गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

दीपा 5

( गतांक: वो रात मेरी आँखों ही आँखों में गुज़री. डर,सदमा,गुस्सा....सब कुछ इतना था की, बता नही सकती. सुबह जब मैंने मेरे पतिसे रातवाली घटना के बारे में कहना चाहा तो जनाब ने कहा," अरे! वो तो मैही था! तुम्हें इतनी भी अक्ल नही?"
मैंने अपना सर पीट लिया!! ज़ाहिरन,उस आदमी को मेरे पति की शह थी. उसकी मर्ज़ी के बिना वो आदमी ऐसा क़दम उठाने की हिम्मत नही कर सकता था! "

किस्सा सुन मै दंग रह गयी! उफ़! कैसा पति था? और ये सब करने करवाने की वजह हम दोनों की  समझ के परे!!
अब आगे...
आगे बढ़ने से पहले आप सभी को नए साल की ढेरों शुभकामनाएँ देती हूँ!)

दीपाने कुछ देर रुक फिर आगे की बातें बताना शुरू कर दीं...
दीपा: " जब हम घर लौटे तो मैंने मेरी एक सहेली को इस घटना के बारेमे बताया. वह भी हैरान रह गयी...लेकिन उसने एक बात की ज़िद की....मैंने जाके स्त्री रोग विशेषग्य  को ज़रूर मिलना चाहिए...वह स्वयं मुझे ले जाने को तैयार थी.डॉक्टर से  उसकी अच्छी खासी  वाकफ़ियत  थी. वैसे मेरा भी किसी तग्य से बात चीत करने का बड़ा दिल कर रहा था. मै राज़ी हो गयी. "
मै:" तो तुमने सब कुछ अच्छे से डॉक्टर को बताया?"
दीपा:" हाँ! डॉक्टर ने मुझ से बहुत अलग,अलग सवाल किये. मेरी शादी से लेके उस घटना तक, उस ने सैकड़ों बातों का ब्यौरा लिया.
हम पति-पत्नी के शारीरिक संबंधों को लेके भी उसने बहुत सारे सवाल पूछे. सच कहूँ,तो मुझे इन संबधों के बारे में बहुत कम जानकारी थी. उसकी बातों परसे मुझे एहसास हुआ की,हम दोनोमे शारीरिक सम्बन्ध ना के बराबर हैं!
तक़रीबन एक घंटे से अधिक बात चीत के पश्च्यात उसने कहा, तुम्हारा पति homosexual है. मैंने तो ये शब्द ही तब तक नही सुना था! 
एक ओर मुझे अपने माता-पिता पे बेहद गुस्सा आ रहा था,की, उन्हों ने बेहद जल्दबाजी में मेरा रिश्ता तय कर दिया! जब कभी मैंने उन्हें मुझपे होनेवाले अत्याचारों   के बारेमे बताना चाहा,उन लोगों ने अनसुना कर दिया.
मैंने इस घटना के बारे में भी उनको बताने का निर्णय ले लिया."
मै:" तो तुमने बताया? और उनकी क्या प्रतिक्रया हुई?"
दीपा:" बताया. मैंने जी जान तोड़ के बताया. रो,रो के कहा की इस व्यक्ती से मेरा पीछा छुड़ाया जाय. मेरे मामा भी वहीँ थे. मेरे माता पिता को लगा की,मै सब कुछ मन गढ़ंत बता रही हूँ! बल्कि मेरे मामा ने उनसे कहा, हमारी अपनी बेटी है...इतनी जी जान से बता रही है,तो झूठ कैसे हो सकता है?"
मै:" हद है! तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारा विश्वास नही किया?"
दीपा:" नही, मेरे माता पिता को लगा की मै अपनी शादी निबाहना नही चाहती,इसलिए मनगढ़ंत किस्सा बयाँ कर रही हूँ!मुझे उस वक़्त इतना गुस्सा आया! मैंने उनसे कहा,एक दिन ये आदमी बेहद बुरी मौत मरेगा! एक दिन आपको विश्वास करना ही पडेगा,लेकिन तब तक बड़ी देर हो चुकी होगी...और मेरी ये तिलमिलाके कही गयी भविष्य वाणी सच निकली.....!खैर!

मेरे बारे में ये बात मेरी उस सहेली ने मेरे बचपन के दोस्त,अजय को भी बता दी. अजय ने ब्याह नही किया था. वो अचानक एक दिन मेरे पास पहुँचा और कहने लगा, तुम अपने बच्चों को लेके इस घर से निकल पड़ो. छोड़ दो ऐसे आदमी को...अलग हो जाओ...मै तुम से ब्याह करूँगा....अब तो मेरे पास अच्छी खासी नौकरी भी है. तुम्हारे बच्चों को पिता का प्यार भी मिलेगा....!"
मै:" ओह! अजय ने तो सच्चा प्यार निभाया! तुम्हारे साथ  को परे कर खड़ा हो गया! आगे क्या हुआ?"
दीपा:" बताती हूँ...बताती हूँ...!"
क्रमश:

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

दीपा 4

( गतांक: पती को अपना न्यूनगंड खलता था और इस बात को छुपा के रखने की चाहत में वो दीपा पे बात बेबात बरस पड़ता. उस के लिए  ऐसा करना मर्दानगी थी....उस के इसी न्यूनगंड ने एक बार उससे बड़ी ही भयानक बात करवा  दी. कम से कम दीपा के पास" उस " घटना के स्पष्टीकरण के लिए और कोई पर्याय नही. उस घटना का विवरण मै दीपाके शब्दों  में देना चाहूँगी.
अब आगे पढ़ें. देरी के लिए माफी चाहती हूँ. व्यस्तता कुछ ज़्यादाही बढ़ गयी है.)

मेरी तथा दीपा की एक दिन बड़ी अन्तरंग बातें चल रहीं थीं. उसी दौरान उसने मुझे इस घटना के बारेमे बताया.उसी के शब्दों में बता रही हूँ.
दीपा: " एक बार हमलोग बच्चों को लेके गोआ घूमने गए. वापसी  पे रत्नागिरी रुकना था. बस से सफ़र कर रहे थे. मै दोनों बच्चों के साथ सब से पिछली सीट पे बैठी थी. मेरे पती अलगसे,दो सीट छोड़ के बैठे थे. देखने वाले सहजही अनुमान लगा सकते होंगे की, हम पती-पत्नी में कुछ ख़ास लगाव नही है. खैर.

मेरी साथवाली सीट पे एक आदमी आके बैठ गया. मुझसे ज़रुरत से ज़्यादा सटके. मुझे उसकी हरकत बड़ी घिनौनी लगी. मैंने मेरे बेटे को अपनी जगह बिठाया और उसकी सीट पे मै बैठ गयी.
एक जगह बस रुकी तो मेरे पती ने उस आदमी से बड़े दोस्ताना तरीकेसे बातचीत शुरू कर दी. मन ही मन मुझे बेहद गुस्सा आया. लगा,कैसा इंसान है! देख रहा था,की, वो आदमी मुझसे कैसे सटके बैठा था,फिरभी उस पे इतना प्यार उमड़ रहा था!
मैंने बच्चों को कुछ खिलाया पिलाया और हमारा सफ़र जारी रहा. अब के वो आदमी मेरे पती के साथ बैठ गया.

हम रत्नागिरी पहुँच के एक होटल में ठहरे. वो आदमी भी उसी होटल में रुका. शाम को वो तथा मेरे पति एक साथ घूमने भी गए. होटल कुछ ख़ास आरामदेह नही था. लेकिन मुझे इस बात की अधिक परवाह नही रहती,क्योंकि नयी,नयी जगहें देखना मुझे खुद को बड़ा भाता था.

अगले दिन रात को जब हम चारों हमारे कमरेमे सो रहे थे तो अचानक से मेरी आँख खुली. मुझे लगा मानो मेरे बिस्तरपे कोई है! जब तक मै सम्भलती तब तक वो व्यक्ती मेरे जिस्म पे औंधा लेट गया. मै चीखना नही चाह रही थी. डर था की  ,कहीँ बच्चे उठ गए तो बेहद घबरा जायेंगे. मैंने अपना पूरा ज़ोर लगा के उस व्यक्ती को धक्का लगाया. उसी हडबडी में मेरे सिरहाने रखा हुआ पानी का घडा धडाम से गिर पडा. उस पे स्टील का ढक्कन तथा ग्लास था. उसका भी काफ़ी ज़ोरसे आवाज़ हुआ. तभी कमरे के बाहर के गलियारे में maneger   ने बत्ती जलाई और पूछा, सब ठीक तो है?

वो आदमी छलांग लगा के हट गया और दरवाज़े के पासवाली दीवार को सटके खड़ा हो गया . फिर दरवाज़ा खोलके बाहर निकल गया. मै बच गयी. जानती थी,की,ये बात मेरे पती को उसी समय बताने से क़तई फायदा नही. और ऐसा हो नही सकता था,की, घड़े की आवाज़ से वो जग ना गए हों! मै हैरान हुई की,बच्चे कैसे सोते रहे!
वो रात मेरी आँखों ही आँखों में गुज़री. डर,सदमा,गुस्सा....सब कुछ इतना था की, बता नही सकती. सुबह जब मैंने मेरे पतिसे रातवाली घटना के बारे में कहना चाहा तो जनाब ने कहा," अरे! वो तो मैही था! तुम्हें इतनी भी अक्ल नही?"
मैंने अपना सर पीट लिया!! ज़ाहिरन,उस आदमी को मेरे पति की शह थी. उसकी मर्ज़ी के बिना वो आदमी ऐसा क़दम उठाने की हिम्मत नही कर सकता था! "

किस्सा सुन मै दंग रह गयी! उफ़! कैसा पति था? और ये सब करने करवाने की वजह हम दोनों की  समझ के परे!!
क्रमश:

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

दीपा 3

( गतांक: दीपाको समझ में आने से पहले वो परिणीता बन गयी! लड़के के बारे में किसी ने ख़ास खोज बीन की नही. पैसेवाला घर था,इसी में सब ख़ुश थे. वैसे भी लडकी के लक्षण ठीक नही थे !!अगर बाहर के लोग जान जाते तो और मुसीबत होती!

अजय बेहद निराश हो गया. लेकिन उम्र एक ही होने के कारण वह  नौकरी भी नही कर सकता था! उसकी तो पूरी पढ़ाई होनी थी! पर उसने आनेवाले सालों में दीपाका बेहद अच्छा साथ निभाया! उसे हमेशा महसूस कराया की उसकी जद्दोजहद में वो अकेली नही है. अब आगे पढ़ें....)


दीपा ज़िंदगी की कई ज़मीनी हक़ीक़तों   से अनजान थी. अट्ठारह साल की उम्र में वो ब्याहता हो गयी. हनीमून के लिए वो पति-पत्नी कश्मीर गए.उस के लिए कश्मीर घूमना ही बहुत बड़ी बात हो गयी. वैसे भी उसे घूमने  का शौक़ था. यही शौक़ उस के पती को भी था.

कश्मीर से लौटे तो दीपा को आगे की पढ़ाई करने की ससुरालवालों ने इजाज़त दे दी. लेकिन महाविद्यालय जाके नही,बाहर से.उसने इतिहास विषय ले लिया. उसे कत्थक नृत्य का शौक़ था. उस ने वो भी सीखना जारी रखा.

इन दिनों में उसे जिस एक बात का परिचय हो गया वो था पती का बेहद गुस्सैल मिज़ाज. कब किस बात पे बिगड़ जाये पताही नही चलता. सिर्फ इतना ही नही....उसका दीपा पे हाथ भी उठ जाता. ....और कई बार हाथ में गर कुछ चीज़ होती तो वो भी उसके शरीर पे पड़ जाती. दीपा सुन्दर थी. ये बात भी उस के पती को असुरक्षित महसूस करा देती. सांवली-सी दीपा के दाहिने गाल पे पढने वाला भंवर उस का सब से बड़ा आकर्षण था.....और उस के लम्बे ,घने बाल!

हम उम्र सहेलियाँ और पड़ोसनों से धीरे धीरे दीपा को समझ में आने लगा की उसका पती गे है. तब तक सम लैंगिकत्व  ये बात भी उसे पता नही थी. आगे चलके उसे एक लडकी और एक लड़का हुआ. लेकिन दीपा के शब्दों में शायद दो बार उस पे उसके पती ने बलात्कार कर दिया! पती को अपना न्यूनगंड खलता था और इस बात को छुपा के रखने की चाहत में वो दीपा पे बात बेबात बरस पड़ता. उस के ऐसा करना मर्दानगी थी....उस के इसी न्यूनगंड ने एक बार उससे बड़ी ही भयानक बात कर दी. कम से कम दीपा के पास" उस " घटना के स्पष्टीकरण के लिए और कोई पर्याय नही. उस घटना का विवरण मै दीपाके शब्दों  में देना चाहूँगी.

क्रमश:

रविवार, 12 दिसंबर 2010

दीपा2

सबसे पहले माफी चाहती हूँ की इतने दिनों तक दूसरा भाग नही लिखा. ख़राब नेट और तबियत के चलते ये खाता हुई है!

( गतांक:" तो इतनी जल्दी शादी क्यों कर दी गयी तुम्हारी? ऐसी क्या परेशानी आन पडी थी तुम्हारे घरवालोंको?"...मैंने पूछ ही लिया..
"हाँ...बात कुछ ऐसी ही थी..."
दीपा ने सिलसिलेवार बताना शुरू कर दिया....
अब आगे).

दीपा बताने लगी तो अपने बचपन में खोती चली गयी. या यूँ कहूँ,बचपने में!!स्कूल के दिनों में उसका परिवार ऐसी जगह पे रहता था,जहाँ मकान से मकान जुड़े हुए थे...उनके आँगन भी जुड़े हुए थे. बच्चे हर समय पड़ोसियों के आते जाते रहते. माहौल ऐसा रहता जैसे एक बड़ा-सा परिवार इकट्ठे रह रहा हो.गरमी की रातों में सब के बिस्तर आँगन में लगते और एक दूसरे से गप लड़ाते हुए सब नींद की आगोश में चले जाते!

१० वी क्लास तक तो लड़के लड़कियाँ सब इकट्ठे   खेलते ,इकट्ठे स्कूल जाते,पुस्तकालय जाते. आपस में किताबों का आदान प्रदान चलता. लेकिन १० वी क्लास में आते ही दीपाकी माँ ने इकट्ठे खेलने कूदने पे बंदिश लगा दी.

दीपाके पड़ोस में एक लड़का रहता था,जो था उसी क्लास में लेकिन पढता किसी अन्य शहरमे. १० वी क्लास के बाद जब गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हुई तो पुस्तकालय से किताबें लाने का ,आपस में बाँट के पढने का सिलसिला शुरू हो गया. तब ये लड़का भी पड़ोस में आया हुआ था. दीपा की सहेली ने दीपाकी एक किताब उस लड़के को दे रखी थी. दीपा ने जब वो वापस चाही तो सहेली ने कहा,पड़ोस से ले लो.
दीपा डर गयी. माँ ने लड़कों से बोलचाल मेलजोल बंद जो कर रखा था. सहेली ने दीपाके घर से उस लड़के को आवाज़ लगा के पूछा ," किताब कब तक पढके ख़त्म होगी?'
लड़का:" हो गयी...ले जाओ चाहो तो...!"
सहेली:" बड़ी जल्दी हो गयी?"
लड़का:" हाँ! हो गयी...ले जाओ और दीपा को दे दो.लेकिन उसे कहो बाद में फिर  एक बार मुझे ही दे दे!!"

दीपा जब किताब पढने बैठी तो कुछ पन्ने पलटने के बाद उसमे से एक चिट्ठी निकली. उस पे लिखा हुआ था," दीपा,मै तुम से बहुत प्यार करता हूँ! जवाब ज़रूर देना. किताब मुझे ही लौटाना. किसी और के हाथ ना लगे!"

दीपा रोमांचित हो उठी,क्योंकि लड़का उसे भी बहुत पसंद था! पर अब क्या किया जाये? उस लड़के के साथ, जिसका नाम अजय था, वो खुद तो मिल बोल सकती नही थी. माँ की पैनी निगाह रहती! उसने अपनी एक सहेली को विश्वास में लेके बताया की, माजरा क्या है. सहेली ने उनकी किताबें एक दूजे को पहुँचाने का ज़िम्मा स्वीकार कर लिया. छुट्टियों के दौरान वो उनकी थोड़ी बहुत मुलाक़ातें भी करवा देती. जब वो अपने स्कूल के शहर लौट जाता तो उसके ख़त उसी सहेली के घर पे आया करते.

इस तरह दो साल बीत गए. दीपा खतों को घर में रखने से डरा करती,लेकिन फाड़ के फ़ेंक देने का भी दीपा का मन  नही करता! ऐसे में इन मकानों के पीछे वाले कूएमे वो ख़त डाल दिया करती!१२ वी क्लास में जब वो दोनों आए तो दीपा की माँ के  हाथ एक ख़त पड़ गया. और इम्तेहानों के ख़त्म होते ही झट मंगनी पट ब्याह! दीपाको समझ में आने से पहले वो परिणीता बन गयी! लड़के के बारे में किसी ने ख़ास खोज बीन की नही. पैसेवाला घर था,इसी में सब ख़ुश थे. वैसे भी लडकी के लक्षण ठीक नही थे !!अगर बाहर के लोग जान जाते तो और मुसीबत होती!

अजय बेहद निराश हो गया. लेकिन उम्र एक ही होने के कारण वह  नौकरी भी नही कर सकता था! उसकी तो पूरी पढ़ाई होनी थी! पर उसने आनेवाले सालों में दीपाका बेहद अच्छा साथ निभाया! उसे हमेशा महसूस कराया की उसकी जद्दोजहद में वो अकेली नही है.

क्रमश:

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

दीपा 1

बड़े दिनों से सोच रही थी,दीपा के बारे में लिखने का. एक और गुत्थियोंवाली ज़िंदगी...जिसकी गुत्थियाँ सुलझाते हुए  पेश करने की चाहत है.

दीपासे परिचय हुए ज्यादा समय नही हुआ. लेकिन अंतरंगता   बहुत तेज़ी से बढ़ गयी. दीपा अभिनेत्री है. वैसे उसे नाटकों में काम करने का अधिक अनुभव रहा. मेरे घर पे  एक छोटी फिल्म की शूटिंग होनेवाली थी. उसमे दीपा का किरदार था. उसका तथा अन्य किरदारों का साज सिंगार और परिधान मेरी ज़िम्मेदारी थी. कला दिग्दर्शन  भी मेरा था. दीपा के संग परिचय इसी तरह शुरू हुआ और एकदमसे बढ़ गया जब हमें पता चला की हम दोनों का नैहर एक ही शहर का है. या वो जिस शहर में पली बढ़ी,उसके करीब ही मेरा गाँव था...मेरा नैहर था. हम पढ़े भी एकही पाठशालामे! बस फिर क्या था!!शूटिंग में जब भी ब्रेक होता हम दोनोकी अनवरत बातें चलतीं.

शूटिंग तो ख़त्म हो गयी लेकिन तीन चार रोज़ के बाद मैंने उसे दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित किया . पता चला की उसके शौहर का निधन हो चुका था. बातें गहराईं तो लगा कुछ तो उलझन उसके साथ रही है....मैंने हिचकते हुए पूछा," दीपा, क्या तुम्हारे पती gay थे?"
"हाँ!"दीपाने कहा तो सहजता से पर एक कसक मुझे महसूस हुई. वो आगे बोली," मेरा ब्याह हुआ तब मेरी उम्र अठारह साल की थी....ज़िंदगी के  कई पहलुओं  से मै अनभिग्य थी. पढ़ाई तो मेरी शादी के बाद पूरी हुई...!
" तो इतनी जल्दी शादी क्यों कर दी गयी तुम्हारी? ऐसी क्या परेशानी आन पडी थी तुम्हारे घरवालोंको?"...मैंने पूछ ही लिया..
"हाँ...बात कुछ ऐसी ही थी..."
दीपा ने सिलसिलेवार बताना शुरू कर दिया....
क्रमश:

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

युगों पहले...युगों बाद....! 2 अंतिम

( गतांक: तरूणी की हालात अब मुझसे देखी नही जाती...दृश्य की चौखट बदलनी होगी. उसके प्रियतम को कोई नाम देना होगा. तभी तो वो उसे खोज सकेगी!!क्या नाम होगा उसका??...अब आगे पढ़ें.)


                              सिर्फ नाम नही...उसे एक चेहरा भी देना होगा! आदित्य ...उसका नाम आदित्य होगा...होगा नही,था...है! चेहरा?
अब वो युवती समंदर के किनारे खड़ी है. फिर रेत पे बैठ जाती है. तर्जनी उठाके वो एक चेहरा गीली रेत पे चित्रित करती है. मुझे साफ़ नज़र नही आता. फिर वो चेहरा एक शरीर बनता है. अब एक पुरुष का बुत दिखाई दे रहा है. नही...ये बुत नही,जीता जागता पुरुष है! उस लडकी की परस्तिश ने उस बुत में जान डाल दी!! उस महजबीं  ने अपने दिलरुबा के आगे सजदा किया और करती चली गयी. बंदगी का हक़ वो निभाती गयी...उसकी आरज़ू रंग लाई..अब हिज्र की सदी मुख़्तसर हुई... पूरब में सूरज का लाल गोला निकल रहा है,जिससे पश्चिमा भी रक्तिम हो रही है. उस पार्श्वभूमी पे उस तरुण तरूणी की कया काली-सी परछाई की भांती नज़र आ रही है.


ये मिलन की घड़ी है! एक परछाई ने बाहें फैलाई...दूसरी उसमे खो गयी! तरूणी की कोख से अब गर्भ के जनम का समय आ गया है..सेहर होते,होते,उष:काल के साथ साथ एक नए युग की शुरुआत होगी.


मै तृप्त हूँ! मैंने आँखें मूँद ली हैं...! अपने बालों में साजन की उंगलियाँ महसूस कर रही हूँ...आदित्य मेरे बालों में उंगलियाँ पिरो रहा है...कानों में शहद घोलता,मेरा नाम पुकार रहा है...एक नाम नही...कई नाम! बिछड़े युगों की याद दिलाते हुए...आनेवाली सदियों का एहसास करानेवाले!! मेरे नामों में कितना संगीत है,ये जब तुम उच्चारण   करते हो तो आभास  होता है! ये संगीत भैरवी बनेगा! नया आगाज़ होगा! नए जन्मे जीवन के लिए सुबह लोरी गायेगी! शबनम होंट चूमेगी! लेकिन जब किसी का जन्म होगा तब और कोई बिदा लेगा! लडकी का इस दुनिया से पुनश्च बिदा होने का समय आ गया है!वो प्रकृती है..वो चिरयौवना है...वो रात है..उसका विनाश नही होता...सिर्फ रूप बदलता है..


हाँ ! मै रात हूँ! नीरवता में  मेरा बसर होता है...नीरवता से रहगुज़र करती हूँ! सन्नाटा सुनती हूँ,जीती हूँ...पल,पल,पहर,पहर गुज़रती जाती हूँ!मेरे मुक़द्दर में सेहर है...क्योंकि मेरे गर्भ में दिन है....दिन है,क्योंकि आदित्य है. जब पूरब में लालिमा छाती है...खिरामा,खिरामा रंग बिखरता है,तो मुझे समर्पण करना ही होता है. स्याह अंधेरों में सितारे मेरा सिंगार हैं! चाँदनी रातों में चाँद मेरे माथे का झूमर! चिरयौवना दुल्हन हूँ,फिरभी मर मिटती आयी हूँ युगों से! रूप बदलती हूँ...सदियों से!


समाप्त

( मुझे ये सपना आया था,जिसे मैंने नींद खुलते ही शब्दांकित किया! सपना क्या था,एक अजीब, जीवंत अनुभव था!)

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

युगों पहले,युगों बाद....!

                               ना ये सपना है ना ही वस्तुस्थिती...एक विचित्र अनुभव ज़रूर है. चलचित्र की भांती,मेरी आँखें जो देख रही होती हैं,वो बेहद सजीव है. उसकी नायिका भी  मै ही हूँ और सूत्र धार भी. लेकिन सूत्र संचालन करते हुए भी, नायिका की ज़िंदगी पे मेरा इख्तियार नही. हाँ...जब,जब नायिका की जान पे बन आती, चित्र की चौखट बदल जाती.

वो देखो उस यौवना को...कबकी बात है ये??ये कौनसे मंज़र हैं जो जाने पहचाने होके भी अनजाने हैं??कितने हजारों साल पहले ये घटना घट रही है?

कैसी प्रलयंकारी, धुआंधार  वर्षा हो रही है! कहाँ सरोवर है,कहाँ रास्ता समझ में नही आता...उस युवती ने अपना घाघरा घुटनों तक उठा किया है. मद्धिम-सी रौशनी. लगता है समय रुक-सा गया है. सहर भी हो सकती है,संध्या भी. सूत्रधार को भी पता नही. मै स्वयं खुद को गौर से  निहारने का यत्न करती हूँ. चेहरा धुन्दला है. हाँ! खुले बाल पानी से तर हैं..चुनरिया तन से लिपटी है...क्या ये कोई राजपूत कन्या है? माथेपे झूमर है,पैरों में पाजेब.

ये दूर दिया टिमटिमा रहा है या,किसी ने मशाल पकड़ रखी है? क्षितिज पे मानो किसी महल की आकृती उभरी है. या बड़ी-सी हवेली है? बारिश के परदे की ओट से ठीक नज़र नही आता.यौवना डरी,डरी-सी इधर उधर देख रही है. उसकी नज़र के साथ,साथ मेरी नज़र भी परिसर का मुआयना करती है.उसे किसी अनजान खतरे का भय है....फिर औरभी छोटी,छोटी आकृतियाँ उभरीं.ये गली चौबारे हैं....सुनसान राहे हैं...पुर ख़तर राहें हैं..

लडकी ने छम-से क़दम उठाया और दौड़ने लगी. उसे किसी को ज़रूरी पैगाम पहुचाना है.लंबा फासला तय करना है,बचते बचाते. मीलों? या फिर एक युग से दूसरे युग में? विगत में या अनागत में? पूर्व जनम से पुनर्जन्म का सफ़र है ये बात मै समझ रही हूँ.जितना ये नज़ारा रहस्यमय, गूढ़ है,उतना ही स्पष्ट और नि:संदेह!दोनों स्थितियाँ विरोधाभासी  हैं. लेकिन अपने जनम का पूर्व भाग  या मृत्यु के पश्च्यात  की स्थिती  कौन जान पाया है? यहाँ ना आदि दिखाई देता है ना अंत! फिरभी जानती हूँ,मुझे कहाँ जाना है.....क्योंकि युगों पहले,युगों युगों तक ऐसी ही घनघोर बरसात में, मै संदेसा लेके निरंतर दौड़ी हूँ. इस लोक को पार कर के दूसरे लोक में मेरा साथी मेरा इंतज़ार कर रहा है.हम कई हजारों साल पहले भी साथी थे,जो हजारों बार बिछड़े.उस बिछड़े साथी को किसी अनजान,जानलेवा खतरे से मुझे आगाह करना है.

छुपते ,छिपाते मै अपने राज महल के अंत:पूर से निकल पडी हूँ.जीवन की सीमा लांघ के मुझे उसके पास पहुंचना है. अब तरूणी बेहद थक गयी है.सैलाब बढ़ता जा रहा है. कहीँ से तलवार की खनक सुनायी देती है.नही....अब मुझसे नही सहा जाता.दृश्य की चौखट बदल जाती है.सूत्रधार उसे बदलता है.....सूत्रधार,जो मै स्वयं हूँ!

नायिका एक बड़े-से प्रवेशद्वार पे पहुँचती है.प्रवेशद्वार अपनेआप खुलता है. यहाँ कोई पहरेदार नही. फिर एक के बाद एक महाद्वार खुलते चले जाते हैं. हर द्वार एक दालान में खुलता है.दूर दूर तक फैले बगीचे,ऊंचे,ऊंचे दरख़्त,नि:स्तब्ध खड़े,तरूणी के प्यार की मूक दुहाई दे रहे हैं.और वो रहा उसका बिछड़ा साथी! मगर ये कैसा अद्भुत न्याय है प्रकृती का!! तरूणी स्त्री रूप में सौदामिनी है! और वो पुरुष जो बाहें पसारे खड़ा है,उसे छूते ही नष्ट हो जाएगा! मिलन की घड़ी,बिरहा की भी है! सौदामिनी  अपने प्रियतम को छूते ही बदरी में लुप्त हो जायेगी! तो फिर किस दुश्मन से आगाह करने मै चल पडी थी? किसका पैगाम लिए दौड़ रही थी?? मै जान गयी...! खुद मुझी से उसे आगाह करना था! और मुझ पे मेरा ही नियंत्रण नही..मैही उसके विनाश का कारण बन सकती हूँ...! उफ़! ये दर्दनाक मिलन मै नही देख सकती!!दृश्य की चौखट बदल जाती है.

तरूणी अब अपने जन्म जन्मान्तर के प्रियकर का गर्भ अपनी कोखमे लिए नगरी,नगरी ,उसे खोज रही है.जब तक उस प्रेमी युगुल का मिलन नही होगा,गर्भ जनम नही ले पायेगा!!कैसा खेल है ये नियति का! मेरी रूह तड़प रही है...कहीँ चैन नही...अब आभी जाओ मेरे साथी! कितने युगों से तुम्हारा इंतज़ार है!क्यों  मुझ पे तरस नही खाते? ऐसी क्या मजबूरी है? कहाँ ढूँढू तुम्हें? किसे पूछूँ तुम्हारा पता? और कैसे पूछूँ? क्या बताऊँ? मेरे ज़हन में अंकित तुम्हारा स्पर्श है....ना जाने किस जनम की बात है यह,जब तुम्हारी बाहों में सिमट गयी थी? तुम्हारा कोई चेहरा नही है,जिसका मै वर्णन करूँ. देखो! अपने मिलन की निशानी मेरी कोख में है! कितनी सदियाँ बीती,नही जानती...कब मिट जाती हूँ,कब जन्म लेती हूँ,याद नही....तुम्हारा अंश लिए नष्ट होती हूँ....अंश लिए ही जन्म लेती हूँ...! कोई इसे कल्पना विलास समझे तो समझे! मेरे लिए यही एक सत्य है!

जन्म मरण का चक्र निरंतर है. तुम्हारी खोज निरंतर है. बहुत कुछ भूलके भी मुझे थोड़ा थोड़ा याद है.किसी एक जनम में मै नदी थी,जो तुम्हारी तलाश में रेगिस्तान पहुँच गयी थी. जब रेगिस्तान ने मुझे अपने अन्दर समा लिया तो समझ गयी की,तुम ही रेगिस्तान थे.जलते,तपते....जिसकी विराट भुजाओं में समा के मै लुप्त हो गयी.लेकिन ये तो एक युग की कहानी है...बीते समय की रेखाओं पे कितनी परतें पड़ गयीं हैं....हमारे क़दमों के निशाँ खो गए हैं...मेरी पुकार तुम तक क्यों नही पहुँचती?? साथ ही मै ये भी जानती हूँ की मुझे सदियों इंतज़ार करना होगा!!क़यामत की हदों तक!!

तरूणी की हालात अब मुझसे देखी नही जाती...दृश्य की चौखट बदलनी होगी. उसके प्रियतम को कोई नाम देना होगा. तभी तो वो उसे खोज सकेगी!!क्या नाम होगा उसका??

क्रमश:

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

रहीमा 7( antim)

( गतांक: इन बातों के चंद रोज़ बाद रहीमा ,ज़ाहिद और बच्चे कहीँ  घूमने निकल गए. गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गयीं थीं और इन्हीं दिनों हमारा सोलापूर के बाहर तबादला हो गया. हमने सोलापूर छोड़ दिया और  नासिक चले आए. रहीमा से मेरी फोन पे बातचीत होती रहती.
शायद दो या तीन माह बीते होंगे की एक दिन सोलापूर से हमारे एक परिचित का फोन आया:" ज़ाहिद का बड़े अजीब ढंग से हादसा हुआ है......उसे पुणे ले गए हैं...कोमा में है...हालत गंभीर है...पटवर्धन अस्पताल में ....ICU में है....रहीमा बहुत चाहती है की,आप उसे मिलने जाएँ...!"

मेरे ना जाने का सवाल ही नही उठता था...मै दौड़ी,दौड़ी पुणे पहुँच गयी...अब आगे पढ़ें.)

नाशिक से पुणे के सफ़र के दौरान,ना जाने कैसे,कैसे ख़यालों ने मेरे दिमाग शोर मचाये रखा....क्या कहूँगी मै रहीमा से? किस हाल में होगी वो? साथ,साथ दुआ भी करती जा रही थी...हे ईश्वर! तेरे सदके जाऊं...ज़ाहिद को ठीक कर दे! गर उसे अब कुछ हो गया तो रहीमा पागल ही ना हो जाये...या मेरे खुदा! तू तेरे बन्दों के कैसे,कैसे इम्तिहान लेता रहता है? और क्यों? रहीमा को अभी, अभी तो कुछ चैन और प्यार मिला था...और कितना दर्द रहीमा के क़िस्मत में लिखा है?? वो पाँच, छ: घंटों का सफ़र बेहद तनाव में कटा.

मै सीधे अस्पताल पहुँची. ICU के बाहर रहीमा मिली. रहीमा क्या,मानो उसका अक्स था. मेरे गले लिपट गयी और मेरे कंधों पे उसके आँसूं मुझे महसूस हुए...मै उसे सांत्वना भी देती तो क्या देती? "सब ठीक हो जायेगा...सब्र करो", के अलावा मै और क्या कह सकती थी? और ये अलफ़ाज़ भी कितने बेमायने थे!

तभी डॉक्टर,जिनकी देखभाल में ज़ाहिद था,वहाँ पहुँचे. रहीमा ने मेरा उनसे परिचय कराया. मेरा उनसे पुराना परिचय निकल आया. मैंने उनसे दो मिनट अलग से बात करने की बिनती की.वो मुझे एक ओर ले गए.

मैंने पूछा:" डॉक्टर, आप मुझे सही हालात से वाबस्ता कर सकते हैं?"
डॉक्टर:" हाँ! करनाही होगा...वैसे तो ईश्वर की दया अगाध होती है..हम लोग उसके आगे कोई नही...लेकिन ज़ाहिद के बचनेकी मुझे कोई उम्मीद नही. गर बच भी जाये तो वो ना कभी चल पायेगा ना तो उसका अपने जिस्म पे कोई नियंत्रण ही रहेगा...कोमा की स्थिती में वो कितने दिन काट सकता है,ये तो मै नही कह सकता...उसकी रीढ़ की हड्डी पूरी तरह से चूर,चूर हो गयी  है...मस्तिष्क में गहरी चोटें हैं...इस के अलावा पसलियाँ और अन्य हड्डियाँ टूटी हुई हैं..."

शायद डॉक्टर ने और भी कुछ कहा,पर मुझे सुनायी देना बंद हो गया था. उधर रहीमा मेरी तरफ निगाहें गडाए  बैठी थी. कहीँ से कोई उम्मीद की किरन नज़र आ जाये...कोई उससे कह दे,की,ज़ाहिद मौत के द्वार से सही सलामत लौट आयेगा...मैंने उसे क्या कहना चाहिये ऐसे समय में?

मैंने उस के पास जाके कहा: " रहीमा...खुदा पे भरोसा रखो...अब जो होना है उसी के हाथ में है...डॉक्टर तो अपनी तरफ से कोशिश कर रहे हैं...ये हादसा हुआ कैसे,ये तुम मुझे बता सकती हो?"
रहीमा:" हाँ...यही मै तुम्हें बताना चाह रही थी...पिछले चंद हफ़्तों के हालात से तुम वाबस्ता नही हो...ज़फर ने हम दोनों को बहुत तंग करना शुरू कर दिया था. उसे,हम जिस घरमे रह रहे थे,वो चाहिए था. मै और ज़ाहिद,मेरे वालिद के एक अन्य मकान में रहने चले गए. वो मकान आधा अधूरा बना हुआ है. तीन कमरे छोड़ बाकी घरपे छत नही नही है. खैर! बात इसी पे आके रुक जाती तो ठीक था. उसने पेट्रोल पम्प पे भी कब्ज़ा जमाना चाहा. मेरे वालिद की वसीयत में पम्प मेरे नाम पे है. ज़ाहिद ने तो कहा की, छोडो,जाने दो..हमें क्या करना है? दे दो उसे जो चाहिए. "
मै:" तो ? तुम क्या कहना चाह रही हो? क्या ज़ाहिद के हादसे के पीछे कोई साज़िश थी? ज़फर की साज़िश? मेरा विश्वास नही हो रहा....!"
रहीमा:" जिस शाम हादसा हुआ,उस शाम ज़फर का धमकी भरा एक फोन आया. उसने ज़ाहिद से बात की. शायद ज़फर ने कुछ ज्यादा ही पी रखी थी. उस ने ज़ाहिद से कहा की वो तुरंत पम्प पे आ जाये और पम्प के कागज़ात उसके नाम करने की प्रक्रिया शुरू करे. उसे लग रहा था,की,मै शायद न मानूँ.
"ज़ाहिद घर से निकलता इससे पहले पम्प पर से हमारे एक पुराने वफादार नौकर का फोन आया की,ज़फ़र तो पम्प को तबाह करने के मंसूबे बना रहा है...ज़ाहिरन,ये केवल तमाशा था..उसे तो पम्प से मिलने वाली आमदनी चाहिए थी...क़र्ज़ में डूब जो  रहा था...या शायद उसे पम्प अपने नाम करके बेच देना था...कह नही सकती...मैंने ज़ाहिद को घर से बाहर जाने से रोकना चाहा,लेकिन ज़ाहिद ने मुझे भरोसा दिलाया की,इस तरह  कायरों की भांती  डरना और घरमे घुसे रहना ठीक नही...मै उसे मिलके इत्मिनान दिला देता हूँ,की,उसे जो चाहिए,वैसाही होगा...हमें बस अब अमन चैन चाहिए...कोई लडाई झगडा नही...."
मै :" तो ?"
रहीमा :" ज़ाहिद अपनी मोबाइक पे निकल पडा. घर के पास से जो रास्ता सोलापूर क्लब के साथ से गुज़रता है,वो वहाँ तक पहुँचा ,तो देखा पीछे से ज़फर तेज़ जिप्सी चलाता हुआ उसके पीछे आ रहा था. गली संकड़ी थी. ज़ाहिद ने अपनी बाईक  रास्ते से हटा लेनी चाही,लेकिन उसे मौक़ा ही नही मिला. ज़फर ने पीछे से ज़ोरदार टक्कर लगा दी. ज़ाहिद दूर जाके पटकाया. "

मै:" रहीमा! तुम्हें ये सब किसने बताया? किसी ने इस हादसे को होते हुए देखा? कोई चश्मदीद गवाह है?"
रहीमा:" हमारे पम्प का ही  एक मुलाजिम वहाँ से साइकल पर से गुज़र रहा था. उसने सब कुछ देखा...! ज़फ़र तो टक्कर मार के उड़न छू हो गया. इस आदमी  ने रास्ते पर से एक रिक्शा बुलाई. ज़ाहिद को लेके अस्पताल पहुँचा और मुझे वहाँ से फोन किया. "
मै :" ओह! तो कोई तो गवाह है! वो रिक्शावाला भी बता सकता है की,वो किस हाल में ज़ाहिद को अस्पताल लेके गया...! क्या तुम्हारे मुलाज़िम ने उस रिखे का नंबर लिख लिया था?"
रहीमा :" उस ने नंबर तो लिखा था,लेकिन वो किसी काम का नही.....ज़फर ने बहुत चालाकी की...वो रिक्शा  वाला गायब है..! ना जाने ज़फर ने उसे कहाँ भेज दिया...कितने रुपये पकड़ा दिए! "
मै :" और वो मुलाज़िम? जिस ने ये सब होते हुए देखा? उसका क्या? वो तो मूह खोलेगा या नही?"
रहीमा:" वो भी दूसरे दिन से गायब है...और तो और ज़फर का रूसूक़ इतना है,की, पुलिस ने FIR तक दर्ज नही कराया है..! सतारा के DSP बड़ी मेहेर नज़र है ज़फर पे...उनके रहते ज़फर का एक बाल भी बांका नही हो सकता...!"
मै:"  गज़ब है! और इस वक़्त ज़फर कहाँ है?"
रहीमा :"वो तो फ़र्ज़ी पास पोर्ट पे कनाडा पहुँच चुका है...उसका तो अब वैसे भी कोई कुछ नही बिगाड़ सकता. हमारे पुश्तैनी मकान का तो सौदा होही गया था...वो सारा पैसा तो उसे मिल गया...यहाँ के लोगों से जो उसने पैसे लिए थे,वो तो सब डुबो दिए....हाँ....! जल्द बाज़ी में पेट्रोल पम्प से हाथ धो बैठा. अब वो डर के मारे कभी नही लौटेगा..."

कैसा अजीब इत्तेफ़ाक़ था! जिस दिन ज़ाहिद का हादसा हुआ,या करवाया गया,वो रक्षाबंधन का दिन था!
मै दो दिन पुणे में रुकी. जब लौटी तो ज़ाहिद के हालत में कोई तबदीली नही थी. 
मेरे नाशिक लौटने के दूसरे ही दिन ज़ाहिद दुनिया से चल बसा. मुझे ख़बर तीसरे दिन मिली. मै जनाज़े में तो शामिल हो ना सकी, लेकिन सोलापूर के लिए निकल पडी. रहीमा के आधे अधूरे मकान पे पहुँची. अजीब-सी मनहूसियत छाई हुई थी.

मकान के सहन  में कुछ लोग बैठे हुए थे. रहीमा एक कमरेमे थी. मुझे देखते ही लिपट गयी. बोली:" मै ज़ाहिद की मौत के लिए ज़िम्मेदार हूँ...ना हमारी शादी होती ना उसकी जान जाती...मेरे प्यार ने उसकी जान लेली....मै अपराधी हूँ...!"
मै :" ऐसा ना कहो रहीमा! तुम्हें लगता है,इन बातों से ज़ाहिद की रूह को चैन मिलेगा? "
रहीमा:" हमारी शादी को एक साल भी नही हुआ...फिरभी इन चंद दिनों में मुझे ज़ाहिद ने ज़िंदगी भर का प्यार दे दिया...लतीफ़ ने दिया हर दर्द  मै भूल गयी...कैसे विश्वास कर लूँ की ज़ाहिद नही रहा?"
मै:" रहीमा! बहुत कम लोगों को ऐसा प्यार नसीब होता है...ये तुम्हारे लिए पूरे जीवन भर का तोहफा है...इन्हीं पलों से तुम्हें अब एक उम्र चुरानी है...बच्चों को बड़ा करना है...पढ़ाना लिखाना है...ज़ाहिद तुम्हें,जहाँ भी होगा हर पल देखेगा...!"

और रहीमा की उम्र बसर होती रही. आफताब बड़ा होके पुलिस अफसर बनना चाहता  था,की वो अपने मामा का बदला ले सके! खैर पुलिस अफसर तो नही बना..लेकिन बच्चों ने माँ की मेहनत सार्थक कर दी. दोनों काबिल बन गए. अपने,अपने पैरों पे खड़े हैं. रहीमा ने वो आधा अधूरा मकान ठीक करवा लिया. पेट्रोल पम्प ही उसकी रोज़ी रोटी का ज़रिया बना रहा.

समाप्त

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

रहीमा 6

(गतांक: रहीमा और  ज़ाहिद ने मुंबई में निकाह कर लिया और  सोलापूर रहने आ गए. सब से पहले दोनों मुझे मिलने आए. रहीमा की आँखें भर,भर आतीं रहीं...बेहद ख़ुश थी वो...उस के लिहाज़ से एक दो बातें बहुत बढ़िया थीं...अव्वल तो वो अपने पिता के मकान में थी...पती के छोड़ने के बाद उसे कहीँ और मकान तलाशना नही था. दूसरा,चूंकि वह अपने ही पुश्तैनी मकान में थी, ज़ाहिद के घरवालों के मोहताज भी नही थी. वैसे ज़ाहिद ने नया मकान बनाने या खरीद ने का इरादा ज़ाहिर कर ही दिया था...

क्रमश:

किसे पता था,की,वहशत और दहशत किस भेस में छुप मौक़ा तलाश रही थी??अब आगे पढ़ें.)

मेरी, रहीमा और ज़ाहिद से मुलाक़ातें  होती रहीं. रहीमा के बच्चे तो ज़ाहिद से बेहद घुलमिल गए थे. उन्हें पिता का ऐसा प्यार शायद ही कभी मिला था.

एक दिन रहीमा ने ख़बर सुनाई:" लतीफ़ का देहांत हो गया. उसका लिवर शराब के  अती सेवन  के कारण, पूरी तरह से बरबाद हो चुका था. मैंने बच्चों से पूछा की क्या वो जनाज़े में शामिल होना चाहेंगे? लेकिन उनका तो साफ़ इनकार था. उसके परिवार ने मुझे तो पहले ही अलग थलग कर दिया था. मेरे जाने की कोई तुकही नही बनती थी. चलो,उसकी जान छूटी. "

कुछ दिनों बाद रहीमा का जनम दिन था जो ज़ाहिद और बच्चों ने मिलके बडेही अपनेपन से मनाया. रहीमा को कानोकान ख़बर न होने दी और सारा घर सजा डाला. केक ,मिठाईयाँ, नमकीन, सब हाज़िर हो गया ! रहीमा का कई बार खुद की क़िस्मत पे विश्वास नही होता! उसे अपने बचपन का प्यार इतने बरसों बाद मिल गया था और इसतरह,जैसे कभी वो जुदा हुए ही न हों! बच्चों को उसने कभी इतना ख़ुश नही देखा था!   उनके स्कूल के साथियों  के साथ ज़ाहिद पूरी तरह घुलमिल गया. उन्हें ये महसूस ही नही हुआ की उनके जीवन में एक बड़ा तूफ़ान आके गुज़रा है.

दिन बीतते रहे. बातों ही बातों में रहीमा ने उसके भाई की,ज़फर की,एक ख़बर सुनायी:" ज़फर ने उस नीग्रो औरत को छोड़ दिया और अब किसी तीसरी लडकी के साथ चक्कर चल रहा है!"
मै: "ओह! अब ये कौन है? "
रहीमा:" अरे तुम विश्वास नही करोगी! उसके अपने जिगरी दोस्त की मंगेतर. लडकी हिन्दू है इसलिए दोनों घरों से इजाज़त नही मिल रही थी. लडकी को इसके दोस्तने भगाकर हमारे घर रखा और इधर इन दोनों ने अलगही चक्कर चला लिया! लडकी को अब ज़फर ने कनाडा भेज दिया है!!"
मै:"उफ़! क्या कमाल है! ऐसाभी होता है! जीवन में दोस्त   दोस्तपे भरोसा ना कर सके! उस लड़के पे क्या बीती होगी?"
रहीमा:" हाँ सच! मुझे खुद इतनी शर्मिन्दगी  महसूस हुई,लेकिन उससे कौन क्या कहता? उसने तो अब अपना पैंतरा ही बदल दिया है! उसकी निगाहों में तो लतीफ़ 'बेचारा' बन गया है और मै और ज़ाहिद फरेबी!
"उसने हमारे वालिद के नाम का भी बड़ा नाजायज़ फ़ायदा उठाया है. सोलापूर में कम्प्यूटर के पार्ट्स बनाने की फैक्ट्री का ऐलान कर,यहाँ के कई रईसों से उसने पार्टनर शिप के नाम से पैसा इकट्ठा किया है. मुझे तो कुछ फैक्ट्री बनती नज़र नही आती. "
ज़फरका ये बड़ा ही घिनौना चेहरा मेरे सामने आ गया. खैर!

इन बातों के चंद रोज़ बाद रहीमा ,ज़ाहिद और बच्चे कहीँ  घूमने निकल गए. गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गयीं थीं और इन्हीं दिनों हमारा सोलापूर के बाहर तबादला हो गया. हमने सोलापूर छोड़ दिया और  नासिक चले आए. रहीमा से मेरी फोन पे बातचीत होती रहती.
शायद दो या तीन माह बीते होंगे की एक दिन सोलापूर से हमारे एक परिचित का फोन आया:" ज़ाहिद का बड़े अजीब ढंग से हादसा हुआ है......उसे पुणे ले गए हैं...कोमा में है...हालत गंभीर है...पटवर्धन अस्पताल में ....ICU में है....रहीमा बहुत चाहती है की,आप उसे मिलने जाएँ...!"

मेरे ना जाने का सवाल ही नही उठता था...मै दौड़ी,दौड़ी पुणे पहुँच गयी...

क्रमश:

सोमवार, 27 सितंबर 2010

रहीमा 5

(गतांक: मै उसके घर चली गयी. रहीमा मुझे बच्चों के ऊपरवाले कमरेमे ले गयी और लतीफ़ और ज़ाहिद के मुलाक़ात का किस्सा बताने लगी,"ज़ाहिद  मेरी ख़ातिर हर बात करने के लिए राज़ी था. शाम को वो जैसे ही हॉल के अन्दर प्रवेश करने लगा,लतीफ़ ने उसके सर और मूह पे ज़ोर से hockey स्टिक दे मारी और उसे खूना खून कर दिया. अब वो  बेचारा  साथवाले अस्पताल में पड़ा है.    मै उसे मिलने भी नही जा सकती. इस जानवर का वहशीपन  ना जाने हमें कहा ले जायेगा??"

अब के रहीमा के आँखों से आँसू निकल पड़े. मै खुद दंग रह गयी..ज़ाहिद का तो पूरा घर वैसे ही रहीमा के खिलाफ हो गया था. रहीमा को राहत  मिले तो आखिर कैसे?...अब आगे पढ़ें.)

मै अपने ख़यालों में डूबी घर लौट आयी. लतीफ़ रहीमा को ज़लील करता रहा.  ऐसे ही चार या पाँच दिन बीते और रहीमा का अचानक से फोन आया:" मै मुंबई से बोल रही हूँ...! "
मै: " अरे! कब? कैसे? और लतीफ़? वो भी साथ है या...?'
रहीमा:" लतीफ़ से पीछा छुडा के भागी हूँ...मेरी एक सहेली मुंबई से एक दिन सोलापूर आयी. उसने ऐसे जताया जैसे उसे मेरे और लतीफ़ के बीछ  के  तनाव के बारे में जैसे कुछ ख़बर ही नही...लतीफ़ ने पी तो रखी थी. ये लडकी ब्युतिशियाँ है. लतीफ़ से बोली, अरे आप तो बहुत थके हुए लग रहे हैं...मुझे मस्तिष्क  की  बहुत बढ़िया मसाज करनी आती है...देखिये आपका सारा तनाव चंद पलों में दूर कर देती हूँ...' लतीफ़ कुछ कहे इससे पहले उसने अपने बैग में से एक तेल की बोतल निकली और लतीफ़ के सिरहाने खड़े हो मालिश करने लगी...लतीफ़ आधे मिनिट में खुर्राटे भरने लगा..इसने इशारा किया," भाग निकालो...जो हाथ लगे लो और मुंबई निकल पड़ो...' इस तरह हम लोग मुंबई निकल पड़े! वोभी लतीफ़ को सोता छोड़ पीछे से अपनी कार में निकल आयी...हमलोग अब उसी के घर रुके हैं..!"
मै:" ओह! ये तो बहुत अच्छी बात सुनायी तुमने...! अब आगे का क्या प्लान है? ?"
रहीमा :" ज़फ़र आज सोपूर जा रहा है. कहता है वो अपने हथकंडे अपना के लतीफ़ से तलाक़ के कागजात पे दस्तखत करवा लेगा..."
मै:" खुदा करे और वो कामयाब हो! ! मुझे ख़बर देती रहना!"

दूसरे ही दिन शाम को रहीमा का फोन आया. बोली:" सुनो....! ज़फर ने लतीफ़ से तलाक़ के कागजात पे दस्तखत करवा लिए हैं...! लतीफ़ ज़फर के डराने धमकाने से घबरा गया..हमलोग वहाँ नही थे,इसलिए ये सब हो सका...!"
मै:" तुम्हारी सहेली का लाख,लाख शुक्रिया की,उसे ये तिकड़म सूझी...वरना तो लतीफ़ से पीछा छुड़ाना मानो नामुमकिन लग रहा था..!"
पाँच  या छ: दिनों बाद रहीमा ने ख़बर दी की,लतीफ़ ने अपना असम में तबादला करा लिया और वो वहाँ के लिए रवाना हो गया है. सब से बढ़िया ख़बर ये थी की,ज़ाहिद ने रहीमा के साथ निकाह कर लेनेका इरादा जताया. रहीमा के बच्चों ने इस बात के बड़ी ही खुशी से रजामंदी दिखा दी. ज़ाहिद को जिस दिन से उन बच्चों ने देखा था,वो उन्हें बेहद पसंद था!

वाह! मेरी खुशी और इत्मिनान की इन्तेहा न थी! दुनिया में ऐसा भी हो सकता है? इतने सालों से बिछड़ा  बचपनका प्यार ऐसे किसी को हासिल  हो सकता है? हे ईश्वर! इनकी खुशियों को नज़र ना लगना!
रहीमा और  ज़ाहिद ने मुंबई में निकाह कर लिया और  सोलापूर रहने आ गए. सब से पहले दोनों मुझे मिलने आए. रहीमा की आँखें भर,भर आतीं रहीं...बेहद ख़ुश थी वो...उस के लिहाज़ से एक दो बातें बहुत बढ़िया थीं...अव्वल तो वो अपने पिता के मकान में थी...पती के छोड़ने के बाद उसे कहीँ और मकान तलाशना नही था. दूसरा,चूंकि वह अपने ही पुश्तैनी मकान में थी, ज़ाहिद के घरवालों के मोहताज भी नही थी. वैसे ज़ाहिद ने नया मकान बनाने या खरीद ने का इरादा ज़ाहिर कर ही दिया था...

क्रमश:

किसे पता था,की,वहशत और दहशत किस भेस में छुप मौक़ा तलाश रही थी??

बुधवार, 22 सितंबर 2010

रहीमा 4

(गतांक: लतीफ़ की धमकी सुन,मैंने  हमारे गेट पे तैनात पहरे को इत्तेला दी,की,गर कोई बंदूक लेके घर के परिसर में घुसना चाहे तो रोक देना...चाहे वो कोई भी हो और कुछ भी कहे. बंदूक ना भी तो भी, गेट से अन्दर,बिना मेरी इजाज़त के कोई घुस ना पाए. "...अब आगे पढ़ें).

दिनभर लतीफ़ के इस तरह धमकी बहरे फोन आते रहे. मैंने अपने मकान के बाहर खुलने वाले तक़रीबन सब दरवाज़े बंद रखे.

ज़रा देर शाम जनाब घर के गेट पे पहुँच ही गए. मुझे इत्तेला दी गयी. बंदूक तो साथ नही थी. मैंने intercom पे बात करते हुए लतीफ़ से कहा," आप रहीमा से बात कर सकते हैं,लेकिन मै ग्रिल के दरवाज़े  बंद रखूँगी. वो अन्दर रहेगी. आपको बाहर से जो कहना कह देना."
जनाब ने थोड़ी अड़ियल बाज़ी  तो की लेकिन मै अपने कहेपे अडिग रही.
बातचीत का सारांश यह था,की,रहीमा किसी तरह घर लौट आए. कभी कुरआन की कसमे खा रहे थे तो कभी बच्चों के सरकी. शराब तो चढी हुई थी ही.

कुछ देर बाद मैंने अन्दर से दरवाज़ा बंद कर लिया और उन्हें जाने के लिए कह दिया. अब अगले दिनका हमें इंतज़ार था जब रहीमा के बहनोई और भाई पहुँचने वाले थे. वो लोग दोपहर २ बजे पहुँचे.

बातचीत के दौरान मैंने उन तीनों को एक कमरेमे छोड़  दिया और वहाँ से हट गयी. कुछ देर बाद रहीमा बाहर आयी तो मैंने उससे नतीजे के बारे में जानना चाहा.
रहीमा ने कहा," जीजा जी के ख़याल से तो औरत ने हर हाल में अपने शौहर के साथ रहना चाहिए...चाहे वो उसे मारे या पीटे! चाहे जहन्नुम जैसे हालात में रखे!"

मै दंग रह गयी! ये आदमी अमरीका जैसे देश से उठके केवल ये बात कहने आया था? उसी रात वो मुंबई लौट रहा था. उसे रहीमा के घरमे न तो रुकना था,न उसकी सुरक्षा की कोई ज़िम्मेदारी उठानी थी.अब जो कुछ दारोमदार था वो ज़फर, रहीमा के भाई पे था.
उसने मुझ से कहा," मेरे रहते लतीफ़ उसे मार पीट तो नही सकता!"
मै:" लेकिन इस तरह कबतक चलेगा? मेरे विचार से तो अब पानी सर से गुज़र चुका है. रहीमा और बच्चे उसके साथ महफूज़ नही. आपने अब लतीफ़ पे तलाक़ का ज़ोर डालना चाहिए!"
ज़फर:" वो इतनी आसानी से माननेवाला नही. कुछ हिकमत ही काम आ सकती है."
मै:" तो तबतक रहीमा और बच्चों को यहाँ से कहीँ और ले जाना चाहिए. "
ज़फर:" आप ठीक कहती हैं...लेकिन लतीफ़ बहुत उधम उठा देगा. ये बात उससे छुप के करनी पड़ेगी."

मै खामोश हो गयी. इनके लौटने का समय भी करीब आ रहा था. रहीमा ज़फर के साथ अपने घर लौट गयी.
इन सब दिनों में एक बात जिसने रहीमा को सब्र दे रखा  था वो था ज़ाहिद का उसके लिए प्यार. रहीमा अब कोई  नवयुवती या सुन्दरी तो नही रही थी, अच्छा खासा ८० किलो से ऊपर उसका वज़न हो गया था. लेकिन ज़ाहिद का वही बचपन वाला प्यार बरक़रार था. इतनी दुःख तकलीफ़ में भी उसका प्यार था जो रहीमा के होटों पे मुस्कान खिलाये हुए था.

खैर! मैंने रहीमा के साथ अपना संपर्क जारी रखा. दिन में दो तीन बार उसे फोन करही लिया करती. जिस दिन ज़फर ने मुंबई लौटना था,उस दिन लतीफ़ ने उससे वादा किया की,वो ज़ाहिद के साथ सुलह कर लेगा. उसे घर बुलाके माफी माँग लेगा. ज़ाहिद ने भी सोचा होगा की बच्चों को मद्दे नज़र रखते हुए शायद यही ठीक था. लतीफ़ एक और मौक़ा देना. दरअसल बच्चों को तो अपने पिता से कोई लगाव नही था,लेकिन स्कूल में ये बातें गलत असर कर  देतीं हैं.

जो भी हो,दूसरे दिन रहीमा से मेरा संपर्क नही हो पाया. तीसरे दिन जब उसने फोन उठाया तो कहा," तुम अगर घर आ सकती हो तो अच्छा हो."
मै उसके घर चली गयी. रहीमा मुझे बच्चों के ऊपरवाले कमरेमे ले गयी और लतीफ़ और ज़ाहिद के मुलाक़ात का किस्सा बताने लगी,"ज़ाहिद  मेरी ख़ातिर हर बात करने के लिए राज़ी था. शाम को वो जैसे ही हॉल के अन्दर प्रवेश करने लगा,लतीफ़ ने उसके सर और मूह पे ज़ोर से hockey स्टिक दे मारी और उसे खूना खून कर दिया. अब वो  बेचारा  साथवाले अस्पताल में पड़ा है.    मै उसे मिलने भी नही जा सकती. इस जानवर का वहशीपन  ना जाने हमें कहा ले जायेगा??"

अब के रहीमा के आँखों से आँसू निकल पड़े. मै खुद दंग रह गयी..ज़ाहिद का तो पूरा घर वैसे ही रहीमा के खिलाफ हो गया था. रहीमा को राहत  मिले तो आखिर कैसे?

क्रमश:

अगली किश्त में मै रहीमा की एक या दो तसवीरें ज़रूर पोस्ट कर दूँगी.

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

रहीमा 3

(गतांक: हमारी इतनी बात होही रही थी,की,एक फोन आया. फोन लतीफ़ का था. रहीमा ने लिया. दो चार पल बाद मुझे पकडाया...दूसरी ओरसे लतीफ़ चींख रहा था," मै पहले घरको और फिर पेट्रोल पम्प को आग लगाने जा रहा हूँ..साथ तुम्हारे बेटे को भी...बचाना चाहती हो तो अभी लौट आओ...." अब आगे पढ़ें.)

उफ़! क्या हो रहा था ये सब? मेरा दिमाग फिरभी तेज़ गती से काम कर रहा था. मैंने सब से पहले पुलिस कंट्रोल रूम को इस बात की ख़बर दी. पेट्रोल पम्प पे गार्ड देने की इल्तिजा की. पम्प रहीमा के  घर के सामने ही था. लतीफ़ परिवार  और हमारे परिवार का दोस्ताना उस छोटे से शहर में तक़रीबन सभी को मालूम था. मुझे इस तरह पुलिस कंट्रोल रूम से बातें करने में बड़ी शर्मिन्दगी महसूस हो रही थी.

अब आफताब का सवाल?? उसे घर से कैसे निकला जाये? इतने में एक और फोन बजा. फोन ज़ाहिद का था. रहीमा के लिए. वो दोनों में चाहे बरसों संपर्क ना रहा हो उनका प्यार बरक़रार था, इसमें शक नही. और इसमें ज़ाहिद का कोई स्वार्थ नही था. वो रहीमा को केवल ख़ुश देखना चाहता था,जो की नामुमकिन लगता जा रहा था. जब उसे लतीफ़ की बातों का पता चला तो उसने कहा," रहीमा,फ़िक्र ना करो..मै तुम्हारे घर  जाता हूँ..मेरे होते लतीफ़ ऐसी कोई हरकत कर नही सकता...चाहे जो हो जाये.."
लेकिन मैंने और रहीमा,दोनों ने उसे मना किया.

इधर से मै रहीमा के घर  पहुँच गयी.रहीमा को मेरे घरपे ही छोड़ा. पम्प के पास,घर के आगे,अपनी गाडी खड़ी कर मै रहीमा के घर में पहुँची और आफताब को ज़ोर से आवाज़ लगाई. जैसेही वो सामने आया ,उससे कहा," जाओ,अपनी ममा का गाडी से सामान ले आओ. उनकी तबियत ठीक नही है.उन्हें सहारा देके अन्दर ले आओ.",
तबतक लतीफ़ भी मेरे आगे खड़ा हो गया था. मैंने उससे कहा," एक मिनिट रुकिए...मै अभी आती हूँ.." ,कह के मै तेज़ी से घर के बाहर आयी और आफताब को हालात की इत्तेला दी. उसे घर में वापस लौटने से मना कर दिया और अपने साथ मेरे  घर ले आयी.

मेरे घर पहुँचते ही लतीफ़ का फिर फोन आया. इस बार वो मुझ से बात करना चाह रहा था...उसने कहा," मै बहुत शर्मिन्दा हूँ..कुरआन   शरीफ़ की क़सम खाके कहता हूँ,आइन्दा रहीमा को तकलीफ़ पहुँचे ऐसी कोई हरकत नही करुँगा...आप बस रहीमा और बच्चों को वापस ले आयें...!"
उसकी इन कसमों से रहीमा ने मुझे पूरी तरह वाबस्ता किया था.ना जाने कितनी बार उसने इन दिनों ऐसी कसमे खायीं थीं.
फिरभी मैंने कहा," ठीक है, इस वक़्त तो बहुत देर हो चुकी है. मैंने तो अब ड्राईवर की छुट्टी भी कर दी है. कल देखते हैं. "

देर रात मुझे मेरे पती का फोन आया. मैंने उन्हें हालात से वाबस्ता करना चाहा तो उन्हों ने चिढ  के कहा," देखो, इन सब झमेलों  में तुम्हें  पड़ने की ज़रुरत नही. रहीमा को अभी के अभी उसके घर भेज दो. वो जाने और लतीफ़ जाने."
मै: "लेकिन इन हालात   में मै रहीमा को कैसे उसके घर भेज दूं? वो तो उसकी पिटाई कर के उसे अधमरी कर देगा!"
पति:" मैंने जो कहना कह दिया. मुझे अपने घरमे ये मुसीबत नही चाहिए. रहीमा गर सुरक्षा चाहती है तो उसे पुलिस में कम्प्लेंट देने को कहो...उसका भाई है...वो क्या कर रहा है? और उसके अन्य रिश्तेदार?"
मै:" ठीक है..."

कह के मैंने फोन तो रख दिया लेकिन रहीमा  को उसके हाल पे बेसहारा छोड़ देनेका मेरा इरादा क़तई नही था. कुछ देर में एक और फोन आया. फोन रहीमा के भाई का था. रहीमा ने उसे ख़बर तो दी ही थी.
उसने कहा," मै और जीजा जी, जो परसों सुबह तक अमरीका से  मुंबई पहुँच जायेंगे  , परसों दोपहर तक वहाँ पहुँच रहे हैं. तबतक धीरज धरे रहो."

परसों शाम तक तक तो इन्हों ने भी आही जाना था. इनके आने के बाद तो रहीमा को अपने घर पनाह देनेका सवाल ही नही उठता था...मनमे आया," सभी मर्द एक जैसे..हमेशा सब गलती औरत के ही सरपे मढना चाहते हैं..."

दूसरे दिन सुबह की शुरुआत  फिर लतीफ़ के फोन से हुई. उसने कहा ," मै अपनी बंदूक लिए तुम्हारे घर आ रहा हूँ...रहीमा से बात करके रहूँगा...उसे और बच्चों को वापस लाके ही दम लूँगा..."
वैसे बेवक़ूफ़ लतीफ़,इतने नशे में धुत रहता था,की,इन हालात  में वो एक वरदान ही साबित हुआ...! गर उसका शातिर दिमाग काम करता तो मेरे अपने बच्चों को स्कूल से आते जाते अगुवा कर लेना मुश्किल काम नही था...!पहली  और तीसरी जमात के तो बच्चे थे!! वो दोनों किसी पुलिस सुरक्षा में स्कूल नही आते जाते थे. स्कूल घर के करीब था. रास्ता पार करना  उन्हें सिखा दिया गया था. वैसे भी उस रस्ते पे ज़्यादा रहगुज़र  नही होती थी. शुरू के कुछ दिन हमारे मकान के पीछे बने नौकरों के मकानों में से एक महिला साथ चली जाया करती थी.

लतीफ़ की धमकी सुन,मैंने  हमारे गेट पे तैनात पहरे को इत्तेला दी,की,गर कोई बंदूक लेके घर के परिसर में घुसना चाहे तो रोक देना...चाहे वो कोई भी हो और कुछ भी कहे. बंदूक ना भी तो भी, गेट से अन्दर,बिना मेरी इजाज़त के कोई घुस ना पाए. "

क्रमश:

रविवार, 12 सितंबर 2010

Bikhare sitare:Raheema:2

(गतांक: पिछली रात की घटना के बारे में मेरे दिमाग में उथलपुथल तो मच ही गयी थी.ऐसा क्या हुआ होगा?क्या मैंने खुद होके रहीमा को पूछना चाहिए या नही? शायद वो खुद ही बताना चाहे!


ये बाते मनमे आ रहीं थीं और रहीमा का डरा-सा फ़ोन आया,"तुम तुरंत आओ और मुझे किसी तरह बचा लो!बड़ी मुश्किल से मुझे फ़ोन करने का मौक़ा मिला है..." अब आगे पढ़ें).
 
रहीमा का फोन आतेही पाँच मिनट के भीतर मै उस के घर के तरफ निकल पडी. दिमाग में तेज़ी से ख़याल आते रहे. क्या उसने अपने भाई को अपनी समस्या के बारेमे कुछ ख़बर दी होगी? उससे मै एक बार मिली थी..रहीमा के ही घर. रहीमा ने तब मुझ से बताया था;" ज़फर की  बहुत खूबसूरत और खानदानी लडकी से शादी हुई थी...लेकिन इसके सरपे कनाडा में बसने का भूत सवार हुआ और उसने उस लडकी को तलाक़ दे दिया.उसे एक बेटी  भी है. तलाक़ के बाद इस नीग्रो लडकी से ब्याह किया...ग्रीन कार्ड के ख़ातिर..."
 
उसकी दूसरी पत्नी तब घर में मौजूद थी.मुझे नही पता की उस औरत को उसके पति के इरादों के बारेमे कितना पता था. मन ही मन मुझे अफ़सोस ज़रूर हुआ. और अब रहीमा के साथ न जाने क्या घट रहा था...
 
मै उसके घर पहुँची तो देखा,रहीमा रो रही थी.उसका शौहर घरमे ही था. उसने पी रखी थी और नशेमे रहीमा की खूब मार पिटाई कर रहा था. मुझे देखते ही उसने रहीमा को छोड़ दिया. मै दंग रह गयी...समझ में नही आ रहा था,की,आखिर वजह क्या हुई होगी...मेरे पती ने, "रहीमा का चरित्र ठीक नही",ऐसा क्यों कहा था?बच्चे घरमे थे और ज़ाहिरन,सहमे हुए थे. इस हाल में मै क्या कर सकती थी? मैंने क्या करना चाहिए था?
 
सहसा मुझे कुछ सूझ गया और मैंने लतीफ़,रहीमा  के पती से कहा," दरअसल मेरी तबियत कुछ ठीक नही थी...मै डॉक्टर के गयी थी,और लौटते समय सोचा क्यों न आपके घर होते हुए जाऊँ ...ये तो अमरावती गए हैं...सोचा आज की रात रहीमा और महताब मेरे पास रह जाएँ तो कैसा रहेगा? मुझे अकेले कुछ डर-सा महसूस हो रहा है...क्या आप इस बात के लिए मुझे इजाज़त देंगे? रहीमा साथ होगी तो मुझे बहुत राहत महसूस होगी...."
 
कर्नल साहब को शायद मुझे मना करने में कुछ झिजक-सी महसूस हुई और वो बोले," हाँ,हां...क्यों नही? रहीमा और महताब दोनों आपके साथ चले जायेंगे..."
 
मैंने रहीमा को कहा," चलो,दो चार कपडे रख लो..मेरे घर चलते हैं...तुम्हारा खानसामा कर्नल साहब का खाना आदि तो बनाही देगा ना?"
 
"खाने पीने का तो सब इंतज़ाम है...चलो मै तैयार हो जाती हूँ...,"रहीमा ने कहा और साथ महताब को भी अन्दर ले गयी.
 
आफताब,रहीमा का बेटा हमें गेट तक छोड़ने आया. मेरे यहाँ पहुँच,महताब मेरे बच्चों के साथ टीवी देखने लग गयी.मै रहीमा को अपने कमरेमे ले गयी और रहीमा ने पिछले चंद दिनों घटीं बातें मुझे बताना शुरू कर दीं.
 
"मुझे बचपनसे एक लड़के से प्यार था. हम एकही स्कूलमे पढ़ते थे. वो भी मुझे बहुत चाहता था,लेकिन मेरे भाई ने हमारी शादी की जमके खिलाफत की. वजह इतनी,की वो लोग ज़्यादा पैसेवाले नही हैं. लड़के का नाम था/है ज़ाहिद. वो सदमे के कारण दुबई चला गया और उसके बाद लौटा ही नही. उसने पैसे तो खूब कमाए लेकिन शादी नही की.
 
"दो हफ्ते पहले वो पहली बार भारत लौटा. उसकी माँ बीमार थी इसलिए. पड़ोस होने के कारण हमारी मुलाक़ात भी हुई. उसकी माँ की कुछ तबियत ठीक हुई उस दिन लतीफ़ ने हमारी छत परसे उसे घर बुलाया और हमारे साथ जलगांव चलने का आग्रह करने लगा. जलगांव में हमारी unit का वर्धापन दिवस मन रहा था.  ज़ाहिद राज़ी हो गया. वहाँ तुम्हारे पतिसे भी हमारी मुलाक़ात हुई.
 
"लतीफ़ ने शुरुसे ही मुझे शारीरिक मानसिक रूप से बेहद तंग किया. हमारी शादी के समय उसने अपने परिवार के बारे में झूठ भी बताया. मेरे पिता और भाई,दोनोको मेरी शादी की इतनी जल्दी पडी थी,की,ठीक से तलाश तक नही की. खैर! मैंने इस ज़िंदगी को अपनी क़िस्मत मान लिया. उसे अपने बच्चों से तक लगाव नही है. ना जाने उसने ज़ाहिद को जलगांव क्यों बुलाया लेकिन,मै ख़ुश हुई की,कुछ दिन उसका साथ मिलेगा.
 
"एक समारोह के बाद शराब पीके लतीफ़ ने मुझे हमारे कमरेमे घसीट चांटा मार दिया. ज़ाहिद ने देख लिया. दूसरे दिन सुबह मुझे चंद पल अकेला पाके उसने हाथ पकड़ के कहा," तुझे बहुत सताता है न ये आदमी?"
 
"लतीफ़ ने देख लिया और हंगामा खड़ा कर दिया. तब तेरे पती भी वहीँ थे. 'मैंने रहीमा और ज़ाहिद को रंगे हाथों पकड़ लिया",कहके लतीफ़ ने खूब शोर मचाया. हम दोनोने तब से उसकी बार बार माफ़ी माँगी. ज़ाहिद तो लौट रहा है. वो फिर कभी नही आएगा,लेकिन लतीफ़ रोज़ बच्चों के आगे मुझे ज़लील करता है...मेरा सर दीवार पे पटकता है..बाल खींचता है..."
 
हमारी इतनी बात होही रही थी,की,एक फोन आया. फोन लतीफ़ का था. रहीमा ने लिया. दो चार पल बाद मुझे पकडाया...दूसरी ओरसे लतीफ़ चींख रहा था," मै पहले घरको और फिर पेट्रोल पम्प को आग लगाने जा रहा हूँ..साथ तुम्हारे बेटे को भी...बचाना चाहती हो तो अभी लौट आओ...."
 
क्रमश:

बुधवार, 8 सितंबर 2010

Bikhare sitare: Raheemaa

कई जीवनियाँ दिमाग में उथल पुथल मचा रही हैं..दीपाके साक्षात्कार में  अभी कुछ कमी-सी लग रही है.तभी रहीमा का ख़याल आया.इसके जीवन के  सब से अधिक नाट्यपूर्ण प्रसंग तो मेरे आँखों देखे घटे थे..

सोलापूर जैसे छोटे शहरमे मेरे पती की पोस्टिंग  थी. वो पुलिस  महकमे में IPS अफसर थे. सख्त और उसूलों के पक्के.

ये S. P.की हैसियत से जब वहाँ पहुँचे तो सिविल lines में हमारा सरकारी निवास्थान था.रहीमा का घर एकदम पास था और वो सोलापूर की ही बाशिन्दी थी. मतलब स्कूल और कॉलेज की पढाई वहीँ हुई थी.नैहर भी वहीँ था.माता पिता का देहांत हो चुका था. एक भाई मुंबई में रहता था. एक बहन अमरीका में .
रहीमा का  ब्याह तो एक आर्मी के अफसरसे हुआ था पर उसकी पोस्टिंग NCC में commandant के तौरपे सोलापुर में हुई थी .वो लोग रहीमा के बडेसे पुश्तैनी मकान में रह रहे थे.रहीमा के साथ उसके वालिद वालिदैन के ज़माने के पुराने वफादार नौकर भी थे.पिताकी मृत्यु के पूर्व भारत की अन्य जगहों पे रह चुके थे.

रहीमा के पिताकी कुछ ही अरसा पूर्व मृत्यु हुई थी . उनके घरके पास ही उनका पेट्रोल pump  था. इसके चलाने की ज़िम्मेदारी रहीमा पे आन पडी,जो वो भली भांती निभा रही थी.

हमारे बच्चे हमउम्र थे तो अच्छी निभ जाती थी. बड़ा लड़का,आफताब,छोटे बिटिया,महताब.रहीमा का पती कुछ ज़रुरत से ज़्यादा ही पियक्कड़ था.इस वजह खाना आदि समाप्त होने में बहुत देर हो जाती और मै परेशान हो जाती.खैर.

पुलिस lines में मै काफ़ी काम करती रहती.उसमेसे एक था मनोरंजन  के कार्यक्रमों को चालना  देना. महिलाओं के खेल,रंगोली स्पर्धा,मेडिकल चेक ups ,lines की सफाई,पर्यावरण के बारेमे सचेत करना,बालवाडी चलाना आदि सब इसमें शामिल था.

एक शाम की बात है.मै ऐसेही एक कार्यक्रम के आयोजन से बेहद थकिमान्दी घर पहुँची.बस क़दम ही रखा था की,रहीमा के बड़े बेटे का फ़ोन  आया. वो मेरे पती से तुरंत बात करना चाह रहा था. मैंने इन्हें फ़ोन पकडाया. मुझे वो बहुत परेशान लगा. आखिर स्कूल का ही बच्चा था.

उसकी बात सुनते,सुनते इनका चेहरा सख्त हो गया.फ़ोन रखते ही बोले मुझे मुझे तुरंत वहाँ जाना होगा.लतीफ़(रहीमा का पती)और रहीमा के बीछ बेहद पेचीदा सवाल उठ खड़ा हुआ है.
"मै चलूँ साथ?" मैंने पूछा,हालांकी मेरा सर दर्द से फटा जा रहा था और मै injection के लिए डॉक्टर को बुला चुकी थी."नही,"इनका रूखा-सा जवाब.उस समय रात के १२ बज चुके थे.ये चले गए पर मेरी आँख नही लगी. तक़रीबन सुबह के तीन बजे ये लौटे.

मैंने पूछा,' क्या हुआ था? सब ठीक ठाक तो हो गया न?"
"नही.और होगा ऐसा लगता नही...जब मै जलगांव इनकी unit के स्थापना दिवस के लिए गया था,तभी मुझे कुछ शक हुआ था..खैर...अब मुझे उस बारे में बात नही करनी...रहीमा का चरित्र ठीक नही है."
इतना कह ये सो गए. दूसरे दिन इन्हें अमरावती में होने वाले राज्य पोलिस क्रीडा स्पर्धा के लिए जाना था. मैंने packing तो तक़रीबन करके रखी थी. बच्चों के इम्तेहान सरपे थे तो मेरा जाना मुमकिन न था.

पिछली रात की घटना के बारे में मेरे दिमाग में उथलपुथल तो मच ही गयी थी.ऐसा क्या हुआ होगा?क्या मैंने खुद होके रहीमा को पूछना चाहिए या नही? शायद वो खुद ही बताना चाहे!
ये बाते मनमे आ रहीं थीं और रहीमा का डरा-सा फ़ोन आया,"तुम तुरंत आओ और मुझे किसी तरह बचा लो!बड़ी मुश्किल से मुझे फ़ोन करने का मौक़ा मिला है..."

क्रमश:

बुधवार, 1 सितंबर 2010

इन सितारों से आगे..5

सम्वेदना के स्वर ने कहा…
क्षमा जी...बीमार होने के कारण दो दिन से घर पर ही हूँ इसलिए बिखरे सितारे पूरा पढ गया... मुझे इसको पूरा पढ जाने के लिए दो बातों ने प्रेरित किया... पहला आपका ये कहना कि ये दुबारा आपने सिर्फ मेरे लिए लगाई है और दूसरा जो मैंने पहले भी कहा है कि आपकी सम्वेदनशीलता मुझे अपने करीब महसूस होती है...आज सारे एपिसोड्स पर एक समीक्षा रूपी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ... एक, आपने यह कथामाला आत्मकथ्य शैली में लिखी है और जितनी बारीकी से घटनाक्रम लिखा गया है, वह तभी सम्भव है जब यह सारी दुर्घटनाएं स्वयम झेली हों. पूजा तमना की चारित्रिक विशेषताएँ भी आपके किरदार से मेल खाती हैं. लिहाजा हर स्थल पर यह प्रतीत होता है कि यह पूरा कथानक आपकी आत्मकथा है. अगर नहीं, तो आपका लेखन इतना जीवंत है कि आपने हर चरित्र को जैसे जीकर देखा है. दो, जीवन में मैंने भी कई ऐसे लोगों को देखा है जिनके विषय में कह सकते हैं कि दुर्भाग्य की जीती जागती मिसाल रहे हैं वो लोग. लेकिन पूजा की व्यथा सुनकर ऐसा लगता है कि दुर्भाग्य ने हर क़दम पर उसका दामन थाम रखा था. इतनी मुश्किलें, इतनी दुश्वारियाँ और इतनी तकलीफें कि खुद दुःख भी अपनी आँखें मूँद ले. और इतनी तकलीफें झेलकर भी कोई ज़िंदा हो, फिर वो पत्थर हो चुका होगा. मुश्किलें मुझपर पड़ी इतनी कि आसाँ हो गईं. लेकिन पूजा के लिए असानी जैसी कोई राह ही नहीं थी. पता नहीं किस काली कलम से अपनी किस्मत लिखवाकर आई थी वो.



सम्वेदना के स्वर ने कहा…
तीन, एक बहुत पुरानी कहावत है कि खराब सिक्के पुराने सिक्कों का चलन रोक देते हैं. बुराइयाँ ऐसे ऐसे रूप धरकर सामने आती हैं कि अच्छाइयों से ज़्यादा हसीन लगें. इतनी बुलंद आवाज़ में चीखती हैं कि सच्चाई की आवाज़ घुट जाए. और वही पूजा के साथ भी हुआ. ऐसा हर किसी के साथ होता है कभी न कभी. मेरे साथ भी हुआ. लेकिन हफ्ते, महीने भर के लिए. पूजा की बदकिस्मती का ये आलम कि सारीज़िंदगी चलता रहा ये खेल उसके साथ. चार, शादी का जो रिश्ता गौरव के साथ हुआ वो बुनियाद ही गलत थी. जो शादी सहानुभूति के भाव के साथ हो न कि प्यार के भाव के साथ, वो निभ नहीं सकती. समाज में ऐसे कई उदाहरण हैं. वो एक गलत फैसला सारी ज़िंदगी तबाह कर गया पूजा की. पाँच, यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है और उसके उत्तर की अपेक्षा भी करता हूँ. क्या सचमुच दुर्भाग्य पूजा के साथ इस तरह चिपका था कि एक साथ सारे उसके ख़िलाफ हो गए! उसके बच्चे, जिन्होने उसे अपने बचपन से देखा, उसकी गोद में पले बढे, उसकी बहन जो उसकी सुख दुख की गवाह थी, उसके नौकर नौकरानी, ड्राइवर, परिवार, समाज, दोस्त, रिश्तेदार, डॉक्टर, नर्स, सारे के सारे गौरव के पक्ष में हो गए ऐसा क्या नशा पिला दिया था गौरव ने. यह प्रश्न पूजा के सतीत्व से जुड़ा नहीं है, लेकिन गौरव के संदर्भ में एक ठोस प्रमाण है. आखिर ऐसी क्या कमी थी पूजा में कि तमाम अच्छाइयों के बाद भी उसका विरोध किया उसके अपनों ने. .क्षमा: पूजा के साथ जो लोग खिलाफ हो गए,उसका महत्त्व पूर्ण कारण था वह डॉक्टर.अलावा इसके गौरव का अपनी पत्नी बारे में नौकरों से पूछताछ करना...हर मुमकिन तरीकेसे पूजा को मानो नज़र क़ैद में रखना. उसकी गतिविधियों का अपनी सुविधा के अनुसार मतलब निकाल लेना. गौरव का मिज़ाज ही ऐसा था," जिसे तैश में खौफे खुदा न रहे!"उसे जो मतलब निकलना होता,निकलके एक पूजा के अलावा अन्यत्र हर जगह उसकी चर्चा कर बदनामी करना. उसने रिश्ते की गरिमा कभी समझी ही नही. वो चाहे जिससे विवाह करता,हश्र यही होता. शक ले डूबता.कई विवाह समझौते की बुनियाद पे होते हैं,लेकिन ज़रूरी नही की,हश्र ऐसा हो.इंसान गर परिपक्व होता है तो कुछ हदतक आपसी सामंजस्य बना लेनेमे सफल ज़रूर होता है.



सम्वेदना के स्वर ने कहा…
क्षमा जी.. यह आपकी अपनी कहानी हो न हो, कहानी कहने का अंदाज़ इसको अपना लेता है. आपका परिचय आपके ब्लॉग पर उपलब्ध नहीं है, फिर भी आपके बारे में जो अंदाज़ा मैंने लगाया था, वो बहुत हद तक सही निकला... और यह बात मैं आपकी इस शृंखला को पधने से पहले ही कह चुका था..ख़ैर उन बातों का कोई ताल्लुक नहीं इस बात से. अपना ई मेल देंगी, यदि आपत्ति न हो तो. सरिता दी ने भी आपसे मेल आई डी माँगा था. मेरा सुझव है कि आप मेरी यह टिप्पणी प्रकाशित न करें. अपने तक रखें और हो सके तो अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरअवश्य दें. पुनश्चः “बाबुल की दुआएँ लेती जा” का असर देखा न आपने!! कितनी बदल जाती है दुनिया. मैंने अपनी इकलौती बहन की शादी में “बाबुल की दुआएँ” की जगह “काहे को ब्याही” बजवाया था. -सलिल इस मालिका का पुनः प्रकाशन 'संवेदना के स्वर' के लिए ख़ास तौर पे किया था...साथ,साथ अली साहब भी कुछ कड़ियाँ मिस कर गए थे.वे  कड़ी डर कड़ी पढ़ते और कथानक के साथ बह निकलते...  पूजा के साथ होते अन्याय को देख तमतमा उठते... आप लोगों का तहे दिलसे बार,बार शुक्रिया...डर असल मेरे पास अलफ़ाज़ नही हैं,की,मै अपनी भावनाओं को कैसे व्यक्त करूँ.आप सभी मेरे इस सफ़र के साथी और रहनुमा रहे. Dr.Bhawna ने कहा… सच में दिल दहला देने वाला सत्य पढ़कर मैं तो कल रात सो भी नहीं पाई, हद होती है इंसान के गिरने की, कितना सहा पूज़ा ने दर्द जब ज्यादा होता है जब अपने उस दर्द में नश्तर चुभाते हैं... 
भावनाजी  भी  लगातार  जुडी  रहीं  और और आपने देखा,किस क़दर भावुक होके टिप्पणियाँ देती रहीं! आप सभी के निरंतर रुण में रहूँगी! कमेंट्स तो खैर और अनगिनत थे,और सभी की शुक्रगुजार हूँ.समाहित उन कमेंट्स को किया है,जिनमे निरंतरता बनी रही. सच तो ये भी है की,इतने लम्बे अरसे तक निरंतरता बनाये रखना आसान नही होता. समाप्त कुछ तकनीकी समस्या है,की,मै चाह्के भी,और तमाम कोशिशों के बावजूद  para अलग नही कर पा रही हूँ!

सोमवार, 30 अगस्त 2010

इन सितारों से आगे..४

JHAROKHA ने कहा… aane wala kal kisne dekha hai fir bhi ham kal ki khatir sapane sanjote rahte hai aapki har kahani agali kadi kei utsukta ko aur bhi badha deti hai. aur yah panktiyan to shayad sabhi ko thodi der ke liye hi khushi de jati hongi----------

"हर खुशी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
चाँद धुन्दला सही,ग़म नही है मुझे,
चांदनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
रौशनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे.
poonam

Apanatva ने कहा… agalee kadee ke intzar me dhadkane bad gayee hai.....

संहिता ने कहा…
कहानी का यह भाग, मर्म स्पर्शी ! हमेशा की तरह !! जीवन मे पग पग पर समस्याए !!!! और कितना संघर्ष है , पूजा के जीवन मे??? यहां पति अपनी पत्नी की भावनाओ और उसकी परेशानियों को समझना ही नही चाहता है । पूजा के जीवन को जटिल बना कर रख दिया है । क्षमा जी , मेरे ब्लोग पर आपने सन्देश भेजा, इसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद!!! वास्तव मे पिछले कुछ दिनो मे मेरी अत्यधिक व्यस्तता के कारण ब्लोग पर कुछ लिख नही पायी हूँ । परंतु आपका ब्लोग नियमित रूप से पढ रही हूँ । इस मार्मिक कहानी ने मुझे बान्ध के रखा है । पुन: आशावादी हूँ ,कि अगली कडीयों मे शायद पूजा के जीवन मे खुशियो के पल आयेंगे।







arvind ने कहा…
जहाँ तेरा मुखड़ा नही, वो आशियाँ मेरा नही, इस घरमे झाँकती किरणों मे उजाला नही! चीज़ हो सिर्फ़ कोई , उजाले जैसी, हो जोभी, मुझे तसल्ली नही! ...bahut marmik. samvedanshil....pataa nahi aap itna dard kahan se laati hain...vah... bahut sundar. मो सम कौन ? ने कहा… आपके ब्लाग पर पन्द्रह बीस दिन में एक बार ही आता हूं। इस तरह कम से कम तीन चार बार सस्पेंस में जाने से बच जाता हूं। आखिरी तीन चार कडि़यां तो बहुत ही धाराप्रवाह चली हैं। आज फ़िर आगे क्या होगा की उत्सुकता लेकर लौट रहा हूं। जब भी लगता है कि बस, अब बहुत हो चुका, अगली पोस्ट और बड़े सवाल अधूरे छोड़ जाती है। लिखती रहें आप, दर्द शेयर करने से कम होता है। संजय भास्कर ने कहा… लघुकथा सा लगा आपका यह संस्मरण! बहुत सुन्दर! VICHAAR SHOONYA ने कहा… मैं थोडा सा उलझन में हूँ की ये कहानी हैं या वास्तविकता? जो कुछ भी लिखा गया है वो वास्तविक सा लगता है और ऊपर लिखा भी है ek jivanee. तो क्या ये सब सच हैं या फिर एक शानदार कहानी? दिलीप ने कहा… oh behad maarmik ant ki baat rula gayi....bachche kabhi kabhi kuch aisa keh dete hain ki nayanon se ashru barbas hi nikal padte hain...maarmik rachna गौतम राजरिशी ने कहा… पूजा/तमन्ना की इस यात्रा में इब्तिदा से संग रहा और अचानक से ये आखिरी किश्त का ऐलान जैसे सोयी नींद से जगा गया है। मुझे लग रहा था कि अंत में सब ठीक ही हो जायेगा....लेकिन ये आखिरी कड़ी और ऊपर से संपादित। क्या कुछ बीती होगी आप पर, हम तो पढ़ कर एक छटांश भी भाँप न पाये होंगे। दर्द की ये दास्तान शायद जाने कितने दिनों तक हांट करते रहे मुझे। आप जहाँ भी हों मैम...क्या कहूँ...just wishing you all the best...may god give you all the strength वन्दना ने कहा… कभी कभी हालात इंसान के बस मे नही होते और उसे किसि न किसी मजबूरी के कारण रिश्तों को ढोना ही पड्ता है और उस पर भारतीय स्त्री वो तो हमेशा ही दूसरों के लिये जीती आयी है तो इस मानसिकता से कभी बाहर ही नही आ पाती और अपने बच्चों की खातिर तो कभी समाज की खातिर तो कभी पति की खातिर अनचाहे रिश्तों का बोझ ढोती चली जाती है ………………शायद पूजा का भी यही हाल रहा है ना चाहते हुये भी ज़हर के घूँट ज़िन्दगी पिलाती चली गयी और पूजा पीती चली गयी मगर कोई पूछे उसे इस ज़िन्दगी और रिश्तों से क्या मिला………खुद को मिटाकर सब पर लुटाकर क्या मिला? जिनकी खातिर उसने अपने जीवन की आहुति दी उसका सिला उसे क्या मिला? ना जाने कब नारी सिर्फ़ अपने लिये जीना सिखेगी या समाज के खोखले नियमो से लड सकेगी? ऐसे ना जाने कितने ही अनुत्तरित प्रश्न मूँह बाये खडे हैं अपने जवाब के इंतज़ार में। 
इस  क़दर  भावना  प्रधान  और  तहे  दिल  से  दी  गयी  टिप्पणीयों  ने  मेरा  हौसला  बनाये  रखा ....साथ चल  रहे कारवाँ का एहसास होता रहा...कैसे शुक्रिया अदा करूँ? अगली और अंतिम कड़ी में  अली साहब और संवेदनाका संसार इनका अलग से शुक्रिया अदा करना है...इन्हीं चंद पाठकों के लिए इसका पुनः प्रकाशन किया...
क्रमश:..

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

इन सितारों से आगे..3

ali ने कहा…
हौलनाक ....ये वक़्त किसी पे ना गुज़रे ! जितनी बार पढता हूँ चोट सी लगती है !
















उफ़ बहुत ही भयानक परिणाम रहा………………ऐसा तो कोई सोच भी नही सकता था…………………………और अभी आगे भी मुश्किलों भरा सफ़र जान दुख हो रहा है…………कोई कैसे इतना सह सकता है।
















काजल कुमार Kajal Kumar ने कहा…
बहुत सी बातें हैं जो बिन कहे ही की जाती हैं. सुंदर. rashmi ravija ने कहा… बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ..कहानी में भी कविता का आभास,वो खुला आसमान और चाँद का सफ़र...किसी बीते युग की बात लगती है ..स्मरण दिलाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया शिवराज गूजर. ने कहा… पहली बार आपके ब्लॉग पर आया. सच मानिये पहली बार में ही आपकी कलम का मुरीद हो गया.
Apoorv ने कहा…
बाँध लेने की क्षमता है आपकी कलम मे..अब तो सारे बिखरे सितारे इकट्ठे करने पड़ेंगे एक दिन..और अगली किश्त की प्रतीक्षा भी है..
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
"उसके मिट्टी से सने पैरों के निशाँ वाली एक चद्दर ही हम रख लेते तो कितना अच्छा होता...." कितनी अच्छी बात कही है - काश यह समझदारी सब में नैसर्गिक ही होती तो दुनिया कितनी खूबसूरत होती!












Manoj Bharti ने कहा…
क्षमा जी ! सादर प्रणाम ! आज तीसरी कड़ी पढ़ी । अच्छा लगी । बड़े-बुजुर्गों का स्नेह भाव और उनकी तन्हाई का सुंदर चित्रण हुआ है । रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा… एक अच्छा सफ़र रहा... आपके साथ ऊपर-नीचे होते रहे.... पर इसे हटाना...यह क्यूं आखिर...? शहरोज़ ने कहा… इतनी सुघड़ भाषा ब्लॉग में तो कम ही देखाई देती है.प्रवाह तो है ही...संवेदनाओं को हौले हौले झक झोरती है धीरे-धीरे बढती कथा.. pragya ने कहा… मन  ही  नहीं  करता  की  ये  कहानी  कहीं  पर  ख़त्म  हो .. 







ललितमोहन त्रिवेदी ने कहा…
क्षमा जी ! कहानी की रोचकता और रहस्यमयता दौनों ही प्रभावित करती हैं ! कभी टिप्पणी चूक जाती है परन्तु रचना पढ़ता अवश्य हूँ !बहुत अच्छा लिख रही हैं आप ! 





रचना दीक्षित ने कहा…
क्या लेखन कला है ?कमाल है ........एकदम बाँध कर रखती है. साँस की लय भी कहानी की लय से बांध जाना चाहती है.अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी. आभार Dr.R.Ramkumar ने कहा… फिर वो दिनभी आ गया जब उसे अमरीका जाना था...हवाई अड्डे पे पूजा ,गौरव और केतकी खड़े थे..पूजा के आँखों से पिछले महीनों से रोका हुआ पानी बह निकला था...उसने अपनी लाडली के आँखों में झाँका...वहाँ भविष्य के सपने चमक रहे थे..जुदाई का एकभी क़तरा उन आँखों में नही था...एक क़तरा जो पूजा को उस वक़्त आश्वस्त करता,की, उसकी बेटी उसे याद करगी..उसकी जुदाई को महसूस करेगी...उसे उस स्कूल के दिनका एक आँसू याद आ रहा था,जो नन्हीं केतकी ने बहाया था...जब स्कूल बस बच्ची को पीछे भूल आगे निकल गयी थी...समय भी आगे निकल गया था...माँ की ममता पीछे रह गयी थी... अंतस से लिखी प्रभावशाली कहानी। शब्दों में आंतरिक सच लिपटा हुआ आया । दर्द तो फिर आना ही था। समकालीन टूटते बिखरते मजबूर विकास का उम्दा चित्रण। अनुभूतियों की ‘शमा’ मौजूद है, ‘क्षमा’ बनकर। ali ने कहा… क्षमा जी आज फुर्सत से पढ़ा ... लगता है मन रम जायेगा चूंकि यह आलेख धारावाहिक की शक्ल में है इसलिए मुझे आगा पीछा सोचने और प्रतिक्रिया देने का अवसर दीजिये ! आज बस इतना ही कि पढना अच्छा लग रहा है ! शुक्रिया ! अल्पना वर्मा ने कहा… माँ और उसकी ममता भी असहाय हो जाती है..बच्चों के फैसलों के आगे! बहुत भावपूर्ण लिखा है ..आगे के भाग की प्रतीक्षा रहेगी.
अरुणेश मिश्र ने कहा…
पूरा पढने की इच्छा । माँ महान है ।

alka sarwat ने कहा…
बिटिया का ब्याह और मै नही जा सकूँगी... ये पीड़ा अभी कुछ दिन पहले मैंने भोगी है ,इसका दर्द तो बस आसन हिला देता है ऊपर वाले का भी ,सच बहुत गहन पीड़ा है ये ..........

Mrs. Asha Joglekar ने कहा…
यही होती है माँ, बच्चे चाहे रूठे रहें माँ की ममता बच्चों के लिये छलकती ही रहती है चाहे वे सामने हों या नहों । बिटिया का ब्याह और मै नही जा सकूँगी.....इस वाक्य में आपके दिल का सारा दर्द उभर आया है ।

aruna kapoor 'jayaka' ने कहा…
स्रियां जीवन में कितनी गंभीर समस्याओं से झूझ रही होती है...इसका शब्दों मे सचित्र वर्णन आपने किया है आपने क्षमाजी!.. मीनाक्षी ने कहा… कमाल  है  ...देखते  ही  देखते  पहली   से  अब  2010 मे  की  किश्त  भी  पढ़  ली ....शायद  कथा  के  पात्र  हमारे  में  से  ही  कोई  होता  है  एक  जादुई  प्रवाह  में  बस  पढ़ती  चली  गयी ..... 
 
इस सफ़र की सख्त धूप में आप की टिप्पणियों के घने साए साथ चलते रहे...रहगुज़र आसान होती गयी...बहुत,बहुत शुक्रिया!
अगली दो कड़ियों में सफ़र में अन्य साथी,जिनकी  रहनुमाई न होती तो सफ़र पूरा न होता , उनका ज़िक्र  ज़रूर करुँगी..
क्रमशः

इन सितारों से आगे..२

बसंता जी हर कड़ी के साथ जुड़े रहे और अपनी अनमोल टिप्पणी देते रहे..हालांकि वो नेपाली भाषा में ब्लॉग लिखते हैं,और वही भाषा बेहतर जानते हैं,वो वो मेरे हिन्दी लेखन की  हरेक बारीकी समझते रहे!

डॉक्टर रूपचंद शाश्त्री जी की," कथा बहत रोचक है और इस में लयबद्धता बनी रही है," जैसी टिप्पणी हौसला अफज़ाई करती रही.

योगेश जी स्वप्न की टिप्पणी," पढ़ना शुरू किया तो पढता ही गया, अक्सर लेख पढता नही हूँ. बहुत दिल को छू लेनेवाली लगी कहानी. कभी बहुत पहले पढी मुंशी प्रेमचंद की कहानियों की याद आ गयी," ज़र्रानवाज़ी नही तो और क्या थी?

शारदा अरोरा जी अंत तक जुडी रहीं.."लगती तो ये आप बीती है. शानदार उपन्यास का लुत्फ़ देती है"....इस में उनका बड़प्पन नज़र आता है.

दिगंबर नासवा जी  जुड़े रहे..."बच्चे की किल्कारिया तो किसी को भी आनंद में ले जाती हैं...फिर दादा-दादी की तो बात ही क्या..आपका आगे का सफ़र भी सुन्दर  होगा !"..ये सद्भावना   हमेशा   साथ रही.

सुरेन्द्र  'मुल्हिद 'शुरू से जुड़े रहे और हौसला अफज़ाई करते रहे...शायद अंत में कुछ मसरूफ़ हो गए!

गर्दू गाफिल जी ने लिखा," सुनेंद्र जी आपको जादूगर कह रहे हैं...किन्तु मुझे तो संवेदनाओं का सागर लगती हैं...!
क्या खूब नज़्म लिखी है! आपके वाक़यात पढ़ते हुए मुझे शिवानी और मीना कुमारी याद आ गयीं...शिवानी की तरह शब्द चित्र और मीना कुमारी की तरह दर्द का दरिया..
ये कैसा अद्भुत संयोग है! आपकी लेखनी मन्त्र मुग्ध करती है""
भला ऐसी टिप्पणी कोई भुला सकता है?

मुकेश कुमार तिवारी जी लिखते हैं,

"अब तो कथानक के साथ रिश्ता जुड़ता महसूस हो रहा है। सांस रोक के पढना होता है एकबार में।

बहुत ही अच्छा और सधा हुआ लेखन।"
महफूज़  अली  कभी  जुड़े  कभी  बच  निकले !

निर्मला कपिला जी की बड़ी उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ रहीं!एक  में  लिखा,
"बहुत दिल्चस्प मोड पर कहानी को छोडा है अगली कडी के लिये उत्सुकत और् बढ गयी है।"...अब बताईये की,अगली कड़ी कैसे न लिखती?

'मुमुक्ष की रचनाएँ, से टिप्पणी रही(अनेकों में से एक),
"आगे, आगे क्या अंजाम हुए ?? क़िस्मत ने क्या रंग दिखाए?

श्रवण कुमार ने शाप तो महाराजा दशरथ को दिया..लेकिन किस, किस ने भुगता?

पूजा के जीवन के दर्दनाक मोड़ तो उसी दागी गयी गोली के साथ शुरू हों गए...

कहानी रोचक होती ही जा रही है. पढने की ललक बढती ही जा रही है."

ज्योति  सिंह   जी एक जगह कहती हैं,
"दो   बार  आकर  लौट  गयी .. इतनी  बढ़िया  रचना  को  पढ़कर  टिपण्णी  न  देने  का  अफ़सोस  हो  रहा  था  पर  आज  सफलता  मिलने  पर  ख़ुशी  हुई  .पूजा  की  कहानी  दिल  को  छूने  वाली  अवं  रोचक  बनती  जा  रही  है  .आगे  पढने  फिर  आउंगी  ."

BrijmohanShrivastava ने कहा… १४वी कड़ी पढने के बाद आज ऐसा लग रहा है दोबारा शुरू से पढना शुरू करुँ| बात ये है कि अभी तक कहानी /उपन्यास की द्रष्टि से पढ़ रहा था अब साहित्य की द्रष्टि से पढ़ा जायेगा |आज जब इस ओर मेरा ध्यान गया तो यह विचार आया ""सितारों जडी रात चूनर लेकर उसके जिस्म पर पैरहन डालने वाली थी ""तथा ""कपोलों पे रक्तिमा छा गई "" और ""फिजायें महकने लगीं चहकने लगीं जिस्म को वादे सबा छू गई एक सिरहन सी दे गई ""और भी "" वो आँखों का सितारा सुबह का तारा "

बाद में कहीँ खो गए ब्रिजमोहन जी....!

भाग्यश्री, दीपक 'मशाल','अदा'जी,ललित मोहन त्रिवेदी...इन सभी की बेहद उत्साह वर्धक टिप्पणियाँ रहीं!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…" पूजा की तरह ही मैं भी इन्तज़ार करती हूं इस श्रृंखला की हर कडी का, लेकिन इन्तज़ार जितना लम्बा होता है, पढने में उतना ही कम समय लगता है. लगता है जैसे अभी तो पढना शुरु किया था और कडी खत्म भी हो गई?"
कितनी प्यारी-सी टिप्पणी है ये!
विनोद कुमार पांडेय ने कहा…
प्यार का दर्द सचमुच बहुत कठिन होता है बेहद संवेदनशील कहानी ..पूजा के हालत इस कदर होना स्वाभाविक है क्योंकि आदमी जब किसी को चाहे और वो किसी प्रकार दूर होता प्रतीत हो तो तकलीफ़ तो होती ही है..और ऐसे में दादा दादी का भी इस प्रकार प्यार करना और सहारा देना कुछ पल के लिए एक सुखद एहसास देता है..बढ़िया कहानी आगे के कड़ियों का इंतज़ार है..




Dipak 'Mashal' ने कहा…
Is qalam ke kamaal ko bhala main kya naam doon? adbhut ya manmohak.... Jai हिंद 'अदा' ने कहा… "ये गौरव भी ना.. पता नही किसी की उतरन ले आया है " बहुत ही सहजता से आपने सबकुछ कह डाला.... आप ..लिखती रहे हम आते रहते हैं.... बस ये है कि कभी-कभी टिपण्णी नहीं दे पाते..... बहुत अच्छा...वाह ..कहके चले जाना हमें अच्छा नहीं लगता.. लेकिन ये बताना चाहते हैं कि आपको पढ़ते हमेशा ही हैं..... और आपकी लेखनी को सलाम भी करते हैं.... बहुत ही सरलता से सीधी सच्ची बात कहतीं हैं आप... आज भी अच्छा लगा पढ़ना आपको.....हमेशा की तरह....!! "
आप सभी का शुक्रिया! क्षमा क्रमश:

बुधवार, 25 अगस्त 2010

इन सितारों से आगे..

२३ जून के बाद मैंने इस ब्लॉग पे नही लिखा...हाँ..पुनः प्रकाशन ज़रूर कर दिया. स्वयं नही सोचा था,की,पूजा की जीवनी ख़त्म होने के बाद मै आगे क्या लिखूँगी..एक और जीवनी के अलावा और क्या लिखा जा सकता था? दिमाग में कुछ रोज़ पूर्व लिया हुआ एक साक्षात्कार घूम रहा है...पर लगता है,अभी पूजा की जीवनी दिमाग पे बहुत अधिक हावी है. मै गर इस वक़्त कुछ और लिखूँ तो उसे न्याय नही दे पाऊँगी . दीपा,जिसका साक्षात्कार लिया,वो इंतज़ार में है,की,अब मै उसके बारे में कब लिखना शुरू करुँगी! और मुझे शर्मिन्दगी महसूस होती है जब मै उसे कहती हूँ...अभी नही...रुक जाओ ज़रा-सा की,'बिखरे सितारे'के अपने आप पे पड़े प्रभाव से उभर जाऊँ !अपने खुद के लेखन का प्रभाव नही ! जानती हूँ,की,लेखन में कई कमियाँ रह गयीं. खुद को तसल्ली दे देती हूँ,की,मै वैसे भी लेखक या लेखिका तो हूँ नही! यहाँ बात कर रही हूँ, एक जीवन से उसके अतीत में जाके जुड़े रहने का प्रभाव.
मुख पृष्ठ   से शायद पूजा  की तसवीर अब हटानी चाहिए. लेकिन दीपा की कोई मौज़ूम तसवीर फिलहाल उपलब्ध नही.दो तीन ब्लॉगर दोस्तों से मैंने उस तसवीर को हटा देने के बारे में बात कही तो सभी ने निषेध कर कहा,की,वो तसवीर अब इस ब्लॉग की पहचान है! सवाल ये भी है,की,दीपा की कहानी,जो इतनी लम्बी निश्चित ही नही,का शीर्षक क्या होना चाहिए? दिमाग में उहापोह जारी है.

इस अंतराल में पूजा के जीवन में चंद घटनाएँ और घटीं..क्या उन्हें लिखना चाहिए या जहाँ मालिका रोक दी,वहीँ अब रुक जाना चाहिए? तय नही कर पा रही हूँ.
इस सफ़र में अनेक पाठक जुड़े. उनकी टिप्पणियाँ पढना अपने आप में मुझे एक सफ़र पे ले जाता है. पहले प्रकाशन के समय जिनकी हर किश्त पे टिप्पणी आती रही वो हैं हम  सब के चहेते मेजर गौतम राजरिशी. मै स्वयं हैरान हूँ,की इतना व्यस्त इंसान इस तरह एक साल भर किसी मालिका से जुड़ के ,इतने नियम से,हरेक लफ्ज़ पढ़ के कैसे टिप्पणी दे सका? कुछ टिप्पणियाँ तो उन्हों ने अस्पताल के बिस्तर परसे की हुई हैं! उनका जितना शुक्रिया अदा करूँ,कम है. गौतमजी, आपने बेहद हौसला अफज़ाई की. कई बार दो कड़ियों के बीछ दो हफ़्तों तक का अंतराल पड़ जाता था,और मुझे लगता की,शायद अब आगे बढना मुमकिन नही. तभी ख़याल आता की,ये ऐसे पाठकों के साथ नाइंसाफी है जो इतने मन से और नियम से इस श्रीन्खलाके साथ जुड़े हैं.
वंदना अवस्थी दुबे,वंदना गुप्ता, ज्योति सिंह, इन सभी की हरेक कड़ी के बाद टिप्पणियाँ हैं. अगली बार इन सभी के बारे में लिखना चाहूँगी. अपने प्रथम प्रकाशन के बाद जब दोबारा प्रकाशन  किया तो कुछ और पाठक मित्र जुड़े. उनकी भी टिप्पणियाँ पढके लगता है,की,लेखन सफल हो गया.
क्रमशः ( ज़्यादा नही,और दो या तीन किश्तें...आप सभी के साथ जुड़े रहने का एक सुखद संस्मरण!)

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

बिखरे सितारे: टूटते हुए....


( गतांक:बिटिया ने कहा," माँ अब तुम पर से विश्वास उठ गया है..न जाने फिर कब लौटेगा..! उस के पास तुम्हारी तस्वीरें और आवाज़ कहाँ से आयी? "
मै :" मै हज़ार बार कह चुकी हूँ,की,मेरी शूटिंग भी हुई थी और रेकॉर्डिंग भी! और गर नही है विश्वास तो उसी व्यक्ती से पूछ लो...और मै क्या कह सकती हूँ...इस विषय पे मै और एक शब्द भी सुनना नही चाहती...ख़ास कर तुम से..मै आत्म ह्त्या कर लूँगी...मेरे बरदाश्त की अब हद हो गयी है...!" खैर!
दो माह के बाद इन जनाब का एक माफी नामा आया. उन्हें पश्च्याताप हो रहा था..देर आए,दुरुस्त आए..पर मै बहुत कुछ  खो चुकी थी...आत्म विश्वास और अपनों का विश्वास..खासकर अपनी बेटी का..गौरव के अविश्वास की तो आदत पड़ गयी थी...अब आगे.)
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इन्हीं हालातों के चलते एक बार पूजा और उसकी माँ के दरमियान अन्तरंग बातें हो रही थी.माँ ने कहा:" पता नही,ख़ता किसकी होती है,और भुगतना किसे पड़ता है!  अजब दुनिया है...कभी सोचती हूँ,तूने,मेरी इस बिटिया  ने   कभी किसी का बुरा न किया...उसकी क़िस्मत में क्यों इतना दर्द लिखा है?
"अन्दर से इक आवाज़ आती है-इसका सिरा मेरी माँ से जुड़ता है..तेरी नानी ने अपनी ननद की बेटी से बहुत बुरा बर्ताव किया था. जबकि तेरी इस मासी ने कभी उन्हें पलट के लफ्ज़ नही कहा..बेचारी बिन माँ बाप की अनाथ लडकी थी...मै तो उनसे काफ़ी छोटी थी...तब नही समझ पाती  थी,लेकिन आज लगता है,क़ुदरत ने यह न्याय किया है...ना जीवन में मुझे चैन मिला न तुझे..."

पूजा गहरी सोच में पड़ गयी थी. उसे याद आया,उसका ही लिखा एक आलेख,जिसमे उसने लिखा था--श्रवन कुमार ने श्राप तो राजा दशरथ को दिया था. उस श्राप से उसके अंधे माता पिता की मुश्किलें तो कम नही हुई. लेकिन उसका असर कहाँ से कहाँ हुआ.
राम को बनवास भेजनेवाली कैकेयी ने खुद भुगता. माता कौशल्या ने भुगता, भरत  की पत्नी,लक्ष्मण की पत्नी और सीता..इन सबने भुगता...इन तीनों के नैहर वालों ने उसकी आँच सही होगी...न सिर्फ यह,अंत में,सीता के बच्चे लव कुश जो राजपुत्र थे,वाल्मिकी मुनी ने वन में पाला पोसा.
सीता ने अग्नी परिक्षा दी,फिरभी क़िस्मत में वनवास ही लिखा था.  ..इन सब की क्या खता थी?

नही,पूजा तमन्ना स्वयं को सीता नही समझती है. ऐसा कोई मुगालता उसे नही है. वो केवल एक इंसान है. इंसान जो गलतियाँ करता है,वह गलतियाँ उससे भी हुई. पर अपराध नही.

उसे अनेक बार अनेकों ने सवाल पूछे....उसने ऐसे पती को छोड़ क्यों नही दिया? इसका तो बहुत सरल जवाब रहा.. वह अपने बच्चों के बिना कदापि नही रह सकती. और गौरव ने उसे बच्चों के लिए ज़रूर तडपाया होता. वैसे भी उसे लगता की,पती से अलग हो जाना बहुत ही आसान उपाय कहलाता है..खैर यह सच तो नही,लेकिन जैसे की वह कहती है,क्या पता,उस बात पे भी दोष उसी के सर मढ़ा जाता...साथ रहते हुए भी गौरव ने बच्चों को कई बार उनके आपसी तकरार की एकही बाज़ू बतायी थी. पूजा भरसक कोशिश करती की,यह तकरार आपसमे ही निपट जाये. पर उसे पता तक न चलता और गौरव अमन को अपने तरीके  से  बात बता देता.
केतकी पे अपने बचपन का यह असर हुआ,की,वो अपने बच्चे नही चाहती!फिर वही बात दोहरा रही हूँ.... श्रवण कुमार ने श्राप राजा दशरथ को दिया और भुगता किस किस ने!

इस जीवनी लेखन की शुरुआत ठीक पिछले वर्ष इन्हीं दिनों हुई थी...पूजा की दादा-दादी के शुरुआती जीवन से यह दास्ताँ आरम्भ हुई...और अब आके थमी है...दास्ताँ या किस्सा गोई तो थमी है,जीवन नही. जीवन आगे क्या रंग दिखाएगा किसे पता?
चंद सवालों के जवाब जीवन में नही मिलते...तो इस जीवनी में भी कुछ सवाल अनुत्तरित रहे हैं. केतकी को आज भी पूजा दोष नही देती. मानसिक तौर से वह भी बिखर गयी थी. जब कभी उसे केतकी पे गुस्सा भी आता है,तो वह संभल जाती है...यह सोच के,की,इस बच्ची ने बचपन में बहुत अन्याय भुगता है.
केतकी और उसका पती,शुरू में अमरीका में थे. दो साल इंग्लॅण्ड में रहे.अब  कनाडा जाने की सोच रहे हैं. अमन कभी कभार नाइजीरिया जाने की बात करता है..एक अकेला पन पूजा को घेरे रहता है.
पूजा की चंद तस्वीरें पोस्ट कर रही हूँ. उसने बनाई लघु फिल्म 'धरोहर' से यह ली हैं.शिकायत मिली है की ये तस्वीरें नज़र नही आ रही हैं.मै एक दो दिनों में इस दोषको हटाने का यत्न ज़रूर करुँगी!फिलहाल माफी चाहती हूँ.

  ( 3 या  4 दिनों  बाद  यह  मालिका  ब्लॉग  पर  से  हटा  दी  जायेगी . सभी  पाठक ,जो  इस  मालिका  से  जुड़े  रहे ,उनका  तहे  दिलसे  शुक्रिया  अदा  करती  हूँ . उनकी  हौसला  अफ़्ज़ायी  के  बिना  यह  मालिका  लिखना  संभव  न  होता ! किसी को कुछ सवाल पूछने हों इस दरमियान तो ज़रूर पूछें!)