इस कड़ी की देरीके लिए शर्मिंदा हूँ....तहे दिल से माफी चाहती हूँ.बेटे का ब्याह था...उसमे दिन रात का कोई होश नही रहा.
(गतांक: अबतक मुझे उसपे विश्वास हो गया था और मैंने अपने हालात उसके सामने खुलके बता दिए.
एक रोज़ हम चारों सिनेमा देखने गए थे. फिल्म के दौरान अचानक से उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया. मै रोमांचित हो उठी! फिल्म ख़त्म होने के बाद जब हम घर लौटे तो उसने मुझ से कहा,मै तुम से शादी करना चाहता हूँ. तुम्हारे बच्चों में भी मेरा मन रम गया है.....
मै दंग रह गयी!"......अब आगे.)
दीपा बता रही थी और मै सुन रही थी. आगे की बातें जान लेने का कौतुहल था...जिज्ञासा थी.
मै: "ओह! तो ?"
दीपा: " मै सुन के ख़ुश तो बहुत हुई. हम दोनों तथा बच्चे जब कभी इकट्ठे घूमने जाते या फिल्म देखने जाते तो मुझे एक सम्पूर्ण परिवार होने का एहसास हुआ करता. सिनेमा हॉल में वो घंटो मेरा हाथ पकडे रखता और मै रोमांचित हो उठती. एक पुरुष का स्पर्श कैसा होता है,इसका मैंने पहली बार अनुभव किया. हम बहुत करीब आ रहे थे. वो भी मेरे तथा बच्चों के साथ पूरी तरह घुलमिल गया था. मेरे जीवन की खलने वाली,अखरने वाली और फिर निराश करनेवाली कमी उसने दूर कर दी थी. मुझे अपने स्त्रीत्व का एहसास हो रहा था.
उसी साल ज़िद करके मैंने अजय को ब्याह के लिए राज़ी कर लिया था. उसने मेरी बात मान के ब्याह तो कर लिया लेकिन भावनात्मक तौर से वो अब भी मुझसे जुड़ा हुआ महसूस किया करता. उसके ब्याह के बाद स्वयं मुझे बेहद अकेलापन महसूस हुआ.....एक नितांत खाली पन,जिसे नरेंद्र ने अपने वजूद से भर दिया. अजय की विरह वेदना मै भूल चली. "
मै:" लेकिन उसके सवाल का क्या जवाब दिया?"
दीपा:" बहुत मोह हुआ.होना कुदरती भी था.इस बंदी शाला से मुक्ती की एक हल्की-सी उम्मीद किरन बनके चमकने लगी. मैंने उस दिशामे सोचना शुरू कर दिया. मेरे पति महोदय कभी कबार आ जाया करते. उन्हें किसी बात की भनक नही पडी. लेकिन एक साल होने के पश्च्यात उन्हों ने हमें वापस पुणे ले जानेका निर्णय ले लिया.
मै मनही मन उनसे डिवोर्स लेनेकी दिशामे विचार करना शुरू किया. नरेंद्र के प्यार में एक मदहोशी थी. मुझे हर मुश्किल आसान लग रही थी.बड़े दुखी मन से नरेंद्र से विदा ली. मैंने उसे विश्वास दिलाया की,मै उस दिशामे ठोस क़दम उठा लूँगी."
मै:" और तुम लोग पुणे लौट आए...उफ़! फिर उसी नरक में!!"
दीपा :" तो और क्या कर सकते थे?फिलहाल तो मै अपने पति की बंधक ही थी! लेकिन पुणे पहुँच के हम दोनों में बहुत अनबन हुई. वही मार पीट. मै अपने बच्चों समेत अहमदनगर चली आयी,जहाँ मेरे पिता की पोस्टिंग थी. पिताजी ने बच्चों का वहीँ के स्कूल में दाखिला करवा दिया. नरेंद्र से खतोकिताबत जारी थी. उसके फोन भी आया करते. वो हमेशा मेरा धाडस बंधाता. हमारे रिश्ते को दो साल हो गए थे. अहमदनगर में रहते,रहते एक साल बीत गया. और पारिवारिक ज़ोर ज़बरदस्ती के कारण मुझे दोबारा पुणे लौटना पडा.
अब मै निराश होने लगी. इस जीवन को छोड़ नरेंद्र के साथ उर्वरित ज़िंदगी बिताना मुश्किल नज़र आने लगा. सब से अधिक चिंता मुझे बच्चों की होती...खासकर बिटिया की. बच्चों को समाज में ताने सुनने पड़ेंगे...स्कूल में अपमानित होंगे. बड़े होने बाद बिटिया के ब्याह में मुश्किलें आ सकती थीं. समाज को किस मूह से असलियत बताती? और जहाँ जनम देनेवालों ने विश्वास नही किया वहाँ समाज क्या विश्वास करता? मै बदचलन कहलाती. लोगों ने कहना था,ये अपनी हवस का शिकार हो गयी...बच्चों के बारेमे भी नही सोचा...कलको शायद मेरे बच्चे भी यही कहते!!क्या करूँ? क्या न करूँ??
और फिर नरेंद्र से बात होती. उसके ख़त मुझे एक सहेली के पते पे आते. उन्हें पढ़ती...उसकी बातें सुनती,तो सारा डर...अनिर्णय की अवस्था हवा हो जाती...लगता,उसके प्यार में वो शक्ती है,जिसके सहारे मै कठिन से कठिन समय का, मुसीबतों का मुकाबला कर सकती हूँ....यही आभास,यही विश्वास मेरे जीने का सहारा बन रहा था. नरेंद्र से दूर रहते हुए भी ज़िंदगी नरेंद्र से जुड़ गयी थी. नरेंद्र मेरा इंतज़ार कर रहा था....और कहता,की,ता-उम्र करेगा! और मुझे उसपे पूरा विश्वास था!उसका ख़याल आते ही मनसे सारी दुविधा दूर हो जाती. एक नयी फुर्ती नस नसमे दौड़ जाती...."
क्रमश: