वैसे तो ये बात पहले भी कई बार लिख चुकी हूँ। आज सुभाष तोमर,( दिल्ली पुलिस),की मौत के बारेमे खबर देखी तो फिर एक बार लिखने का मन किया। तोमर चूँकि एक आन्दोलन में मारे गए तो उनके बारे में खबर बन गयी वरना तो रोज़ाना न जाने कितने पुलिस कर्मी अपना कर्त्तव्य निभाते हुए मारे जाते हैं,कहीं उफ़ तक नहीं होती। क्या आप जानते हैं कि आज़ादी से लेके अब तक अपना कर्त्तव्य निभाते हुए मारे जाने की संख्या, भारतीय सेना की बनिस्बत पुलिस वालोंकी चार गुना से अधिक है? के नक्सलवादी इलाकों में पुलिस वाले सैकड़ों की संख्या में मरते हैं और किसी को खबर तक नहीं होती?
क्या आप जानते हैं कि एक पुलिस कर्मी सबसे कम तनख्वाह पानेवाला सरकारी सेवक है? एक मुनिसिपल कर्मचारी जो झाड़ू लगता है,उसकी तनख्वाह कमसे कम 12000/- होती है,जबकि कांस्टेबल की केवल 4000/-? ये कि उन्हें मकान मुहैय्या नहीं होते? उनके पास अवाजाही का कोई ज़रिया नहीं होता?उन्हें सेना की तरह भी वैद्यकीय अथवा अन्य सेवाएँ उपलब्ध नहीं? क्यों? जबकि अंतर्गत सुरक्षा के लिए पुलिस को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है? सीमा सुरक्षा दल,भारतीय सेना के बनिस्बत कहीं ज्यादा ज़िम्मेदारी निभाते हैं! हमारी पुलिसवालों से सैंकड़ों उम्मीदे होती हैं,लेकिन उनके प्रती हमारी कोई ज़िम्मेदारे नहीं? तनख्वाह तो एक सैनिक भी पाता है,फिर हमारे दिलों में उनके लिए जितना दर्द होता है,उतना एक अंतर्गत सुरक्षा कर्मी के प्रती क्यों नहीं? सिर्फ इसलिए कि एक पुलिसवाला हमारी आँखों के सामने होता है,जबकि एक आन्दोलन नहीं?
मुझे तो येभी नहीं पता की इस आलेख को कोई पढ़ेगा या नहीं।पढ़ेगा तो शायद एक पल में नज़र अंदाज़ कर देगा क्योंकि हमें पुलिस के बारेमे हमेशा बुरा देखने या सुननेकी आदत जो पड़ गयी है!