(गतांक: रहीमा और ज़ाहिद ने मुंबई में निकाह कर लिया और सोलापूर रहने आ गए. सब से पहले दोनों मुझे मिलने आए. रहीमा की आँखें भर,भर आतीं रहीं...बेहद ख़ुश थी वो...उस के लिहाज़ से एक दो बातें बहुत बढ़िया थीं...अव्वल तो वो अपने पिता के मकान में थी...पती के छोड़ने के बाद उसे कहीँ और मकान तलाशना नही था. दूसरा,चूंकि वह अपने ही पुश्तैनी मकान में थी, ज़ाहिद के घरवालों के मोहताज भी नही थी. वैसे ज़ाहिद ने नया मकान बनाने या खरीद ने का इरादा ज़ाहिर कर ही दिया था...
क्रमश:
किसे पता था,की,वहशत और दहशत किस भेस में छुप मौक़ा तलाश रही थी??अब आगे पढ़ें.)
मेरी, रहीमा और ज़ाहिद से मुलाक़ातें होती रहीं. रहीमा के बच्चे तो ज़ाहिद से बेहद घुलमिल गए थे. उन्हें पिता का ऐसा प्यार शायद ही कभी मिला था.
एक दिन रहीमा ने ख़बर सुनाई:" लतीफ़ का देहांत हो गया. उसका लिवर शराब के अती सेवन के कारण, पूरी तरह से बरबाद हो चुका था. मैंने बच्चों से पूछा की क्या वो जनाज़े में शामिल होना चाहेंगे? लेकिन उनका तो साफ़ इनकार था. उसके परिवार ने मुझे तो पहले ही अलग थलग कर दिया था. मेरे जाने की कोई तुकही नही बनती थी. चलो,उसकी जान छूटी. "
कुछ दिनों बाद रहीमा का जनम दिन था जो ज़ाहिद और बच्चों ने मिलके बडेही अपनेपन से मनाया. रहीमा को कानोकान ख़बर न होने दी और सारा घर सजा डाला. केक ,मिठाईयाँ, नमकीन, सब हाज़िर हो गया ! रहीमा का कई बार खुद की क़िस्मत पे विश्वास नही होता! उसे अपने बचपन का प्यार इतने बरसों बाद मिल गया था और इसतरह,जैसे कभी वो जुदा हुए ही न हों! बच्चों को उसने कभी इतना ख़ुश नही देखा था! उनके स्कूल के साथियों के साथ ज़ाहिद पूरी तरह घुलमिल गया. उन्हें ये महसूस ही नही हुआ की उनके जीवन में एक बड़ा तूफ़ान आके गुज़रा है.
दिन बीतते रहे. बातों ही बातों में रहीमा ने उसके भाई की,ज़फर की,एक ख़बर सुनायी:" ज़फर ने उस नीग्रो औरत को छोड़ दिया और अब किसी तीसरी लडकी के साथ चक्कर चल रहा है!"
मै: "ओह! अब ये कौन है? "
रहीमा:" अरे तुम विश्वास नही करोगी! उसके अपने जिगरी दोस्त की मंगेतर. लडकी हिन्दू है इसलिए दोनों घरों से इजाज़त नही मिल रही थी. लडकी को इसके दोस्तने भगाकर हमारे घर रखा और इधर इन दोनों ने अलगही चक्कर चला लिया! लडकी को अब ज़फर ने कनाडा भेज दिया है!!"
मै:"उफ़! क्या कमाल है! ऐसाभी होता है! जीवन में दोस्त दोस्तपे भरोसा ना कर सके! उस लड़के पे क्या बीती होगी?"
रहीमा:" हाँ सच! मुझे खुद इतनी शर्मिन्दगी महसूस हुई,लेकिन उससे कौन क्या कहता? उसने तो अब अपना पैंतरा ही बदल दिया है! उसकी निगाहों में तो लतीफ़ 'बेचारा' बन गया है और मै और ज़ाहिद फरेबी!
"उसने हमारे वालिद के नाम का भी बड़ा नाजायज़ फ़ायदा उठाया है. सोलापूर में कम्प्यूटर के पार्ट्स बनाने की फैक्ट्री का ऐलान कर,यहाँ के कई रईसों से उसने पार्टनर शिप के नाम से पैसा इकट्ठा किया है. मुझे तो कुछ फैक्ट्री बनती नज़र नही आती. "
ज़फरका ये बड़ा ही घिनौना चेहरा मेरे सामने आ गया. खैर!
इन बातों के चंद रोज़ बाद रहीमा ,ज़ाहिद और बच्चे कहीँ घूमने निकल गए. गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गयीं थीं और इन्हीं दिनों हमारा सोलापूर के बाहर तबादला हो गया. हमने सोलापूर छोड़ दिया और नासिक चले आए. रहीमा से मेरी फोन पे बातचीत होती रहती.
शायद दो या तीन माह बीते होंगे की एक दिन सोलापूर से हमारे एक परिचित का फोन आया:" ज़ाहिद का बड़े अजीब ढंग से हादसा हुआ है......उसे पुणे ले गए हैं...कोमा में है...हालत गंभीर है...पटवर्धन अस्पताल में ....ICU में है....रहीमा बहुत चाहती है की,आप उसे मिलने जाएँ...!"
मेरे ना जाने का सवाल ही नही उठता था...मै दौड़ी,दौड़ी पुणे पहुँच गयी...
क्रमश:
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
सोमवार, 27 सितंबर 2010
रहीमा 5
(गतांक: मै उसके घर चली गयी. रहीमा मुझे बच्चों के ऊपरवाले कमरेमे ले गयी और लतीफ़ और ज़ाहिद के मुलाक़ात का किस्सा बताने लगी,"ज़ाहिद मेरी ख़ातिर हर बात करने के लिए राज़ी था. शाम को वो जैसे ही हॉल के अन्दर प्रवेश करने लगा,लतीफ़ ने उसके सर और मूह पे ज़ोर से hockey स्टिक दे मारी और उसे खूना खून कर दिया. अब वो बेचारा साथवाले अस्पताल में पड़ा है. मै उसे मिलने भी नही जा सकती. इस जानवर का वहशीपन ना जाने हमें कहा ले जायेगा??"
अब के रहीमा के आँखों से आँसू निकल पड़े. मै खुद दंग रह गयी..ज़ाहिद का तो पूरा घर वैसे ही रहीमा के खिलाफ हो गया था. रहीमा को राहत मिले तो आखिर कैसे?...अब आगे पढ़ें.)
मै अपने ख़यालों में डूबी घर लौट आयी. लतीफ़ रहीमा को ज़लील करता रहा. ऐसे ही चार या पाँच दिन बीते और रहीमा का अचानक से फोन आया:" मै मुंबई से बोल रही हूँ...! "
मै: " अरे! कब? कैसे? और लतीफ़? वो भी साथ है या...?'
रहीमा:" लतीफ़ से पीछा छुडा के भागी हूँ...मेरी एक सहेली मुंबई से एक दिन सोलापूर आयी. उसने ऐसे जताया जैसे उसे मेरे और लतीफ़ के बीछ के तनाव के बारे में जैसे कुछ ख़बर ही नही...लतीफ़ ने पी तो रखी थी. ये लडकी ब्युतिशियाँ है. लतीफ़ से बोली, अरे आप तो बहुत थके हुए लग रहे हैं...मुझे मस्तिष्क की बहुत बढ़िया मसाज करनी आती है...देखिये आपका सारा तनाव चंद पलों में दूर कर देती हूँ...' लतीफ़ कुछ कहे इससे पहले उसने अपने बैग में से एक तेल की बोतल निकली और लतीफ़ के सिरहाने खड़े हो मालिश करने लगी...लतीफ़ आधे मिनिट में खुर्राटे भरने लगा..इसने इशारा किया," भाग निकालो...जो हाथ लगे लो और मुंबई निकल पड़ो...' इस तरह हम लोग मुंबई निकल पड़े! वोभी लतीफ़ को सोता छोड़ पीछे से अपनी कार में निकल आयी...हमलोग अब उसी के घर रुके हैं..!"
मै:" ओह! ये तो बहुत अच्छी बात सुनायी तुमने...! अब आगे का क्या प्लान है? ?"
रहीमा :" ज़फ़र आज सोपूर जा रहा है. कहता है वो अपने हथकंडे अपना के लतीफ़ से तलाक़ के कागजात पे दस्तखत करवा लेगा..."
मै:" खुदा करे और वो कामयाब हो! ! मुझे ख़बर देती रहना!"
दूसरे ही दिन शाम को रहीमा का फोन आया. बोली:" सुनो....! ज़फर ने लतीफ़ से तलाक़ के कागजात पे दस्तखत करवा लिए हैं...! लतीफ़ ज़फर के डराने धमकाने से घबरा गया..हमलोग वहाँ नही थे,इसलिए ये सब हो सका...!"
मै:" तुम्हारी सहेली का लाख,लाख शुक्रिया की,उसे ये तिकड़म सूझी...वरना तो लतीफ़ से पीछा छुड़ाना मानो नामुमकिन लग रहा था..!"
पाँच या छ: दिनों बाद रहीमा ने ख़बर दी की,लतीफ़ ने अपना असम में तबादला करा लिया और वो वहाँ के लिए रवाना हो गया है. सब से बढ़िया ख़बर ये थी की,ज़ाहिद ने रहीमा के साथ निकाह कर लेनेका इरादा जताया. रहीमा के बच्चों ने इस बात के बड़ी ही खुशी से रजामंदी दिखा दी. ज़ाहिद को जिस दिन से उन बच्चों ने देखा था,वो उन्हें बेहद पसंद था!
वाह! मेरी खुशी और इत्मिनान की इन्तेहा न थी! दुनिया में ऐसा भी हो सकता है? इतने सालों से बिछड़ा बचपनका प्यार ऐसे किसी को हासिल हो सकता है? हे ईश्वर! इनकी खुशियों को नज़र ना लगना!
रहीमा और ज़ाहिद ने मुंबई में निकाह कर लिया और सोलापूर रहने आ गए. सब से पहले दोनों मुझे मिलने आए. रहीमा की आँखें भर,भर आतीं रहीं...बेहद ख़ुश थी वो...उस के लिहाज़ से एक दो बातें बहुत बढ़िया थीं...अव्वल तो वो अपने पिता के मकान में थी...पती के छोड़ने के बाद उसे कहीँ और मकान तलाशना नही था. दूसरा,चूंकि वह अपने ही पुश्तैनी मकान में थी, ज़ाहिद के घरवालों के मोहताज भी नही थी. वैसे ज़ाहिद ने नया मकान बनाने या खरीद ने का इरादा ज़ाहिर कर ही दिया था...
क्रमश:
किसे पता था,की,वहशत और दहशत किस भेस में छुप मौक़ा तलाश रही थी??
अब के रहीमा के आँखों से आँसू निकल पड़े. मै खुद दंग रह गयी..ज़ाहिद का तो पूरा घर वैसे ही रहीमा के खिलाफ हो गया था. रहीमा को राहत मिले तो आखिर कैसे?...अब आगे पढ़ें.)
मै अपने ख़यालों में डूबी घर लौट आयी. लतीफ़ रहीमा को ज़लील करता रहा. ऐसे ही चार या पाँच दिन बीते और रहीमा का अचानक से फोन आया:" मै मुंबई से बोल रही हूँ...! "
मै: " अरे! कब? कैसे? और लतीफ़? वो भी साथ है या...?'
रहीमा:" लतीफ़ से पीछा छुडा के भागी हूँ...मेरी एक सहेली मुंबई से एक दिन सोलापूर आयी. उसने ऐसे जताया जैसे उसे मेरे और लतीफ़ के बीछ के तनाव के बारे में जैसे कुछ ख़बर ही नही...लतीफ़ ने पी तो रखी थी. ये लडकी ब्युतिशियाँ है. लतीफ़ से बोली, अरे आप तो बहुत थके हुए लग रहे हैं...मुझे मस्तिष्क की बहुत बढ़िया मसाज करनी आती है...देखिये आपका सारा तनाव चंद पलों में दूर कर देती हूँ...' लतीफ़ कुछ कहे इससे पहले उसने अपने बैग में से एक तेल की बोतल निकली और लतीफ़ के सिरहाने खड़े हो मालिश करने लगी...लतीफ़ आधे मिनिट में खुर्राटे भरने लगा..इसने इशारा किया," भाग निकालो...जो हाथ लगे लो और मुंबई निकल पड़ो...' इस तरह हम लोग मुंबई निकल पड़े! वोभी लतीफ़ को सोता छोड़ पीछे से अपनी कार में निकल आयी...हमलोग अब उसी के घर रुके हैं..!"
मै:" ओह! ये तो बहुत अच्छी बात सुनायी तुमने...! अब आगे का क्या प्लान है? ?"
रहीमा :" ज़फ़र आज सोपूर जा रहा है. कहता है वो अपने हथकंडे अपना के लतीफ़ से तलाक़ के कागजात पे दस्तखत करवा लेगा..."
मै:" खुदा करे और वो कामयाब हो! ! मुझे ख़बर देती रहना!"
दूसरे ही दिन शाम को रहीमा का फोन आया. बोली:" सुनो....! ज़फर ने लतीफ़ से तलाक़ के कागजात पे दस्तखत करवा लिए हैं...! लतीफ़ ज़फर के डराने धमकाने से घबरा गया..हमलोग वहाँ नही थे,इसलिए ये सब हो सका...!"
मै:" तुम्हारी सहेली का लाख,लाख शुक्रिया की,उसे ये तिकड़म सूझी...वरना तो लतीफ़ से पीछा छुड़ाना मानो नामुमकिन लग रहा था..!"
पाँच या छ: दिनों बाद रहीमा ने ख़बर दी की,लतीफ़ ने अपना असम में तबादला करा लिया और वो वहाँ के लिए रवाना हो गया है. सब से बढ़िया ख़बर ये थी की,ज़ाहिद ने रहीमा के साथ निकाह कर लेनेका इरादा जताया. रहीमा के बच्चों ने इस बात के बड़ी ही खुशी से रजामंदी दिखा दी. ज़ाहिद को जिस दिन से उन बच्चों ने देखा था,वो उन्हें बेहद पसंद था!
वाह! मेरी खुशी और इत्मिनान की इन्तेहा न थी! दुनिया में ऐसा भी हो सकता है? इतने सालों से बिछड़ा बचपनका प्यार ऐसे किसी को हासिल हो सकता है? हे ईश्वर! इनकी खुशियों को नज़र ना लगना!
रहीमा और ज़ाहिद ने मुंबई में निकाह कर लिया और सोलापूर रहने आ गए. सब से पहले दोनों मुझे मिलने आए. रहीमा की आँखें भर,भर आतीं रहीं...बेहद ख़ुश थी वो...उस के लिहाज़ से एक दो बातें बहुत बढ़िया थीं...अव्वल तो वो अपने पिता के मकान में थी...पती के छोड़ने के बाद उसे कहीँ और मकान तलाशना नही था. दूसरा,चूंकि वह अपने ही पुश्तैनी मकान में थी, ज़ाहिद के घरवालों के मोहताज भी नही थी. वैसे ज़ाहिद ने नया मकान बनाने या खरीद ने का इरादा ज़ाहिर कर ही दिया था...
क्रमश:
किसे पता था,की,वहशत और दहशत किस भेस में छुप मौक़ा तलाश रही थी??
बुधवार, 22 सितंबर 2010
रहीमा 4
(गतांक: लतीफ़ की धमकी सुन,मैंने हमारे गेट पे तैनात पहरे को इत्तेला दी,की,गर कोई बंदूक लेके घर के परिसर में घुसना चाहे तो रोक देना...चाहे वो कोई भी हो और कुछ भी कहे. बंदूक ना भी तो भी, गेट से अन्दर,बिना मेरी इजाज़त के कोई घुस ना पाए. "...अब आगे पढ़ें).
दिनभर लतीफ़ के इस तरह धमकी बहरे फोन आते रहे. मैंने अपने मकान के बाहर खुलने वाले तक़रीबन सब दरवाज़े बंद रखे.
ज़रा देर शाम जनाब घर के गेट पे पहुँच ही गए. मुझे इत्तेला दी गयी. बंदूक तो साथ नही थी. मैंने intercom पे बात करते हुए लतीफ़ से कहा," आप रहीमा से बात कर सकते हैं,लेकिन मै ग्रिल के दरवाज़े बंद रखूँगी. वो अन्दर रहेगी. आपको बाहर से जो कहना कह देना."
जनाब ने थोड़ी अड़ियल बाज़ी तो की लेकिन मै अपने कहेपे अडिग रही.
बातचीत का सारांश यह था,की,रहीमा किसी तरह घर लौट आए. कभी कुरआन की कसमे खा रहे थे तो कभी बच्चों के सरकी. शराब तो चढी हुई थी ही.
कुछ देर बाद मैंने अन्दर से दरवाज़ा बंद कर लिया और उन्हें जाने के लिए कह दिया. अब अगले दिनका हमें इंतज़ार था जब रहीमा के बहनोई और भाई पहुँचने वाले थे. वो लोग दोपहर २ बजे पहुँचे.
बातचीत के दौरान मैंने उन तीनों को एक कमरेमे छोड़ दिया और वहाँ से हट गयी. कुछ देर बाद रहीमा बाहर आयी तो मैंने उससे नतीजे के बारे में जानना चाहा.
रहीमा ने कहा," जीजा जी के ख़याल से तो औरत ने हर हाल में अपने शौहर के साथ रहना चाहिए...चाहे वो उसे मारे या पीटे! चाहे जहन्नुम जैसे हालात में रखे!"
मै दंग रह गयी! ये आदमी अमरीका जैसे देश से उठके केवल ये बात कहने आया था? उसी रात वो मुंबई लौट रहा था. उसे रहीमा के घरमे न तो रुकना था,न उसकी सुरक्षा की कोई ज़िम्मेदारी उठानी थी.अब जो कुछ दारोमदार था वो ज़फर, रहीमा के भाई पे था.
उसने मुझ से कहा," मेरे रहते लतीफ़ उसे मार पीट तो नही सकता!"
मै:" लेकिन इस तरह कबतक चलेगा? मेरे विचार से तो अब पानी सर से गुज़र चुका है. रहीमा और बच्चे उसके साथ महफूज़ नही. आपने अब लतीफ़ पे तलाक़ का ज़ोर डालना चाहिए!"
ज़फर:" वो इतनी आसानी से माननेवाला नही. कुछ हिकमत ही काम आ सकती है."
मै:" तो तबतक रहीमा और बच्चों को यहाँ से कहीँ और ले जाना चाहिए. "
ज़फर:" आप ठीक कहती हैं...लेकिन लतीफ़ बहुत उधम उठा देगा. ये बात उससे छुप के करनी पड़ेगी."
मै खामोश हो गयी. इनके लौटने का समय भी करीब आ रहा था. रहीमा ज़फर के साथ अपने घर लौट गयी.
इन सब दिनों में एक बात जिसने रहीमा को सब्र दे रखा था वो था ज़ाहिद का उसके लिए प्यार. रहीमा अब कोई नवयुवती या सुन्दरी तो नही रही थी, अच्छा खासा ८० किलो से ऊपर उसका वज़न हो गया था. लेकिन ज़ाहिद का वही बचपन वाला प्यार बरक़रार था. इतनी दुःख तकलीफ़ में भी उसका प्यार था जो रहीमा के होटों पे मुस्कान खिलाये हुए था.
खैर! मैंने रहीमा के साथ अपना संपर्क जारी रखा. दिन में दो तीन बार उसे फोन करही लिया करती. जिस दिन ज़फर ने मुंबई लौटना था,उस दिन लतीफ़ ने उससे वादा किया की,वो ज़ाहिद के साथ सुलह कर लेगा. उसे घर बुलाके माफी माँग लेगा. ज़ाहिद ने भी सोचा होगा की बच्चों को मद्दे नज़र रखते हुए शायद यही ठीक था. लतीफ़ एक और मौक़ा देना. दरअसल बच्चों को तो अपने पिता से कोई लगाव नही था,लेकिन स्कूल में ये बातें गलत असर कर देतीं हैं.
जो भी हो,दूसरे दिन रहीमा से मेरा संपर्क नही हो पाया. तीसरे दिन जब उसने फोन उठाया तो कहा," तुम अगर घर आ सकती हो तो अच्छा हो."
मै उसके घर चली गयी. रहीमा मुझे बच्चों के ऊपरवाले कमरेमे ले गयी और लतीफ़ और ज़ाहिद के मुलाक़ात का किस्सा बताने लगी,"ज़ाहिद मेरी ख़ातिर हर बात करने के लिए राज़ी था. शाम को वो जैसे ही हॉल के अन्दर प्रवेश करने लगा,लतीफ़ ने उसके सर और मूह पे ज़ोर से hockey स्टिक दे मारी और उसे खूना खून कर दिया. अब वो बेचारा साथवाले अस्पताल में पड़ा है. मै उसे मिलने भी नही जा सकती. इस जानवर का वहशीपन ना जाने हमें कहा ले जायेगा??"
अब के रहीमा के आँखों से आँसू निकल पड़े. मै खुद दंग रह गयी..ज़ाहिद का तो पूरा घर वैसे ही रहीमा के खिलाफ हो गया था. रहीमा को राहत मिले तो आखिर कैसे?
क्रमश:
अगली किश्त में मै रहीमा की एक या दो तसवीरें ज़रूर पोस्ट कर दूँगी.
दिनभर लतीफ़ के इस तरह धमकी बहरे फोन आते रहे. मैंने अपने मकान के बाहर खुलने वाले तक़रीबन सब दरवाज़े बंद रखे.
ज़रा देर शाम जनाब घर के गेट पे पहुँच ही गए. मुझे इत्तेला दी गयी. बंदूक तो साथ नही थी. मैंने intercom पे बात करते हुए लतीफ़ से कहा," आप रहीमा से बात कर सकते हैं,लेकिन मै ग्रिल के दरवाज़े बंद रखूँगी. वो अन्दर रहेगी. आपको बाहर से जो कहना कह देना."
जनाब ने थोड़ी अड़ियल बाज़ी तो की लेकिन मै अपने कहेपे अडिग रही.
बातचीत का सारांश यह था,की,रहीमा किसी तरह घर लौट आए. कभी कुरआन की कसमे खा रहे थे तो कभी बच्चों के सरकी. शराब तो चढी हुई थी ही.
कुछ देर बाद मैंने अन्दर से दरवाज़ा बंद कर लिया और उन्हें जाने के लिए कह दिया. अब अगले दिनका हमें इंतज़ार था जब रहीमा के बहनोई और भाई पहुँचने वाले थे. वो लोग दोपहर २ बजे पहुँचे.
बातचीत के दौरान मैंने उन तीनों को एक कमरेमे छोड़ दिया और वहाँ से हट गयी. कुछ देर बाद रहीमा बाहर आयी तो मैंने उससे नतीजे के बारे में जानना चाहा.
रहीमा ने कहा," जीजा जी के ख़याल से तो औरत ने हर हाल में अपने शौहर के साथ रहना चाहिए...चाहे वो उसे मारे या पीटे! चाहे जहन्नुम जैसे हालात में रखे!"
मै दंग रह गयी! ये आदमी अमरीका जैसे देश से उठके केवल ये बात कहने आया था? उसी रात वो मुंबई लौट रहा था. उसे रहीमा के घरमे न तो रुकना था,न उसकी सुरक्षा की कोई ज़िम्मेदारी उठानी थी.अब जो कुछ दारोमदार था वो ज़फर, रहीमा के भाई पे था.
उसने मुझ से कहा," मेरे रहते लतीफ़ उसे मार पीट तो नही सकता!"
मै:" लेकिन इस तरह कबतक चलेगा? मेरे विचार से तो अब पानी सर से गुज़र चुका है. रहीमा और बच्चे उसके साथ महफूज़ नही. आपने अब लतीफ़ पे तलाक़ का ज़ोर डालना चाहिए!"
ज़फर:" वो इतनी आसानी से माननेवाला नही. कुछ हिकमत ही काम आ सकती है."
मै:" तो तबतक रहीमा और बच्चों को यहाँ से कहीँ और ले जाना चाहिए. "
ज़फर:" आप ठीक कहती हैं...लेकिन लतीफ़ बहुत उधम उठा देगा. ये बात उससे छुप के करनी पड़ेगी."
मै खामोश हो गयी. इनके लौटने का समय भी करीब आ रहा था. रहीमा ज़फर के साथ अपने घर लौट गयी.
इन सब दिनों में एक बात जिसने रहीमा को सब्र दे रखा था वो था ज़ाहिद का उसके लिए प्यार. रहीमा अब कोई नवयुवती या सुन्दरी तो नही रही थी, अच्छा खासा ८० किलो से ऊपर उसका वज़न हो गया था. लेकिन ज़ाहिद का वही बचपन वाला प्यार बरक़रार था. इतनी दुःख तकलीफ़ में भी उसका प्यार था जो रहीमा के होटों पे मुस्कान खिलाये हुए था.
खैर! मैंने रहीमा के साथ अपना संपर्क जारी रखा. दिन में दो तीन बार उसे फोन करही लिया करती. जिस दिन ज़फर ने मुंबई लौटना था,उस दिन लतीफ़ ने उससे वादा किया की,वो ज़ाहिद के साथ सुलह कर लेगा. उसे घर बुलाके माफी माँग लेगा. ज़ाहिद ने भी सोचा होगा की बच्चों को मद्दे नज़र रखते हुए शायद यही ठीक था. लतीफ़ एक और मौक़ा देना. दरअसल बच्चों को तो अपने पिता से कोई लगाव नही था,लेकिन स्कूल में ये बातें गलत असर कर देतीं हैं.
जो भी हो,दूसरे दिन रहीमा से मेरा संपर्क नही हो पाया. तीसरे दिन जब उसने फोन उठाया तो कहा," तुम अगर घर आ सकती हो तो अच्छा हो."
मै उसके घर चली गयी. रहीमा मुझे बच्चों के ऊपरवाले कमरेमे ले गयी और लतीफ़ और ज़ाहिद के मुलाक़ात का किस्सा बताने लगी,"ज़ाहिद मेरी ख़ातिर हर बात करने के लिए राज़ी था. शाम को वो जैसे ही हॉल के अन्दर प्रवेश करने लगा,लतीफ़ ने उसके सर और मूह पे ज़ोर से hockey स्टिक दे मारी और उसे खूना खून कर दिया. अब वो बेचारा साथवाले अस्पताल में पड़ा है. मै उसे मिलने भी नही जा सकती. इस जानवर का वहशीपन ना जाने हमें कहा ले जायेगा??"
अब के रहीमा के आँखों से आँसू निकल पड़े. मै खुद दंग रह गयी..ज़ाहिद का तो पूरा घर वैसे ही रहीमा के खिलाफ हो गया था. रहीमा को राहत मिले तो आखिर कैसे?
क्रमश:
अगली किश्त में मै रहीमा की एक या दो तसवीरें ज़रूर पोस्ट कर दूँगी.
शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
रहीमा 3
(गतांक: हमारी इतनी बात होही रही थी,की,एक फोन आया. फोन लतीफ़ का था. रहीमा ने लिया. दो चार पल बाद मुझे पकडाया...दूसरी ओरसे लतीफ़ चींख रहा था," मै पहले घरको और फिर पेट्रोल पम्प को आग लगाने जा रहा हूँ..साथ तुम्हारे बेटे को भी...बचाना चाहती हो तो अभी लौट आओ...." अब आगे पढ़ें.)
उफ़! क्या हो रहा था ये सब? मेरा दिमाग फिरभी तेज़ गती से काम कर रहा था. मैंने सब से पहले पुलिस कंट्रोल रूम को इस बात की ख़बर दी. पेट्रोल पम्प पे गार्ड देने की इल्तिजा की. पम्प रहीमा के घर के सामने ही था. लतीफ़ परिवार और हमारे परिवार का दोस्ताना उस छोटे से शहर में तक़रीबन सभी को मालूम था. मुझे इस तरह पुलिस कंट्रोल रूम से बातें करने में बड़ी शर्मिन्दगी महसूस हो रही थी.
अब आफताब का सवाल?? उसे घर से कैसे निकला जाये? इतने में एक और फोन बजा. फोन ज़ाहिद का था. रहीमा के लिए. वो दोनों में चाहे बरसों संपर्क ना रहा हो उनका प्यार बरक़रार था, इसमें शक नही. और इसमें ज़ाहिद का कोई स्वार्थ नही था. वो रहीमा को केवल ख़ुश देखना चाहता था,जो की नामुमकिन लगता जा रहा था. जब उसे लतीफ़ की बातों का पता चला तो उसने कहा," रहीमा,फ़िक्र ना करो..मै तुम्हारे घर जाता हूँ..मेरे होते लतीफ़ ऐसी कोई हरकत कर नही सकता...चाहे जो हो जाये.."
लेकिन मैंने और रहीमा,दोनों ने उसे मना किया.
इधर से मै रहीमा के घर पहुँच गयी.रहीमा को मेरे घरपे ही छोड़ा. पम्प के पास,घर के आगे,अपनी गाडी खड़ी कर मै रहीमा के घर में पहुँची और आफताब को ज़ोर से आवाज़ लगाई. जैसेही वो सामने आया ,उससे कहा," जाओ,अपनी ममा का गाडी से सामान ले आओ. उनकी तबियत ठीक नही है.उन्हें सहारा देके अन्दर ले आओ.",
तबतक लतीफ़ भी मेरे आगे खड़ा हो गया था. मैंने उससे कहा," एक मिनिट रुकिए...मै अभी आती हूँ.." ,कह के मै तेज़ी से घर के बाहर आयी और आफताब को हालात की इत्तेला दी. उसे घर में वापस लौटने से मना कर दिया और अपने साथ मेरे घर ले आयी.
मेरे घर पहुँचते ही लतीफ़ का फिर फोन आया. इस बार वो मुझ से बात करना चाह रहा था...उसने कहा," मै बहुत शर्मिन्दा हूँ..कुरआन शरीफ़ की क़सम खाके कहता हूँ,आइन्दा रहीमा को तकलीफ़ पहुँचे ऐसी कोई हरकत नही करुँगा...आप बस रहीमा और बच्चों को वापस ले आयें...!"
उसकी इन कसमों से रहीमा ने मुझे पूरी तरह वाबस्ता किया था.ना जाने कितनी बार उसने इन दिनों ऐसी कसमे खायीं थीं.
फिरभी मैंने कहा," ठीक है, इस वक़्त तो बहुत देर हो चुकी है. मैंने तो अब ड्राईवर की छुट्टी भी कर दी है. कल देखते हैं. "
देर रात मुझे मेरे पती का फोन आया. मैंने उन्हें हालात से वाबस्ता करना चाहा तो उन्हों ने चिढ के कहा," देखो, इन सब झमेलों में तुम्हें पड़ने की ज़रुरत नही. रहीमा को अभी के अभी उसके घर भेज दो. वो जाने और लतीफ़ जाने."
मै: "लेकिन इन हालात में मै रहीमा को कैसे उसके घर भेज दूं? वो तो उसकी पिटाई कर के उसे अधमरी कर देगा!"
पति:" मैंने जो कहना कह दिया. मुझे अपने घरमे ये मुसीबत नही चाहिए. रहीमा गर सुरक्षा चाहती है तो उसे पुलिस में कम्प्लेंट देने को कहो...उसका भाई है...वो क्या कर रहा है? और उसके अन्य रिश्तेदार?"
मै:" ठीक है..."
कह के मैंने फोन तो रख दिया लेकिन रहीमा को उसके हाल पे बेसहारा छोड़ देनेका मेरा इरादा क़तई नही था. कुछ देर में एक और फोन आया. फोन रहीमा के भाई का था. रहीमा ने उसे ख़बर तो दी ही थी.
उसने कहा," मै और जीजा जी, जो परसों सुबह तक अमरीका से मुंबई पहुँच जायेंगे , परसों दोपहर तक वहाँ पहुँच रहे हैं. तबतक धीरज धरे रहो."
परसों शाम तक तक तो इन्हों ने भी आही जाना था. इनके आने के बाद तो रहीमा को अपने घर पनाह देनेका सवाल ही नही उठता था...मनमे आया," सभी मर्द एक जैसे..हमेशा सब गलती औरत के ही सरपे मढना चाहते हैं..."
दूसरे दिन सुबह की शुरुआत फिर लतीफ़ के फोन से हुई. उसने कहा ," मै अपनी बंदूक लिए तुम्हारे घर आ रहा हूँ...रहीमा से बात करके रहूँगा...उसे और बच्चों को वापस लाके ही दम लूँगा..."
वैसे बेवक़ूफ़ लतीफ़,इतने नशे में धुत रहता था,की,इन हालात में वो एक वरदान ही साबित हुआ...! गर उसका शातिर दिमाग काम करता तो मेरे अपने बच्चों को स्कूल से आते जाते अगुवा कर लेना मुश्किल काम नही था...!पहली और तीसरी जमात के तो बच्चे थे!! वो दोनों किसी पुलिस सुरक्षा में स्कूल नही आते जाते थे. स्कूल घर के करीब था. रास्ता पार करना उन्हें सिखा दिया गया था. वैसे भी उस रस्ते पे ज़्यादा रहगुज़र नही होती थी. शुरू के कुछ दिन हमारे मकान के पीछे बने नौकरों के मकानों में से एक महिला साथ चली जाया करती थी.
लतीफ़ की धमकी सुन,मैंने हमारे गेट पे तैनात पहरे को इत्तेला दी,की,गर कोई बंदूक लेके घर के परिसर में घुसना चाहे तो रोक देना...चाहे वो कोई भी हो और कुछ भी कहे. बंदूक ना भी तो भी, गेट से अन्दर,बिना मेरी इजाज़त के कोई घुस ना पाए. "
क्रमश:
उफ़! क्या हो रहा था ये सब? मेरा दिमाग फिरभी तेज़ गती से काम कर रहा था. मैंने सब से पहले पुलिस कंट्रोल रूम को इस बात की ख़बर दी. पेट्रोल पम्प पे गार्ड देने की इल्तिजा की. पम्प रहीमा के घर के सामने ही था. लतीफ़ परिवार और हमारे परिवार का दोस्ताना उस छोटे से शहर में तक़रीबन सभी को मालूम था. मुझे इस तरह पुलिस कंट्रोल रूम से बातें करने में बड़ी शर्मिन्दगी महसूस हो रही थी.
अब आफताब का सवाल?? उसे घर से कैसे निकला जाये? इतने में एक और फोन बजा. फोन ज़ाहिद का था. रहीमा के लिए. वो दोनों में चाहे बरसों संपर्क ना रहा हो उनका प्यार बरक़रार था, इसमें शक नही. और इसमें ज़ाहिद का कोई स्वार्थ नही था. वो रहीमा को केवल ख़ुश देखना चाहता था,जो की नामुमकिन लगता जा रहा था. जब उसे लतीफ़ की बातों का पता चला तो उसने कहा," रहीमा,फ़िक्र ना करो..मै तुम्हारे घर जाता हूँ..मेरे होते लतीफ़ ऐसी कोई हरकत कर नही सकता...चाहे जो हो जाये.."
लेकिन मैंने और रहीमा,दोनों ने उसे मना किया.
इधर से मै रहीमा के घर पहुँच गयी.रहीमा को मेरे घरपे ही छोड़ा. पम्प के पास,घर के आगे,अपनी गाडी खड़ी कर मै रहीमा के घर में पहुँची और आफताब को ज़ोर से आवाज़ लगाई. जैसेही वो सामने आया ,उससे कहा," जाओ,अपनी ममा का गाडी से सामान ले आओ. उनकी तबियत ठीक नही है.उन्हें सहारा देके अन्दर ले आओ.",
तबतक लतीफ़ भी मेरे आगे खड़ा हो गया था. मैंने उससे कहा," एक मिनिट रुकिए...मै अभी आती हूँ.." ,कह के मै तेज़ी से घर के बाहर आयी और आफताब को हालात की इत्तेला दी. उसे घर में वापस लौटने से मना कर दिया और अपने साथ मेरे घर ले आयी.
मेरे घर पहुँचते ही लतीफ़ का फिर फोन आया. इस बार वो मुझ से बात करना चाह रहा था...उसने कहा," मै बहुत शर्मिन्दा हूँ..कुरआन शरीफ़ की क़सम खाके कहता हूँ,आइन्दा रहीमा को तकलीफ़ पहुँचे ऐसी कोई हरकत नही करुँगा...आप बस रहीमा और बच्चों को वापस ले आयें...!"
उसकी इन कसमों से रहीमा ने मुझे पूरी तरह वाबस्ता किया था.ना जाने कितनी बार उसने इन दिनों ऐसी कसमे खायीं थीं.
फिरभी मैंने कहा," ठीक है, इस वक़्त तो बहुत देर हो चुकी है. मैंने तो अब ड्राईवर की छुट्टी भी कर दी है. कल देखते हैं. "
देर रात मुझे मेरे पती का फोन आया. मैंने उन्हें हालात से वाबस्ता करना चाहा तो उन्हों ने चिढ के कहा," देखो, इन सब झमेलों में तुम्हें पड़ने की ज़रुरत नही. रहीमा को अभी के अभी उसके घर भेज दो. वो जाने और लतीफ़ जाने."
मै: "लेकिन इन हालात में मै रहीमा को कैसे उसके घर भेज दूं? वो तो उसकी पिटाई कर के उसे अधमरी कर देगा!"
पति:" मैंने जो कहना कह दिया. मुझे अपने घरमे ये मुसीबत नही चाहिए. रहीमा गर सुरक्षा चाहती है तो उसे पुलिस में कम्प्लेंट देने को कहो...उसका भाई है...वो क्या कर रहा है? और उसके अन्य रिश्तेदार?"
मै:" ठीक है..."
कह के मैंने फोन तो रख दिया लेकिन रहीमा को उसके हाल पे बेसहारा छोड़ देनेका मेरा इरादा क़तई नही था. कुछ देर में एक और फोन आया. फोन रहीमा के भाई का था. रहीमा ने उसे ख़बर तो दी ही थी.
उसने कहा," मै और जीजा जी, जो परसों सुबह तक अमरीका से मुंबई पहुँच जायेंगे , परसों दोपहर तक वहाँ पहुँच रहे हैं. तबतक धीरज धरे रहो."
परसों शाम तक तक तो इन्हों ने भी आही जाना था. इनके आने के बाद तो रहीमा को अपने घर पनाह देनेका सवाल ही नही उठता था...मनमे आया," सभी मर्द एक जैसे..हमेशा सब गलती औरत के ही सरपे मढना चाहते हैं..."
दूसरे दिन सुबह की शुरुआत फिर लतीफ़ के फोन से हुई. उसने कहा ," मै अपनी बंदूक लिए तुम्हारे घर आ रहा हूँ...रहीमा से बात करके रहूँगा...उसे और बच्चों को वापस लाके ही दम लूँगा..."
वैसे बेवक़ूफ़ लतीफ़,इतने नशे में धुत रहता था,की,इन हालात में वो एक वरदान ही साबित हुआ...! गर उसका शातिर दिमाग काम करता तो मेरे अपने बच्चों को स्कूल से आते जाते अगुवा कर लेना मुश्किल काम नही था...!पहली और तीसरी जमात के तो बच्चे थे!! वो दोनों किसी पुलिस सुरक्षा में स्कूल नही आते जाते थे. स्कूल घर के करीब था. रास्ता पार करना उन्हें सिखा दिया गया था. वैसे भी उस रस्ते पे ज़्यादा रहगुज़र नही होती थी. शुरू के कुछ दिन हमारे मकान के पीछे बने नौकरों के मकानों में से एक महिला साथ चली जाया करती थी.
लतीफ़ की धमकी सुन,मैंने हमारे गेट पे तैनात पहरे को इत्तेला दी,की,गर कोई बंदूक लेके घर के परिसर में घुसना चाहे तो रोक देना...चाहे वो कोई भी हो और कुछ भी कहे. बंदूक ना भी तो भी, गेट से अन्दर,बिना मेरी इजाज़त के कोई घुस ना पाए. "
क्रमश:
रविवार, 12 सितंबर 2010
Bikhare sitare:Raheema:2
(गतांक: पिछली रात की घटना के बारे में मेरे दिमाग में उथलपुथल तो मच ही गयी थी.ऐसा क्या हुआ होगा?क्या मैंने खुद होके रहीमा को पूछना चाहिए या नही? शायद वो खुद ही बताना चाहे!
ये बाते मनमे आ रहीं थीं और रहीमा का डरा-सा फ़ोन आया,"तुम तुरंत आओ और मुझे किसी तरह बचा लो!बड़ी मुश्किल से मुझे फ़ोन करने का मौक़ा मिला है..." अब आगे पढ़ें).
रहीमा का फोन आतेही पाँच मिनट के भीतर मै उस के घर के तरफ निकल पडी. दिमाग में तेज़ी से ख़याल आते रहे. क्या उसने अपने भाई को अपनी समस्या के बारेमे कुछ ख़बर दी होगी? उससे मै एक बार मिली थी..रहीमा के ही घर. रहीमा ने तब मुझ से बताया था;" ज़फर की बहुत खूबसूरत और खानदानी लडकी से शादी हुई थी...लेकिन इसके सरपे कनाडा में बसने का भूत सवार हुआ और उसने उस लडकी को तलाक़ दे दिया.उसे एक बेटी भी है. तलाक़ के बाद इस नीग्रो लडकी से ब्याह किया...ग्रीन कार्ड के ख़ातिर..."
उसकी दूसरी पत्नी तब घर में मौजूद थी.मुझे नही पता की उस औरत को उसके पति के इरादों के बारेमे कितना पता था. मन ही मन मुझे अफ़सोस ज़रूर हुआ. और अब रहीमा के साथ न जाने क्या घट रहा था...
मै उसके घर पहुँची तो देखा,रहीमा रो रही थी.उसका शौहर घरमे ही था. उसने पी रखी थी और नशेमे रहीमा की खूब मार पिटाई कर रहा था. मुझे देखते ही उसने रहीमा को छोड़ दिया. मै दंग रह गयी...समझ में नही आ रहा था,की,आखिर वजह क्या हुई होगी...मेरे पती ने, "रहीमा का चरित्र ठीक नही",ऐसा क्यों कहा था?बच्चे घरमे थे और ज़ाहिरन,सहमे हुए थे. इस हाल में मै क्या कर सकती थी? मैंने क्या करना चाहिए था?
सहसा मुझे कुछ सूझ गया और मैंने लतीफ़,रहीमा के पती से कहा," दरअसल मेरी तबियत कुछ ठीक नही थी...मै डॉक्टर के गयी थी,और लौटते समय सोचा क्यों न आपके घर होते हुए जाऊँ ...ये तो अमरावती गए हैं...सोचा आज की रात रहीमा और महताब मेरे पास रह जाएँ तो कैसा रहेगा? मुझे अकेले कुछ डर-सा महसूस हो रहा है...क्या आप इस बात के लिए मुझे इजाज़त देंगे? रहीमा साथ होगी तो मुझे बहुत राहत महसूस होगी...."
कर्नल साहब को शायद मुझे मना करने में कुछ झिजक-सी महसूस हुई और वो बोले," हाँ,हां...क्यों नही? रहीमा और महताब दोनों आपके साथ चले जायेंगे..."
मैंने रहीमा को कहा," चलो,दो चार कपडे रख लो..मेरे घर चलते हैं...तुम्हारा खानसामा कर्नल साहब का खाना आदि तो बनाही देगा ना?"
"खाने पीने का तो सब इंतज़ाम है...चलो मै तैयार हो जाती हूँ...,"रहीमा ने कहा और साथ महताब को भी अन्दर ले गयी.
आफताब,रहीमा का बेटा हमें गेट तक छोड़ने आया. मेरे यहाँ पहुँच,महताब मेरे बच्चों के साथ टीवी देखने लग गयी.मै रहीमा को अपने कमरेमे ले गयी और रहीमा ने पिछले चंद दिनों घटीं बातें मुझे बताना शुरू कर दीं.
"मुझे बचपनसे एक लड़के से प्यार था. हम एकही स्कूलमे पढ़ते थे. वो भी मुझे बहुत चाहता था,लेकिन मेरे भाई ने हमारी शादी की जमके खिलाफत की. वजह इतनी,की वो लोग ज़्यादा पैसेवाले नही हैं. लड़के का नाम था/है ज़ाहिद. वो सदमे के कारण दुबई चला गया और उसके बाद लौटा ही नही. उसने पैसे तो खूब कमाए लेकिन शादी नही की.
"दो हफ्ते पहले वो पहली बार भारत लौटा. उसकी माँ बीमार थी इसलिए. पड़ोस होने के कारण हमारी मुलाक़ात भी हुई. उसकी माँ की कुछ तबियत ठीक हुई उस दिन लतीफ़ ने हमारी छत परसे उसे घर बुलाया और हमारे साथ जलगांव चलने का आग्रह करने लगा. जलगांव में हमारी unit का वर्धापन दिवस मन रहा था. ज़ाहिद राज़ी हो गया. वहाँ तुम्हारे पतिसे भी हमारी मुलाक़ात हुई.
"लतीफ़ ने शुरुसे ही मुझे शारीरिक मानसिक रूप से बेहद तंग किया. हमारी शादी के समय उसने अपने परिवार के बारे में झूठ भी बताया. मेरे पिता और भाई,दोनोको मेरी शादी की इतनी जल्दी पडी थी,की,ठीक से तलाश तक नही की. खैर! मैंने इस ज़िंदगी को अपनी क़िस्मत मान लिया. उसे अपने बच्चों से तक लगाव नही है. ना जाने उसने ज़ाहिद को जलगांव क्यों बुलाया लेकिन,मै ख़ुश हुई की,कुछ दिन उसका साथ मिलेगा.
"एक समारोह के बाद शराब पीके लतीफ़ ने मुझे हमारे कमरेमे घसीट चांटा मार दिया. ज़ाहिद ने देख लिया. दूसरे दिन सुबह मुझे चंद पल अकेला पाके उसने हाथ पकड़ के कहा," तुझे बहुत सताता है न ये आदमी?"
"लतीफ़ ने देख लिया और हंगामा खड़ा कर दिया. तब तेरे पती भी वहीँ थे. 'मैंने रहीमा और ज़ाहिद को रंगे हाथों पकड़ लिया",कहके लतीफ़ ने खूब शोर मचाया. हम दोनोने तब से उसकी बार बार माफ़ी माँगी. ज़ाहिद तो लौट रहा है. वो फिर कभी नही आएगा,लेकिन लतीफ़ रोज़ बच्चों के आगे मुझे ज़लील करता है...मेरा सर दीवार पे पटकता है..बाल खींचता है..."
हमारी इतनी बात होही रही थी,की,एक फोन आया. फोन लतीफ़ का था. रहीमा ने लिया. दो चार पल बाद मुझे पकडाया...दूसरी ओरसे लतीफ़ चींख रहा था," मै पहले घरको और फिर पेट्रोल पम्प को आग लगाने जा रहा हूँ..साथ तुम्हारे बेटे को भी...बचाना चाहती हो तो अभी लौट आओ...."
क्रमश:
ये बाते मनमे आ रहीं थीं और रहीमा का डरा-सा फ़ोन आया,"तुम तुरंत आओ और मुझे किसी तरह बचा लो!बड़ी मुश्किल से मुझे फ़ोन करने का मौक़ा मिला है..." अब आगे पढ़ें).
रहीमा का फोन आतेही पाँच मिनट के भीतर मै उस के घर के तरफ निकल पडी. दिमाग में तेज़ी से ख़याल आते रहे. क्या उसने अपने भाई को अपनी समस्या के बारेमे कुछ ख़बर दी होगी? उससे मै एक बार मिली थी..रहीमा के ही घर. रहीमा ने तब मुझ से बताया था;" ज़फर की बहुत खूबसूरत और खानदानी लडकी से शादी हुई थी...लेकिन इसके सरपे कनाडा में बसने का भूत सवार हुआ और उसने उस लडकी को तलाक़ दे दिया.उसे एक बेटी भी है. तलाक़ के बाद इस नीग्रो लडकी से ब्याह किया...ग्रीन कार्ड के ख़ातिर..."
उसकी दूसरी पत्नी तब घर में मौजूद थी.मुझे नही पता की उस औरत को उसके पति के इरादों के बारेमे कितना पता था. मन ही मन मुझे अफ़सोस ज़रूर हुआ. और अब रहीमा के साथ न जाने क्या घट रहा था...
मै उसके घर पहुँची तो देखा,रहीमा रो रही थी.उसका शौहर घरमे ही था. उसने पी रखी थी और नशेमे रहीमा की खूब मार पिटाई कर रहा था. मुझे देखते ही उसने रहीमा को छोड़ दिया. मै दंग रह गयी...समझ में नही आ रहा था,की,आखिर वजह क्या हुई होगी...मेरे पती ने, "रहीमा का चरित्र ठीक नही",ऐसा क्यों कहा था?बच्चे घरमे थे और ज़ाहिरन,सहमे हुए थे. इस हाल में मै क्या कर सकती थी? मैंने क्या करना चाहिए था?
सहसा मुझे कुछ सूझ गया और मैंने लतीफ़,रहीमा के पती से कहा," दरअसल मेरी तबियत कुछ ठीक नही थी...मै डॉक्टर के गयी थी,और लौटते समय सोचा क्यों न आपके घर होते हुए जाऊँ ...ये तो अमरावती गए हैं...सोचा आज की रात रहीमा और महताब मेरे पास रह जाएँ तो कैसा रहेगा? मुझे अकेले कुछ डर-सा महसूस हो रहा है...क्या आप इस बात के लिए मुझे इजाज़त देंगे? रहीमा साथ होगी तो मुझे बहुत राहत महसूस होगी...."
कर्नल साहब को शायद मुझे मना करने में कुछ झिजक-सी महसूस हुई और वो बोले," हाँ,हां...क्यों नही? रहीमा और महताब दोनों आपके साथ चले जायेंगे..."
मैंने रहीमा को कहा," चलो,दो चार कपडे रख लो..मेरे घर चलते हैं...तुम्हारा खानसामा कर्नल साहब का खाना आदि तो बनाही देगा ना?"
"खाने पीने का तो सब इंतज़ाम है...चलो मै तैयार हो जाती हूँ...,"रहीमा ने कहा और साथ महताब को भी अन्दर ले गयी.
आफताब,रहीमा का बेटा हमें गेट तक छोड़ने आया. मेरे यहाँ पहुँच,महताब मेरे बच्चों के साथ टीवी देखने लग गयी.मै रहीमा को अपने कमरेमे ले गयी और रहीमा ने पिछले चंद दिनों घटीं बातें मुझे बताना शुरू कर दीं.
"मुझे बचपनसे एक लड़के से प्यार था. हम एकही स्कूलमे पढ़ते थे. वो भी मुझे बहुत चाहता था,लेकिन मेरे भाई ने हमारी शादी की जमके खिलाफत की. वजह इतनी,की वो लोग ज़्यादा पैसेवाले नही हैं. लड़के का नाम था/है ज़ाहिद. वो सदमे के कारण दुबई चला गया और उसके बाद लौटा ही नही. उसने पैसे तो खूब कमाए लेकिन शादी नही की.
"दो हफ्ते पहले वो पहली बार भारत लौटा. उसकी माँ बीमार थी इसलिए. पड़ोस होने के कारण हमारी मुलाक़ात भी हुई. उसकी माँ की कुछ तबियत ठीक हुई उस दिन लतीफ़ ने हमारी छत परसे उसे घर बुलाया और हमारे साथ जलगांव चलने का आग्रह करने लगा. जलगांव में हमारी unit का वर्धापन दिवस मन रहा था. ज़ाहिद राज़ी हो गया. वहाँ तुम्हारे पतिसे भी हमारी मुलाक़ात हुई.
"लतीफ़ ने शुरुसे ही मुझे शारीरिक मानसिक रूप से बेहद तंग किया. हमारी शादी के समय उसने अपने परिवार के बारे में झूठ भी बताया. मेरे पिता और भाई,दोनोको मेरी शादी की इतनी जल्दी पडी थी,की,ठीक से तलाश तक नही की. खैर! मैंने इस ज़िंदगी को अपनी क़िस्मत मान लिया. उसे अपने बच्चों से तक लगाव नही है. ना जाने उसने ज़ाहिद को जलगांव क्यों बुलाया लेकिन,मै ख़ुश हुई की,कुछ दिन उसका साथ मिलेगा.
"एक समारोह के बाद शराब पीके लतीफ़ ने मुझे हमारे कमरेमे घसीट चांटा मार दिया. ज़ाहिद ने देख लिया. दूसरे दिन सुबह मुझे चंद पल अकेला पाके उसने हाथ पकड़ के कहा," तुझे बहुत सताता है न ये आदमी?"
"लतीफ़ ने देख लिया और हंगामा खड़ा कर दिया. तब तेरे पती भी वहीँ थे. 'मैंने रहीमा और ज़ाहिद को रंगे हाथों पकड़ लिया",कहके लतीफ़ ने खूब शोर मचाया. हम दोनोने तब से उसकी बार बार माफ़ी माँगी. ज़ाहिद तो लौट रहा है. वो फिर कभी नही आएगा,लेकिन लतीफ़ रोज़ बच्चों के आगे मुझे ज़लील करता है...मेरा सर दीवार पे पटकता है..बाल खींचता है..."
हमारी इतनी बात होही रही थी,की,एक फोन आया. फोन लतीफ़ का था. रहीमा ने लिया. दो चार पल बाद मुझे पकडाया...दूसरी ओरसे लतीफ़ चींख रहा था," मै पहले घरको और फिर पेट्रोल पम्प को आग लगाने जा रहा हूँ..साथ तुम्हारे बेटे को भी...बचाना चाहती हो तो अभी लौट आओ...."
क्रमश:
लेबल:
Aadmee,
bikhare sitare,
pariwar.,
pyaar,
shaadi
बुधवार, 8 सितंबर 2010
Bikhare sitare: Raheemaa
कई जीवनियाँ दिमाग में उथल पुथल मचा रही हैं..दीपाके साक्षात्कार में अभी कुछ कमी-सी लग रही है.तभी रहीमा का ख़याल आया.इसके जीवन के सब से अधिक नाट्यपूर्ण प्रसंग तो मेरे आँखों देखे घटे थे..
सोलापूर जैसे छोटे शहरमे मेरे पती की पोस्टिंग थी. वो पुलिस महकमे में IPS अफसर थे. सख्त और उसूलों के पक्के.
ये S. P.की हैसियत से जब वहाँ पहुँचे तो सिविल lines में हमारा सरकारी निवास्थान था.रहीमा का घर एकदम पास था और वो सोलापूर की ही बाशिन्दी थी. मतलब स्कूल और कॉलेज की पढाई वहीँ हुई थी.नैहर भी वहीँ था.माता पिता का देहांत हो चुका था. एक भाई मुंबई में रहता था. एक बहन अमरीका में .
रहीमा का ब्याह तो एक आर्मी के अफसरसे हुआ था पर उसकी पोस्टिंग NCC में commandant के तौरपे सोलापुर में हुई थी .वो लोग रहीमा के बडेसे पुश्तैनी मकान में रह रहे थे.रहीमा के साथ उसके वालिद वालिदैन के ज़माने के पुराने वफादार नौकर भी थे.पिताकी मृत्यु के पूर्व भारत की अन्य जगहों पे रह चुके थे.
रहीमा के पिताकी कुछ ही अरसा पूर्व मृत्यु हुई थी . उनके घरके पास ही उनका पेट्रोल pump था. इसके चलाने की ज़िम्मेदारी रहीमा पे आन पडी,जो वो भली भांती निभा रही थी.
हमारे बच्चे हमउम्र थे तो अच्छी निभ जाती थी. बड़ा लड़का,आफताब,छोटे बिटिया,महताब.रहीमा का पती कुछ ज़रुरत से ज़्यादा ही पियक्कड़ था.इस वजह खाना आदि समाप्त होने में बहुत देर हो जाती और मै परेशान हो जाती.खैर.
पुलिस lines में मै काफ़ी काम करती रहती.उसमेसे एक था मनोरंजन के कार्यक्रमों को चालना देना. महिलाओं के खेल,रंगोली स्पर्धा,मेडिकल चेक ups ,lines की सफाई,पर्यावरण के बारेमे सचेत करना,बालवाडी चलाना आदि सब इसमें शामिल था.
एक शाम की बात है.मै ऐसेही एक कार्यक्रम के आयोजन से बेहद थकिमान्दी घर पहुँची.बस क़दम ही रखा था की,रहीमा के बड़े बेटे का फ़ोन आया. वो मेरे पती से तुरंत बात करना चाह रहा था. मैंने इन्हें फ़ोन पकडाया. मुझे वो बहुत परेशान लगा. आखिर स्कूल का ही बच्चा था.
उसकी बात सुनते,सुनते इनका चेहरा सख्त हो गया.फ़ोन रखते ही बोले मुझे मुझे तुरंत वहाँ जाना होगा.लतीफ़(रहीमा का पती)और रहीमा के बीछ बेहद पेचीदा सवाल उठ खड़ा हुआ है.
"मै चलूँ साथ?" मैंने पूछा,हालांकी मेरा सर दर्द से फटा जा रहा था और मै injection के लिए डॉक्टर को बुला चुकी थी."नही,"इनका रूखा-सा जवाब.उस समय रात के १२ बज चुके थे.ये चले गए पर मेरी आँख नही लगी. तक़रीबन सुबह के तीन बजे ये लौटे.
मैंने पूछा,' क्या हुआ था? सब ठीक ठाक तो हो गया न?"
"नही.और होगा ऐसा लगता नही...जब मै जलगांव इनकी unit के स्थापना दिवस के लिए गया था,तभी मुझे कुछ शक हुआ था..खैर...अब मुझे उस बारे में बात नही करनी...रहीमा का चरित्र ठीक नही है."
इतना कह ये सो गए. दूसरे दिन इन्हें अमरावती में होने वाले राज्य पोलिस क्रीडा स्पर्धा के लिए जाना था. मैंने packing तो तक़रीबन करके रखी थी. बच्चों के इम्तेहान सरपे थे तो मेरा जाना मुमकिन न था.
पिछली रात की घटना के बारे में मेरे दिमाग में उथलपुथल तो मच ही गयी थी.ऐसा क्या हुआ होगा?क्या मैंने खुद होके रहीमा को पूछना चाहिए या नही? शायद वो खुद ही बताना चाहे!
ये बाते मनमे आ रहीं थीं और रहीमा का डरा-सा फ़ोन आया,"तुम तुरंत आओ और मुझे किसी तरह बचा लो!बड़ी मुश्किल से मुझे फ़ोन करने का मौक़ा मिला है..."
क्रमश:
सोलापूर जैसे छोटे शहरमे मेरे पती की पोस्टिंग थी. वो पुलिस महकमे में IPS अफसर थे. सख्त और उसूलों के पक्के.
ये S. P.की हैसियत से जब वहाँ पहुँचे तो सिविल lines में हमारा सरकारी निवास्थान था.रहीमा का घर एकदम पास था और वो सोलापूर की ही बाशिन्दी थी. मतलब स्कूल और कॉलेज की पढाई वहीँ हुई थी.नैहर भी वहीँ था.माता पिता का देहांत हो चुका था. एक भाई मुंबई में रहता था. एक बहन अमरीका में .
रहीमा का ब्याह तो एक आर्मी के अफसरसे हुआ था पर उसकी पोस्टिंग NCC में commandant के तौरपे सोलापुर में हुई थी .वो लोग रहीमा के बडेसे पुश्तैनी मकान में रह रहे थे.रहीमा के साथ उसके वालिद वालिदैन के ज़माने के पुराने वफादार नौकर भी थे.पिताकी मृत्यु के पूर्व भारत की अन्य जगहों पे रह चुके थे.
रहीमा के पिताकी कुछ ही अरसा पूर्व मृत्यु हुई थी . उनके घरके पास ही उनका पेट्रोल pump था. इसके चलाने की ज़िम्मेदारी रहीमा पे आन पडी,जो वो भली भांती निभा रही थी.
हमारे बच्चे हमउम्र थे तो अच्छी निभ जाती थी. बड़ा लड़का,आफताब,छोटे बिटिया,महताब.रहीमा का पती कुछ ज़रुरत से ज़्यादा ही पियक्कड़ था.इस वजह खाना आदि समाप्त होने में बहुत देर हो जाती और मै परेशान हो जाती.खैर.
पुलिस lines में मै काफ़ी काम करती रहती.उसमेसे एक था मनोरंजन के कार्यक्रमों को चालना देना. महिलाओं के खेल,रंगोली स्पर्धा,मेडिकल चेक ups ,lines की सफाई,पर्यावरण के बारेमे सचेत करना,बालवाडी चलाना आदि सब इसमें शामिल था.
एक शाम की बात है.मै ऐसेही एक कार्यक्रम के आयोजन से बेहद थकिमान्दी घर पहुँची.बस क़दम ही रखा था की,रहीमा के बड़े बेटे का फ़ोन आया. वो मेरे पती से तुरंत बात करना चाह रहा था. मैंने इन्हें फ़ोन पकडाया. मुझे वो बहुत परेशान लगा. आखिर स्कूल का ही बच्चा था.
उसकी बात सुनते,सुनते इनका चेहरा सख्त हो गया.फ़ोन रखते ही बोले मुझे मुझे तुरंत वहाँ जाना होगा.लतीफ़(रहीमा का पती)और रहीमा के बीछ बेहद पेचीदा सवाल उठ खड़ा हुआ है.
"मै चलूँ साथ?" मैंने पूछा,हालांकी मेरा सर दर्द से फटा जा रहा था और मै injection के लिए डॉक्टर को बुला चुकी थी."नही,"इनका रूखा-सा जवाब.उस समय रात के १२ बज चुके थे.ये चले गए पर मेरी आँख नही लगी. तक़रीबन सुबह के तीन बजे ये लौटे.
मैंने पूछा,' क्या हुआ था? सब ठीक ठाक तो हो गया न?"
"नही.और होगा ऐसा लगता नही...जब मै जलगांव इनकी unit के स्थापना दिवस के लिए गया था,तभी मुझे कुछ शक हुआ था..खैर...अब मुझे उस बारे में बात नही करनी...रहीमा का चरित्र ठीक नही है."
इतना कह ये सो गए. दूसरे दिन इन्हें अमरावती में होने वाले राज्य पोलिस क्रीडा स्पर्धा के लिए जाना था. मैंने packing तो तक़रीबन करके रखी थी. बच्चों के इम्तेहान सरपे थे तो मेरा जाना मुमकिन न था.
पिछली रात की घटना के बारे में मेरे दिमाग में उथलपुथल तो मच ही गयी थी.ऐसा क्या हुआ होगा?क्या मैंने खुद होके रहीमा को पूछना चाहिए या नही? शायद वो खुद ही बताना चाहे!
ये बाते मनमे आ रहीं थीं और रहीमा का डरा-सा फ़ोन आया,"तुम तुरंत आओ और मुझे किसी तरह बचा लो!बड़ी मुश्किल से मुझे फ़ोन करने का मौक़ा मिला है..."
क्रमश:
मंगलवार, 7 सितंबर 2010
बुधवार, 1 सितंबर 2010
इन सितारों से आगे..5
- सम्वेदना के स्वर ने कहा…
- क्षमा जी...बीमार होने के कारण दो दिन से घर पर ही हूँ इसलिए बिखरे सितारे पूरा पढ गया... मुझे इसको पूरा पढ जाने के लिए दो बातों ने प्रेरित किया... पहला आपका ये कहना कि ये दुबारा आपने सिर्फ मेरे लिए लगाई है और दूसरा जो मैंने पहले भी कहा है कि आपकी सम्वेदनशीलता मुझे अपने करीब महसूस होती है...आज सारे एपिसोड्स पर एक समीक्षा रूपी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ... एक, आपने यह कथामाला आत्मकथ्य शैली में लिखी है और जितनी बारीकी से घटनाक्रम लिखा गया है, वह तभी सम्भव है जब यह सारी दुर्घटनाएं स्वयम झेली हों. पूजा तमना की चारित्रिक विशेषताएँ भी आपके किरदार से मेल खाती हैं. लिहाजा हर स्थल पर यह प्रतीत होता है कि यह पूरा कथानक आपकी आत्मकथा है. अगर नहीं, तो आपका लेखन इतना जीवंत है कि आपने हर चरित्र को जैसे जीकर देखा है. दो, जीवन में मैंने भी कई ऐसे लोगों को देखा है जिनके विषय में कह सकते हैं कि दुर्भाग्य की जीती जागती मिसाल रहे हैं वो लोग. लेकिन पूजा की व्यथा सुनकर ऐसा लगता है कि दुर्भाग्य ने हर क़दम पर उसका दामन थाम रखा था. इतनी मुश्किलें, इतनी दुश्वारियाँ और इतनी तकलीफें कि खुद दुःख भी अपनी आँखें मूँद ले. और इतनी तकलीफें झेलकर भी कोई ज़िंदा हो, फिर वो पत्थर हो चुका होगा. मुश्किलें मुझपर पड़ी इतनी कि आसाँ हो गईं. लेकिन पूजा के लिए असानी जैसी कोई राह ही नहीं थी. पता नहीं किस काली कलम से अपनी किस्मत लिखवाकर आई थी वो.
- १३ अगस्त २०१० ३:२० पूर्वाह्न
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सम्वेदना के स्वर ने कहा… - तीन, एक बहुत पुरानी कहावत है कि खराब सिक्के पुराने सिक्कों का चलन रोक देते हैं. बुराइयाँ ऐसे ऐसे रूप धरकर सामने आती हैं कि अच्छाइयों से ज़्यादा हसीन लगें. इतनी बुलंद आवाज़ में चीखती हैं कि सच्चाई की आवाज़ घुट जाए. और वही पूजा के साथ भी हुआ. ऐसा हर किसी के साथ होता है कभी न कभी. मेरे साथ भी हुआ. लेकिन हफ्ते, महीने भर के लिए. पूजा की बदकिस्मती का ये आलम कि सारीज़िंदगी चलता रहा ये खेल उसके साथ. चार, शादी का जो रिश्ता गौरव के साथ हुआ वो बुनियाद ही गलत थी. जो शादी सहानुभूति के भाव के साथ हो न कि प्यार के भाव के साथ, वो निभ नहीं सकती. समाज में ऐसे कई उदाहरण हैं. वो एक गलत फैसला सारी ज़िंदगी तबाह कर गया पूजा की. पाँच, यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है और उसके उत्तर की अपेक्षा भी करता हूँ. क्या सचमुच दुर्भाग्य पूजा के साथ इस तरह चिपका था कि एक साथ सारे उसके ख़िलाफ हो गए! उसके बच्चे, जिन्होने उसे अपने बचपन से देखा, उसकी गोद में पले बढे, उसकी बहन जो उसकी सुख दुख की गवाह थी, उसके नौकर नौकरानी, ड्राइवर, परिवार, समाज, दोस्त, रिश्तेदार, डॉक्टर, नर्स, सारे के सारे गौरव के पक्ष में हो गए ऐसा क्या नशा पिला दिया था गौरव ने. यह प्रश्न पूजा के सतीत्व से जुड़ा नहीं है, लेकिन गौरव के संदर्भ में एक ठोस प्रमाण है. आखिर ऐसी क्या कमी थी पूजा में कि तमाम अच्छाइयों के बाद भी उसका विरोध किया उसके अपनों ने. .क्षमा: पूजा के साथ जो लोग खिलाफ हो गए,उसका महत्त्व पूर्ण कारण था वह डॉक्टर.अलावा इसके गौरव का अपनी पत्नी बारे में नौकरों से पूछताछ करना...हर मुमकिन तरीकेसे पूजा को मानो नज़र क़ैद में रखना. उसकी गतिविधियों का अपनी सुविधा के अनुसार मतलब निकाल लेना. गौरव का मिज़ाज ही ऐसा था," जिसे तैश में खौफे खुदा न रहे!"उसे जो मतलब निकलना होता,निकलके एक पूजा के अलावा अन्यत्र हर जगह उसकी चर्चा कर बदनामी करना. उसने रिश्ते की गरिमा कभी समझी ही नही. वो चाहे जिससे विवाह करता,हश्र यही होता. शक ले डूबता.कई विवाह समझौते की बुनियाद पे होते हैं,लेकिन ज़रूरी नही की,हश्र ऐसा हो.इंसान गर परिपक्व होता है तो कुछ हदतक आपसी सामंजस्य बना लेनेमे सफल ज़रूर होता है.
- १३ अगस्त २०१० ३:२२ पूर्वाह्न
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सम्वेदना के स्वर ने कहा… - क्षमा जी.. यह आपकी अपनी कहानी हो न हो, कहानी कहने का अंदाज़ इसको अपना लेता है. आपका परिचय आपके ब्लॉग पर उपलब्ध नहीं है, फिर भी आपके बारे में जो अंदाज़ा मैंने लगाया था, वो बहुत हद तक सही निकला... और यह बात मैं आपकी इस शृंखला को पधने से पहले ही कह चुका था..ख़ैर उन बातों का कोई ताल्लुक नहीं इस बात से. अपना ई मेल देंगी, यदि आपत्ति न हो तो. सरिता दी ने भी आपसे मेल आई डी माँगा था. मेरा सुझव है कि आप मेरी यह टिप्पणी प्रकाशित न करें. अपने तक रखें और हो सके तो अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरअवश्य दें. पुनश्चः “बाबुल की दुआएँ लेती जा” का असर देखा न आपने!! कितनी बदल जाती है दुनिया. मैंने अपनी इकलौती बहन की शादी में “बाबुल की दुआएँ” की जगह “काहे को ब्याही” बजवाया था. -सलिल इस मालिका का पुनः प्रकाशन 'संवेदना के स्वर' के लिए ख़ास तौर पे किया था...साथ,साथ अली साहब भी कुछ कड़ियाँ मिस कर गए थे.वे कड़ी डर कड़ी पढ़ते और कथानक के साथ बह निकलते... पूजा के साथ होते अन्याय को देख तमतमा उठते... आप लोगों का तहे दिलसे बार,बार शुक्रिया...डर असल मेरे पास अलफ़ाज़ नही हैं,की,मै अपनी भावनाओं को कैसे व्यक्त करूँ.आप सभी मेरे इस सफ़र के साथी और रहनुमा रहे. Dr.Bhawna ने कहा… सच में दिल दहला देने वाला सत्य पढ़कर मैं तो कल रात सो भी नहीं पाई, हद होती है इंसान के गिरने की, कितना सहा पूज़ा ने दर्द जब ज्यादा होता है जब अपने उस दर्द में नश्तर चुभाते हैं...
- भावनाजी भी लगातार जुडी रहीं और और आपने देखा,किस क़दर भावुक होके टिप्पणियाँ देती रहीं! आप सभी के निरंतर रुण में रहूँगी! कमेंट्स तो खैर और अनगिनत थे,और सभी की शुक्रगुजार हूँ.समाहित उन कमेंट्स को किया है,जिनमे निरंतरता बनी रही. सच तो ये भी है की,इतने लम्बे अरसे तक निरंतरता बनाये रखना आसान नही होता. समाप्त कुछ तकनीकी समस्या है,की,मै चाह्के भी,और तमाम कोशिशों के बावजूद para अलग नही कर पा रही हूँ!
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