मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

दीपा 11

( गतांक : मै केबिन में गयी तो डॉक्टर बोले, मै बिना किसी लागलपेट के सीधी बात कह रहा हूँ.तुम्हारे  पति को AIDS है. उसके बचने की उम्मीद नही है. लेकिन तुम्हें तथा तुम्हारे बच्चों को तुरंत अपना चेकअप कराना होगा.HIV positive होने की शक्यता नकारी नही जा सकती...'
" मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी!  हे भगवान्! बस इतनाही होना बचा था? जाते,जाते हमें ये आदमी  क्या तोहफा दे चला??"
अब आगे....)


दीपाके जीवन का वो सब से भयानक दिन था....पूरी रात,वो तथा बच्चे सो नहीं पाए...एक दूसरे को बिलग के रोते रहे!

अगले दिन खून की जाँच करानी थी...विधी का क्या विधान था??किस जुर्म की सज़ा मिलनेवाली थी? लेकिन अगले दिन दीपा के पती का निधन हो गया. अब जाँच और आगे टल गयी. समाज के नियम थे जो निभाने थे. 
दीपा के येभी ध्यान में आया की बैंक में पैसा बिलकुल नहीं था! गाडी तो दीपा अपने मायके में थी,तभी बिक चुकी थी! नौकरों ने आना बंद कर दिया. सब ज़ेवरात कहाँ गए,उसे कभी पता नहीं चला. बैंक के locker में कुछ भी नहीं था! यहाँ तक की दाल रोटी के भी लाले पड़ते दिखाई देने लगे! 


मकान किराए का था. मकान मालिक भला आदमी था. उसने रसोई में सामान भरवा दिया. ना जाने उसे कैसे इन सब हालात का पता चला?

पति के निधन के दो हफ़्तों बाद खून की जाँच करने की मोहलत मिली. दो दिनों बाद रिपोर्ट मिलनी थी. दीपा और बच्चों का डर के मारे हाल बुरा था! एक तो आर्थिक तौर से पति ने उन्हें बिलकुल निर्धन करके छोड़ा था!ऐसे में HIV positive आता है तो समाज भी धुत्कार देगा!! क्या होगा  भविष्य?कबतक ज़िंदगी मुहाल होगी? और इलाज के लिए पैसे कहाँ से आयेंगे??सारे बुरे विचार दीपा के दिलो दिमाग में आते रहे...कहते हैं,की,जो अपना मन अपने बारे में सोच लेता है,उतना बुरा तो दुश्मन भी नहीं सोच सकता!

ईश्वर की अनंत कृपा की जाँच निगेटिव आयी!इतने दिनों में एक तो अच्छी बात हुई! मकान मालिक ने तकरीबन छ: माह घर में बिना किराये के रहने की इजाज़त दे दी. दीपा ने १५००/- माह की नौकरी पकड़ ली और स्कूल में पढ़ते बच्चों ने ७५०/- रुपये माह की नौकरी कर ली! किसी तरह बच्चों के इम्तेहान पार पड़ गए...

अब मकान मालिक की बेटी हाथ धोके पीछे पड़ गयी घर खाली करने के लिए! २५००/- रुपये किराये का एक फ्लैट लिया जिसका छ: माह का किराया दीपा के भाई ने भर दिया.

इत्तेफ़ाक़ से दीपा के पति का एक plot था,जो उसके रहते बिक नहीं पाया था. दीपा के हाथ वो कागज़ात लग गए! दीपा के पिता ने अपनी ओरसे पूरी सहायता कर उस plot को दीपा के नाम करवा लिया. अब उसे बेचना और वो भी जल्दी,बेहद ज़रूरी था. इससे पहले की उसपे अन्य कोई अपना अधिकार माँग बैठे!!  

दीपा की  बहन भी अपनी तरफ से दीपा को आर्थिक तौरसे थोड़ी बहुत मदद करही रही थी. किसी तरह दौड़ धूप करके दीपा के भाई ने वो plot बिकवा दिया.... अब समय था,एक हलकी-सी चैन की साँस लेने का,की दीपा का भाई हार्ट attack से चल बसा ! और इस सदमे से परिवार अभी उभरा नहीं था,की, दीपाका बहनोई एक हादसे में चल बसा! दीपा के माता पिता पे अब और  दो बेवाओं की ज़िम्मेदारी आन पडी....एक अपनी बहू...एक अपनी बेटी,जो पती के निधन के बाद अपने मायके चली आयी. दीपा के सभी सहारे टूटते  गए!तीन बहन भाई.....और एक भी परिवार सम्पूर्ण नहीं...सुखी नहीं!

दूसरी ओर दीपा को पता चला की,नरेंद्र अभी भी उसकी आस लगाये बैठा है! 

क्रमश:






















मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

दीपा 10

( गतांक : नरेंद्र ने मुझे आश्वस्त किया!वक़्त इतना बेरहम नही हो सकता! हमें बार,बार मिलाके जुदा नही कर सकता!हमारा भविष्य अब एक दूजे से जुदा नही था! उसने मुझे पूरा यक़ीन दिलाया!
कितने महीनों बाद मुझे एक निश्चिन्तता भरी नींद  आयी!बस अब कुछ ही रोज़ का फासला था,मुझमे और मेरे सुनहरे,हँसते भविष्य में!मैंने अपने भयावह वर्तमान पे,नरेंद्र के सहारे विजय पा ली थी....!!".....अब आगे.)

दीपा के लिए वो दिन बड़े ही स्वप्निल थे! नशीले थे! नरेंद्र का संबल जो प्राप्त था! पर क़िस्मत को ये खुशियाँ मंज़ूर नही थीं! दीपा के पती ने बच्चों को हथिया लिया! और दीपा बच्चों के बिना रह नही सकती थी....बच्चे उसकी प्राथमिकता थे! अगर उसका पति एक अच्छा बाप होता तो भी और बात होती. वो तो बेहद सख्त,बेदर्द और बेज़िम्मेदार पिता था. पिता की दहशत के कारण बच्चों का क्या भविष्य होता,ये तो दीपा सोच भी नही सकती थी!

नरेंद्र का ख़याल छोड़ बेरहम यथार्थ को स्वीकार करने के अलावा उसके पास कोई चारा नही बचा. नरेंद्र फिरभी अपनी ज़िद पे अटल था..."मै इंतज़ार करुँगा...!" बार,बार दीपा को वो यही कहता रहता. लेकिन अब दीपा का निश्चय हो चुका था. उसने भी नरेंद्र को अपना अलग  भविष्य बनाने के लिए गुहार लगाना जारी किया!

अब दीपा का जीवन उसी नरक में सिमट के रह गया. वही मारपीट,वही मानसिक छल. पर दीपा अपने मक़सद से हिली नही. बच्चों की पढ़ाई और उनकी परवरिश....इसके अलावा अब जीवन में कुछ शेष नही था.

बच्चों को कई बार अपनी माँ के खिलाफ भड़काया जाता....कमरेमे बंद किया जाता,ताकि वो माँ से मिल न सकें....बच्चे हालात को खूब समझते थे. वो छुप-छुपके माँ का जनम दिन मनाते! मात्रु-दिवस मनाते!दीपा के लिए अब यही काफ़ी था.

एक बार दीपा को उसके पतिने लोहे की सलाख से  इतनी बेरहमी से पीटा,की,वो खूना खून हो गयी. उस वक़्त बच्चों ने अपनी माँ से कहा," माँ! हमें तुम्हारी ज़िंदगी प्यारी है! तुम्हारा ज़िंदा रहना हमारे लिए सब से अधिक मायने रखता है! हमारी पढ़ाई की चिंता किये बिना तुम चुपचाप,रात को यहाँ से भाग निकालो!"

उसी रात, दीपा, छिपते छिपाते घर से निकल गयी. वो रात उसने अपने एक दूर के रिश्तेदार के घर गुज़ारी. वो लोग उसे डॉक्टर के पास ले गए. टिटनस का इंजेक्शन लगवाया,तथा ज़ख्मों का इलाज कराया. बातों बातों में दीपा ने कहा:
" अडोस-पड़ोस के लोग कई बार मुझे ही दोषी पाते! उन्हें लगता, ये आदमी परिवार को इतना घुमाने फिराने ले जाता है! त्योहारों पे पत्नी को गहनों से लाद देता है! इतना शौकीन है! गाडी है,बंगला है,नौकर चाकर हैं...किसी बात की कमी नही है! ज़रूर कोई तो अंदरूनी बात होगी,जो ये आदमी इतना गुस्सा खा जाता है! कहीँ तो दीपा का क़ुसूर होगा!
लोगों को असलियत क्या पता? और मै किसे बताने जाती? कौन विश्वास रखता? मेरे दो बच्चे जो हो चुके थे!"

ऐसी ही नीरस ज़िंदगी बीतती गयी. चंद हफ्ते दीपा घर से दूर रहती,फिर बच्चों की ख़ातिर लौट आती. उसकी अपनी कोई आमदनी तो थी नही! ना कोई नौकरी करने की इजाज़त उसे देता!दीपा ने आगे बताया:
" इसी तरह एक बार बहुत पिटने के बाद मै माँ के घर चली गयी. एकाध माह हो चुका था,की, ख़बर मिली,मेरे पति बहुत बीमार हैं. अस्पताल में भरती कराया गया है. अब के बच्चे भी डर गए. बच्चों ने मुझे बुला लिया. मै चली गयी.
जिस रोज़ अस्पताल पहुँची,उसी रोज़ डॉक्टर ने मुझे अपने केबिन में बुलाया. ....ये कह के की उन्हें मुझ से कुछ बहुत ज़रूरी बात अकेले  में करनी है.पति की गंभीर हालत तो मुझे दिख ही रही थी. पैसा पानी की तरह बह रहा था. मै केबिन में गयी तो डॉक्टर बोले, मै बिना किसी लागलपेट के सीधी बात कह रहा हूँ.तुम्हारे  पति को AIDS है. उसके बचने की उम्मीद नही है. लेकिन तुम्हें तथा तुम्हारे बच्चों को तुरंत अपना चेकअप कराना होगा.HIV positive होने की शक्यता नकारी नही जा सकती...'
" मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी!  हे भगवान्! बस इतनाही होना बचा था? जाते,जाते हमें ये आदमी  क्या तोहफा दे चला??"
क्रमश:


शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

दीपा9

(गतांक :दीपा:" मैंने डिवोर्स  लेने से इनकार कर दिया. और चाराही नही था...!"

मै:" और नरेंद्र?? उसे क्या कहा??"

दीपा:" दिल पे पत्थर रख के मुझे उसे इनकार करना पडा....जहाँ तक बच्चों का सवाल था,मै भावावेग में कोई भी निर्णय लेना नही चाहती थी..."

मै:" ओह! तो नरेंद्र की क्या प्रतिक्रया हुई?"

दीपा:" नरेंद्र ने कहा,मै इंतज़ार करुँगा!"          अब आगे)

दीपा और मै घंटों बतियाते रहते.हम दोनों ही अतीत में खो जाते.दीपाके जीवन में नरन्द्र के प्यारकी शक्ती अथाह थी. इन सब घटनाओं के घटते,घटते नरेंद्र उसे मिलने आया. दोनों की मुलाक़ात,दीपाकी सहेली के घर हुई. उन्हें मिले कई माह हो चुके थे.दीपा को सामने पाते ही उसने बाहों में भर लिया!दीपा से कहा:"मैंने तुमें छोड़ देने के लिए नही थामा है.तुम मेरी ज़िंदगी का अविभाज्य हिस्सा बन चुकी हो!हरपल तुम्हारे संग हूँ.....रहूँगा!"
दीपा:" मैंने उसकी बाहों में अपनेआपको कितना महफूज़ पाया मै बता नही सकती!लगा,सारी मुश्किलें,सवालात अपनेआप हल हो जायेंगे! थोड़े से विश्वास की ज़रुरत है!नरेंद्र ने बच्चों को लेके मुझे निश्चिन्त करने के ख़ातिर कहा,की,वो अपनी जायदाद एक हिस्सा तुरंत बच्चों के नाम कर देगा और मुझे trustee बना देगा! बच्चों  के भविष्य को लेके मुझे होनेवाली हर चिंता का उसने निवारण कर दिया!
कितनी शक्ती थी उसके प्यार में! मेरा हर डर काफूर हो गया!सब कुछ सुनहरा नज़र आने लगा!

हमने जल्द से जल्द ब्याह कर लेने का निर्णय ले लिया!मै बादलों  पे उड़ने लगी.
ये बात जब मेरे पति के कानों पे जा पहुँची तो उसने अपना पैंतरा बदल दिया!उसने फिर न्यायलय में गुहार लगाते हुए कहा,की, बच्चों की माँ बच्चों के पालन पोषण ज़िम्मा नही ले सकती. वो कमाती नही, तो उनका भरण पोषण कैसे करेगी?बच्चों का हक़दार उसने खुद को बताया!
घबरा के मै फिर एकबार नरेंद्र की बाहों में सिमट आयी!वही रास्ता सुझाएगा.....सवालों के जवाब वही ढूँढ लेगा....
नरेंद्र ने मुझे आश्वस्त किया!वक़्त इतना बेरहम नही हो सकता! हमें बार,बार मिलाके जुदा नही कर सकता!हमारा भविष्य अब एक दूजे से जुदा नही था! उसने मुझे पूरा यक़ीन दिलाया!
कितने महीनों बाद मुझे एक निश्चिन्तता भरी नींद  आयी!बस अब कुछ ही रोज़ का फासला था,मुझमे और मेरे सुनहरे,हँसते भविष्य में!मैंने अपने भयावह वर्तमान पे,नरेंद्र के सहारे विजय पा ली थी....!!"
क्रमश:









बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

दीपा 8

( गतांक: और फिर नरेंद्र से बात होती. उसके ख़त मुझे एक सहेली के पते पे आते. उन्हें पढ़ती...उसकी बातें सुनती,तो सारा डर...अनिर्णय की अवस्था हवा हो जाती...लगता,उसके प्यार में वो शक्ती है,जिसके सहारे मै कठिन से कठिन समय का, मुसीबतों का मुकाबला कर सकती हूँ....यही आभास,यही विश्वास मेरे जीने का सहारा बन रहा था. नरेंद्र से दूर रहते हुए भी ज़िंदगी नरेंद्र से जुड़ गयी थी. नरेंद्र मेरा इंतज़ार कर रहा था....और कहता,की,ता-उम्र करेगा! और मुझे उसपे पूरा विश्वास था!उसका ख़याल आते ही मनसे सारी दुविधा दूर हो जाती. एक नयी फुर्ती नस नसमे दौड़ जाती...." अब आगे)

जो भी था,दीपा कश्मकश में ज़रूर थी. अहमदनगर में रहते हुए उसे सोचने का खूब समय मिला.......और  वो भी स्थिती से बाहर निकलके सोचने का...कौनसा पलड़ा भारी पड़ने वाला था? नरेंद्र के प्यार का या सारासार विचार शक्ती का? क्या सही था?

जितना अधिक गहराई  में जाके दीपा सोचती गयी, उतना अधिक दिलो-दिमाग चकराता गया...........

दीपा : " इन्हीं सब बातों के चलते मैंने डिवोर्स केस फ़ाइल कर दिया. माँ और पिता का वैसे तो विरोध था,लेकिन मै रोज़ रोज़ के पिटने से तंग आ चुकी थी. आखिर बरदाश्त की भी एक सीमा होती है. मुझे एक आस की किरन नज़र आ रही थी. शायद नरेंद्र के साथ जीवन बेहतर हो......!
केस चलता रहा महीनों...और अंत में जब फैसला सुनाया गया तो मै दंग रह गयी......मुझे मेरे पतिकी ओरसे केवल ३००/- माहवार मिलनेवाला था! मै और दो बच्चे उसमे कैसे गुज़ारा करते?"

मै: " लेकिन बच्चों की ज़िम्मेदारी तो नरेंद्र निभाने के लिए तैयार था! "

दीपा:" हाँ! तैयार था....पर ज़िंदगी का क्या भरोसा? गर भविष्य में हमारे रिश्तेमे खटास पड़ जाए तो? गर हमें और बच्चें हों और नरेंद्र के मन में तब पछतावा हो ,फिर क्या??मेरा लोगों परसे, रिश्तों परसे,जीवन परसे विश्वास उठता जा रहा था....कमसे कम अपने बच्चों के लिए मै एक सुरक्षित भविष्य चाहती थी..."

मै:" तो फिर?? हमें कहीँ तो विश्वास करना ही पड़ता है! जीवन में कुछ पाने के लिए कुछ दाँव पे भी लगाना पड़ता है!"

दीपा:" ये सब किताबी बातें हैं! हक़ीक़त की धरातल पे आके देखो तो मेरे बच्चे अपनी पिता की जायदाद से महरूम रह जाते,गर मै न्यायालय का फैसला मान लेती....उनका भविष्य, उनकी पढ़ाई लिखाई....इन सब बातों की मुझे सब से अधिक फ़िक्र थी.उनका क्या दोष था??मै अकेली उन्हें वो सब देनेमे समर्थ नही थी,जिसके वो हक़दार थे! "

मै:" तो क्या निर्णय लिया तुमने?"

दीपा:" मैंने डिवोर्स  लेने से इनकार कर दिया. और चाराही नही था...!"

मै:" और नरेंद्र?? उसे क्या कहा??"

दीपा:" दिल पे पत्थर रख के मुझे उसे इनकार करना पडा....जहाँ तक बच्चों का सवाल था,मै भावावेग में कोई भी निर्णय लेना नही चाहती थी..."

मै:" ओह! तो नरेंद्र की क्या प्रतिक्रया हुई?"

दीपा:" नरेंद्र ने कहा,मै इंतज़ार करुँगा!"
क्रमश: