मंगलवार, 17 नवंबर 2009

adhyaay 2..chhoot gayaa wo angnaa...

( पिछली कड़ी: मेरा..मतलब पूजा तमन्ना का ब्याह गौरव के साथ हो गया....बेलगाम के छोटा से गाँव से निकाल मै लखनऊ पहुँच गयी...अभी  गुह प्रवेश  ही  हो  रहा  था ,की , कानों  में    अलफ़ाज़  पड़े ," ये  गौरव  भी  ना ! पता नही किसकी उतरन ले आया है...अब आगे पढ़ें...)

मै चौंक गयी... उस ओर देखा...फिर कनखियों से गौरव की तरफ देखा...समझ नही पायी की, उसने सुना या नही...दिल जोरसे धड़कने लगा...पूजा-पाठ होता रहा..लोग मिलने आते रहे...ट्रेन से तभी आए थे...नहाने का आदेश मिला...ठण्ड थी काफ़ी...मैंने आदेश मान लिया... जो कपडे मिले,, समेट स्नान कक्ष में घुस गयी...और गीले ही स्नानकक्ष में किसी तरह साड़ी  लपेट बाहर आयी...

दिनभर लोग आते रहे, और शाम जल्दी में तैयार हो स्वागत समारोह के लिए मुझे ले जाया गया...भीड़ उमड़ पडी थी..मेहमानों में विलक्षण उत्सुकता थी...मुझे देखने की..

रात जब  घर पहुँचे तो पड़ोस के घरके एक कमरेमे सोने का इंतज़ाम था...( ये बता दूँ,की, इन सब बातों के चलते गौरव का तबादला बेलगामसे दिल्ली में हो गया था, उसी विभाग में जहाँ किशोर था..).
मैंने बात करने की कोशिश की...लेकिन गौरव ने तकरीबन मुझे धर दबोचा... धीरे, धीरे महसूस होने लगा की, उसकी मानसिकता किशोर से अलग नही थी...

सुबह हमें लखनऊ से दिल्ली लौटना था...दिल्ली घरवाले भी साथ चले...दो ही कमरों का घर था..मै डरी-डरी-सी थी..अपने आपको बेहद अकेला महसूस कर रही थी...फिर एकबार लगा, ज़िंदगी कहाँ ले चली? अपना नैहर याद आ रहा था...और गौरव ने मुझे कह डाला," मेरी माँ तथा घरवालों का एहसान मानो की, तुम्हें स्वीकार किया...वरना क्या करती तुम?"

सुनके मै दंग रह गयी...गौरव ऐसा तो नही लगा था...लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी...जो सच था वो सामने आ गया था...जीवन का एक नया और डरावना अध्याय शुरू हो रहा था...सब कुछ बर्दाश्त करने के अलावा चारा  नही था..यहाँ आँसूं पोछने वाला कोई नही था...समझमे आ गया ...झलक मिल गयी की, इन राहों में बेहद ख़तरा था...दर्द था...

क्रमश:

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

bikhare sitare 22-chalee banke dulhan..

( पिछली कड़ी में मैंने लिखा था, अपने धरम संकट के बारेमे..मै धरम परिवर्तन ना करने के फैसले पे अडिग रही).

उस साल दिवाली आयी और चली गयी...मेरे लिए बिरह का तोहफा दे गयी...ऐसी सूनी, उदास दिवाली मुझे उसके पहले याद नही..
किशोर के अन्य दोस्त हमें मिलने चले आया करते..

एक दिन मै उन्हें असलियत बता बैठी ...बताते समय जारोज़ार रो पडी...उन ३/४ दोस्तों को यह सब सुनके बड़ी हैरत हुई..वो लोग खुद एक धरम संकट में पड़ गए...किशोर को मै 'वो', 'उन्हें' इसी तरह संबोधित करती थी..मैंने अपने विवाह के मसले को लेके अडिग रहने का फैसला सुना दिया, और उन सभी सह कर्मियों को इस फैसले पे नाज़ हुआ..

वो शाम इन्हीं बातों में बीत गयी...३/४ दिनों बाद एक सहकर्मी, गौरव, हमें मिलने चला आया, और उसने मेरी माँ और दादी के आगे एक प्रस्ताव रखा..वो मुझ से ब्याह करने को तैयार था...मै मनही मन डर गयी...मुझे तो यही वहम था की, मेरा कौमार्य भंग हुआ है, और मन 'उन्हें' भुलाने को तैयार नही था...दादा दादी को गौरव के खयालात जनके बड़ा फक्र हुआ...ये बाते दिवाली के ४/५ माह बाद छिडीं..मै मानो एक बुत -सी बन गयी थी...दादी ने गौरव से कहा:
" पहले अपने परिवार से तो सलाह कर लो...कहीँ यहाँ भी इतहास दोहरा न जाय .."
गौरव:" मैंने पिछले ३/४ दिनों में उनसे सलाह मसलत कर ली है...उन्हें कोई परेशानी नही...लेकिन पूजा की राय बेहद ज़रूरी है, वो सदमेसे उभरी नही है..सबसे अहम बात उसके निर्णय की है...उसे समय दें...कही ये ना हो की, उसे पछताना पड़े.."

गौरव अधिक परिपक्व लगा सभीको..परिवार लखनऊ का था..इस दौरान मैंने अपना अंतिम फैसला सुना दिया...खतों द्वारा, और उम्मीद की एक टिमटिमाती लौ को बुझा दिया..प्यारका खुमार उतर रहा था, असलियत के धरा तलपे .....मेरी आँखों से पानी थमता नही था...अपने प्रीतम का पहला स्पर्श याद आता रहा...उस स्पर्शे पुलकित होना कैसे भूलती...वो चांदनी रात जब मै करवटें बदलती रही थी..और अगले रोज़ उनका इंतज़ार कर रही थी...याद आती रही...अपने प्यारका ये हश्र ऐसा होगा ये सोचाही नही था...

घरवालों पे मैंने निर्णय छोड़ दिया..मुझमे मानसिक शक्ती रही नही थी...कुछ भी सोचने की या निर्णय लेने की...१०/१२ दिनों बाद गौरव अपने माता पिता के साथ हमारे  घर आ पहुँचा...मुझे उनके आगे आने में बेहद झिजक महसूस हुई, लेकिन वातावरण बड़ा सहज बना रहा..

खैर !अंत में अगली दिवाली तक सोंच विचार करने समय मुझे मिल गया..गौरव ने मुझे  जल्द बाज़ी ना करने की सलाह दी..ये बात मुझे अच्छी लगी...सबकुछ करीब से जान के उसने निर्णय लिया था...मै शुक्र गुज़ार थी, लेकिन एक डर था, कहीँ ये निर्णय सहानुभूती से तो नही लिया गया? माँ तथा दादी अम्माने ये बात स्पष्ट रूपसे पूछी..
गौरव का जवाब: " मै भी पहली बार देखते ही प्यार कर बैठा था...लेकिन जब किशोर का पता चला तो उसे मुबारक बाद देदी...मन उदास ज़रूर हुआ...और उदास तो अब भी है,की, तमन्ना को इस सदमे से गुज़रना पड़ा.."

किशोर की यादें भुलाना आसान नही था...वो प्रथम प्यार था..लेकिन गौरव के लिए मनमे इज्ज़त पैदा हुई..आने वाली दिवाली के बाद एक मुहूर्त चुना गया और गौरव के साथ कोर्ट में शादी करना तय हुआ.. .मन थोडा उल्लसित होने लगा...गौरव की स्निग्ध, शांत निगाहें आँखों के आगे तैर ने लगी...

शादी के घरमे जो,जो घटता रहता है,वो सब शुरू हो गया...मेरे वस्त्र, निमंत्रण  पत्रिकाएँ, मेहमानों की फेहरिस्त और अन्य ज़रूरती सामान जो नव वधूको ज़रूरी होता है..माँ और दादी बड़े उत्साह और प्यार से तैय्यारियाँ करने लगे..
और ब्याह का दिन आ भी गया...बचपन का घर बिछड़ने लगा..माँ पे बेहद जिम्मेदारी पडी...हमारे गाँव में तो न कोई केटरिंग का रिवाज था, ना होटल थे...घरके मेहमान और बराती सभी का खाना वही बनाती...उसमे उन्हें अतीव रक्स्त्रव की तकलीफ हो रही थी..

ब्याह्के एक दिन पहले मै सारा खेत घूम आयी...हर बूटा पत्ती अपने मनपे अंकित करना चाह रही थी...लौटी तो   दादी ने मेरी उदासी भांप ली और साडी कमरमे खोंस मेरे साथ badminton खेलने तैयार हो गयी...बहुत खूब खेलती थीं...मै तो केवल एक गेम जीती...आखों के आगे एक धुंद-सी छाई रही..दादी को गठिया का मर्ज़ था लेकिन उस बहादुर औरत ने अपने दर्द की  जीवन में कभी शिकायत नही की..

अंत में मै किसी और की ही दुल्हन बनी...जब विदाई का समय आया तो, तो मनमे एक ज़बरदस्त कसक कचोटने लगी...ज़िंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ...होने वाला था...जब ट्रेन में बैठे और ट्रेन आगे बढ़ने लगी तो मन पीछे मेरे बचपन वाले घरमे दौड़ गया...वो माँ की गोद, दादा दादी का  स्नेह, खुले ख़यालात,सब मानो एक किसी अन्य दुनिया की बातें महसूस होने लगीं...मैंने जल्द बाज़ी तो नही की?

'बाबुल, छूट  चला तेरा अंगना",ये गीत मन गुनगुनाने  लगा...पती का अंगना कैसा होगा? क्या होगा क़िस्मत में मेरे? अपने परिजनों का प्यार या, तिरस्कार...नही जान पा रही थी...क्या गौरव मेरा साथ निभाएँगे ? एक नौका तट छोड़ चली थी...पता नही किस ओर चली थी..पी का घर पास आता रहा, और भयभीत मन अपने नैहर में अटका रहा...नव परिणीता की आँखों में सपनों के अलावा डर शायद अधिक था...पहला कटु अनुभव जो हुआ था...छाछ भी फूँक के  पीनेका मन हो तो गलत नही था..
गाडी लखनऊ पहुची और ग्रुप्रवेश पे ही, एक झलक मिल गयी...किसी को धीरेसे कहते हुए सुना," ये गौरव भी ना.. पता नही किसी की उतरन ले आया है , लडकी सुन्दर है तो क्या ..उसे भी एकसे एक बढ़िया मिल सकती थी"...मै स्तब्ध हो गयी...वातावरण यहाँ भी कुछ अलग नही था...एक सदमा-सा ज़रूर महसूस हुआ...

क्रमश:
अगली कड़ी से 'बिखरे सितारे' का दूसरा अध्याय  शुरू होगा...