कलमे क़िस्मत ने मेरे लिए क्या परोसा था? मुझे कतई अंदाज़ नही था...
दूसरा वर्ष ख़त्म कर पूजा अपने गाँव लौटती है.वहाँ उसकी मुलाक़ात एक आईएस अफसरसे होती है..पहलीही नज़रमे प्यार हो जाता है..इस प्यार का अंत दुखदायी होता है..लड़के के घरसे विरोध तथा धर्मान्तरण की माँग पूजा के परिवार को अमान्य है..उनके विचार से पूजा बस एक हिन्दुस्तानी लडकी है..जात-पात की बातें मायने नहीं रखती..जब यह सब उस लड़के के सहकर्मी, गौरव को पता चलता है,तो वह आगे बढ़ पूजा का थाम लेता है....उन दोनों का ब्याह करा दिया जाता है..
ऊपरसे स्नेहिल,समंजस लगने वाला गौरव हक़ीक़त में बड़ा ही गुस्सैल किस्म का व्यक्ति निकलता है.. उसका पूरा परिवार ही बेहद रूढीवादी होता है..एक पुर ख़तर और तकलीफदेह सहजीवन शुरू होता है..ख़ास कर पूजा के लिए,जो स्वयं सरल तथा सर्व गुण संपन्न लडकी है..साथ,साथ उतनी ही मृदु और सुन्दर..
दिन गुज़रते रहते हैं..पूजा एक लडकी की माँ बनती है..लेकिन सभी को लड़के की चाह होने के कारण नन्हीं बच्ची,केतकी उपेक्षित रहती है...लाड प्यार से महरूम...पूजा के ऊपर एक और ज़िम्मेदारी आन पड़ती है..बिटिया को पारिवारिक द्वेष से बचाए रखना..केतकी अपने ननिहाल में तो बहुत लाडली होती है..
केतकी अभी दो सालकी भी नहीं होती के उसके भाई,अमन का आगमन होता है..
केतकी वास्तुशास्त्र में पदवी धर बन जाती है..उन्हीं दिनों उसका अपने भावी जीवन साथी से परिचय होता है..जो अमरीकामे पहले पढने और बाद में नौकरी के ख़ातिर रहता है..केतकी आगे की पढाई के लिए अमरीका चली जाती है..पूजा का दिल बैठ-सा जाता है...और फिर उसे खबर मिलती है,की, पढाई ख़त्म होते,होते दोनों ब्याह कर लेंगे...बिटिया का ब्याह और मै नहीं...इस विचार से पूजा टूट-सी जाती है).
.(गतांक: उसके जीवन का इतना अहम दिन और मै वहाँ हाज़िर नही...? दिल को मनाना मुश्किल था...नियती पे मेरा कोई वश नही था...ईश्वर क्यों मेरी ममता का इस तरह इम्तेहान ले रहा था? मैंने ऐसा कौनसा जुर्म कर दिया था? किया था..मेरे रहते,मेरी बिटियाको ज़ुल्म सहना पड़ा था..मुझे क़ीमत चुकानी थी...पर मेरा मन माने तो ना...) अब आगे पढ़ें...
बिखरे सितारे(अध्याय २) १६ हर खुशी हो वहाँ..
मै अपनी दिनचर्या केवल यंत्रवत करती रहती..कहीं कोई उमंग नहीं..कैसे कैसे सपने,कैसे,कैसे अरमान संजोये थे मैंने अपनी बिटिया के ब्याह को लेके..दादी परदादी से मिले नायाब वस्त्र,कमख्वाब, लेसेस,हाथ से काढ़े हुए,कामदार दुपट्टे तथा लहेंगे...क्या कुछ मैंने संभाल के रखा हुआ था अपनी बिटिया के लिए...उसमे से मै उसकी चोलियाँ सीने वाली थी..मेरी बेटी एक अलाहिदा,हट के दुल्हन बननेवाली थी..और यहाँ तो उसके ब्याह में मेरी शिरकत भी मुमकिन न थी...मै अंदरही अन्दर घुट के रह गयी..
ब्याह के पश्च्यात उसका फोन तथा मेल आया..मैंने पूछा," बेटे ,तुम यहाँ से जो साड़ियाँ ले गयी थी उसमे से कौनसी पहनी? और केशभुषा कैसे की?"
उसका उत्तर: "ओह माँ! साड़ी पहननेकी किसे फ़ुरसत थी? मैंने तो pant टी-शर्ट पहना था..और बाल पोनी टेल में बांधे थे!"
इस पर मैंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही की...उसे आशीर्वाद देते हुए एक मेल लिखी..जिसमे एक हिंदी फ़िल्मके गीतकी चंद पंक्तियाँ दोहराईं....असल में यह गीत नायिका अपने प्रीतम को याद करते हुए गाती है पर ऐसी भावनाएं कोई भी,किसीभी अपने के ख़ातिर ज़ाहिर कर सकता है..
"हर खुशी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
चाँद धुन्दला सही,ग़म नही है मुझे,
चांदनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
रौशनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे.."
लिखते,लिखते मेरी आँखें भर भर आयीं..केतकी के जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ था..मै न सही मेरी दुआ तो पलपल उसके साथ थी..हे ईश्वर! इसे अपने प्रीतम का, अपने पति का खूब प्यार मिले..जिस प्यार से वह अपने बचपन और लड़कपन में महरूम रही,वो सब दुगुना उसके जीवन में मिले..
उन दोनों ने घर लिया और मैंने यहाँ से पार्सल भेजने शुरू किये..कितनी चीज़ें अपने हाथों से उसके घर के लिए बनायीं थीं..कितनी अनोखी चीज़ें मैंने विविध प्रदर्शनियों में से इकठ्ठा कर के रखी थी..पिछले कुछ बरसों से..घरका फर्नीचर छोड़ सब कुछ....उसे पसंद आती तो मै ख़ुश हो लेती..
एक दिन उसकी मेल आयी," माँ! राघव के घरवाले चाहते हैं,की,वैदिक विधी से हम दोनों का ब्याह हो...इस साल १५ दिसंबर आखरी शुभ महूरत है..ऐसा राघव की दादी ने कहा है..विधी तो उनके शहर में होगी...उन्हें वहीँ का पंडित चाहिए...अब आपलोग उन लोगों से संपर्क कर समन्वय कर लें...विधी के केवल ३ दिन पूर्व हम आ पाएँगे.."
मेरा उदास मन खुशी से झूम उठा..! मेरे कुछ तो अरमान पूरे होंगे...मेरी बिटिया मेरे सामने दुल्हन बनेगी...मैंने इस दिन के खातिर क्या कुछ संजोया/बनाया नही था..हमारे सारे सगे सम्बन्धियों,रिश्तेदारों,दोस्तों को, मै तोहफा देना चाह रही थी...पिछले कुछ सालों से , चीज़ें इकट्ठी करती चली आयी थी..हरेक को अलग, उसके मन पसंद का तोहफा मुझे देना था..थोक में कुछ नहीं..हाथ से बनी चद्दरें,भित्ती चित्र......अलग,अलग जगहों से ली हुई साड़ियाँ...मैंने अपनी कमाई से खरीदे हुए सोने के सिक्के,जिनसे मै बेहद पारंपरिक और अलाहिदा गहने गढ़ने वाली थी..केतकी के लिए और करीबी रिश्तेदारों के लिए..जहाँ कहीं इतने सालों में गौरव के तबादले हुए थे...उनके लिए वस्त्र...चाहे वो अर्दली हो या महरी....शादी के पूर्व सब को उनके तोहफे पहुँचाने का मेरा इरादा था..फेहरिस्त तैयार थी..जिस किसी शहरमे जो कोई जाने वाला होता,उसके हाथों मै उपहार भेजने लगी..
अपना घरभी सजाने संवार ने लगी.. हरेक कोना सुन्दर दिखना था..छोटी,छोटी चीज़ों से..जैसे candle स्टैंड,या साबुनदानी...या baath mat ..सुरुचि , नफासत और परंपरा मद्देनज़र रखते हुए..एक विशिष्ट बजेट के भीतर...घरके मध्य खड़ी हो,मै हर दीवार,हर कोना निहारती...और उसे निखरने के तरीके ईजाद करती..कब,कहाँ कौनसी चद्दरें बिछेंगी ...अपने हाथों से पुष्प-सज्जा करुँगी...हमारे परिधानों के साथ घर का रूप भी रोज़ बदलेगा...अचानक एक शांत लम्हा मुझे याद दिलाता,'पगली! संभाल खुद को..बिटिया के ब्याह के बाद तक़रीबन चार माह के अन्दर गौरव का retirement था..तेरा डेरा उठेगा..सब रौनक़ ख़त्म होते ही तुझे सारी सजी सजाई दीवारें नोंच लेनी होंगी..' लेकिन पल भरमे उस ख़याल को मनसे हटा देती...
ओह! बिटिया को मै हर दिन का ब्यौरा लिखती..एक दिन उसने लिखा," अब बस भी करो माँ!"
मैंने कहा, जीवन में यह पल बार बार आनेवाले नही.." जोभी है,बस यही इक पल है..कर ले तू पूरी आरज़ू...." कल किसने देखा है? कलकी किसको खबर?
और कितना सच था...आनेवाले कलमे क़िस्मत ने मेरे लिए क्या परोसा था? मुझे कतई अंदाज़ नही था...
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