सोमवार, 30 अगस्त 2010

इन सितारों से आगे..४

JHAROKHA ने कहा… aane wala kal kisne dekha hai fir bhi ham kal ki khatir sapane sanjote rahte hai aapki har kahani agali kadi kei utsukta ko aur bhi badha deti hai. aur yah panktiyan to shayad sabhi ko thodi der ke liye hi khushi de jati hongi----------

"हर खुशी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
चाँद धुन्दला सही,ग़म नही है मुझे,
चांदनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
रौशनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे.
poonam

Apanatva ने कहा… agalee kadee ke intzar me dhadkane bad gayee hai.....

संहिता ने कहा…
कहानी का यह भाग, मर्म स्पर्शी ! हमेशा की तरह !! जीवन मे पग पग पर समस्याए !!!! और कितना संघर्ष है , पूजा के जीवन मे??? यहां पति अपनी पत्नी की भावनाओ और उसकी परेशानियों को समझना ही नही चाहता है । पूजा के जीवन को जटिल बना कर रख दिया है । क्षमा जी , मेरे ब्लोग पर आपने सन्देश भेजा, इसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद!!! वास्तव मे पिछले कुछ दिनो मे मेरी अत्यधिक व्यस्तता के कारण ब्लोग पर कुछ लिख नही पायी हूँ । परंतु आपका ब्लोग नियमित रूप से पढ रही हूँ । इस मार्मिक कहानी ने मुझे बान्ध के रखा है । पुन: आशावादी हूँ ,कि अगली कडीयों मे शायद पूजा के जीवन मे खुशियो के पल आयेंगे।







arvind ने कहा…
जहाँ तेरा मुखड़ा नही, वो आशियाँ मेरा नही, इस घरमे झाँकती किरणों मे उजाला नही! चीज़ हो सिर्फ़ कोई , उजाले जैसी, हो जोभी, मुझे तसल्ली नही! ...bahut marmik. samvedanshil....pataa nahi aap itna dard kahan se laati hain...vah... bahut sundar. मो सम कौन ? ने कहा… आपके ब्लाग पर पन्द्रह बीस दिन में एक बार ही आता हूं। इस तरह कम से कम तीन चार बार सस्पेंस में जाने से बच जाता हूं। आखिरी तीन चार कडि़यां तो बहुत ही धाराप्रवाह चली हैं। आज फ़िर आगे क्या होगा की उत्सुकता लेकर लौट रहा हूं। जब भी लगता है कि बस, अब बहुत हो चुका, अगली पोस्ट और बड़े सवाल अधूरे छोड़ जाती है। लिखती रहें आप, दर्द शेयर करने से कम होता है। संजय भास्कर ने कहा… लघुकथा सा लगा आपका यह संस्मरण! बहुत सुन्दर! VICHAAR SHOONYA ने कहा… मैं थोडा सा उलझन में हूँ की ये कहानी हैं या वास्तविकता? जो कुछ भी लिखा गया है वो वास्तविक सा लगता है और ऊपर लिखा भी है ek jivanee. तो क्या ये सब सच हैं या फिर एक शानदार कहानी? दिलीप ने कहा… oh behad maarmik ant ki baat rula gayi....bachche kabhi kabhi kuch aisa keh dete hain ki nayanon se ashru barbas hi nikal padte hain...maarmik rachna गौतम राजरिशी ने कहा… पूजा/तमन्ना की इस यात्रा में इब्तिदा से संग रहा और अचानक से ये आखिरी किश्त का ऐलान जैसे सोयी नींद से जगा गया है। मुझे लग रहा था कि अंत में सब ठीक ही हो जायेगा....लेकिन ये आखिरी कड़ी और ऊपर से संपादित। क्या कुछ बीती होगी आप पर, हम तो पढ़ कर एक छटांश भी भाँप न पाये होंगे। दर्द की ये दास्तान शायद जाने कितने दिनों तक हांट करते रहे मुझे। आप जहाँ भी हों मैम...क्या कहूँ...just wishing you all the best...may god give you all the strength वन्दना ने कहा… कभी कभी हालात इंसान के बस मे नही होते और उसे किसि न किसी मजबूरी के कारण रिश्तों को ढोना ही पड्ता है और उस पर भारतीय स्त्री वो तो हमेशा ही दूसरों के लिये जीती आयी है तो इस मानसिकता से कभी बाहर ही नही आ पाती और अपने बच्चों की खातिर तो कभी समाज की खातिर तो कभी पति की खातिर अनचाहे रिश्तों का बोझ ढोती चली जाती है ………………शायद पूजा का भी यही हाल रहा है ना चाहते हुये भी ज़हर के घूँट ज़िन्दगी पिलाती चली गयी और पूजा पीती चली गयी मगर कोई पूछे उसे इस ज़िन्दगी और रिश्तों से क्या मिला………खुद को मिटाकर सब पर लुटाकर क्या मिला? जिनकी खातिर उसने अपने जीवन की आहुति दी उसका सिला उसे क्या मिला? ना जाने कब नारी सिर्फ़ अपने लिये जीना सिखेगी या समाज के खोखले नियमो से लड सकेगी? ऐसे ना जाने कितने ही अनुत्तरित प्रश्न मूँह बाये खडे हैं अपने जवाब के इंतज़ार में। 
इस  क़दर  भावना  प्रधान  और  तहे  दिल  से  दी  गयी  टिप्पणीयों  ने  मेरा  हौसला  बनाये  रखा ....साथ चल  रहे कारवाँ का एहसास होता रहा...कैसे शुक्रिया अदा करूँ? अगली और अंतिम कड़ी में  अली साहब और संवेदनाका संसार इनका अलग से शुक्रिया अदा करना है...इन्हीं चंद पाठकों के लिए इसका पुनः प्रकाशन किया...
क्रमश:..

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

इन सितारों से आगे..3

ali ने कहा…
हौलनाक ....ये वक़्त किसी पे ना गुज़रे ! जितनी बार पढता हूँ चोट सी लगती है !
















उफ़ बहुत ही भयानक परिणाम रहा………………ऐसा तो कोई सोच भी नही सकता था…………………………और अभी आगे भी मुश्किलों भरा सफ़र जान दुख हो रहा है…………कोई कैसे इतना सह सकता है।
















काजल कुमार Kajal Kumar ने कहा…
बहुत सी बातें हैं जो बिन कहे ही की जाती हैं. सुंदर. rashmi ravija ने कहा… बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ..कहानी में भी कविता का आभास,वो खुला आसमान और चाँद का सफ़र...किसी बीते युग की बात लगती है ..स्मरण दिलाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया शिवराज गूजर. ने कहा… पहली बार आपके ब्लॉग पर आया. सच मानिये पहली बार में ही आपकी कलम का मुरीद हो गया.
Apoorv ने कहा…
बाँध लेने की क्षमता है आपकी कलम मे..अब तो सारे बिखरे सितारे इकट्ठे करने पड़ेंगे एक दिन..और अगली किश्त की प्रतीक्षा भी है..
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…
"उसके मिट्टी से सने पैरों के निशाँ वाली एक चद्दर ही हम रख लेते तो कितना अच्छा होता...." कितनी अच्छी बात कही है - काश यह समझदारी सब में नैसर्गिक ही होती तो दुनिया कितनी खूबसूरत होती!












Manoj Bharti ने कहा…
क्षमा जी ! सादर प्रणाम ! आज तीसरी कड़ी पढ़ी । अच्छा लगी । बड़े-बुजुर्गों का स्नेह भाव और उनकी तन्हाई का सुंदर चित्रण हुआ है । रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा… एक अच्छा सफ़र रहा... आपके साथ ऊपर-नीचे होते रहे.... पर इसे हटाना...यह क्यूं आखिर...? शहरोज़ ने कहा… इतनी सुघड़ भाषा ब्लॉग में तो कम ही देखाई देती है.प्रवाह तो है ही...संवेदनाओं को हौले हौले झक झोरती है धीरे-धीरे बढती कथा.. pragya ने कहा… मन  ही  नहीं  करता  की  ये  कहानी  कहीं  पर  ख़त्म  हो .. 







ललितमोहन त्रिवेदी ने कहा…
क्षमा जी ! कहानी की रोचकता और रहस्यमयता दौनों ही प्रभावित करती हैं ! कभी टिप्पणी चूक जाती है परन्तु रचना पढ़ता अवश्य हूँ !बहुत अच्छा लिख रही हैं आप ! 





रचना दीक्षित ने कहा…
क्या लेखन कला है ?कमाल है ........एकदम बाँध कर रखती है. साँस की लय भी कहानी की लय से बांध जाना चाहती है.अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी. आभार Dr.R.Ramkumar ने कहा… फिर वो दिनभी आ गया जब उसे अमरीका जाना था...हवाई अड्डे पे पूजा ,गौरव और केतकी खड़े थे..पूजा के आँखों से पिछले महीनों से रोका हुआ पानी बह निकला था...उसने अपनी लाडली के आँखों में झाँका...वहाँ भविष्य के सपने चमक रहे थे..जुदाई का एकभी क़तरा उन आँखों में नही था...एक क़तरा जो पूजा को उस वक़्त आश्वस्त करता,की, उसकी बेटी उसे याद करगी..उसकी जुदाई को महसूस करेगी...उसे उस स्कूल के दिनका एक आँसू याद आ रहा था,जो नन्हीं केतकी ने बहाया था...जब स्कूल बस बच्ची को पीछे भूल आगे निकल गयी थी...समय भी आगे निकल गया था...माँ की ममता पीछे रह गयी थी... अंतस से लिखी प्रभावशाली कहानी। शब्दों में आंतरिक सच लिपटा हुआ आया । दर्द तो फिर आना ही था। समकालीन टूटते बिखरते मजबूर विकास का उम्दा चित्रण। अनुभूतियों की ‘शमा’ मौजूद है, ‘क्षमा’ बनकर। ali ने कहा… क्षमा जी आज फुर्सत से पढ़ा ... लगता है मन रम जायेगा चूंकि यह आलेख धारावाहिक की शक्ल में है इसलिए मुझे आगा पीछा सोचने और प्रतिक्रिया देने का अवसर दीजिये ! आज बस इतना ही कि पढना अच्छा लग रहा है ! शुक्रिया ! अल्पना वर्मा ने कहा… माँ और उसकी ममता भी असहाय हो जाती है..बच्चों के फैसलों के आगे! बहुत भावपूर्ण लिखा है ..आगे के भाग की प्रतीक्षा रहेगी.
अरुणेश मिश्र ने कहा…
पूरा पढने की इच्छा । माँ महान है ।

alka sarwat ने कहा…
बिटिया का ब्याह और मै नही जा सकूँगी... ये पीड़ा अभी कुछ दिन पहले मैंने भोगी है ,इसका दर्द तो बस आसन हिला देता है ऊपर वाले का भी ,सच बहुत गहन पीड़ा है ये ..........

Mrs. Asha Joglekar ने कहा…
यही होती है माँ, बच्चे चाहे रूठे रहें माँ की ममता बच्चों के लिये छलकती ही रहती है चाहे वे सामने हों या नहों । बिटिया का ब्याह और मै नही जा सकूँगी.....इस वाक्य में आपके दिल का सारा दर्द उभर आया है ।

aruna kapoor 'jayaka' ने कहा…
स्रियां जीवन में कितनी गंभीर समस्याओं से झूझ रही होती है...इसका शब्दों मे सचित्र वर्णन आपने किया है आपने क्षमाजी!.. मीनाक्षी ने कहा… कमाल  है  ...देखते  ही  देखते  पहली   से  अब  2010 मे  की  किश्त  भी  पढ़  ली ....शायद  कथा  के  पात्र  हमारे  में  से  ही  कोई  होता  है  एक  जादुई  प्रवाह  में  बस  पढ़ती  चली  गयी ..... 
 
इस सफ़र की सख्त धूप में आप की टिप्पणियों के घने साए साथ चलते रहे...रहगुज़र आसान होती गयी...बहुत,बहुत शुक्रिया!
अगली दो कड़ियों में सफ़र में अन्य साथी,जिनकी  रहनुमाई न होती तो सफ़र पूरा न होता , उनका ज़िक्र  ज़रूर करुँगी..
क्रमशः

इन सितारों से आगे..२

बसंता जी हर कड़ी के साथ जुड़े रहे और अपनी अनमोल टिप्पणी देते रहे..हालांकि वो नेपाली भाषा में ब्लॉग लिखते हैं,और वही भाषा बेहतर जानते हैं,वो वो मेरे हिन्दी लेखन की  हरेक बारीकी समझते रहे!

डॉक्टर रूपचंद शाश्त्री जी की," कथा बहत रोचक है और इस में लयबद्धता बनी रही है," जैसी टिप्पणी हौसला अफज़ाई करती रही.

योगेश जी स्वप्न की टिप्पणी," पढ़ना शुरू किया तो पढता ही गया, अक्सर लेख पढता नही हूँ. बहुत दिल को छू लेनेवाली लगी कहानी. कभी बहुत पहले पढी मुंशी प्रेमचंद की कहानियों की याद आ गयी," ज़र्रानवाज़ी नही तो और क्या थी?

शारदा अरोरा जी अंत तक जुडी रहीं.."लगती तो ये आप बीती है. शानदार उपन्यास का लुत्फ़ देती है"....इस में उनका बड़प्पन नज़र आता है.

दिगंबर नासवा जी  जुड़े रहे..."बच्चे की किल्कारिया तो किसी को भी आनंद में ले जाती हैं...फिर दादा-दादी की तो बात ही क्या..आपका आगे का सफ़र भी सुन्दर  होगा !"..ये सद्भावना   हमेशा   साथ रही.

सुरेन्द्र  'मुल्हिद 'शुरू से जुड़े रहे और हौसला अफज़ाई करते रहे...शायद अंत में कुछ मसरूफ़ हो गए!

गर्दू गाफिल जी ने लिखा," सुनेंद्र जी आपको जादूगर कह रहे हैं...किन्तु मुझे तो संवेदनाओं का सागर लगती हैं...!
क्या खूब नज़्म लिखी है! आपके वाक़यात पढ़ते हुए मुझे शिवानी और मीना कुमारी याद आ गयीं...शिवानी की तरह शब्द चित्र और मीना कुमारी की तरह दर्द का दरिया..
ये कैसा अद्भुत संयोग है! आपकी लेखनी मन्त्र मुग्ध करती है""
भला ऐसी टिप्पणी कोई भुला सकता है?

मुकेश कुमार तिवारी जी लिखते हैं,

"अब तो कथानक के साथ रिश्ता जुड़ता महसूस हो रहा है। सांस रोक के पढना होता है एकबार में।

बहुत ही अच्छा और सधा हुआ लेखन।"
महफूज़  अली  कभी  जुड़े  कभी  बच  निकले !

निर्मला कपिला जी की बड़ी उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ रहीं!एक  में  लिखा,
"बहुत दिल्चस्प मोड पर कहानी को छोडा है अगली कडी के लिये उत्सुकत और् बढ गयी है।"...अब बताईये की,अगली कड़ी कैसे न लिखती?

'मुमुक्ष की रचनाएँ, से टिप्पणी रही(अनेकों में से एक),
"आगे, आगे क्या अंजाम हुए ?? क़िस्मत ने क्या रंग दिखाए?

श्रवण कुमार ने शाप तो महाराजा दशरथ को दिया..लेकिन किस, किस ने भुगता?

पूजा के जीवन के दर्दनाक मोड़ तो उसी दागी गयी गोली के साथ शुरू हों गए...

कहानी रोचक होती ही जा रही है. पढने की ललक बढती ही जा रही है."

ज्योति  सिंह   जी एक जगह कहती हैं,
"दो   बार  आकर  लौट  गयी .. इतनी  बढ़िया  रचना  को  पढ़कर  टिपण्णी  न  देने  का  अफ़सोस  हो  रहा  था  पर  आज  सफलता  मिलने  पर  ख़ुशी  हुई  .पूजा  की  कहानी  दिल  को  छूने  वाली  अवं  रोचक  बनती  जा  रही  है  .आगे  पढने  फिर  आउंगी  ."

BrijmohanShrivastava ने कहा… १४वी कड़ी पढने के बाद आज ऐसा लग रहा है दोबारा शुरू से पढना शुरू करुँ| बात ये है कि अभी तक कहानी /उपन्यास की द्रष्टि से पढ़ रहा था अब साहित्य की द्रष्टि से पढ़ा जायेगा |आज जब इस ओर मेरा ध्यान गया तो यह विचार आया ""सितारों जडी रात चूनर लेकर उसके जिस्म पर पैरहन डालने वाली थी ""तथा ""कपोलों पे रक्तिमा छा गई "" और ""फिजायें महकने लगीं चहकने लगीं जिस्म को वादे सबा छू गई एक सिरहन सी दे गई ""और भी "" वो आँखों का सितारा सुबह का तारा "

बाद में कहीँ खो गए ब्रिजमोहन जी....!

भाग्यश्री, दीपक 'मशाल','अदा'जी,ललित मोहन त्रिवेदी...इन सभी की बेहद उत्साह वर्धक टिप्पणियाँ रहीं!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…" पूजा की तरह ही मैं भी इन्तज़ार करती हूं इस श्रृंखला की हर कडी का, लेकिन इन्तज़ार जितना लम्बा होता है, पढने में उतना ही कम समय लगता है. लगता है जैसे अभी तो पढना शुरु किया था और कडी खत्म भी हो गई?"
कितनी प्यारी-सी टिप्पणी है ये!
विनोद कुमार पांडेय ने कहा…
प्यार का दर्द सचमुच बहुत कठिन होता है बेहद संवेदनशील कहानी ..पूजा के हालत इस कदर होना स्वाभाविक है क्योंकि आदमी जब किसी को चाहे और वो किसी प्रकार दूर होता प्रतीत हो तो तकलीफ़ तो होती ही है..और ऐसे में दादा दादी का भी इस प्रकार प्यार करना और सहारा देना कुछ पल के लिए एक सुखद एहसास देता है..बढ़िया कहानी आगे के कड़ियों का इंतज़ार है..




Dipak 'Mashal' ने कहा…
Is qalam ke kamaal ko bhala main kya naam doon? adbhut ya manmohak.... Jai हिंद 'अदा' ने कहा… "ये गौरव भी ना.. पता नही किसी की उतरन ले आया है " बहुत ही सहजता से आपने सबकुछ कह डाला.... आप ..लिखती रहे हम आते रहते हैं.... बस ये है कि कभी-कभी टिपण्णी नहीं दे पाते..... बहुत अच्छा...वाह ..कहके चले जाना हमें अच्छा नहीं लगता.. लेकिन ये बताना चाहते हैं कि आपको पढ़ते हमेशा ही हैं..... और आपकी लेखनी को सलाम भी करते हैं.... बहुत ही सरलता से सीधी सच्ची बात कहतीं हैं आप... आज भी अच्छा लगा पढ़ना आपको.....हमेशा की तरह....!! "
आप सभी का शुक्रिया! क्षमा क्रमश:

बुधवार, 25 अगस्त 2010

इन सितारों से आगे..

२३ जून के बाद मैंने इस ब्लॉग पे नही लिखा...हाँ..पुनः प्रकाशन ज़रूर कर दिया. स्वयं नही सोचा था,की,पूजा की जीवनी ख़त्म होने के बाद मै आगे क्या लिखूँगी..एक और जीवनी के अलावा और क्या लिखा जा सकता था? दिमाग में कुछ रोज़ पूर्व लिया हुआ एक साक्षात्कार घूम रहा है...पर लगता है,अभी पूजा की जीवनी दिमाग पे बहुत अधिक हावी है. मै गर इस वक़्त कुछ और लिखूँ तो उसे न्याय नही दे पाऊँगी . दीपा,जिसका साक्षात्कार लिया,वो इंतज़ार में है,की,अब मै उसके बारे में कब लिखना शुरू करुँगी! और मुझे शर्मिन्दगी महसूस होती है जब मै उसे कहती हूँ...अभी नही...रुक जाओ ज़रा-सा की,'बिखरे सितारे'के अपने आप पे पड़े प्रभाव से उभर जाऊँ !अपने खुद के लेखन का प्रभाव नही ! जानती हूँ,की,लेखन में कई कमियाँ रह गयीं. खुद को तसल्ली दे देती हूँ,की,मै वैसे भी लेखक या लेखिका तो हूँ नही! यहाँ बात कर रही हूँ, एक जीवन से उसके अतीत में जाके जुड़े रहने का प्रभाव.
मुख पृष्ठ   से शायद पूजा  की तसवीर अब हटानी चाहिए. लेकिन दीपा की कोई मौज़ूम तसवीर फिलहाल उपलब्ध नही.दो तीन ब्लॉगर दोस्तों से मैंने उस तसवीर को हटा देने के बारे में बात कही तो सभी ने निषेध कर कहा,की,वो तसवीर अब इस ब्लॉग की पहचान है! सवाल ये भी है,की,दीपा की कहानी,जो इतनी लम्बी निश्चित ही नही,का शीर्षक क्या होना चाहिए? दिमाग में उहापोह जारी है.

इस अंतराल में पूजा के जीवन में चंद घटनाएँ और घटीं..क्या उन्हें लिखना चाहिए या जहाँ मालिका रोक दी,वहीँ अब रुक जाना चाहिए? तय नही कर पा रही हूँ.
इस सफ़र में अनेक पाठक जुड़े. उनकी टिप्पणियाँ पढना अपने आप में मुझे एक सफ़र पे ले जाता है. पहले प्रकाशन के समय जिनकी हर किश्त पे टिप्पणी आती रही वो हैं हम  सब के चहेते मेजर गौतम राजरिशी. मै स्वयं हैरान हूँ,की इतना व्यस्त इंसान इस तरह एक साल भर किसी मालिका से जुड़ के ,इतने नियम से,हरेक लफ्ज़ पढ़ के कैसे टिप्पणी दे सका? कुछ टिप्पणियाँ तो उन्हों ने अस्पताल के बिस्तर परसे की हुई हैं! उनका जितना शुक्रिया अदा करूँ,कम है. गौतमजी, आपने बेहद हौसला अफज़ाई की. कई बार दो कड़ियों के बीछ दो हफ़्तों तक का अंतराल पड़ जाता था,और मुझे लगता की,शायद अब आगे बढना मुमकिन नही. तभी ख़याल आता की,ये ऐसे पाठकों के साथ नाइंसाफी है जो इतने मन से और नियम से इस श्रीन्खलाके साथ जुड़े हैं.
वंदना अवस्थी दुबे,वंदना गुप्ता, ज्योति सिंह, इन सभी की हरेक कड़ी के बाद टिप्पणियाँ हैं. अगली बार इन सभी के बारे में लिखना चाहूँगी. अपने प्रथम प्रकाशन के बाद जब दोबारा प्रकाशन  किया तो कुछ और पाठक मित्र जुड़े. उनकी भी टिप्पणियाँ पढके लगता है,की,लेखन सफल हो गया.
क्रमशः ( ज़्यादा नही,और दो या तीन किश्तें...आप सभी के साथ जुड़े रहने का एक सुखद संस्मरण!)

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

बिखरे सितारे: टूटते हुए....


( गतांक:बिटिया ने कहा," माँ अब तुम पर से विश्वास उठ गया है..न जाने फिर कब लौटेगा..! उस के पास तुम्हारी तस्वीरें और आवाज़ कहाँ से आयी? "
मै :" मै हज़ार बार कह चुकी हूँ,की,मेरी शूटिंग भी हुई थी और रेकॉर्डिंग भी! और गर नही है विश्वास तो उसी व्यक्ती से पूछ लो...और मै क्या कह सकती हूँ...इस विषय पे मै और एक शब्द भी सुनना नही चाहती...ख़ास कर तुम से..मै आत्म ह्त्या कर लूँगी...मेरे बरदाश्त की अब हद हो गयी है...!" खैर!
दो माह के बाद इन जनाब का एक माफी नामा आया. उन्हें पश्च्याताप हो रहा था..देर आए,दुरुस्त आए..पर मै बहुत कुछ  खो चुकी थी...आत्म विश्वास और अपनों का विश्वास..खासकर अपनी बेटी का..गौरव के अविश्वास की तो आदत पड़ गयी थी...अब आगे.)
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इन्हीं हालातों के चलते एक बार पूजा और उसकी माँ के दरमियान अन्तरंग बातें हो रही थी.माँ ने कहा:" पता नही,ख़ता किसकी होती है,और भुगतना किसे पड़ता है!  अजब दुनिया है...कभी सोचती हूँ,तूने,मेरी इस बिटिया  ने   कभी किसी का बुरा न किया...उसकी क़िस्मत में क्यों इतना दर्द लिखा है?
"अन्दर से इक आवाज़ आती है-इसका सिरा मेरी माँ से जुड़ता है..तेरी नानी ने अपनी ननद की बेटी से बहुत बुरा बर्ताव किया था. जबकि तेरी इस मासी ने कभी उन्हें पलट के लफ्ज़ नही कहा..बेचारी बिन माँ बाप की अनाथ लडकी थी...मै तो उनसे काफ़ी छोटी थी...तब नही समझ पाती  थी,लेकिन आज लगता है,क़ुदरत ने यह न्याय किया है...ना जीवन में मुझे चैन मिला न तुझे..."

पूजा गहरी सोच में पड़ गयी थी. उसे याद आया,उसका ही लिखा एक आलेख,जिसमे उसने लिखा था--श्रवन कुमार ने श्राप तो राजा दशरथ को दिया था. उस श्राप से उसके अंधे माता पिता की मुश्किलें तो कम नही हुई. लेकिन उसका असर कहाँ से कहाँ हुआ.
राम को बनवास भेजनेवाली कैकेयी ने खुद भुगता. माता कौशल्या ने भुगता, भरत  की पत्नी,लक्ष्मण की पत्नी और सीता..इन सबने भुगता...इन तीनों के नैहर वालों ने उसकी आँच सही होगी...न सिर्फ यह,अंत में,सीता के बच्चे लव कुश जो राजपुत्र थे,वाल्मिकी मुनी ने वन में पाला पोसा.
सीता ने अग्नी परिक्षा दी,फिरभी क़िस्मत में वनवास ही लिखा था.  ..इन सब की क्या खता थी?

नही,पूजा तमन्ना स्वयं को सीता नही समझती है. ऐसा कोई मुगालता उसे नही है. वो केवल एक इंसान है. इंसान जो गलतियाँ करता है,वह गलतियाँ उससे भी हुई. पर अपराध नही.

उसे अनेक बार अनेकों ने सवाल पूछे....उसने ऐसे पती को छोड़ क्यों नही दिया? इसका तो बहुत सरल जवाब रहा.. वह अपने बच्चों के बिना कदापि नही रह सकती. और गौरव ने उसे बच्चों के लिए ज़रूर तडपाया होता. वैसे भी उसे लगता की,पती से अलग हो जाना बहुत ही आसान उपाय कहलाता है..खैर यह सच तो नही,लेकिन जैसे की वह कहती है,क्या पता,उस बात पे भी दोष उसी के सर मढ़ा जाता...साथ रहते हुए भी गौरव ने बच्चों को कई बार उनके आपसी तकरार की एकही बाज़ू बतायी थी. पूजा भरसक कोशिश करती की,यह तकरार आपसमे ही निपट जाये. पर उसे पता तक न चलता और गौरव अमन को अपने तरीके  से  बात बता देता.
केतकी पे अपने बचपन का यह असर हुआ,की,वो अपने बच्चे नही चाहती!फिर वही बात दोहरा रही हूँ.... श्रवण कुमार ने श्राप राजा दशरथ को दिया और भुगता किस किस ने!

इस जीवनी लेखन की शुरुआत ठीक पिछले वर्ष इन्हीं दिनों हुई थी...पूजा की दादा-दादी के शुरुआती जीवन से यह दास्ताँ आरम्भ हुई...और अब आके थमी है...दास्ताँ या किस्सा गोई तो थमी है,जीवन नही. जीवन आगे क्या रंग दिखाएगा किसे पता?
चंद सवालों के जवाब जीवन में नही मिलते...तो इस जीवनी में भी कुछ सवाल अनुत्तरित रहे हैं. केतकी को आज भी पूजा दोष नही देती. मानसिक तौर से वह भी बिखर गयी थी. जब कभी उसे केतकी पे गुस्सा भी आता है,तो वह संभल जाती है...यह सोच के,की,इस बच्ची ने बचपन में बहुत अन्याय भुगता है.
केतकी और उसका पती,शुरू में अमरीका में थे. दो साल इंग्लॅण्ड में रहे.अब  कनाडा जाने की सोच रहे हैं. अमन कभी कभार नाइजीरिया जाने की बात करता है..एक अकेला पन पूजा को घेरे रहता है.
पूजा की चंद तस्वीरें पोस्ट कर रही हूँ. उसने बनाई लघु फिल्म 'धरोहर' से यह ली हैं.शिकायत मिली है की ये तस्वीरें नज़र नही आ रही हैं.मै एक दो दिनों में इस दोषको हटाने का यत्न ज़रूर करुँगी!फिलहाल माफी चाहती हूँ.

  ( 3 या  4 दिनों  बाद  यह  मालिका  ब्लॉग  पर  से  हटा  दी  जायेगी . सभी  पाठक ,जो  इस  मालिका  से  जुड़े  रहे ,उनका  तहे  दिलसे  शुक्रिया  अदा  करती  हूँ . उनकी  हौसला  अफ़्ज़ायी  के  बिना  यह  मालिका  लिखना  संभव  न  होता ! किसी को कुछ सवाल पूछने हों इस दरमियान तो ज़रूर पूछें!)

बुधवार, 11 अगस्त 2010

बिखरे सितारे:रात अंधेरी...


पूजा को दिन प्रतिदिन सदमे मिलतेही जा रहे थे...एक से उभर नही पाती और दूसरा बाहें पसारे आगे खड़ा होता....

( गतांक: मैंने कमरे से बाहर निकल जाना चाहा ,लेकिन केतकी मानो चंडिका का रूप धारण कर चुकी थी...उसने मेरी बाँह पकड़ दोबारा कमरे में खींच लिया...उसकी आँखों में आग थी...जिसे मेरे आँसूं चाहकर  भी बुझा न पा रहे थे..अब आगे पढ़ें)

अपने आप को ऐसे मोड़ों पे खड़ा पा रही थी,जहाँ लगातार दिशा भ्रम महसूस होता...समझ नही पाती की,क्या करना चाहिए..किस राह निकलना सही होगा?

केतकी की मानसिकता समझ रही थी..वह लगातार दो पाटों के बीछ पीसी जा रही थी..अमन ने तो  अपनेआप को अलग कर लिया था. ऐसे अशांत माहौल में शांती कैसे ला सकती थी मै? केतकी के लिए दिल तार तार हुआ जा रहा था. बेटी को माँ के आँचल तले भी दर्द से निजात न मिले तो जाये कहाँ?
(ये कहानी नही जीवनी है. किरदार सब के सब असली जीवन से हैं.इस बात को मद्दे  नज़र रख,इस   कड़ी  का  उर्वरित  हिस्सा  मैंने  हटा  दिया  है . )


क्रमश:

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

बिखरे सितारे: गला क्यों न घोंटा?


(गतांक: केतकी,किसी अन्य शहर  अपने काम से गयी थी और मैंने उसे कुछ पूछने के ख़ातिर फोन किया. वह फोन पे मुझपे कुछ इस तरह बरस पडी,जैसे मैंने पता नही क्या कर दिया हो...! फोन को कान पे पकडे,पकडे ही,मै मूर्छित हो फर्श पे गिर गयी...घर पे सफाई करनेवाली बाई थी और मेरा एक टेलर भी..उसने घबराके मेरे भाई  को फोन कर दिया....वो आभी गया...नही जानती थी,की,क़िस्मत ने अपनी गुदडी में और कितने सदमे छुपा रखे थे...

हर हँसी  की  कीमत
अश्कोंसे चुकायी हमने,
पता नही और कितना
कर्ज़ रहा है बाक़ी,
आँसू  हैं  कि थमते नही!
अब आगे:)

मै होश में तो आ गयी उस समय,पर यह कुछ दिनों के लिए एक सिलसिला-सा बन गया. जब मानसिक तनाव बरदाश्त के परे हो जाता तो मै होश खो बैठती. माँ वैसे ही चिंतित रहती,मेरे कारण,अब और अधिक चिंतित हो गयीं.

केतकी गौरव के पास ही थी उन दिनों. एक शाम उसका फोन आया:" माँ, आप इस वक़्त अकेली हैं या आस पास कोई है?"
मै:" इस समय तो कोई नही है..कहो,क्या बात है?"
केतकी:" माँ, पापा,अमन और मै कल दिन में वहाँ पहुँच रहे हैं...."
मै:" लेकिन तुम लोग तो तीन चार दिनों के लिए ऊटी जानेवाले थे न? उसका क्या?"
केतकी:" नही जा रहे अब..पापा कहते हैं,की,अब वो आपके साथ क़तई नही निबाह सकते. वह अमन और मेरे सामने कुछ बातें कहना चाहते हैं...जैसे की,आपको प्रतिमाह क्या दिया जाय...तथा आप कहाँ रहेंगी.."

कुछ देर तो मेरे मूह से अलफ़ाज़ ही नही निकले...शायद आँखें भर आयीं थीं....गला रूंध रहा था. अंत में मैंने कहा:" ठीक है बेटे..जो तुम लोग ठीक समझो..इस समय और कह भी क्या सकती हूँ?"

कैसा तमाशा बना रखा था क़िस्मत ने मेरा! चार दिन भी चैन नही मिल रहा था..गौरव और बच्चे आए. गौरव ने काफ़ी बहकी,बहकी बातें की...

उनकी मुखालिफ़त करना मैंने मौज़ूम न समझा. पत्थर पे सर फोड़ने वाली बात होती वह तो..उसने एक घर मेरे नाम से करने की बात कही. और प्रतिमाह कुछ रक़म. कितनी,यह बात मुझे अब याद नही. वो सब कुछ कागज़ात पे लिख लाया था. एक प्रत  मुझे पकड़ा दी गयी. अगले दिन वह और अमन,दोनों लौट गए. उनके वहाँ रहते मै तीन चार बार बेहोश हो कर ,पता नही क्या बडबडाती रही. अमन ने तो अपने आपको इन सब बातों से अलग थलग कर लिया था.


इसी दौरान एक रोज़ केतकी ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और कहा:" पापा अब तुम्हारे नाम मकान नही करना चाहते..उनका कहना है,की,तुम अपना संतुलन खो बैठी हो.."
यह अलफ़ाज़ मै हज़म कर ही रही थी,की,केतकी रोते हुए उठ खड़ी हुई और तमतमाती हुई बोली:" माँ! तुमने पैदा होते ही मेरा गला क्यों न घोंट दिया? आप लोगों ने मेरी ज़िंदगी नरक बना रखी है..." उस बच्ची की नन्हीं,मासूम सूरत मेरे आखों के पानी में तैर गयी...जिसे उसके परिवार ने धुतकारा था...मै ही उसकी रक्षक थी..या मेरा खुदा..लगा,काश, मेरी ही माँ ने मेरा गला घोंट दिया होता!

मै दंग रह गयी ! कभी न सोचा था की,मुझे अपनी लाडली संतान के मूह से यह अलफ़ाज़ सुनने होंगे! पल भर लगा,गर मेरे दादा-दादी कहीँ से  सुन रहे हों,तो उनपे क्या बीतेगी? जिस पूजा तमन्ना,यानी मुझे, पाके उन्हें लगा था,आसमान का सितारा मिल गया..उसी को, उनकी लाडली पोती को,उसकी औलाद यह अलफ़ाज़ सुना रही थी? यह क़िस्मत की कैसी विडम्बना थी? मै,उनकी आखों का सितारा,टूट  टूट के बिखर रही थी..और वो दोनों कुछ न कर सक रहे थे!

मैंने कमरे से बाहर निकल जाना चाह,लेकिन केतकी मानो चंडिका का रूप धारण कर चुकी थी...उसने मेरी बाँह पकड़ दोबारा कमरे में खींच लिया...उसकी आँखों में आग थी...जिसे मेरे आँसूं चाहकर  भी बुझा न पा रहे थे..

क्रमश:

इस कड़ी को भी निजी वजूहात से काफ़ी डिलीट कर दिया गया है...क्षमा करें!

सोमवार, 9 अगस्त 2010

बिखरे सितारे: ६: और भी सिलसिले...


( गतांक:केतकी ने अंत में इस बात की इत्तेला मेरे जेठ जेठानी को दी..उनको गौरव ने नही बताया था..सगे भाई जो नही थे..लेकिन जेठानी ने गौरव को तुरंत फोन किया..और कह दिया:' तुम गर हमारी बहू को घर से निकालोगे,तो,मेरा मरा मूह देखोगे..हम दोनों को उसके चरित्र पे किंचित भी शंका आ नहीं सकती.."
यह बात सुन,गौरव ना जाने क्यों सकपका गया..और उसने उन्हें कहा," ठीक है भाभी,आपकी बात रख  लेता हूँ.."
इस के पश्च्यात वो दोनों मेरे पास पहुँच गए...अब आगे पढ़ें...)

भाभी-भैया आ गए. मुझे अच्छा भी बहुत लगा,की,वो दोनों आए तो..मेरे साथ तो खड़े रहे. लेकिन मेरे समझ से परे था,की,गौरव ने उनकी बात कैसे रख ली?

माँ को भी इसी बात का अचरज था. और माँ ने जो अंदाज़ लगाया,वो भी एकदम सही था. मुझे छोड़ देना गौरव के अहम को ठेस थी. इसके अलावा वह यह भी जताना चाह रहा था,की, पत्नी ने किये छल के बावजूद उसने,बड़ा दिल कर के माफ़ कर दिया..और कोई होता,तो घर से धक्के मार के निकाल देता..भविष्य में मैंने यह अलफ़ाज़ गौरव  के मुख से अनगिनत बार सुने.गर मेरे पास एक भी पर्याय मौजूद होता,तो शायद मै स्वयं उस घर में नही ठहरती. यही हमारे समाज की विडम्बना है.खैर!
भाभी-भैया कुछ रोज़ रुक के लौट गए.

माँ के मन से भी अविश्वास धुंद हट गयी. भाई ने भी इतना तो कह दिया: मै बाजी  के चरित्र पर शक कर ही नही सकता. और यह भी सच है,की, उन्हों ने जीजा जी से इजाजात भी माँगी होती,तो वो कौन देनेवाले थे!"
काश! मेरी बहन का भी यही रवैय्या रहता!
इस घटना के कुछ ही दिन पूर्व,मुझे एक सहेली ने दो चित्र नेट पे फॉरवर्ड किये थे. माँ पास ही खड़ी थीं. मैंने उन्हें पहला चित्र दिखाया और पूछा: आपको क्या नज़र आ रहा है इस चित्र में?"
माँ:" किसी बगीचे में एक बेंच है. उसपे एक लड़का, किसी सुनहरी बालवाली लडकी के गले में हाथ डाले बैठा है".
मै: " अच्छा! यह तो जो पीछे से दिख रहा है,वो है....अब इसी तसवीर को सामने से देखिये!"
मैंने अगली तसवीर पे क्लिक किया और माँ हँस ने लगीं! सामने से देखा तो समझे,की,वो सुनहरे बालवाली लडकी नही,बल्कि,एक कुत्ता था!
क्या ख़बर थी,की,मेरे साथ यही होगा? के तसवीर की एक ही बाज़ू देखी जायेगी?

केतकी अब मेरे पीछे पड़ गयी,की,मैंने कुछ ना कुछ अपना काम शुरू करना ही चाहिए. चाहत मेरी भी यही थी. लेकिन हम चाहें,और तुरंत वैसा हो जाये....जीवन में ऐसा तो होता नही. मैंने अपने दिमाग के दरवाज़े पूरी तरह खोल दिए.

केतकी वैसे बेहद चिड चिडी हो गयी थी. बात बात पे उलझ पड़ती. इतनी,की,मेरी माँ,जो उसे अपनी जान से बढ़ के प्यार करतीं,उनसे भी वह कई बार बड़ी बदतमीज़ी से पेश आती. माँ और मै,दोनों ही उसकी इस मानसिक अवस्था को समझ रहे थे. बरसों उस पे ना इंसाफी हुई थी. मुझ पे भी हुई थी,जिसकी वह गवाह थी. और जैसे भी हो,उसने मेरा साथ निभाया था. अवि के समय भी वह और उसका पति,दोनों मेरे साथ खड़े रहे. वरना मै ज़लालत से ही मर जाती.
चंद दिनों बाद केतकी लौट गयी.

फिल्म मेकिंग के दौरान चंद लोगों से परिचय हुआ. बड़ा मन करता की,समाज की ज्वलंत समस्याओं पे छोटी,छोटी फ़िल्में बनाऊं . आर्थिक हालत तो ऐसी न थी,की,बना सकूँ. तलाश में थी की,कोई producer या distributer मिले.

मै भी एक कोष में चली गयी थी. अपने आप से सवाल करती,क्या सच में मुझे,इतनी सहजता से,अपना मन पसंद काम मिल गया है? शायद कोई आंतरिक  शक्ती होती है,जो हमें आगाह कराती है.लेकिन किस बात से मैंने आगाह होना था? हर क़दम फूँक  फूँक के उठा रही थी...!

केतकी दोबारा आनेवाली थी. उसे कुछ अपने काम के लिहाज़ से assignments मिले थे. वह पहले गौरव के पास पहुँची. बाद में मेरे पास. उसका मिज़ाज कुछ और अधिक चिडचिडा महसूस हुआ मुझे....

किसी अन्य शहर वो अपने काम से गयी थी और मैंने उसे कुछ पूछने के ख़ातिर फोन किया. वह फोन पे मुझपे कुछ इस तरह बरस पडी,जैसे मैंने पता नही क्या कर दिया हो...! फोन को कान पे पकडे,पकडे ही,मै मूर्छित हो फर्श पे गिर गयी...घर पे सफाई करनेवाली बाई थी और मेरा एक टेलर भी..उसने घबराके मेरे भाई  को फोन कर दिया....वो आभी गया...नही जानती थी,की,क़िस्मत ने अपनी गुदडी में और कितने सदमे छुपा रखे थे...

हर हँसी  की  कीमत
अश्कोंसे चुकायी हमने,
पता नही और कितना
कर्ज़ रहा है बाक़ी,
आँसू  हैं  कि थमते नही!

क्रमश:

कड़ी का काफ़ी अंश डिलीट कर दिया है. क्षमा करें !

रविवार, 8 अगस्त 2010

बिखरे सितारे: सितम यह भी था..


.(गतांक:सब से भयानक बात जो सामने आयी वो यह थी...मेरे डॉक्टर ने मुझे ज़बरदस्त धोखा दिया था....एक डॉक्टर की शपथ को कूड़े में फेंक दिया था...क्यों? क्यों किया उसने ऐसा? एक जासूस का किरदार निभाते हुए, उसने हर तरह की झूटी बातें हर किसी से कहीँ थीं..यह कैसा विश्वास घात था...?जो पूरे एक साल से चल रहा था...अब आगे..)

इन घटनाओं का सिलसिला इतनी तेज़ी  से घट रहा था,की, मै जज़्ब नहीं कर पा रही थी... आज जब याद भी कर रही हूँ,तो दम घुटा जा रहा है...

केतकी से पता चला,की, डॉक्टर पूरे परिवार से मैंने कही हर बात बताते थे..जब मैंने उनसे कहा था, की,मुझे फोन के नए,नए उपकरणों में दी गयी सुविधाओं के बारे में नहीं पता,तो उन्हें यह बात झूट लगी थी...! ऐसा लगा तो मुझे सीधा कह देते,मै शायद विश्वास दिला सकती...

वो मेरी गतिविधियों के बारे में मेरे घर के नौकरों से पूछा करते थे..! नौकर जो कहते वो बातें गौरव को भी बताई जातीं..और जूली तथा ड्रायवर ने ना जाने क्या,क्या झूट उनसे कहा था...! उन सब बातों की फेहरिस्त दे के अब क्या फायदा?

अवी  के बारे में उन्हों ने गौरव को बताया..और सरल मूह से मुझे पूछा था ,की,गौरव को किसने बताया..! यह सब सुनती गयी, तो  मैंने उन्हें घर बुलाया..मै तड़प उठी थी,की,एक डॉक्टर इतना घात कैसे और क्यों कर रहा था....जब गौरव और केतकी की इस बारे में बात हुई तो गौरव ने कहा," गर नहीं बताता तो मै उसका गला न काट देता? "
हद हो गयी थी..! मतलब यह सब मिली भगत थी! उफ़!

जब मेरा उन से आख़री बार सामना हुआ,तो पता चला,उन्हों ने गौरव से कहा था,की,मै तो पार्लर गयी ही नही थी..! जब की, प्रिया मेरे साथ थी...! वो स्वयं प्रिया से मिले..पार्लर से लौटते हुए,उन्हें पिक अप किया था..और मेरे घर आए थे!
इसपर बोले:" मैंने उस पार्लर में फोन कर के पता किया था..वहाँ तुम्हारे नाम की बुकिंग नही थी..!" गर उन्हें शक था,तो मुझे फिर एकबार,चाहे तो प्रिया के सामने पूछ लेते..!
मैंने तुरंत प्रिया को फोन किया और पूछा,की,बुकिंग किस के नाम से थी? प्रिया ने कहा, उसके अपने नाम से..! क्यों की वह क्लिनिक की मुलाजिम थी, पेमेंट पार्लर की ओर से उसने करना था! लेकिन डॉक्टर फिरभी मेरी बात पे अविश्वास ही जताए जा रहे थे..इस के अलावा ,जब मैंने स्टेशन जाते हुए उन्हें घर छोड़ा तो वो बाद में मेरा पीछा करते हुए,वहाँ पहुँचे..और गौरव जो उनके फोन का इंतज़ार कर रहा था,अपने काफिले के साथ निकल पडा..!

उनके अलफ़ाज़ थे," आपकी पत्नी,एक अनजान आदमी को स्टेशन से घर लाने गयी है...दुल्हन की तरह सज के..!" गौरव ने यही अलफ़ाज़ मेरे और केतकी के आगे दोहराए थे...वजह? मेरी सुरक्षा! गर डॉक्टर  को मेरी सुरक्षा की चिंता हुई,तो सीधा मुझे आगाह कर सकते थे! जब की मैंने उनसे कहा था:" यह लड़का आपसे मिलना चाह रहा है..."
जब उनके पास जासूसी करने के लिए, इतना समय था,तो वो कुछ समय रुक के उसे परख लेते..मेरी सुरक्षा की इतनी चिंता थी,तो यह बात मुझे भी कह सकते थे...
जब गौरव का सह्कर्मी गोल्फ का सामान लेके घर से गया,तो उसे बिल्डिंग के नीचे रुके रहने का आदेश गौरव ने दिया! यह कौनसी नीती थी,इस डॉक्टर की ? एक पती-पत्नी के रिश्ते में दरार कम करने के बदले और बढ़ा देने की? सिर्फ उस रिश्ते में नही,दरार तो मेरे बच्चों ,बहन,भाई,माँ सब के दिलमे डाली गयी थी..

मेरी अनैतिकता की चर्चा गौरव ने अपने दोस्तों में खूब की..डॉक्टर का जो साथ अब मिल गया था...मुझे अपनी बहन से बेहद लगाव रहा..हम सहेलियां अधिक थीं..एक साथ कितने रिश्ते चटख रहे थे...

मेरा फिल्म मेकिंग  का course शुरू हुआ..नही,पता,की,मै यह सब झेलते हुए,किस तरह निभा रही थी..साथ,साथ, डेढ़ दो कमरे का मकान भी खोजना था..
केतकी ने अंत में इस बात की इत्तेला मेरे जेठ जेठानी को दी..उनको गौरव ने नही बताया था..सगे भाई जो नही थे..लेकिन जेठानी ने गौरव को तुरंत फोन किया..और कह दिया:' तुम गर हमारी बहू को घर से निकालोगे,तो,मेरा मरा मूह देखोगे..हम दोनों को उसके चरित्र पे किंचित भी शंका आ नहीं सकती.."
यह बात सुन,गौरव ना जाने क्यों सकपका गया..और उसने उन्हें कहा," ठीक है भाभी,आपकी बात रख  लेता हूँ.."
इस के पश्च्यात वो दोनों मेरे पास पहुँच गए...

क्रमश:

शनिवार, 7 अगस्त 2010

बिखरे सितारे भाग ३:क्या करूँ?क्या करूँ?


( गतांक:शाम के साढ़े चार पाँच बजे के करीब दरवाज़े पे बज रही घंटी से मेरी आँख खुली...कमरे से बाहर निकलते ही मैंने ड्राइवर को आवाज़ दी..वह भी सो गया था...जब तक आया तब तक मैंने दरवाज़ा खोल दिया..और अपने सामने खड़े लोगों को देख हैरान रह गयी...! लोग क्या, अब जब सोचती हूँ,तो एक भयानक तूफ़ान मेरे द्वार पे खडा था...मेरा द्वार? मेरा अपना कोई द्वार या घर था?
अब आगे...)

दरवाज़ा खोला तो दंग रह गयी..सामने खड़े थे,गौरव तथा मेरे भाई   और बहन...! कुछ आकलन हो उससे पहले और कुछ लोग अन्दर आए..कुछ गौरव के सह्कर्मी,कुछ हम लोगों के दोस्त, कुछ पुलिस विभाग के लोग...बातों और घटनाओं का सिलसिला, सही क्रम से तो याद नही...कोई कुछ कह रहा था..कोई कुछ कर रहा था..मेरी संवेदनाएँ,मानो नष्ट हुए जा रहीं थीं..

गौरव :" मै तुम दोनों को अनैतिक संबंधों के तहत गिरफ्तार  करवा दूँगा...(अवि की ओर मुड़ के)गर मेरे पास बंदूक होती तो मैंने इस पे गोली दाग दी होती..."
बमुश्किल मेरा मूह खुला:" गोली दागनी हो तो मुझ पे दाग दो..यह लड़का बिना इजाज़त के अन्दर नही आया है.."
किसी ने अवी से उसके कागज़ात छीन लिए...मैंने गौरव को अपने मोबाइल से उसकी तस्वीरें लेते देखा..
पता नही किस वक़्त मै अपने भाई बहन के साथ कमरे में गयी...चिल्लाने की आवाज़ सुनी तो बाहर निकली..देखा एक व्यक्ती अवि को चाटें मार रहा था..मैंने टोकने की कोशिश की...उनमे से एक अवि को बाहर ले गया..बाद में पता चला,उसे ट्रेन में बिठा दिया गया..

गौरव कमरेमे आया...कुछ फूल मेरे जुड़े से निकल सिरहाने पड़े थे...
गौरव: " देखा..दुल्हन की तरह सज के बैठी थी...और यह sms देखो..every time you  see this sms , consider that you are being hugged a thousand times .."
मैंने कहना चाहा की,वह sms उन्हीं की भांजी का है..महिला दिवस के दिन भेजा हुआ..वो मुझे अपनी माँ की जगह देती रही है...पता नही,मुह से अल्फाज़ निकले या नही..
फिर गौरव ने एक डायरी  उठायी,जिसे वो किताब समझ रहा था...उस पे लिखा हुआ था,"Love,live & laugh"...
गौरव :" इसी  में  से  यह  औरत  एक  दिन  किसी  को  फोन  पे  पढ़  के  सुना  रही  थी ...बेहयाई  की  इन्तेहा  है .."

वह डायरी मुझे मेरे भांजे ने दी थी...उसमे स्त्री भ्रूण ह्त्या को लेके मैंने एक कविता लिखी थी...मैंने कईयों को सुनाई थी...किसे कहती? किसे समझाती? कौन सुनने वाला था उस वक़्त? शायद मै अपनी वाचा भी खो बैठी थी...
गौरव की कमरे के बाहर से आवाज़ आयी:" मै जा रहा हूँ..." फिर तुरंत मेरी बहन और भाई को मुखातिब होके बोला" तुम लोग भी जाओ..रहने दो इसे रंगरलियाँ  मनाने के लिए अकेली!"
खैर वो दोनों तो रुके रहे...गौरव चला गया...दिमाग में इतना दर्ज हो रहा था,की,बहन-भाई,दोनों पूरी तरह ,गौरव के बहकावे में आ गए हैं...दोनों को मेरे बर्ताव पे शर्मिन्दगी महसूस हो रही है...वो रात भी गुज़र गयी...मुझे अपने लिए कोई और ठिकाना ढूंढना होगा,यह बात मुझे कही गयी..

अगले दिन माँ भी पहुँच गयीं...डॉक्टर के आने का वो दिन नही था,पर वो भी पहुँच गए...
डॉक्टर:" तुम्हारे पती को अवि के बारे में ख़बर किसने दी?"
मै खामोश रही...मन में आया, शायद जो गोल्फ सेट लेने आया था उसने दी होगी...डॉक्टर चले गए...मै फिर एक कटघरे में खड़ी रह गयी...माँ,बहन,भाई...सब मेरी तफ्तीश में जुड़  गए...सवालों की बौछार...इन्हीं बातों के चलते मुझे बताया गया की,वह ड्रायवर,जो मेरे नैहर से आया था, अपने गाँव भाग निकला..गौरव से बहुत डर गया था..

देर रात केतकी का फोन,मेरी बहन के मोबाईल पे आया....उसने पूछा:" माँ,क्या हालचाल हैं?"
मै:" सब ठीक है, बेटे..."
केतकी:" मैंने सुना,कल बड़ा हंगामा हुआ...!"
मै :' ओह..! तो तुझे किसने बताया?"
केतकी:" मुझे पता चल गया..."
अब मै रो पडी...हे भगवान् ! इसका मतलब बात मेरे बेटी-दामाद तक पहुँचा दी गयी? क्या करूँ? क्या करूँ?
केतकी:" रो मत माँ...! हम दोनों आपके साथ हैं...उस लड़के का क्या हुआ..?"
मै :" उसकी पिटाई हुई..."..मुझे बीच ही में टोक के केतकी ने कहा:" क्या? क्या कह रही हो? उसे पीटा..?"
उसकी आवाज़ में हैरत के सिवा अब बेहद गुस्सा भी था...वो अमरीका से अगले हफ्ते भारत आनेवाली थी..

जब पहुँची,तो सारी कहानी की कुछ कड़ियाँ जुड़ने लगीं...जब गौरव ने मुझ से मोबाइल छीना था,तब मुझे आए हुए सब sms बहुतों को फॉरवर्ड किये थे...उसने मुझ से कहा था की,वह मेरे सेट में उपलब्ध सुविधाएँ देख रहा है....मेरी बहन और केतकी की फोन पे बात चीत भी हुई थी..बहन ने केतकी से कहा था" खबरदार,जो तूने माँ का साथ दिया..वह धोकेबाज़ है..."
जिस ड्रायवर को मैंने काम से हटा दिया था...अब समझ में आने लगा...मेरे मोबाइल का उसने बेहद गलत इस्तेमाल किया था...जूली का झूट भी इसमें शामिल था....
सब से भयानक बात जो सामने आयी वो यह थी...मेरे डॉक्टर ने मुझे ज़बरदस्त धोखा दिया था....एक डॉक्टर की शपथ को कूड़े में फेंक दिया था...क्यों? क्यों किया उसने ऐसा? एक जासूस का किरदार निभाते हुए, उसने हर तरह की झूटी बातें हर किसी से कहीँ थीं..यह कैसा विश्वास घात था...?जो पूरे एक साल से चल रहा था...
क्रमश:

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

बिखरे सितारे: भाग ३: दिया और तूफ़ान..


( गतांक:इस प्रसंग से तो मै किसी तरह उभरी..मेरे भाई और बहनोई,दोनों ही ने गौरव को काफ़ी समझाया..इतने सालों में पहली बार,मेरे भाई  ने अपना मूह खोला था..मुझे अपने घर और जीवन से रफा दफा करने की बात उस समय तो गौरव ने नही दोहराई....क्या ख़बर थी,की,एक और,इससे कहीँ अधिक  भयानक प्रसंग मेरे इंतज़ार में था..?? अब आगे..)

कभी मुड़ के देखती हूँ, तो सोचती हूँ, अपने वैवाहिक जीवन को गर चंद पंक्तियों में बयाँ करना चाहूँ,तो कैसे करूँ? बहुत सरल है..गधे पे बैठे तो क्यों बैठे...उतरे तो क्यों उतरे..! अपना आत्मविश्वास कबका खो बैठी  थी...सही गलत के फैसले,मै केवल अपने बलपे नही ले पाती थी..मुझे हर घटना को गौरव की निगाहों से देखना पड़ता..और उसमे सफल होना मुमकिन नही था...उसे किस वक़्त कौनसी बात अखरेगी यह शायद वह खुद भी नही बता सकता तो औरों की क्या कहूँ?

कभी फोन करके सलाह लेना चाहती तो वो कह देता, इतनी-सी बात के लिए तुम मेरा समय क्यों बरबाद करती हो? जो बात मुझे बहुत मामूली लगती और मै तय कर लेती तो मुझे सुनना पड़ता, मेरी सलाह लेना तुम्हें ज़रूरी नही लगा? इतनी बड़ी बात हो गयी और मुझे ख़बर ही नही?

फोनवाली घटना को हुए चंद माह गुज़रे..उस घटना के सदमे से, मेरे एक हफ्ते के भीतर नब्बे प्रतिशत बाल झड गए थे. उसकी ट्रीटमेंट के लिए मैंने एक क्लिनिक में जाना शुरू किया था..वहाँ के सभी स्टाफ के साथ मै बहुत घुलमिल गयी थी.

ट्रीटमेंट के दौरान वहाँ की डॉक्टर ने मुझे बताया:" आप यहाँ बहुत popular हो गयीं हैं ! आपके लिए एक surprise  तोहफा है!"

शहर के एक मशहूर beauty पार्लर का गिफ्ट voucher था यह...! मै कभी पार्लर तो जाती नही थी..लेकिन सोचा,किसी दिन चल के सलाह लूँ की, बचे हुए केशों की रचना कैसे की जाये! मुझे हमेशा जूड़ा बनाने की आदत थी..!लेकिन उसका मुहूरत निकल नही पा रहा था.


एक सड़क दुर्घटना के कारण मुझे अचानक अस्पताल में भरती होना पड़ गया..इत्तेफाक़न, मेरा भाई शहर में मौजूद था..साथ हो लिया. एक शल्य  चिकित्चा के  बाद    मुझे चौबीस घंटे ICU में रखा गया..उसने किसी तरह एक प्राइवेट  नर्स का इंतज़ाम किया..रात तो गुज़र गयी...सुबह होने पर, चाय-नाश्ते के बहाने  जो खिसक गयी तो देर शामतक उसका पता ही नही चला..खैर! मुझे प्राइवेट वार्ड में ले जाने से पहले x-ray के लिए ले जाया गया..वहाँ से कमरे में..

मेरा भाई रातभर मेरे कमरे में रुका रहा..सुबह कमरे को ताला लगा के उसने चाभी काउंटर पे पकड़ा दी..जब मुझे कमरे के सामने लाया गया तो कमरा खुला था! अन्दर प्रवेश करते ही देखा की, वह नर्स और मेरा ड्राइवर सोफे पे विराजमान थे और मेरे मोबाइल फोन के साथ कुछ छेड़छाड़ चली थी..मुझे देखते ही सकपका के ड्राइवर ने फोन मेरी साथ वाली टेबल पे रख दिया..उस वक़्त किसी को कुछ कहने की शक्ती मुझ में नही थी. वैसे भी मुझे इस बात का गुस्सा अधिक था,की, यह दोनों पूरा दिन मेरे पास फटके ही नही..

अगले दिन गौरव कुछ देर के लिए आके लौट गया..मुझे अस्पताल में हफ्ता भर रहना पडा. घर लौटी..कमजोरी महसूस हो रही थी..हर थोड़ी देरसे मुझे लेट जाना पड़ता..खैर! कुछ डेढ़  माह के बाद एक शादी में शरीक होने मुझे गौरव के पास जाना था.

 जाने से दो तीन दिन पूर्व मैंने अपना नेटपे डाला हुआ प्रोफाइल खोला..इरादा था,की,गर कुछ बेहुदे कमेंट्स आए हों तो उन्हें डिलीट कर दूं...देखा तो एक कमेन्ट था," आप कहाँ हैं मोह्तरेमा?"
नाम और तसवीर तो थी,पर मुझे कुछ याद नही आ रहा था..मैंने उस व्यक्ती का प्रोफाइल खोला...वहाँ उसका परिचय था..अभिनय का शौक़ीन ..फ़िल्मी दुनिया में पैर ज़माने की कोशिश चल रही थी..

जवाब में मैंने लिखा:" मै बहुत कम अपना प्रोफाइल खोलती हूँ,इसलिए देर से जवाब दे रही हूँ..अगले माह मै स्वयं एक फिल्म making का  course करने जा रही हूँ..देखती हूँ क्या हश्र होता है!"( इस course के बारे में मैंने गौरव से संमती ले ली थी).

वो on लाइन था..उसका तुरंत जवाब आया:" अरे वाह! एक बात और..मैंने आपका कथा संग्रह पढ़ा! आप visualise बहुत अच्छा करती हैं..एक के बाद एक तसवीर खींची जाती है! मुझे तो आपसे प्रत्यक्ष भेंट करने का मन कर रहा है! मुझे यक़ीन है,की,आप स्क्रिप्ट  writing और स्क्रीन प्ले बहुत अच्छा लिख सकेंगी ! मै खुद एक भोजपुरी फिल्म के साथ जुड़ा हूँ,और स्क्रिप्ट writer खोजने का काम मुझे सौंपा गया है! "


मेरे प्रोफाइल पर से मैंने अपने शहर का नाम हटा दिया था! लेकिन मेरी किताब के पिछले पन्ने  पे मेरे बारे में जानकारी थी...यह बात मुझे याद नही रही !


मैंने जवाब में लिखा:" अरे भाई! आप क्यों मुंबई आने लगे?"


उसने लिखा :" मुंबई? आप मुंबई में रहती हैं?"
मै:" हाँ..!
वो :" पर आपकी किताब के पिछले पन्नेपर तो कुछ और  लिखा हुआ है! आप  घबराईये मत!  आपका अन्य कोई पता मेरे पास नही है! बिना इजाज़त के मै आप तक नही पहुँच सकता!"

मै शर्मिन्दा ज़रूर हुई..! पर उसे स्क्रैप पे लिखने के लिए मैंने एकदम से रोक दिया! मेरे कामसे जुडी हुई इ-मेल ID उसे दी और लिखा:" मै अब यह सब डिलीट करने जा रही हूँ..अपने scrap पर से भी यह सब संवाद कृपया हटा दें!"
उसी शाम,अपना नाम बताते हुए,एक sms आया.." माफ़ करें! मैंने यह नंबर आपके प्रोफाइल पर से हासिल किया..हो सकता है, कुछ अन्य लोगों ने भी लिख लिया हो! जब तक आप इजाज़त न दें,मै आपको फोन नही करूँगा."
मैंने पढ़ लिया पर उसका कोई जवाब नही दिया.  

चंद रोज़ बाद मै गौरव के पास चली गयी. जिस दिन समारोह था,उसी दिन शाम को मेरे मोबाइल पे एक sms आया. कुछ संता  बंता का घिसा पिटा जोक!

अचानक गौरव ने मेरे हाथों से मोबाइल छीन लिया..और कुर्सी पे बैठ, उसके विविध बटन दबाने लगा. मै कुछ देरके लिए बिस्तर पे लेट गयी. तक़रीबन आधे घंटे के बाद मैंने उससे पूछा:" आप क्या कर रहे हैं ?"
गौरव :" देख रहा हूँ, इसमें कौनसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं..."
मै खामोश रही.

तीन चार दिनों बाद मै पुनश्च बंगलौर लौट गयी.लौटे ही मेरे ड्राइवर ने छुट्टी की माँग की.गौरव के पास .जाने से पहले वो तक़रीबन हफ्ते भर की छुट्टे ले चुका था. वो बदतमीज़ी भी हदसे अधिक करने लगा था. मैंने उसे काम परसे हटा दिया..कई बार मुझसे बिना कहे, गाडी लेके अपने परिवार के कामों के ख़ातिर निकल जाया करता..बरदाश्त की भी एक सीमा होती है.....उसके पश्च्यात जब मैंने गाडी में पेट्रोल भरा तो पता चला की,वो हर बार मुझ से ३०० रुपये अधिक लेता रहा..यह सब सुन के भी,उसे हटाने पर गौरव बहुत नाराज़ हो गया..मेरी समझ में न आया,की,आखिर ऐसी भी क्या बात है जो मुझे ही दोष दिया जा रहा है..?

एक हफ्ते के पश्च्यात मुझे पास ही के एक शहर में,रोटरी द्वारा, महिला दिवस के आयोजन में शामिल होने का न्योता था.  प्रमुख अतिथी के हैसियत से मुझे 'भाषण' देनेके लिए कहा गया था,पर मैंने इनकार करते हुए सवाल जवाब के ज़रिये, एक संवाद स्थापित करने की इच्छा ज़ाहिर की. वहाँ जाने के लिए तो मैंने एक ड्राइवर का इंतज़ाम कर दिया..माँ से बात हुई,तो उन्हों ने गाँव से एक ड्राइवर भेजने की बात कही. यह लड़का हमारे खेतों पढ़ी पला बढ़ा था..

अपने मनोवैज्ञानिक को मै हर बात बता दिया करती थी. यह भी बता दी. महिला दिवस का आयोजन बढ़िया रहा. स्थानिक अखबारों ने आयोजन को सचित्र सराहा. किसीने वहाँ से चलते समय एक अखबार मुझे थमा दिया.
मै बहुत जल्दी में लौट आयी. अमन का अगले दिन जन्मदिन था. उसका एक मित्र बंगलौर से वहाँ जानेवाला था. अमन ने मेरे हाथों बने केक तथा पेस्ट्रीज की माँग की थी..मैंने सहर्ष स्वीकार कर ली थी...घर पहुँच पूरी रात मै उस काम में जुटी रही..थोड़ा अधिक बन गया था..मैंने फ्रिज में रख दिया.

अगले दिन गौरव से पूछा:" कैसा लगा केक?"
गौरव:" मेरे लिए बचा ही नही.."
मै" कमाल है! आपने अपने लाल को झाड़ा नही? एक टुकडा बचा के नही रख सकता था!"
गौरव:" खैर..मै इन बातों को कोई तूल नही देना चाहता..हर कोई अपनी मर्जी का मालिक है...!"

बाद में मै मनही मन ख़ुश हुए की, केक और पेस्ट्रीज बचे हैं. गर अगले तीन या चार दिनों में गौरव आया,तो उसे खिला सकती हूँ!
शाम को उस प्रोफाइल वाले  लड़के की ओर से एक और sms मुझे मिला. वो किसी काम से बंगलौर आनेवाला था. चाहता था,की,मै वाकई स्क्रिप्ट लिखने की ज़िम्मेदारी लूँ..उसने एक इ-मेल भेजी थी, इस मुतल्लक..और पढने की इल्तिजा की. मैंने पढ़ के अपने डॉक्टर को भी सब कुछ बताया. मन ही मन मुझे विश्वास नही हो रहा था,की, मुझे वाक़ई ऐसा मौक़ा मिल रहा है..बात निश्चित होने तक मैंने चुप्पी साध ली..

उस दरमियान गौरव भी आया. अगले दिन रात के भोजन के बाद मैंने रखे हुए व्यंजन परोसके उसे चकित करने की सोच रखी..लेकिन दोपहर के भोजन के बाद जब मै रसोई का छुटपुट काम निपटा रही थी...अचानक आके गौरव ने कहा:" मै निकल रहा हूँ.."
मै: " अरे? आप तो कल जानेवाले थे! "
गौरव:" मै अभी ही जा रहा हूँ.."
और वह निकल गया ! मै दंग रह गयी..!

अगले दिन सोमवार था..इस दिन मेरे डॉक्टर आया करते थे. रविवार की शाम मुझे अपने hair  क्लिनिक से फोन आया..:' मैडम आप कल चलिए ना पार्लर! वरना vouchar की तारीख टल जायेगी!"
मैंने हाँ कर दी..उस दिन वह लड़का भी आनेवाला था..उसे अवि करके संबोधित करते हैं...पहले तो मैंने मना कर दिया था..जब गौरव चला गया तो मैंने उसे समय दे दिया.
सुबह पार्लर से उस लडकी,प्रिया   के साथ लौटते हुए,मैंने अपने डॉक्टर को pick up कर लिया..मेरे नैहर से आया नया ड्राइवर था..उसे रास्तों की जानकारी क़तई भी नही थी.हर हाल में मुझे उसके साथ जाना ही  जाना था...वह लडकी, प्रिया मेरे साथ थी..और मेरे लिए फूलों का गजरा ले आयी थी...मैंने हँसते हुए अपने डॉक्टर से कहा, मेरे बालों से तीन गुना बड़ा यह गजरा है..!"

घर पहुँच प्रिया बैठक में बैठ गयी और मै डॉक्टर से बात चीत करने लगी..अविके बारेमे भी उन्हें बताया...यह भी बताया,की,मैंने अभी घर में किसी को बताया नही है..सब मेरा मज़ाक उड़ाने लग जायेंगे...कुछ बात बने तो कहूँ..!"

डॉक्टर चलने लगे तो मै और प्रिया उनके साथ हो लिए..अवि को रेलवे स्थानक से लाना था..वही समस्या..ड्राइवर को स्थानक पता नही था..अवि को रास्ते पता नही थे..फिर भी उसने मुझे आने से रोकना चाहा..पर समय का भी अभाव था..डॉक्टर के सामने ही मैंने उसे फोन करके बता दिया,की, मै लाल साड़ी और काला ब्लाउज पहने हुए हूँ..

स्थानक पे अवि आसानी से मिल गया..घर जाते समय बोला:" मेरा बंगलौर आना बड़ा lucky साबित हो रहा है..मुझे एक छोड़ आठ फिल्मों का ऑफर है!"
मै:" मुबारक हो!"
हमारी बिल्डिंग पे पहुँचे तो नीचे गौरव का एक सह्कर्मी खडा मिला..वह गौरव से मिलने जा रहा था..गौरव ने अपना golf किट तथा टेनिस racket   मंगवाया था...मै उसे लेके ऊपर आयी...सारा सामान पकड़ा दिया..उसके जाने के कुछ ही मिनटों में मैंने देखा,की, उसने टेनिस racket तो कुर्सी पे ही छोड़ दिया था...मैंने तुरंत उसे फोन लगाने की कोशिश की..लेकिन लगाही नही...गौरव को फोन कर मैंने बताया,की, racket यहीं रह गया..

दोपहर के दो बजने वाले थे..मैंने पिछली रात का ही रहा सहा खाना परोस दिया...जूली ने उस दिन अचानक छुट्टी माँगी थी..खैर! पिछली रात मुझे एक इंजेक्शन लेना पड़ गया था...डॉक्टर ने दवाई में भी हेरफेर किया था...मुझे बेहद नींद आने लगी..अंत में मैंने अवि से कह दिया:' मुझे कुछ देर सोना ही पडेगा.."
उसे ड्राइवर के साथ कहीँ घूमने भी नही भेज सकती थी,क्योंकि उसे रास्तेही पता नही थे ! अवि के आगे मैंने कुछ किताबें रख दी.ड्राइवर से कहा,की, फोन तथा दरवाज़े की घंटी की ओर ध्यान रखे..और अपना कमरा बंद कर सो गयी..
साढ़े चार पाँच बजे के करीब दरवाज़े पे बज रही घंटी से मेरी आँख खुली...कमरे से बाहर निकलते ही मैंने ड्राइवर को आवाज़ दी..वह भी सो गया था...जब तक आया तब तक मैंने दरवाज़ा खोल दिया..और अपने सामने खड़े लोगों को देख हैरान रह गयी...! लोग क्या, अब जब सोचती हूँ,तो एक भयानक तूफ़ान मेरे द्वार पे खडा था...मेरा द्वार? मेरा अपना कोई द्वार या घर था?
क्रमश:

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

बिखरे सितारे भाग ३ गर्दिशमे क़िस्मत.

बिखरे सितारे भाग ३ गर्दिशमे क़िस्मत.

(गतांक: बेवफाई?..मै बेतहाशा रोने लगी...इस तरह का इलज़ाम मेरी कल्पना के परे था..क्या से क्या हो गया था..जिस परिवार के ख़ातिर ,बच्चों की ख़ातिर मै हर तकलीफ़ सह गयी,उनमे से कोई मेरे पास न था..क्या करूँ? क्या करूँ? कहाँ  जाऊं? कौनसी ऐसी जगह थी इस दुनियामे,जिसे मै अपना कह सकती थी? जहाँ से निकल जाने के लिए मुझे कोई न कहता? मेरी बेटी के ससुरालवाले क्या सोचेंगे..?

यहभी नही जानती थी,की,यह तो एक भयानक सिलसिले की शुरुआत भर है....अब आगे पढ़ें.)

पता नहीं कैसे,पर यह ख़बर माँ को भी मिली..वो भी आ गयीं..एक दिन के लिए बेटा,अमन भी आया..गौरव ने ज़ाहिर है,उसे भी बताया..मै बेहद अपमानित महसूस कर रही थी..जानती थी,की, गौरव अक्सर अपनी बात इस तरह पेश करता है,की, सामने वाला उस वक्तव्य को सच समझ  लेता है... उसकी इस आदत से परिचित लोग भी उसकी बातों में आ जाते हैं.....

मैंने अमन से  पूछा:" अमन, तुझे विश्वास होता है की, मै सच कह रही हूँ? मै अपने आपको पुन: स्थापित करना चाह रही हूँ..लोग जानकारी के लिए फोन करते हैं..मिस कॉल के मै जवाब भी देती हूँ..ऐसे नंबर याद रखना मेरे बसकी बात नही.."
अमन: " पता नही...क्या देर  रातको बात करना ज़रूरी है? ऐसी कौनसी आफत थी,की, रात को बात करनी पड़े?"
अमन का जवाब सुन मुझे सख्त चोंट पहुँची..गौरव ने अपनी पत्नी के बारेमे, अपनी ही औलाद को क्या बताया होगा? मुझे अधिक बहस में पढ़ना नही था..मेरी गरिमा के खिलाफ था..

बरसों बंजारों की तरह दिन काटे थे..कोई गिला शिकवा नही था..गौरव की सेवा निवृत्ती के बाद मैंने सोचा था, मै अपने कितने ही छंद दोबारा शुरू कर सकती हूँ..घर से दूर रह नौकरी करने का निर्णय गौरव का था..गाडी की सर्विसिंग, पूरे घरमे आए दिन होनेवाले मरम्मत के काम, कभी तरखान खोजना है,तो कभी  प्लंबर..सारा ज़िम्मा मुझ पे था..और  ऐसा अविश्वास?

ऐसा नही की, गौरव का यह रूप मुझे पता ही नही था..उसके सामने गर कोई मेरी तारीफ़ कर देता तो ,मै कुछ कहूँ,उससे पहले,वह खुद हँसते,हँसते कह देता," अरे भाई टाइम पास तो करना होता है न! "
अन्यथा मेहमानों को दीवारें चद्दरें आदि की ओर इंगित कर ,मेरी तारीफों के पुल भी बाँध लेता! लोगबाग कह उठते,कितना अभिमान है इसे अपनी पत्नी का! उसके रहते,किसी के सामने ,मै अपनी कला या काम के बारे में मूह खोलती ही न थी..पर यह इलज़ाम तो सारी हदें पार कर गया था..

गुज़रे सालों में मै कई नाकाम कोशिशें कर चुकी थी,की, कमसे कम हफ्ते में एकबार हम सब इकट्ठे बैठ, अपने,अपने मन की बातें एक दूसरे से साझा करें..लेकिन हर बार हश्र यह होता,की, गौरव छोड़ अन्य कोई बात ही न कर पाता..किसी और की बात को तवज्जो देना उसके मिज़ाज में ही नही था..इस हदतक की, गर उसके दोस्त या सहकर्मी मेरे पास कुछ मेसेज छोड़ते तो मुझे उसके मूड की प्रतीक्षा करनी पड़ती या,कागज़ पे लिख उसके PA के पास मै पुर्ज़ा पहुँचा देती..अवकाश प्राप्ती के बाद भी उसके पास सब्र न होता की, मेरी बात सुने..दो तीन बार हताश,हो मैंने इ-मेल लिख दी थी..आपसी संपर्क सहजता से बनाये रखने के मेरे सारे यत्न हमेशा असफल हुए..

माँ को तो मुझपे पूरा विश्वास हुआ..की, जोभी हुआ वो केवल एक हादसा था..मेरी बहन बहनोई उसी शहर में थे जहाँ गौरव को नौकरी मिली थी..अफ़सोस! जो बहन अपने जीजा को अच्छी तरह जानती थी, वो भी उसके झासे में आ गयी..बहन, जो मेरी सबसे अज़ीज़ सहेली थी..

मुझे याद नही,की मै किस तरह दिन काट रही थी..सोचने की शक्ती जवाब दे गयी..यह बात तो माँ ने कही:" इस हदतक जाने की गौरव को सूझी कैसे? "
कुछ हफ़्तों पहले की एक घटना,जिसे मैंने क़तई तूल नहीं दिया,था,याद आई..जूली, मेरी निरक्षर नौकरानी, जिसकी बेटी के पढाई लिखाई.....और बाद में ब्याह का ज़िम्मा मैंने ले रखा था...जो एक विधवा थी....जिसकी गलतियों पे मै अक्सर पर्दा डाल देती थी..के उसे डांट न पड़े..मेरे  पास कॉर्ड लेस फोन ले आई. घुस्से में थी, की,वो शख्स ठीक से अपना परिचय नही दे रहा था..

दूसरी ओरसे,एक व्यक्ती पूछना  चाह रहा था,की, क्या  मै, शहर से काफ़ी दूर बने उसके फार्म हाउस का landscaping कर सकती हूँ?
पल भर सोच,मैंने कहा:" मै डिज़ाइन तो बना दे सकती हूँ..लेकिन मेरे पास अपनी टीम नहीं है...फिलहाल मेरा काम सुझाव तक सीमित है.."
उसने कहा:" गर मै आपको एक टीम बना दूँ,तो आप कभी कभार supervion कर सकती हैं?"
मै:" गर आप मुझे अपना नंबर दें,तो मै कलतक सोच के बता दूँगी...माफी चाहती हूँ,की,तुरंत नही बता सकती..!"

मैंने बात ख़त्म की ही थी,की, माँ का फोन आ गया..मैंने ही उठा लिया और हम दोनों बातें करने लगी...जूली दो तीन बार मुझ से कहने आई की, मै खाना खा लूँ..मै हरबार इशारे से ,'बस पाँच मिनट', जताती रही..
माँ से बातचीत ख़त्म कर मै बाथरूम में हाथ धोने चली गयी...मुझे पहले तो फोन बजने की आवाज़ आई..और फिर जूली के अलफ़ाज़ कान पे पड़े:" मैडम बाथरूम में हैं.."
कुछ पलके बाद:" हाँ..यह फोन बिजी था...वो किसी साहब का फोन था.. हमेशा आता है..ठीक से नाम नही बताता .."
इससे पहले की,मै उसके हाथ से रिसीवर लेलूँ,उसने रख दिया था..मैंने चिढ के  कहा" जूली....! क्या बकवास कर रही है..अव्वल तो मै माताजी से बात कर रही थी..और तुझे क्या ज़रुरत पडी है किसी को यह सब बताने की?"

जूली:" साहब का फोन था..वो पूछ रहे थे,की फोन engage क्यों आ रहा था..तो मैंने बता दिया,की.."
मै:" तू क्या बदतमीज़ी कर रही,है,तुझे कुछ पता भी है?"
उसने मेरे साथ बहस करनी चाही, पर तबतक मैंने पलटके गौरव को फोन लगाया..उसकी आवाज़ परसे ही पता चला की वह बहुत घुस्सेमे है.." मै तुमसे बाद में बात करूँगा',कह उसने उधर से फोन रख दिया..
अचानक मुझे महसूस हुआ,की, हो न हो, इस तरह की गलत फहमी में अबके जूली का भी हाथ है..
पर क्या सिर्फ उसका था?

इस प्रसंग से तो मै किसी तरह उभरी..मेरे भाई और बहनोई,दोनों ही ने गौरव को काफ़ी समझाया..इतने सालों में पहली बार,मेरे भाई  ने अपना मूह खोला था..मुझे अपने घर और जीवन से रफा दफा करने की बात उस समय तो गौरव ने नही दोहराई....क्या ख़बर थी,की,एक और,इससे कहीँ अधिक  भयानक प्रसंग मेरे इंतज़ार में था..??
क्रमश:

बुधवार, 4 अगस्त 2010

बिखरे सितारे:अध्याय ३ इल्ज़ामे बेवफाई..


(गतांक :बैठे,बैठे एक दिन मैंने किसी नेट वर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाल दिया...मै जो कुछ करती,वो सब लिखा..और मेरा contact नंबर  भी दिया ....सोचा, गर फ्री lancing का तरीका अपना के काम किया जाय तो ठीक रहेगा..नही पता था,की, मुझे इसके क्या परिणाम भुगतने पड़ेंगे..ख्वाबो-ख़याल में जो नही सोची थी, ऐसी परेशानियों का एक सिलसिला मेरे इंतज़ार में था...अब आगे: इस किश्त से तीसरा और  आखरी अध्याय शुरू हो रहा है.गौरव की सेवा निवृत्ती के बाद पूजा की ज़िंदगी का यह अहम हिस्सा है ).

 जीवन के इस हिस्से पे लिखना सबसे अधिक कठिन  है मेरे लिए..इतनी ठहरी  हुई ज़िंदगी..कितने छंद रहे मेरे..लेकिन इतनी लम्बी कालावधी के बाद इन्हीं छंदों को बढ़ाते हुए व्यावसायिक रूप देना नामुमकिन-सा नज़र आ रहा था मुझे..

केतकी के मेल का रोज़ इंतज़ार रहता मुझे..नही,उसकी शादी के बाद,उसकी कभी चिंता नही हुई मुझे..चश्मे-बद-दूर! उसका हमसफ़र बेहद संजीदा था..है..बहुत खुला,दोस्ती भरा रिश्ता..लेकिन वो इतनी दूर..मेरे पहुँच के परे लगती मुझे,की,मै अपनेआप  को बेबस महसूस करती..जानती थी की,मेरी सेहत देखते हुए,मै उसके घर कभी न जा पाऊँगी..

ऐसी ही एक तनहा रात ....करवटें बदल,बदल बीत रही थी...अंत में मै उठी और  इस रचना में अपना दर्द उंडेल दिया..बहुत दिनों से उसकी कोई मेल मुझे नही   मिली थी...मन बहुत ही उदास था..


  तुझसे जुदा होके,
जुदा हूँ,मै ख़ुद से ,
यादमे तेरी, जबभी,
होती हैं नम, पलकें मेरी,
भीगता है सिरहाना,
खुश रहे तू सदा,
साथ आहके एक,
निकलती है ये दुआ

जहाँ तेरा मुखड़ा नही,
वो आशियाँ मेरा नही,
इस घरमे झाँकती
किरणों मे उजाला नही!
चीज़ हो सिर्फ़ कोई ,
उजाले जैसी, हो  जोभी,
मुझे तसल्ली नही!

वार दूँ, दुनिया सारी,
तुझपे  मेरी,लम्हा घड़ी,
तू नज़र तो आए सही,
कहाँ है मेरी लाडली..
ये आँखें भीगी, भीगी,
कर लेती हूँ बंदभी,
तू यहाँसे हटती नही...!

मेरी गिरती हुई मानसिक अवस्था को देख, माँ ने ज़िद की के मै किसी अच्छे मानसोपचार तग्य के पास जाके सलाह मशवरा लूँ.. मै राज़ी हो गयी  ..दवाईयाँ भी शुरू हो गयीं..अपनी नानी से मिलने डॉक्टर  हर हफ्ते हमारे घरके करीब आते रहते..वहाँ से मै अपना ड्राईवर गाडी भेज अपने यहाँ बुला लेती. उनका कहीँ क्लिनिक नही था..या तो वो अपने घरपे मरीज़ को देखते या फिर मरीज़ के घर जाते..

मैंने जिस नेटवर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाला था,वहाँ से तो निराशाही हाथ लग रही थी..कई बार बकवास पोस्ट्स आती और उन्हें डिलीट करने के लिहाज़ से मै उसे खोल लिया करती..मैंने चंद दिनों के भीतर वहाँ से अपना फोन नम्बर तो हटा दिया था..लेकिन कुछ लोगों के हाथ वह लग गया था..पर  यह भी सच था..मेरा नम्बर हासिल करना कठिन नही था..मै अपने काम के लिहाज़ से मौक़ा मिलने पे,प्रेज़ेंटेशन  देती रहती...अपने विज़िटिंग कार्ड्स भी देती रहती..कई बार मेरी कुछ गद्य/पद्य  रचनाएँ, किताब या पत्रिकाओं के ज़रिये किसी के हाथ लग जाती..कभी,कभी सम्मलेन   में सहभागी होने के लिए भी फोन आते..

एक दिन गौरव के रहते एक फोन आया और उसे गौरव ने रिसीव किया..और गुस्से में आके पटक भी दिया..हम दोनों कहीं बाहर जानेवाले थे..फोन फिर बजा..फिर गौरव ने उठाया..तमतमा के फिर से  पटक  दिया..तीसरी बार मै पास खड़ी थी,सो मैंने उठा लिया..किसी सम्मलेन की इत्तेला और आमंत्रण देने के लिए यह फोन बज रहा था..मैंने शांती से जवाब दे दिया:" इस वक़्त मै अपने परिवार के साथ व्यस्त हूँ...आप फिर कभी फोन करें..."मैंने भी रख दिया..

गौरव दुसरे दिन लौट गए..मैंने  रात ८ बजेसे लेके ११  बजे तक नियमसे लेखन करना जारी किया था..सलाह मेरे डॉक्टर की थी..उसी दिन रात ९ बजे के करीब एक फोन आया,जिसे मेरी रात दिनकी नौकरानी ने उठाया..जब उसने आके मुझसे कहा,तो मैंने जवाब दिया:" तू उनसे  कह दे मै व्यस्त हूँ...कल सुबह १० या ११ बजे फोन करें.."

 लेखन ख़त्म कर मै  सोने चली गयी.और  फोन बजा..मैंने कहा:" माफ़ करें,देर हो गयी  है ..सोना चाहती हूँ.."
इतना कह मैंने रिसीवर रख दिया..फोन फिर बजा..इस वक़्त मैंने बिना बात किये बंद कर दिया..यह लैंड लाइन का नंबर था..कुछ रोज़ पहले ही लगा था..उसमे उपलब्ध सुविधाएँ मैंने नही देखी थीं..इन जनाब को पता नही क्या सूझ गयी थी,की,वो करतेही चले जा रहे थे..अंत में मैंने उसे एक रजाई के नीचे दबा दिया..! उसे स्विच ऑफ़ कर सकते हैं,यह दूसरे दिन मेरे डॉक्टर ने मुझे बताया..मैंने सहज भाव में उन्हें रातवाली घटना बता दी थी..

तीन दिनों बाद गौरव का फिर आना हुआ..हम दोनों किसी दोस्त के घर भोजन के लिए गए..वहाँ देर लगते देख मै पहले निकल आयी...मेरा भाई मुझसे कुछ देर मिलने आना चाह रहा था..हमारी बिल्डिंग के लिफ्ट के बाहर ही भाई और उसके साथ अपनी बहन को भी देख मै कुछ हैरान भी हुई और ख़ुश भी..बहन के आने का मुझे कोई संदेसा,अंदेसा नही था..

हम तीनो जाके मेरे कमरे में बैठ गए..बहन बोली: "आपसे कुछ बात करनी है..जीजाजी का कहना है,की,आप रात बेरात गैर मरदों से बातें करती हैं..लेकिन गर आपको सच में किसी से emotional attachment है,तो हम आपका साथ देंगे.."
मै हैरान रह गयी..बोली:" क्या बात करते हो? ऐसा कुछ भी नही है...! होता तो सबसे पहले तुम दोनों को और माँ को बता देती..किसी सती सावित्री का अभिनय नही कर रही हूँ...मुझे कभी कोई मिलाही नही..!"

मै अपना जुमला ख़त्म ही कर रही थी,की,गौरव वहाँ पहुँच गए...अपने कमरे से कुछ कागज़ के परचे उठा लाये...बोले:" इसपे सभी नंबर और समय दर्ज है...सब अपनी आँखों से देख लो...इन में कई नंबरों की तहकीकात भी हो चुकी है..."
कहते हुए उसने परचे मेरे सामने धर दिए..सच तो यह था,की,उसमे से एकभी नंबर मेरे परिचय का नही था..! इसके अलावा मेरे मोबाईल पे आए और  किये गए फोन भी इनके पास दर्ज थे! इन में भी ज़्यादातर नंबर मेरे परिचित नही थे..मैंने गर किये भी  होते तो,उन्हें याद रखना मुमकिन न था..

गौरव को मेरी किसी बात पे यक़ीन नही हो रहा था..मेरे छोटे भाई बहन, घरकी नौकरानी, ड्राईवर ...इन सब के आगे मुझे ज़लील करने से पहले गौरव ने एक बार सीधे मुझसे बात तो करनी थी..यह बातें मेरे मन ही में रह गयीं...सुबह तडके गौरव चला गया...और कह गया की,अब वो मुझ से रिश्ता रखना नही चाहता..

दिनमे ११ बजे डॉक्टर आने वाले थे..उस समय भाई  वहीँ था...डॉक्टर से बोला:" मै अब जाता हूँ...शायद यह मेरे सामने खुलके बात नही करेगी.."
मैंने तो बिस्तर ही पकड़ लिया था..सर दर्द से फटा जा रहा था..पर अपने भाई को मैंने रोक लिया,कहा:" तू कहीँ नही जाएगा...यहीं बैठ..मुझे कुछ छुपाना नही है..छुपाने जैसा कुछ हैही नही..!"
मै बेतहाशा रोने लगी...इस तरह का इलज़ाम मेरी कल्पना के परे था..क्या से क्या हो गया था..जिस परिवार के ख़ातिर ,बच्चों की ख़ातिर मै हर तकलीफ़ सह गयी,उनमे से कोई मेरे पास न था..क्या करूँ? क्या करूँ? कहाँ  जाऊं? कौनसी ऐसी जगह थी इस दुनियामे,जिसे मै अपना कह सकती थी? जहाँ से निकल जाने के लिए मुझे कोई न कहता? मेरी बेटी के ससुरालवाले क्या सोचेंगे..?

यहभी नही जानती थी,की,यह तो एक भयानक सिलसिले की शुरुआत भर है....

क्रमश:

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

Bikhare sitare:17 जा, उड़ जा रे पँछी..!


( गतांक : ओह! बिटिया को मै हर दिन का ब्यौरा लिखती..एक दिन उसने लिखा," अब बस भी करो माँ!"
मैंने कहा, जीवन में यह पल बार बार आनेवाले नही.." जोभी है,बस यही इक  पल है..कर ले तू पूरी आरज़ू...." कल किसने देखा है? कलकी किसको खबर?
और कितना सच था...आनेवाले कलमे क़िस्मत ने मेरे लिए क्या परोसा था? मुझे कतई अंदाज़ नही था...
अब आगे पढ़ें..)

देखते ही देखते वो दिन भी आ गया ,जब बिटिया राघव के साथ भारत पहुँच गयी..और पंख लगा के दिन उड़ने लगे..उन्हें नए सिरेसे वीसा बनवाना था..वह भागदौड़...राघव  अपने घर जाय उससे पहले उसका सूट सिलना था..नाप देने थे...बिटिया की चोलियाँ सिलनी थी..और मेहंदी..यह सब तीन दिनों के भीतर..

चौथे दिन हम बिटियाके ससुराल पहुँच गए..हमारा इंतज़ाम हमने चंद अतिथि गृह बुक करके किया था..एकेक विधि संपन्न होते,होते ३ दिन तेज़ीसे गुज़र गए..विवाह सपन्न होते  ही मेरे आँसूं बह निकले..मै अपनी माँ के गले लग रो पडी...माँ की आँखों में भी झड़ी लगी हुई थी...बोलीं :" यही तो जगरीती है...तू भी ऐसे ही एक दिन विदा हुई थी..हाँ...फ़र्क़ यह है,की, केतकी सात समंदर पार जा रही है..तू इसी देश में थी..पर फिर भी तेरे लिए मन तरस जाता था.."

बिटियाके साथ हम घर लौटे..अब हमारी ओरसे स्वागत समारोह की तैय्यारी..मेहमानों की व्यवस्था..बिटिया के ससुराल के लोगों की ठहरने की व्यवस्था..स्वागत समारोह के एक दिन पूर्व, राघव और उसका परिवार आदि आ गए..समारोह के ३ रे दिन केतकी और राघव ने अमरीका वापस लौटना था..वो शाम भी आही गयी..

रात की उड़ान थी..गौरव और अमन हवाई अड्डे पे उन्हें बिदा करने जा रहे थे..मै बेहद थकी हुई थी..मुझे सब ने रोक लिया...वैसे भी क्या फ़र्क़ पड़ता? दोनों एक बार अन्दर प्रवेश कर लेते ... हमें तो बाहर से ही लौट जाना होता..

गौरव ने आवाज़ लगाई:" चलो सामान नीचे लाने लगो...!"
केतकी की आँखें सूखी थीं...उनकी गाडी निगाहों से परे होने तक मैंने अपने आँसूं रोक रखे..भीगा मन, भीगी आँखें उसे आशीष दे रहीं थीं..जा, उड़ जा रे पँछी..! खुले आसमाँ में उड़ जा..! अपना घोंसला बना ले..अब तो तेरे मेरे क्षितिज भी भिन्न हो गए..जब तेरे आशियाँ को  सुबह की किरने  चूमेंगी, मेरी सूनी-सी शाम रात में तबदील होगी...

माँ तो एक दिन पहले ही जा चुकी थीं..मै अपनी जेठानी के गले लग रो पडी..आए हुए महमान लौटने लगे..और दो तीन दिनों के भीतर घर खाली हो गया..

गौरव के retirement का दिन करीब आ गया..इस घरकी,सजी सजाई  दीवारें खाली होने लगीं.. दरवाज़े खिड़कियाँ बेपर्दा...बंजारों का डेरा उठा..हम तीन माह पूर्व लिए अपने फ्लैट में रहने चले आए..

यह घर भी लग गया..ज़िंदगी में अचानक से एक खालीपन,एक ठहराव महसूस हुआ...मै अपने छंदों में मन  लगाने की कोशिश में जुट गयी..एक कला प्रदर्शनी की..पर अब महसूस हुआ,की,दस साल पूर्व की और अबकी बात फ़र्क़ थी..अब malls बन जाने के कारण लोग, वहाँ जाना अधिक पसंद करते थे..जिन्हों ने मेरी कला तथा डिज़ाइन के तरीके देखे ही नही थे,वो प्रदर्शनी में क्या होगा इसका अंदाज़ नहीं लगा सकते थे..अब मै अपने समय का इस्तेमाल कैसे करूँ? यह परेशानी मेरी थी, लोगों की नही..

गौरव भी बैठे रहना तो पसंद नही कर रहे थे..उन्हें काम मिल गया,लेकिन हमारे शहरसे काफ़ी दूर..अमन भी दूसरे शहर में ही था..बाद में जहाँ गौरव था वहाँ आ गया..

इस घर में मै एकदम अकेली पड़ गयी..तभी माँ को कैंसर होने का निदान हुआ..वो मेरे पास आ गयीं...उनकी आनन् फानन में शस्त्र क्रिया कराई गयी..हम भाई बहनों को सदमा तो बहुत लगा था..कुछ ठीक महसूस करने पर वो अपने घर लौट गयीं..उनकी सेहत देखते हुए मैंने तय कर लिया..मै ऐसा कोई काम शुरू नही करुँगी,जिसे छोड़ ना सकूँ..माँ को किसी भी समय मेरी ज़रुरत महसूस हो सकती थी..और गाँव में,मेरे नहैर में, वैद्यकीय  सुविधाएँ बहुत कम थीं..

बैठे,बैठे एक दिन मैंने किसी नेट वर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाल दिया...मै जो कुछ करती,वो सब लिखा..और मेरा contact नंबर  भी दिया ....सोचा, गर फ्री lancing का तरीका अपना के काम किया जाय तो ठीक रहेगा..नही पता था,की, मुझे इसके क्या परिणाम भुगतने पड़ेंगे..ख्वाबो-ख़याल में जो नही सोची थी, ऐसी परेशानियों का एक सिलसिला मेरे इंतज़ार में था... 
क्रमश: 
(अगली किश्त से इस जीवनी का तीसरा और अंतिम अध्याय आरम्भ होगा. गौरव के रिटायर्मेंट  के बाद से  पूजा के  आजतलक के  जीवन की यह दास्ताँ होगी .)

सोमवार, 2 अगस्त 2010

बिखरे सितारे:अध्याय २: 16 हर खुशी हो वहाँ..


अबतक के  संस्मरण का सारांश:कहानी शुरू होती है पूजा-तमन्ना के जनम से..लक्ष्मी पूजन  का जनम इसलिए उसके दादा ने तमन्ना नाम के साथ पूजा जोड़ दिया..बच्ची सभी के आँखों का तारा बनती है.(शुरुके कुछ हिस्सों में तस्वीरें दी हैं)गांधीवादी दादा-दादी शहर छोड़, देश सेवा करने कर्नाटक के एक दूरदराज़ गाँव में आ बसे हौं..पूजाकी परवरिश तथा पाठ शाला की  पढाई पास वाले एक छोटे शहर में होती है..महाविद्यालयीन शिक्षण हेतु वो बड़े शहर में आती है..

दूसरा वर्ष ख़त्म कर पूजा अपने गाँव लौटती है.वहाँ उसकी मुलाक़ात एक आईएस अफसरसे होती है..पहलीही नज़रमे प्यार हो जाता है..इस प्यार का अंत दुखदायी होता है..लड़के के घरसे विरोध तथा धर्मान्तरण की माँग पूजा के परिवार को अमान्य है..उनके विचार से पूजा बस एक हिन्दुस्तानी लडकी है..जात-पात की बातें मायने नहीं रखती..जब यह सब उस लड़के के सहकर्मी, गौरव को पता चलता है,तो वह  आगे बढ़  पूजा का थाम लेता है....उन दोनों का ब्याह करा दिया जाता है..

ऊपरसे स्नेहिल,समंजस लगने वाला गौरव हक़ीक़त में बड़ा ही गुस्सैल किस्म का व्यक्ति निकलता है.. उसका पूरा परिवार ही बेहद रूढीवादी होता है..एक पुर ख़तर  और तकलीफदेह सहजीवन शुरू होता है..ख़ास कर पूजा के लिए,जो स्वयं सरल तथा सर्व गुण संपन्न लडकी है..साथ,साथ उतनी ही मृदु और सुन्दर..
दिन गुज़रते रहते हैं..पूजा एक लडकी की माँ बनती है..लेकिन सभी को लड़के की चाह होने के कारण नन्हीं बच्ची,केतकी उपेक्षित रहती है...लाड प्यार से महरूम...पूजा के ऊपर एक और ज़िम्मेदारी आन पड़ती है..बिटिया को पारिवारिक द्वेष से बचाए रखना..केतकी अपने ननिहाल में तो बहुत लाडली होती है..
केतकी अभी दो सालकी भी नहीं होती के उसके भाई,अमन का आगमन होता है..
केतकी वास्तुशास्त्र में पदवी धर बन जाती है..उन्हीं दिनों उसका अपने भावी जीवन साथी से परिचय होता है..जो अमरीकामे पहले पढने और बाद में  नौकरी के ख़ातिर रहता है..केतकी आगे की पढाई के लिए अमरीका चली जाती है..पूजा का दिल बैठ-सा जाता है...और फिर उसे खबर मिलती है,की, पढाई ख़त्म होते,होते दोनों ब्याह कर लेंगे...बिटिया का ब्याह और मै नहीं...इस विचार से पूजा टूट-सी जाती है).
.(गतांक: उसके जीवन का इतना अहम दिन और मै वहाँ हाज़िर नही...? दिल को मनाना मुश्किल था...नियती पे मेरा कोई वश नही था...ईश्वर क्यों मेरी ममता का इस तरह इम्तेहान ले रहा था? मैंने ऐसा कौनसा जुर्म कर दिया था? किया था..मेरे रहते,मेरी बिटियाको ज़ुल्म सहना पड़ा था..मुझे क़ीमत चुकानी थी...पर मेरा मन माने तो ना...) अब आगे पढ़ें...

                                                 बिखरे सितारे(अध्याय २) १६  हर खुशी हो वहाँ.. 

मै अपनी दिनचर्या केवल यंत्रवत करती रहती..कहीं कोई उमंग नहीं..कैसे कैसे सपने,कैसे,कैसे अरमान संजोये थे मैंने अपनी बिटिया के ब्याह को लेके..दादी परदादी से मिले नायाब वस्त्र,कमख्वाब, लेसेस,हाथ से काढ़े हुए,कामदार दुपट्टे तथा लहेंगे...क्या कुछ मैंने संभाल के रखा हुआ था अपनी बिटिया के लिए...उसमे से मै उसकी चोलियाँ  सीने वाली थी..मेरी बेटी एक अलाहिदा,हट के दुल्हन बननेवाली थी..और यहाँ तो उसके ब्याह में मेरी शिरकत भी मुमकिन न थी...मै अंदरही अन्दर घुट के रह गयी..

ब्याह के पश्च्यात उसका फोन तथा मेल आया..मैंने पूछा," बेटे ,तुम यहाँ से जो साड़ियाँ ले गयी थी उसमे से कौनसी पहनी? और केशभुषा  कैसे की?"
उसका उत्तर: "ओह माँ! साड़ी पहननेकी किसे फ़ुरसत थी? मैंने तो pant टी-शर्ट पहना था..और बाल पोनी टेल में बांधे थे!"

इस पर मैंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही की...उसे आशीर्वाद देते हुए एक मेल लिखी..जिसमे एक हिंदी फ़िल्मके गीतकी चंद पंक्तियाँ दोहराईं....असल में यह गीत नायिका अपने प्रीतम को याद करते हुए गाती है पर ऐसी भावनाएं कोई भी,किसीभी अपने के ख़ातिर ज़ाहिर कर सकता है..
"हर खुशी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
चाँद धुन्दला सही,ग़म नही है मुझे,
तेरी रातों पे रातों का साया न हो,
चांदनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे,
रौशनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे.."
लिखते,लिखते मेरी आँखें भर भर आयीं..केतकी के जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ था..मै न सही मेरी दुआ तो पलपल उसके साथ थी..हे ईश्वर! इसे अपने प्रीतम का, अपने पति का खूब प्यार मिले..जिस प्यार से  वह अपने बचपन और लड़कपन में महरूम रही,वो सब दुगुना उसके जीवन में मिले..

उन दोनों ने घर लिया और मैंने यहाँ से पार्सल भेजने शुरू किये..कितनी चीज़ें अपने हाथों से उसके घर के लिए बनायीं थीं..कितनी अनोखी चीज़ें मैंने विविध प्रदर्शनियों में से इकठ्ठा कर के रखी थी..पिछले कुछ बरसों से..घरका फर्नीचर  छोड़ सब कुछ....उसे पसंद आती तो मै ख़ुश हो लेती..

एक दिन उसकी मेल आयी," माँ! राघव के घरवाले चाहते हैं,की,वैदिक विधी से हम दोनों का ब्याह हो...इस साल १५ दिसंबर आखरी शुभ महूरत है..ऐसा राघव   की दादी ने कहा है..विधी तो उनके शहर में होगी...उन्हें वहीँ का पंडित चाहिए...अब आपलोग उन लोगों से संपर्क कर समन्वय कर लें...विधी के केवल ३ दिन पूर्व हम आ पाएँगे.."

मेरा उदास मन खुशी से झूम उठा..! मेरे कुछ तो अरमान पूरे होंगे...मेरी बिटिया मेरे सामने दुल्हन बनेगी...मैंने इस दिन के खातिर क्या कुछ संजोया/बनाया नही था..हमारे सारे सगे सम्बन्धियों,रिश्तेदारों,दोस्तों को, मै तोहफा देना चाह रही थी...पिछले कुछ सालों से , चीज़ें इकट्ठी करती चली आयी थी..हरेक को अलग, उसके मन पसंद का तोहफा मुझे देना था..थोक में कुछ नहीं..हाथ से बनी चद्दरें,भित्ती चित्र......अलग,अलग जगहों से ली हुई साड़ियाँ...मैंने अपनी कमाई से खरीदे हुए सोने के सिक्के,जिनसे मै बेहद पारंपरिक और अलाहिदा गहने गढ़ने वाली थी..केतकी के लिए और करीबी रिश्तेदारों के लिए..जहाँ कहीं इतने सालों में गौरव के तबादले हुए थे...उनके लिए वस्त्र...चाहे वो अर्दली हो या महरी....शादी के पूर्व सब को उनके तोहफे पहुँचाने का मेरा इरादा था..फेहरिस्त तैयार थी..जिस किसी शहरमे जो कोई जाने वाला होता,उसके हाथों मै उपहार भेजने लगी..

अपना घरभी सजाने संवार ने लगी.. हरेक कोना सुन्दर दिखना था..छोटी,छोटी चीज़ों से..जैसे candle स्टैंड,या साबुनदानी...या baath mat ..सुरुचि , नफासत और परंपरा मद्देनज़र रखते हुए..एक विशिष्ट बजेट के भीतर...घरके मध्य खड़ी हो,मै हर दीवार,हर कोना निहारती...और उसे निखरने के तरीके ईजाद करती..कब,कहाँ कौनसी चद्दरें बिछेंगी ...अपने हाथों से पुष्प-सज्जा करुँगी...हमारे परिधानों के साथ घर का रूप भी रोज़ बदलेगा...अचानक एक शांत लम्हा मुझे याद दिलाता,'पगली! संभाल खुद को..बिटिया के ब्याह के बाद तक़रीबन चार माह के अन्दर गौरव का  retirement था..तेरा डेरा उठेगा..सब रौनक़ ख़त्म होते ही तुझे सारी सजी सजाई दीवारें नोंच लेनी होंगी..' लेकिन पल भरमे उस ख़याल को मनसे हटा देती...

ओह! बिटिया को मै हर दिन का ब्यौरा लिखती..एक दिन उसने लिखा," अब बस भी करो माँ!"
मैंने कहा, जीवन में यह पल बार बार आनेवाले नही.." जोभी है,बस यही इक  पल है..कर ले तू पूरी आरज़ू...." कल किसने देखा है? कलकी किसको खबर?
और कितना सच था...आनेवाले कलमे क़िस्मत ने मेरे लिए क्या परोसा था? मुझे कतई अंदाज़ नही था... 
 
क्रमश: