मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

क्या करूँ कैसे करूँ?

पिछली  बार अपनी माँ की देखभाल के बारे में मैंने लिखा था और अपने blogger दोस्तों से सलाह पूछी थी. माँ को अपने पास लाने की पूरी कोशिश कर चुकी हूँ. सभी ने यही सलाह दी थी.   अपनी बेटी की सलाह से सहमत तो मै भी नही. हालाँकि  अपने लिए मै वही चाहूँगी.  मै अपने पती से बार,बार कहती हूँ,की, मुझे नलियों में जकड के मत ज़िंदा रखना. पर हमारे अपने चाहने से क्या होता है? होगा वही जो क़िस्मत में लिखा होगा.

माँ को अपने पास लानेकी कोशिश नाकामयाब हो चुकी है. वो तैयार नही मेरे पास आनेके लिए क्योंकि पिताजी आना नही चाहते और माँ पिताजी को छोडके आ नही सकतीं. पिताजीको मेरे घर रहना बिलकुल नही सुहाता. उनका फ्लैट में दम घुटता है.

परेशान हूँ की अब माँ की बीमारी और बुढापे से सामने आये सवालों से कैसे निपटा जाये?

सभी दोस्तों की,जिन्हों ने टिप्पणी  के ज़रिये मुझे सलाह दी बहुत,बहुत शुक्र गुज़ार हूँ. अब फिर से एक सवाल लेके आयी हूँ. कैसे मनाऊं माँ को? कैसे मनाऊं अपने पिता को? खेत पे रह के उनकी देख भाल करने वाला कोई नही. nurse  को वो रखना नही चाहते. मेरे भाई का बेटा उनके साथ रहता है लेकिन उसकी कोई भी सहायता नही. उसे उनकी property हड़प ने के अलावा और किसी चीज़ में रुची नही. जो एक बहुत प्यारा बच्चा था बचपन में, आज क्या से क्या हो गया.....फिरभी माँ की आँखें खुलती नही. जबकि उसकी खुदगर्जी ज़ाहिर है. भाई -भाभी कोई ज़िम्मेदारी उठाने को राजी नही. नाही वो अपने बेटे से कुछ कहते हैं. भाई यहीं पुणे में रहता है. क्या करूँ कैसे करूँ? दिन-b- दिन मै डिप्रेशन शिकार होती जा रही हूँ.


रविवार, 20 नवंबर 2011

कोई कुछ तो कहे!

आज शाम से मुझे दो सवालों से रु-b-रु होना पड़ा.सवाल गहन हैं.....कुछ दर्दनाक भी.रात साढ़े दस बजे मेरी छोटी  बहन का फोन आया. मोबाईल के स्क्रीन पे उस वक़्त उसका नाम पढ़ते ही दिल धक्-सा हो गया!
उसने कहना शुरू किया," अम्मा का कुछ मिनटों पहले फोन आया था. वो मुझे तुरंत अपने पास बुला रही हैं.उनका कहना है,की,अब उन्हें कुछ भी याद नहीं रहता....कौनसी दवाई ली कौनसी लेनी है....कुछ भी नहीं...मेरे लिए तुरंत जाना मुमकिन नहीं.मै पिछले हफ्ते ही वहाँ से लौटी हूँ. अब आप ही जाके उन्हें अपने पास ले आईये.वो न माने तो ज़बरदस्ती करनी होगी.इसके अलावा और कोई चारा ही नहीं.आपका क्या ख़याल है?"
मैंने कहा," अव्वल तो तेरी बात सुन के ही कलेजा धक्-सा हो गया है.हाँ....मै उन्हें ले आऊँगी. लानाही पडेगा....परसों या तरसों चली जाऊँगी. जाने के पहले काफी कुछ इन्तेज़ामात करने होंगे."

अम्मा को दो साल पूर्व कैंसर डिटेक्ट हुआ था. उसकी सर्जरी कामयाब हुई. उसके बाद उन्हें घुटनों के दर्द ने जकड लिया. चलना फिरना भी धीरे धीरे दुश्वार होने लगा.साथ ही Alzheimer की तकलीफ शुरू हो गयी. वो बहुत-सी और ज़रूरी बातें भूलने लगीं. ये पतन बहुत तेजीसे होने लगा. अब घुटनों के ऑपरेशन का भी सवाल सिरपे है....जिसके लिए वो राजी नहीं!

बहन से बतियाके मै अपनी बेटी के कमरे में गयी. वो इंग्लॅण्ड से कुछ दिनों के लिए आयी हुई है. बहन से हुई बात चीत की चर्चा मैंने उसके साथ छेड़ दी. उसने कहा," माँ! आपने अभी ही एक बात का फैसला उनके साथ कर लेना चाहिए. वो इस तरह कबतक जीना चाहेंगी? कलको तो वे स्वयं को भी भूल जायेंगी....क्या ऐसे में मौत को अपनाना बेहतर नहीं?"
फिर एक बार मेरा कलेजा धक्-से रह गया! क्या अपनी माँ से मै ये बात कर सकती हूँ? कर भी लूँ तो इसकी सुविधा भारत में तो नहीं!
बातों के आगे चलते जीवन मृत्युकी बात छिड़ी. बेटी ने कहा," मै इसीलिये बच्चे पैदा करना नहीं चाहती. अंत में जीवन क्या है? एक वेदना का सफ़र.बच्चे पैदा होते हैं....जवान होते हैं.....बूढ़े होते हैं,और बुढ़ापे की सैंकड़ो तकलीफों से घिर जाते हैं! मै किसलिए कोई जीव इस दुनिया में लाऊं जबकि मुझे उसका अंत पता है?"

मै खामोश हो गयी. मेरे पास कोई फल्सुफाना जवाब नहीं था, जिससे उसकी शंका का निरसन होता!
बहुत परेशान हूँ....अपने सभी ब्लॉगर मित्रों से आवाहन करती हूँ,बिनती करती  हूँ,की,मुझे कोई उत्तर, कोई उपाय सुझाएँ!


गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

सोनेका हार!

कल लक्ष्मी पूजन हो गया और मुझे बरसों पहले की एक दिवाली याद दिला गया! मेरा बेटा तब आठ साल का था. बिटिया दस साल की थी.तब तक मैंने बच्चों के हाथों में कभी पैसे नही थमाए थे.धनतेरस  का दिन था.  दोनों बच्चों को मैंने पचास-पचास रुपये दिए और कहा," तुम दोनों बाज़ार जाओ और अपनी पसंद की चीज़ ले आओ." दोनों के साथ मैंने एक नौकर भेजा क्योंकि बहुत भीड़ भाड़ थी. बच्चों ने अपनी अपनी सायकल निकाली और खुशी खुशी चल दिए. 

घंटे डेढ़  घंटे के बाद दोनों लौटे. बेटा बहुत चहकता हुआ मेरे पास आया और एक पाकेट   मुझे थमाता हुआ बोला, "माँ! माँ! देखो मै तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ! सोनेका हार! तुम इसे पहनोगी  ना?"
मैंने पाकेट खोल के देखा तो उसमे एक पीतल का हार था! मैंने अपने बेटे को गले से लगा के चूम लिया! अपने लिए कुछ न लेके कितनी चाव से वो मेरे लिए एक गहना लेके आया था! मैंने उससे कहा," बेटा मै इसे ज़रूर पहनूँगी! मेरा बच्चा मेरे लिए इतने प्यार से तोहफा लाया है...मै उसे कैसे नही पहनूँगी? दिवाली के दिन पहनूँगी!" मेरी आँखों में आँसू भर आये थे!

दिवाली के दिन पूरा समय मैंने वही हार गले में डाल रक्खा. बेटा बहुत खुश हुआ. उस हार को मैंने बरसों संभाल के रखा. किसी एक तबादले के दौरान वो खो गया. मुझे बेहद अफ़सोस हुआ. काश! वो हार आज मेरे पास होता तो मै अपने बेटे से बताती की, उस हार की मेरे लिए कितनी अहमियत थी!

प्यारे  दोस्तों !  आप  सभी  को  दिवाली  की   अनंत  शुभ  कामनाएँ !

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

कीमती तोहफा

                                                                                                      
बरसों साल पूर्व की बात है. हम लोग उन दिनों मुंबई मे रहते थे. मेरी बिटिया तीन वर्ष की थी. स्कूल बस से स्कूल जाती थी. एक दिन स्कूल से मुझे फोन आया कि बस गलती से उसे पीछे छोड़ निकल गयी है. मै तुरंत स्कूल पहुँची. बच्ची को  स्कूल के दफ्तर  मे बिठाया गया था. मैंने देखा, उसके एक गाल पे एक आँसू आके ठहरा हुआ था. मैंने अपनी उंगली से उसे धीरे से पोंछ डाला. तब बिटिया बोली," माँ! मुझे लगा तुम नही आओगी,इसलिए ये पानी पता नही कहाँ से यहाँ पे आ गया!"    मैंने उसे गले से लगा के चूम लिया.

अब इसी तसवीर की दूसरी बाज़ू याद आ रही है. उस समय हम नागपूर मे थे. बिटिया वास्तु शाश्त्र की पदव्युत्तर पढ़ाई के लिए अमरीका जाने वाली थी. मै बड़ी दुखी थी. मेरी चिड़िया के पँख निकल आए थे. वो खुले आसमाँ मे उड़ने वाली थी और मै उसे अपने पँखों मे समेटना चाह रही थी.  छुप छुप के रोया करती थी.

फिर वो दिन भी आया जिस दिन हम मुंबई के  आंतर राष्ट्रीय हवाई अड्डे पे उससे बिदा लेने खड़े थे. उस समय बिटिया को बिछोह का कोई दुःख नही था. आँखों मे भविष्य के उज्वल सपने थे. आँसूं तो मेरी आँखों से बहना चाह रहे थे. मै अपनी बिटिया से बस एक आसूँ चाह रही थी. ऐसा एक आँसूं जो मुझे आश्वस्त करता कि बिटिया को मुझ से बिछड़ने का दुःख है.  अब मुझे बरसों पहले उस के गाल पे ठहरे उस एक आँसूं की कीमत महसूस हुई. काश! उस आसूँ को मै मोती बनाके एक डिबिया मे रख पाती! कितना अनमोल तोहफा था वो एक माँ के लिए!   जब बिटिया कुछ साल बाद ब्याह करके फिर अमरीका चली गयी तब भी मै उसी एक आँसूं के लिए तरसती रही,लेकिन वो मेरे नसीब न हुआ!  

रविवार, 25 सितंबर 2011

नाम में बहुत कुछ है!

बड़े दिनों बाद लिख रही हूँ. सोचती रहती थी,की,लिखूं तो क्या लिखूं? फिर अचानक कुछ अरसा पूर्व मराठी अखबार पढी हुई एक खबर दिमाग में कौंध गयी. वो खबर जब से पढी थी,तब से मन अशांत था.

खबर एक लडकी की थी. जो १०वी क्लास में पढ़ती है. नाम 'नकोशा'.उसकी स्कूल में एक शिबिर चल रहा था,उस दौरान एक समाज सेविका ने  उसका नाम पढ़ा तो चौंक गयी. उन्हों ने लडकी से पूछा," क्या तुम अपने नाम का मतलब जानती हो?"
लडकी: नहीं! 
समाज सेविका: यहाँ पे तुम्हारे साथ कोई आया है?
लडकी: मेरी दादी है.

जब दादी से बात हुई थी,तो उस लडकी के नाम और जनम की राम कहानी बाहर  आयी. नकोशा के पहले  उसके माँ-बाप   को एक लडकी हुई थी. इस बार सब को लड़के की उम्मीद थी. लडकी हुई तो सब ने उसे 'नकोशी'(unwanted )कर के बुलाना शुरू कर दिया. वो ३ माह की हुई तब उसकी माँ भी चल बसी. लडकी की  चाहत  किसी को भी न थी,इसलिए 'नकोशी' परसे  'नकोशा ' ये नाम उसे चिपक  गया. 

जब नकोशा को ये बात पता चली तो  पूरा दिन  उसने रो के काटा.' मुझे और किसी भी नाम से बुलाओ, लेकिन ये नाम हटा दो', कह के वो बिलखती रही. पाठशाला के बच्चों ने तथा शिक्षकों ने उसे shrawanee  कह के बुलाना शुरू किया. लेकिन  नाम बदलने की प्रक्रिया लम्बी है.

 शिक्षित,अमीर खानदानों में जहा लडकी नहीं चाहिए होती है,वहां नकोशा के अनपढ़ परिवार को कोई क्या कहे?नकोशा का ये किस्सा मुझसे भुलाये नहीं भूलता.



शनिवार, 27 अगस्त 2011

हद है खुदगर्जी की!!

   हफ्ता दस दिन मेरे पास रह के माँ पिताजी आज गाँव वापस लौट गए. माँ कैंसर की मरीज़ हैं. उनका चेक अप करवाना था. 

    Mai चाह रही थी की आये ही हैं तो कुछ रोज़ और रुक जाते. ख़ास कर जब माँ ने ये कह दिया,"बेटा ! समझ लो इसके बाद हम ना आ पाएंगे! सफ़र ने बहुत थका दिया!"      
 लेकिन पिताजी जिद पे अड़े रहे की नियत दिन लौटना ही लौटना है. कहते हुए दुःख होता है और शर्म भी आती है की वो हमेशा से बेहद खुदगर्ज़ किस्म के इंसान रहे. खुद की छोड़ किसी और की इच्छाओं या ज़रूरतों से उन्हें कभी कोई सरोकार रहा ही नहीं. माँ की तो हर छोटी बड़ी इच्छा को उन्हों ने हमेशा दरकिनार ही किया. माँ हैं की उनपे वारे न्यारे जाती रहती हैं! कैंसर की इतनी बड़ी सर्जरी के बाद जब उन्हें होश आया तो पहली बात मूह से निकली, "इन्हों ने ठीक से खाना खाया था? इनको दवाईयां दी गयीं थीं?" 
पिताजी किसी तरह से अपाहिज नहीं हैं! अपनी दवाई खुद ले सकते हैं! लेकिन आदत जो हो गयी थी की हरेक चीज़ सामने परोसी जाए! एक ग्लास पानी भी कभी अपने हाथों से लिया हो, मुझे याद नहीं! बहुत बार माँ पे गुस्सा भी आ जाता है की, इतना परावलम्बी क्यों बना दिया पिताजी को?
        माँ पिताजी गाँवसे अपनी कार से आये थे. सर्जरी के बाद माँ को मिलने के लिए लोग लगातार आते रहते. ऐसे में ज़रूरी था की, आने जाने वालों के साथ कोई बोले बैठे. मेरा अधिकतर समय रसोई में लग जाता. पिताजी ये ज़िम्मेदारी निभा सकते थे . उन्हें बातें करना बहुत भाता है! यहाँ फर्क इतना था, की, बातचीत का केंद्र वो नहीं,उनकी पत्नी थी! ये बात उनके बस की नहीं थी! वो केवल अपने बारे में बातें कर सकते हैं! सर्जरी के तीसरे दिन उन्हों ने गाडी ड्राईवर लिया और गाँव लौट गए! अपनी पत्नी के सेहत की ऐसी के तैसी! सोचती हूँ, कोई व्यक्ती इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है?


बुधवार, 3 अगस्त 2011

कौन सही है ,कौन गलत ?

कई बार सोचती हूँ...मैंने क्या लिखना चाहिए? क्या लिखना चाहती हूँ? मैंने सामाजिक दायित्व निभाना है? या बिखरते परिवारों के बारेमे लिखना है?अंदरसे कोई आवाज़ नहीं आती....एक खालीपन का एहसास मात्र रह जाता है.

बरसों बीत गए इस बात को. mai    अपने नैहर गयी थी. शाम को बगीचे में टेबल लगाके mai ,दादी अम्म्मा और दादा बैठे हुए गप लगा रहे थे. अचानक दादा को नमाज़ के समय का ख्याल आया. वो दादी अम्मासे  बोले," चलो,नमाज़ का वक़्त हो गया है."
दादी अम्मा बोलीं," अरे यही बच्चे तो मेरी नमाज़ हैं....यही तो मेरी दुनिया हैं....आप जाईये,पढ़िए....mai इसी के साथ बातें करती बैठुंगी. इसने कहाँ बार बार आना है!"
दादी अम्मा का ये जवाब मुझे बेहद पसंद आ गया और ज़ेहन में  बैठ  गया.
और बरस बीते. मेरी बेटी विद्यालय  के आखरी साल में पढ़ रही थी. mai उसके लिए जलपान ले गयी और उसके सरपे हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से कहा," तुम्ही बच्चे तो मेरी दुनिया  हो!"
बिटिया ने झट से अपने सरपर से मेरा हाथ हटाया और कहा," माँ! तुम अपनी दुनिया  अलग बनाओ. हमारी दुनिया से अलग.....हमें अलग से जीने दो!"
मुझे लगा जैसे किसी ने एक तमाचा जड़ दिया हो. mai अपनी पलकों पे आंसूं तोलते हुए अपने कमरे में चली गयी और जी भर के रो ली. गलत कौन था....मेरी समझ में नहीं आया...माँ या बेटी? या दोनों अपनी,अपनी जगह पे  सही थे?मुझे भीतर तक कुछ कचोट गया था...
मेरे छंद तो बहुत से थे. लेकिन जीवनका अधिकतर समय घरकी देखभाल,रसोई,खानपान,सफाई,फूल पौधे,बागवानी, कमरों में फूल सजाना,बच्चों की पढ़ाई,पति  के अति व्यस्त जीवन के साथ मेलजोल....इसी में व्यतीत होता रहा...अचानक से इन सभी से भिन्न mai अपनी अलग एक दुनिया कैसे बना लेती?
कौन  सही  है ,कौन  गलत ?है किसी के पास जवाब?

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

प्यार तेरे रंग हज़ार...!४

( गतांक : बड़े इंतज़ार के बाद उसने लिखा," वो लड़का और कोई नहीं,सौगात है......मै केवल एक बार उससे मिलना चाहती हूँ....एक बार अपना दिल खोलके उसके आगे रखना चाहती हूँ.....और कुछ नहीं....लेकिन मुझे नही लगता वो मेरी ये इच्छा भी पूरी करेगा....!"
सौगात! हे भगवान्! ये क्या कह दिया आयुषी ने?? जानते हुए की ,वो अर्चना के प्यार में पूरी तरह  डूबा हुआ है! अब  आगे ..)


आयुषी का जवाब पढके मै उदास-सी हो गयी...क्या करूँ? क्या न करूँ? मेरे पास तो सौग़ात की मेल Id भी नही थी....किससे हासिल करूँ? अर्चना के पास हो सकती है,लेकिन उसे क्या कहूँ?इत्तेफाक़न हमारी जो एक कॉमन सहेली थी,उससे मेरी बात हुई. उसके पास सौग़ात की ID थी! मै थोड़ी ख़ुश हो गयी...

उसने मुझे ये भी कहा," सौग़ात  अर्चना के प्यार में आकंठ डूबा हुआ है...वो किसी औरसे मेल मुलाक़ात करना  चाहेगा,ऐसा मुझे नही लगता!"
बात सच थी! पर कुछ तो करना होगा...आयुषी को मद्दे नज़र रखते हुए! क्या कहूँ सौग़ात से? कैसे कहूँ? क्या वो मुझे जवाब देगा? या अर्चना  को बता देगा? ऐसे में अर्चना क्या महसूस करेगी? उसे आयुषी के बारे में क्या लगेगा? वो दोनों तो आपस में सहेलियों की तरह हैं! सौग़ात को जब कभी मैंने उसके स्क्रैप पे मेसेज भेजा था,उसने अक्सर जवाब देनाटाल दिया था...और जब दिया था,तो बड़ा मायूसी भरा...
मैंने आयुषी से पूछा," सौग़ात से मिलने तुम्हें देहली जाना होगा! गर वो राज़ी हो गया तो तुम जा पाओगी?"
आयुषी ने कहा," हाँ मै चली जाउँगी..."
मैंने बड़ी ही एहतियात बरतते हुए सौग़ात को लिखा," सौग़ात...आयुषी को तुम से बहुत लगाव हो गया है...वो केवल एक बार तुम से मिलना चाहती है...क्या उसकी ये आरज़ू तुम पूरी करोगे? वो देहली आ जायेगी. तुम जहाँ कहोगे वहीँ तुम से मिलेगी....बस, एक बार उससे मिल लो...उसकी तसल्ली के लिए...उसे अपनी दिलकी बात तुम से कह लेने दो....मै तुम से इल्तिजा करती हूँ! मुझे नही पता की,ये सही है या गलत....लेकिन आयुषी के नज़रिए से देखती हूँ,तो गलत भी नही लगता...एक बार मेरी इतनी बात मान जाओ....दिल पर से बहुत बड़ा बोझ उतर जाएगा!"
मै सौग़ात के जवाब का इंतज़ार करने लगी.  मुझे उसका जवाब नही मिला. इस दरमियान मैंने गौर किया की,उसने अपने स्क्रैप पर से अर्चना के मेसेजेस के अलावा हर किसी के मेजेज डिलीट कर दिए थे! मैंने आयुषी को भी मेल लिखी लेकिन उसका भी कोई जवाब नही मिला. दो तीन महीने ऐसे ही बीत गए. अर्चना ने भी इस दौरान मुझसे संपर्क नही किया था.

मै जब कभी rediffconnexions खोलती,मुझे बेहद इंतज़ार रहता....! और एक दिन अचानक rediffconnoxions ने मेरा पास वार्ड एक्सेप्ट करना बंद कर दिया...! मैंने दूसरे पास वार्ड के लिए इल्तिजा भेजी लेकिन कोई असर नही हुआ और मेरी वो ID बंद हो गयी! आयुषी और अर्चना से मेरा हमेशा के लिए संपर्क टूट गया! सौगात के रवय्ये से आयुषी ज़रूर बहुत मायूस  हुई होगी....पर ये दिलकी बातें थीं.....इनपे किसका बस था??सौग़ात पे तो किसी का बस नही था,और नाही आयुषी के दिलपे!
समाप्त

रविवार, 3 जुलाई 2011

प्यार तेरे रंग हज़ार!!3


( गतांक : इन सब बातों के चलते मैंने गौर किया की,आयुषी बड़े दिनों से स्क्रैप पे कुछ लिख नहीं रही है. ना मेरे पूछने पर ही कुछ जवाब दे रही है! इसे क्या हो गया? ये जो मेरे तथा अर्चना के लिए कहती थी," तुम दोनों मेरे लिए दो नायाब रत्न हो....!"कहाँ खो गयी है? .....अब आगे....)
जब भी rediffconnexions पे जाती,मुझे आयुषी की तलाश रहती....पर वो नहीं मिलती. अचानक एक दिन उसका पर्सनल मेसेज बॉक्स में मेल मिला. उसने लिखा था," मेरा जी करता बिस्तर पर लेटी रहूँ .....और यही करती हूँ...लेटे,लेटे छत को निहारती रहती हूँ..."
मैंने तुरंत जवाब दिया," आयुषी ऐसा क्यों? तुम इतनी निराश किसलिए हो?कुछ तो कहो....मुझे तो ये पढके तुम्हारी बहुत अधिक चिंता हो रही है...आखिर क्या चाहती हो जीवन में जो तुम्हें नहीं मिल रहा? ऐसा कौनसा अभाव है जो तुम्हें इतना अधिक खल रहा है?"
उसका जवाब आया," ज़िंदगी में हरेक चीज़ तो हासिल नहीं होती....." 
बस एक पंक्ती....इससे किसी को क्या पता चल सकता था? मैंने दोबारा उसे लिखा, लेकिन इस बार वो फिर गायब हो गयी. कोई जवाब नहीं, कोई प्रतिक्रया नहीं. मै फिर परेशान हो गयी. निराशाजनक  स्थिती क्या होती है,मै अच्छी तरह जानती थी,समझती थी. क्या किया जाये? समझ नहीं पा रही थी...इसे ऐसा क्या दर्द हो सकता है जो बाँट भी नहीं रही....!

" आयुषी! कुछ तो कहो! मुझे नहीं तो किसी अन्य सहेली से कहो....ऐसे कैसे चलेगा! कुछ कहोगी तो जी हल्का होगा! कम से कम जवाब तो दो !"

क्या इसे किसी से प्यार हो गया है और माता पिता राज़ी नहीं रिश्ते को लेके? लडकी कुछ कहती भी तो नहीं!!

इसी दौरान अर्चना तथा  सौगात के स्क्रैप पर से पता चलता रहा की,सौगात  शायद देहली से मुंबई शिफ्ट करनेवाला है.  अर्चना ने लिखा था," तुम्हारा मुंबई आने का बहुत इंतज़ार है. मै अम्मीजान से संगीत सीख सकूंगी". मतलब अर्चना गाती भी थी! किसी और के एक स्क्रैप से पता चला था की वो दिखने में भी बहुत सुन्दर है!

मै आयुषी को लगातार  लिखती रही और एक दिन उसका जवाब आया,"हाँ! मुझे प्यार हो गया है...."
" आयुषी! किससे प्यार हुआ है? कुछ उसके बारे में भी तो लिखो!  और प्यार हुआ है तो इतनी निराश क्यों हो? तुम दोनों के बीछ ऐसी कौनसी बाधा है जो तुम्हें निराश कर रही है?"

बड़े इंतज़ार के बाद आयुषी का जवाब आया," जिसे प्यार करती हूँ,वो मुझे कभी हासिल नहीं हो सकता....."
"आयुषी! ऐसे क्यों कहती हो? "
" ये भी तो हो सकता है की,ये प्यार एकतरफा हो....!"
"क्या उसे पता है की,तुम उसे प्यार करती हो?क्या मै तुम दोनों के बछ किसी बात चीत का सिलसिला बना सकती हूँ?"मैंने पूछा.
" नहीं....उसे नहीं पता.....और तुम भी कुछ नहीं कर सकती..."आयुषी ने लिखा...अब इसका क्या मतलब लूँ मै?
"वो कौन है इतना तो बता सकती हो! फिर मेरी कोशिशों पे छोड़ देना. इतनाही हो सकता है न की,वो मना कर दे. कम से कम ये उलझन की स्थिती से तो वो बेहतर होगा! ये भी हो सकता है की,वो मान जाय! शायद उसके दिलमे भी तुम्हारे लिए कुछ कोमल भावनाएं हों?"
"नहीं...उसके मन में मेरे लिए शायद कोई जगह नहीं...वो किसी और से प्यार करता है...." आयुषी ने लिखा.
ओहो! ये भी क्या पेचीदा मामला हुआ जा रहा था. बताये तो सही ये लडकी एक बार उसका नाम पता. पता तो कराऊँ की,सही में ऐसा है,जैसा वो सोचती है...!
मैंने उससे दोबारा बहुत इसरार करना शुरू किया....!ऐतबार दिलाती रही,की,मै केवल उसका भला चाहती हूँ....इस निराशाजनक स्थिती से उसे उभारना चाहती हूँ.....और कुछ नहीं.
बड़े इंतज़ार के बाद उसने लिखा," वो लड़का और कोई नहीं,सौगात है......मै केवल एक बार उससे मिलना चाहती हूँ....एक बार अपना दिल खोलके उसके आगे रखना चाहती हूँ.....और कुछ नहीं....लेकिन मुझे नही लगता वो मेरी ये इच्छा भी पूरी करेगा....!"
सौगात! हे भगवान्! ये क्या कह दिया आयुषी ने?? जानते हुए की,वो अर्चना के प्यार में पूरी तरह  डूबा हुआ है!

क्रमश:

शनिवार, 25 जून 2011

प्यार तेरे रंग हज़ार! 2

( गतांक:मेरा किरदार यहाँ क्या था? मैंने कौनसा रोल निभाया....या निभाने की कोशिश की,ये अगली बार....बड़े ही फ़िल्मी ढंगसे यहाँ प्रेम का एक त्रिकोण बनता जा रहा मुझे नज़र आ रहा था...अब आगे...)

मै अक्सर अपने स्क्रैप पे कोई कविता या नज़्म  लिखती  रहती. कई लोग उसे पसंद करते,उनमे से अर्चना एक थी. उसने मुझसे एक दिन पूछा," क्या मै तुम्हारी रचनाओं संकलन कर सकती हूँ?"
मैंने जवाब में कहा," क्यों नहीं? खुशी से करो!"
जब अर्चना को समय नहीं मिलता तो ये काम उसके लिए आयुषी कर दिया करती.

 एक दिन मैंने हमारी एक common सहेली के स्क्रैप पे आयुषी का कमेन्ट पढ़ा," क्या तुमने देखा सौगात दोबारा rediffconnxions पे लौटा है...उसने अपनी फोटो भी लगाई है और अर्चना के लिए मेसेज भी छोड़ा है?"
उस महिला का जवाब पढने मै आयुषी के स्क्रैप पे गयी. वहाँ उसने लिखा था," हाँ देखा और पढ़ा...जिसमे अर्चना को खुशी मिले ,सौगात वही कर रहा है तो करने दो....दोनों खुश रहें...god bless them both !"

मै उत्सुकतावश अर्चनाके स्क्रैप पे गयी. वहाँ सौगात का मेसेज था," तुम्हें सालगिराह बहुत,बहुत मुबारक हो! आज सुबह मुमानी जान के यहाँ कई तरीकों से तुम्हें बधाई देने के बाद, तुम्हारी इच्छा के अनुसार मै स्क्रैप पे भी तुमसे  अपने दिलकी बात कह रहा हूँ...आय  लव यू....आय लव यू,आय लव यू!"


अर्चना शादीशुदा थी और सौगात इतने खुलेआम अपने प्यार का इज़हार उससे कर रहा था? बात मुझे ज़रा अटपटी तो लगी! मै लिंक लेके सौगात के स्क्रैप पे गयी....देखना चाह रही थी,की,अर्चना ने उसका क्या जवाब दिया! 
अर्चना ने लिखा था," I adore you & will always adore you!"
 एक तरह से इतना निडर होके अपने प्यार का इज़हार करना....सौगात की ये बात मुझे अच्छी भी लगी. मैंने पर्सनल मेसेज बॉक्स में अर्चना को एक ख़त लिखा," अर्चना! ज़िंदगी हर किसी को खुश रहने का दोबारा मौक़ा नहीं देती. गर तुम्हें ये मौक़ा मिल रहा है तो मै तुम्हारे साथ हूँ....गँवाना नहीं...तुम ने मेरी कहानी," आकाशनीम" पढी ना?"

अर्चना का जवाब आया," सौगात को मै बचपन से जानती हूँ...उसके दिलकी हर बात मुझे पता रहती है......ऐसा नहीं की,मेरी शादी के लिए मैंने कम तकलीफें उठाई. ये शादी भी मेरी मर्ज़ी से हुई है...मेरी ज़िद से हुई है...बस .....! शायद ज़िंदगी में कई लोगों को कुछ हासिल हो जाने के बाद उसकी कद्र नहीं रहती.....शायद मेरे शौहर को भी वो कद्र नहीं रही... वैसे भी सब कुछ छोड़ देना इतना आसान नहीं...हाँ! कभी,कभी जी करता है,घंटों बैठ के रोती रहूँ! वो तो मेरी मसरूफियत है,जो मुझे रोने धोने का समय नहीं देती...!
वैसे मैंने "नीले पीले फूल" भी तो पढी...शायद मेरी ज़िंदगी इन दोनों कहानियों का मिश्रण है!"

मैंने लिखा," भगवान करे,तुम हमेशा इतनी मसरूफ़ रहो की,रोने धोने का तुम्हें मौक़ा  ही न मिले!"

इन सब बातों के चलते मैंने गौर किया की,आयुषी बड़े दिनों से स्क्रैप पे कुछ लिख नहीं रही है. ना मेरे पूछने पर ही कुछ जवाब दे रही है! इसे क्या हो गया? ये जो मेरे तथा अर्चना के लिए कहती थी," तुम दोनों मेरे लिए दो नायाब रत्न हो....!"कहाँ खो गयी है? 


क्रमश:




गुरुवार, 16 जून 2011

प्यार तेरे रंग हज़ार..

चंद साल पूर्व मै rediffconnexion की मेम्बर बनी. स्क्रैप पे जो प्रोफाइल था वहाँ मैंने अपना वर्क प्रोफाइल डाला. जिन विषयों में मेरी रुची थी....जो मेरे रोज़गार के भी ज़रिये थे,मैंने उन सभी के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी.हफ्ते भर के अन्दर मै निराश हो गयी. मुझसे दोस्ती के लिए सब हाथ बढ़ा रहे थे,मेरे कामकाज में किसी को रुची नहीं थी. 

मैंने जल्द ही जो मालूमात ज़रूरी नहीं थी,तुरंत हटा दी. अपना सेल नंबर भी हटा दिया.गर कोई पूछता," आप कहा रहती हैं,तो मेरा जवाब होता,"हिंदी हैं हम,वतन है हिन्दोस्तान हमारा!"

खैर ! ऐसे ही निराशा के दौर में कुछ अच्छे दोस्त मिले. खासकर दो महिलाएँ थीं,जो मुझसे बड़े प्यारसे पेश आतीं...अर्चना जो एक डॉक्टर थी और विवाहिता.आयुषी,जो अपनी पढाई पूरी कर चुकी थी. जॉब के तलाश में थी. अर्चना और आयुषी की  मुझसे पहलेही आपस में जानपहचान थी.मतलब कुछ चंद माह पूर्व.मेल मिलाप नहीं.
मैंने अपने प्रोफाइल पे अपनी एक फोटो लगा रखी थी,जिसमे मैंने बडाही पारंपरिक पोशाख पहना था.सर चुनर से ढंका हुआ था. अन्य सदस्यों  की तरह,इन दोनोको भी इस तस्वीर ने आकर्षित किया.
आयुषी तथा अर्चनाने अपनी कोई तस्वीर नहीं लगाई थी. 

खैर समय बीतता रहा.एक दिन किसी अन्य सदस्य ततः आयुषी के बीच हुआ सम्वाद मैंने उन्हीं के स्क्रैप पे पढ़ा. मै अचानक सजग हो गयी. कुछ तो कहीं गड़बड़ है.....यहाँ पे एक तीसरे,बेहद सुदर्शन युवक का पदार्पण हुआ.नाम था उसका ,सौगात.और इसी के साथ,साथ,कुछ रिश्तों  की गुत्थियाँ बनी और धीरे,धीरे सुलझने भी लगीं.सुलझी....मतलब मेरे सामने कुछ अधिक स्पष्ट होता गया.इस गुत्थी में जो किरदार फंसे थे,वो तो फंसे ही रहे.ये एक अनजान दुनियामे क़दम रखने की फिसलन थी.....उसकी कीमत चुकानी थी,या दर्द सहना था....जोभी हो....इन सबसे निपटना और खुशी,खुशी बाहर निकलना ना -मुमकिन-सा लग रहा था...

मेरा किरदार यहाँ क्या था? मैंने कौनसा रोल निभाया....या निभाने की कोशिश की,ये अगली बार....बड़े ही फ़िल्मी ढंगसे यहाँ प्रेम का एक त्रिकोण बनता जा रहा मुझे नज़र आ रहा था...
क्रमश:






बुधवार, 11 मई 2011

दीपा 17

( गतांक :मै :" मुझे तो तुम्हारी चिंता हो रही है....सही गलत का निर्णय मै नही करुँगी.....पर तुम्हारी खुशी ज़रूर चाहती हूँ...आख़िर हर रिश्ते का मक़सद तो वही होता है,है ना? उसने अपनी पत्नी से भी यही वादा कभी किया होगा?"
दीपा:" लेकिन मेरा मन कहता है,सब ठीक होगा....हम दोनों कल भी कुछ देर मिलने वालें हैं! मेरा तो उससे पल भर भी अलग होने को जी नही चाहता!"

दीपा और भी बहुत कुछ बताती रही...बहुत उत्तेजित थी....लेकिन उसने मुझे गहरी सोचमे   अवश्य डाल दिया....पता नही,इस रिश्ते का भविष्य क्या था???क्या होगा???
अब आगे.....)
दीपा की सुदर्शन के साथ मुलाकातें चलती रहीं...वो मुझे हर मुलाक़ात का ब्योरा सुनाती....बेहद खुश थी...जब मुलाक़ात नहीं होती तो फोन,sms जारी रहते....sms भी मुझे दिखाती! फोन पे हुई बातचीत दोहराती...

एक दिन दीपा ने सुदर्शन को,उसे मिला एक शादी का प्रस्ताव sms के ज़रिये भेज दिया....दीपा उस समय मेरे घर पे थी. उसने तो मज़ाक़ ही मज़ाक़ में sms भेजा लेकिन सुदर्शन को बेहद ग़ुस्सा आ गया! उसने जवाब में, "अब मुझे तुम से कोई लेना देना नहीं....तुम लौट जाओ अपनी दुनिया में",ये अलफ़ाज़ लिख भेजे! दीपा पूरी रात रोती रही...सुबह बहुत बार माफी माँगी तब सुदर्शन का ग़ुस्सा शांत हुआ! डांटा तो मैंने भी दीपा को:" इस तरह के sms कोई पुरुष बर्दाश्त नहीं करेगा...उसे ईर्षा होगी और परिणामत: ग़ुस्सा आयेगा!"

सुदर्शन दीपा को लेके बहुत possesive   था. वैसे वो दीपा के पूरे परिवार को किसी ना किसी बहाने मिल लिया. उन दोनों की नज़दीकियाँ किस हद तक हैं,ये तो परिवार को नही पता था. 

सुदर्शन और दीपा,दोनों facebook पे हमेशा जाते रहते. दीपा के एक परिचित को सुदर्शन ने डिलीट करवाया. वो व्यक्ती उसे क़तई पसंद नही था,तथा उन दोनों का कुछ व्यक्तिगत पंगा भी था. वो व्यक्ती  property dealer था. इसी चक्कर  में दीपा ने उसे कुछ हफ़्तों बाद दोबारा 'फ्रेंड'स लिस्ट' में add कर दिया....और उसकी ज़िंदगी में कहर  ढाया ! सुदर्शन ने दीपा को ही अपनी लिस्ट से डिलीट कर दिया! 

दीपा ने ये बात मुझे फोन पे बतायी. वो बेहद परेशान हो उठी. सुदर्शन उसका फोन उठाता नही था....दीपा और उस के बीछ केवल sms चल रहा था.....और उस के जवाब भी सुदर्शन बड़ी देर लगा के देता. अब दीपा ने मुझे उससे बात करने के लिए कहा. मैंने फोन मिलाके  कहा," (थोड़ा अनजान बनते हुए): आप दोनों के बीछ मन मुटाव का सही कारण तो मै नही जानती....लेकिन दीपा की हालत मुझ से देखी नही जाते....एक दुसरे से एक बार फोन पे बात क्यों नही कर लेते? शायद उलझन कुछ सुलझ जाये!"
सुदर्शन:" आपको जब मन मुटाव का कारण ही नही पता तो आप सही गलत का फैसला कैसे कर सकतीं हैं?"
मै :" मै सही गलत का फैसला नही करना चाह रही हूँ...मै तो केवल जो भी गलत फहमी आप दोनों के बीछ है,उसे सुलझाने की कोशिश कर रही हूँ! जो भी बात हुई है,उसे लेके दीपा ने आप से कई बार क्षमा माँगी है,इतना तो मै जानती  हूँ.. आप दोनों फोन कर लेंगे तो बातें अधिक साफ़ हो जायेंगी ऐसा मेरा विचार है.....!"
सुदर्शन :" वैसे अब बात करने को कुछ बचा ही नही है...मुझे जिस चीज़ से सख्त नफरत है,वो वही बात करती है....उसे केवल खुद की परवाह है...उसे जो करना है,करे....अब मुझे कुछ सरोकार नही....!"

सुदर्शन की बातें सुन मेरा दिल बैठा जा रहा था फिर भी मैंने संभाषण जारी रखते हुए कहा:" देखिये! आप दोनों में बहुत नज़दीकियाँ थीं/हैं,इतना तो मै जानती हूँ....और कई महीनों से,तो रिश्ता ऐसे एक झटके से टूट तो नही जा सकता....आप सिर्फ एक बार दीपा से बात कर लीजिये,आगे आपकी मर्जी...मै दीपा से तुरंत आपको फोन करनेके वास्ते कहती हूँ...."
इतना कहके मैंने सुदर्शन से बातचीत समाप्त की और दीपा को फोन मिलाया:" दीपा,तुम तुरंत सुदर्शन को फोन करो....वो फोन उठा लेगा."
दीपा:" लेकिन उस ने क्या कहा?"
सुदर्शन ने कही हर बात दोहराने से मेरा जी कतराया...मैंने दीपा से कहा:
" तुम इस समय उससे बात कर लो....बाक़ी बातें बाद में होती रहेंगी."

चंद हफ़्तों पहले ही दीपा नानी बनी थी...सुदर्शन से बात करते हुए उसने उससे कहा:" मै तो अपनी नवासी की ठीक तौर से देख भाल भी नही कर पा रही हूँ...जी उचट गया है...तुम से बार,बार माफी माँग तो रही हूँ....! मुझ से भूल हुई,लेकिन मुझे इस बात का क़तई अंदाज़ा नही था,की,उस व्यक्ती से आप इस हद तक नफरत करते हैं...."
बातें करते हुए दीपा रोये चली जा रही थी. अंत में सुदर्शन ने उससे कहा,:" मै उस बच्ची की ख़ातिर अब के तुम्हें माफ़ किये देता हूँ...वरना नही करता...."

दीपा की जान में जान तो आयी! दीपा सुदर्शन के प्यार के  बिना रह नही सकती ये बात तो मुझे पूरी तरह समझ में आ गयी थी. उन दोनों का रिश्ता समाज की नज़रों में कितना सही या गलत है,इस बात का निर्णय मै नही ले सकती,नाही लेना चाहूँगी...

फिलहाल दोनों के बीछ वही पहले वाला प्यार है.....दीपा की खुशी चाहती हूँ,और वही दुआ करती हूँ...दुआ करती हूँ,की,उसे कोई सदमा न पहुँचे...

समाप्त 



मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

दीपा 16

( गतांक :मैंने फ़ोन रखा और दूसरी ओर  दीपा का फोन बजा! दोनों ने बड़ी देरतक बातें कीं. बादमे  दीपा ने बड़े इतमिनान से मुझे सारी बातें दोहराके बतायीं . प्रसाद ने उससे वादा किया की अब वो नियम से फ़ोन करेगा...या गर दीपा का फ़ोन होगा तो ज़रूर उठा लेगा...व्यस्त रहा तो बाद में बात कर लेगा! उदास,अस्वस्थ दीपा,अचानक खिल उठी थी!
अब आगे.....)

उस रोज़ के बाद चंद दिन तो प्रसाद के फोन आते रहे...लेकिन कुत्ते की दुम! टेढ़ी सो टेढ़ी!  वो दुबारा गायब हो गया! वजह भी समझ में न आये! पिछली बार तो उसने अति व्यस्तता ये वजह  बताई  थी....साथ ये भी कहा था,की, आइन्दा कितना ही व्यस्त क्यों न हो,कमसे कम एक sms तो ज़रूर भेजेगा .....सारे वादे धरे के धरे रह गए!

ऐसे ही कुछ तीन चार माह गुज़र गए. दीपा अपना समय बिताने face book आदि social network पे जाती रहती...नए,नए दोस्त बनाती रहती और उन से गप लगा लेती...

मै उन दिनों मुंबई में थी. दीपा बार बार मुझ से कह रही थी,की,मै जल्द लौट आऊँ .....उसे बहुत-सी बातें बतानी थी....!उसकी आवाज़ में खुशी झलक रही थी! मुझे बड़ा अच्छा लगा और जिज्ञासा  भी जागृत हो गयी...! मै मुंबई से लौटी तो दीपा मेरे घर कुछ रोज़ बिताने चली आयी....उसे देखा तो मैंने कहा:
" दीपा! बहुत खुश नज़र आ रही हो.....! क्या बात है? क्या प्रसाद ने फिर से फोन पे बात चीत शुरू कर दी?"
दीपा: " अरे नही! तुम काम से झटपट निपट लो....तुम से खूब सारी बातें करनी हैं....! बहुत कुछ बताना है....जब तक बता ना लूँगी,तुम्हें सोने नहीं दूँगी!"

रात का खाना खाके,मै चौका-बर्तन से फारिग हो गयी....हम दोनों बिस्तर पे पैर पसार के बैठ गए और दीपा बताने लगी...
" पता है...फेस बुक पे एक सुदर्शन नामक व्यक्ती कई बार मुझे फ्रेंड'स request भेज चुका था. मुझ से १० साल छोटा था,तो मै रिजेक्ट करती रही...एक दिन पता नहीं मुझे क्या सूझ गयी सो मैंने उसकी बिनती मान ली...! जब की,पिछले तकरीबन दो सालों से वाकफ़ियत भर भी नही थी...! वो इसी शहर का बाशिंदा निकला!  मुझ से मिलने के लिए बहुत आतुर था!"
मै:" अच्छा? और उसका परिवार? उस बारे में कुछ बताया? ये भी डिवोर्सी है? या फिर विधुर?"
दीपा : " नही....ऐसा कुछ नही...वो शादीशुदा है....दो बच्चे हैं...."
मै:"और उसकी पत्नी?"
दीपा:" पत्नी है.....अधिकतर बीमार रहती है...सौतेला बाप है,जो जायदाद को लेके उसे बहुत परेशान कर रहा है.."
मै :" दीपा! दीपा ! ये कहाँ फँस रही हो? आज गर वो अपनी पत्नी से बेवफाई कर रहा है,तो कलको तुम्हारे साथ भी वही कर सकता है....! "
दीपा :" नही...नही...मुझे ऐसा नही लगता...!"
मै :"क्या तुम दोनों मिल चुके हो एक दुसरे से?"
दीपा :" हाँ! मैंने उसे मेरे ही घर बुलाया था...उसने मेरा हाथ थामा तो मै सिहर गयी...उसके स्पर्श में वफ़ादारी है....वो मुझे अपनी कार में भी घुमाने ले गया...कई बार....मुझे बाहों में भी भर लिया....उसके स्पर्श में हवस नही है...वो तो बस कई बार मेरी एक झलक पाने के लिए,कितनी,कितनी दूर से चला आता है...."
मै :" लेकिन दीपा! एक शादीशुदा आदमी से इस तरह का रिश्ता.....क्या तुम्हें गलत नही लगता....??मुझे तो लगता है,के वो अपने परिवार के साथ विश्वासघात कर रहा है.....या फिर तुम्हारी दोस्ती का नाजायज़ फायदा उठा रहा है! "
दीपा :" नही....वो तो मुझ से ब्याह करने को राज़ी  है...!"
मै :" तो क्या अपनी पत्नी को क़ानूनन छोड़ देगा तुम से ब्याह करने के लिए? और उसके बच्चे?"
दीपा :" नही...पत्नी को छोड़ेगा तो नही...लेकिन वो कहता है,के मै तुम्हे भी वही दर्जा दूँगा,जो एक पत्नी का होता है!  "
मै :" दीपा! तुम अच्छी तरह से जानती हो के ऐसी शादी को क़ानून नही मानता! क्या तुम "दूसरी औरत" की हैसियत से रहोगी उस के साथ....?"
दीपा : " लेकिन मै शादी तो करना ही नही चाहती ...मुझे तो केवल एक पुरुष मित्र चाहिए था....वो मिल गया...इससे आगे मुझे और कुछ नही सोचना...ये समाज और उसके तौर तरीक़े...! इसी में बंध के इतने साल निकल गए! मै भावनात्मक तौर से उसके साथ बहुत जुड़ गयी हूँ...वैसे भी उसकी पत्नी का कोई अधिकार तो मै छीन नही रही. वो अपने परिवार के प्रती सारी ज़िम्मेदारी निभाता रहेगा! बल्कि,उसने तो मेरे बच्चों को अपने बच्चों की तरह मान लिया है....उन्हें वो "हमारे बच्चे" करके ही संबोधित करता है..."
मै : " ऐसा रिश्ता कितने दिन निभ सकेगा?? "
दीपा :" मै तो ताउम्र इसे निभाउंगी....! और सुदर्शन भी यही कहता है!"
मै :" मुझे तो तुम्हारी चिंता हो रही है....सही गलत का निर्णय मै नही करुँगी.....पर तुम्हारी खुशी ज़रूर चाहती हूँ...आख़िर हर रिश्ते का मक़सद तो वही होता है,है ना? उसने अपनी पत्नी से भी यही वादा कभी किया होगा?"
दीपा:" लेकिन मेरा मन कहता है,सब ठीक होगा....हम दोनों कल भी कुछ देर मिलने वालें हैं! मेरा तो उससे पल भर भी अलग होने को जी नही चाहता!"

दीपा और भी बहुत कुछ बताती रही...बहुत उत्तेजित थी....लेकिन उसने मुझे गहरी सोचमे   अवश्य डाल दिया....पता नही,इस रिश्ते का भविष्य क्या था???क्या होगा???

क्रमश:





रविवार, 17 अप्रैल 2011

दीपा 15

( गतांक: कुछ दिन और बीते....दीपा बेक़रार हो गयी...फिर अचानक से एक दिन प्रसाद का फोन आ गया! दीपा फिर से खिल गयी! लेकिन उस दिन के बाद वो फिर गायब हो गया! और अब के तो बहुत दिन बीत गए! मुझे दीपा को लेकर चिंता होने लगी. पिछली बार तो प्रसाद ने  बहुत माफी माँगी थी...अपनी व्यस्तता बताई थी,और आश्वासन दिया था,की, फिर से ऐसा नहीं होगा! और इसी तरह सप्ताह के बाद सप्ताह बीतते गए....
अब आगे....)
प्रसाद के ऐसे व्यवहार के कारण दीपा बहुत विचलित थी. वो जीवन में एक स्थिरता चाह रही थी. एक मन मीत जिसे वो अपने मन की कह सके....जिस के साथ रोजमर्रा की ज़िंदगी साझा कर सके...वैसे तो दीपा के साथ बहुतों ने संपर्क किया था,लेकिन दीपा अब ब्याह करना नहीं चाह रही थी. किसी का हाथ पकड़ सके, किसी की बाहों में बाहें डाल सके...किसी के साथ खामोश लम्हें बिता सके,या फिर फ़ोन पे खूब बतिया सके....इससे अधिक आगे उसे नही बढ़ाना था. उसे प्रसाद में वैसा व्यक्ती दिखाई दिया था,पर प्रसाद वो नही था...

इसी तररह महीनों बीते. एक दिन शाम हम दोनों मेरी छत पे बैठे बतिया रहे थे. दीपा उदास लग रही थी. बोली: "मेरा प्रसाद से बातें करने का बहुत मन करता है,और वो है की,फोन ही नही उठाता....! क्या करूँ?"
मै:" क्या तुम चाहोगी की,मै अपने फ़ोन से एक बार उसका नंबर मिलाके देखूँ? बता दूँ उसे,गर वो फ़ोन उठाये तो, की तुम कितनी विचलित हो? मै ये नही बताउँगी की तुम मेरे सामने बैठी हो...की उसे फोन करने के बारे में हमने एक दूजे से सलाह की है...सिर्फ इतना कहूँगी,के मै तुम से मिली,और मुझ से तुम्हारी हालत देखी नही गयी...और मैंने तुम से उसका नंबर माँग लिया..."
दीपा ने खुश होकर कहा:" सच? तुम ऐसा करोगी?"
मै:" क्यों नही? ये लो मेरा फ़ोन और घुमा दो उसका नंबर! देखती हूँ,उठाता है या नही!"

दीपा ने तुरंत नंबर घुमा के फ़ोन मुझे पकड़ा दिया....और उधर से प्रसाद ने फ़ोन उठा भी लिया! मैंने अपना परिचय देते हुए कहा,
" देखिये, मुझ से दीपा की हालत देखी नही जाती! आप उसे फ़ोन क्यों नही करते? या उसका फ़ोन आता है,तो क्यों नही उठाते? खैर! जो भी आपके वजूहात हों,आप तुरंत उसे फ़ोन करेंगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी और उसे सुकून मिलेगा..."
प्रसाद इनकार नही कर सका. मैंने फ़ोन रखा और दूसरी और दीपा का फोन बजा! दोनों ने बड़ी देरतक बातें कीं. बाद में दीपा ने बड़े इतमिनान से मुझे सारी बातें दोहराके बतायीं . प्रसाद ने उससे वादा किया की अब वो नियम से फ़ोन करेगा...या गर दीपा का फ़ोन होगा तो ज़रूर उठा लेगा...व्यस्त रहा तो बाद में बात कर लेगा! उदास,अस्वस्थ दीपा,अचानक खिल उठी थी!

क्रमश:



सोमवार, 11 अप्रैल 2011

दीपा 14

( गतांक : प्रसाद तो पूरी तरह से उसके प्यार में डूब गया था. उसके हर ख़त में," मै तुमसे बेहद प्यार करता हूँ," ये वाक्य कुछ नहीं तो दस बार होता! प्रसाद अहमदाबाद का बाशिंदा था. अंत में दीपा ने अहमदाबाद जाके उससे मिलने का फैसला किया और वो गयी. वो खुद अब किसी किशोरी की तरह उसे मिलने के लिए बेताब हो उठी थी.
अब आगे....)
दीपा प्रसाद से मिलने अहमदाबाद गयी.लेकिन जिस दिन लौटना था,उसके एक दिन पहलेही,मतलब उसी रोज़ वापसी के लिए चल दी. प्रसाद को जामनगर में अचानक कुछ काम आन पडा था.

प्रसाद ने दीपा से भेंट करने के लिए एक फार्म हाउस  बुक किया था. दीपा बस से पहुँची. प्रसाद ने उसे बाहों में भर लिया. उन दोनों ने अपनी चंद तस्वीरें उतारी.थकी  मांदी दीपा उसी कमरे में कुछ देर सो गयी. उठी तो प्रसाद ने कहा," सोते हुए तुम किसी छोटी बच्ची की तरह भोली भाली लग रही थीं!"

दीपा बहुत खुश होके लौटी. लौटने के अगले ही दिन मुझ से मिली. तसवीरें बताईं! मैंने दीपा को इतना खुश पहले कभी नहीं देखा था! मेरे सामने ही उसने प्रसाद से बात चीत भी की. मन ही मन मै दीपा के लिए बहुत खुश हो रही थी! उसे वो मीत मिल गया था,जिसकी ताउम्र  उसे तलाश रही थी!

दीपा उस समय मेरे घर तीन चार रोज़ रुक गयी. प्रसाद  के फोन sms ,मेल्स आदि जारी थे! चंद दिनों बाद दीपा घर लौट गयी.हम जब कभी फोन पे बात करते,वो मुझे प्रसाद की सारी खबर सुनाती. एक दिन देर रात बातें करते हुए उसने कहा," पता नहीं क्यों प्रसाद  ने ना तो मेल का जवाब दिया,ना मिस कॉल का,नाही sms का! आज तीन दिन हो गए! ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था!"

कुछ दिन और बीते....दीपा बेक़रार हो गयी...फिर अचानक से एक दिन प्रसाद का फोन आ गया! दीपा फिर से खिल गयी! लेकिन उस दिन के बाद वो फिर गायब हो गया! और अब के तो बहुत दिन बीत गए! मुझे दीपा को लेकर चिंता होने लगी. पिछली बार तो प्रसाद ने  बहुत माफी माँगी थी...अपनी व्यस्तता बताई थी,और आश्वासन दिया था,की, फिर से ऐसा नहीं होगा! और इसी तरह सप्ताह के बाद सप्ताह बीतते गए....
क्रमश:


सोमवार, 21 मार्च 2011

दीपा १३


( गतांक: ब्याह अच्छे से हो गया...लडकी बिदा हो गयी...उसी शहरमे...और दीपा भयानक depression में चली गयी. उसका nervous breakdown ही हो गया!  बरसों उसने अपनेआप को सहेजे रखा था...अब वो बिखर,बिखर गयी..
अब आगे पढ़ें.)
 
अब दीपा को लगने लगा जैसे उसके जीवन का मकसद ख़त्म हो गया! एक भयानक अकेलेपन ने उसे घेर लिया. एक खालीपन,जिसे वो किसी के साथ चाहकर भी बाँट नहीं सक रही थी...क्योंकि कोई थाही नहीं उसके जीवन में! अब उसे एक साथी की कमी बेहद खलने लगी. अपना समाज इतना परम्परावादी है,की, औरत की इस ज़रुरत को समझना उसके परे है.
 
अब उसे अजय याद आता जो बहुत संजीदा था. अगर दीपा उसके पीछे लग उसका ब्याह न करवाती तो शायद वो अबतक रुका रहता! शायद नरेंद्र भी रुक जाता! लेकिन वो हालात अलग थे. बेटी का भविष्य उसके लिए अपनी हर निजी खुशी से बढ़के मायने रखता था! जब बेटी की ज़िम्मेदारी से वो फारिग हो गयी तो ज़िंदगी अचानक नीरस,बेमक़सद बन गयी. 
 
ऐसे समय में बच्चों ने काफी समझदारी और परिपक्वता का दर्शन दिया. दोनों ने माँ को दोबारा ब्याह करने की सलाह दी. इस तरह की संस्थाओं में उसका नाम भी दर्ज कराया. इस कारण दीपाका संकुचित दायरा थोडा विस्तारित   होने लगा.  चंद सज्जन मर्दों से उसका नेट की सहायता से परिचय हुआ. वो स्वयं अपने आप को टटोल रही थी. उसे खुद नहीं पता था की,आखिर जीवन में वो चाहती क्या है?शादी चाहती है या केवल दोस्ती?शायद ऐसी दोस्ती,जिसमे समर्पण हो,ज़िम्मेदारी हो,लेकिन बंधन का बोझ न हो! कई विधुर और विभक्त हुए लोगों ने उसके आगे शादी के प्रस्ताव रखे. वो कुछ लोगों से मिली भी. पर सच तो ये था,की,शादी के ख्याल से उसे डर लगता! 
और इन्हीं दिनों उसका परिचय प्रसाद से हुआ. वो डिवोर्सी था. पर उससे उम्र में करीब १० साल छोटा. बहुत दिनों तक तो दीपा ने उसे टाल दिया. अंत में जाके दोस्ती स्वीकार की. दोनों का ईमेल तथा फ़ोन के ज़रिये आपस में ख़यालों का आदान प्रदान शुरू हुआ. प्रसाद तो पूरी तरह से उसके प्यार में डूब गया था. उसके हर ख़त में," मै तुमसे बेहद प्यार करता हूँ," ये वाक्य कुछ नहीं तो दस बार होता! प्रसाद अहमदाबाद का बाशिंदा था. अंत में दीपा ने अहमदाबाद जाके उससे मिलने का फैसला किया और वो गयी. वो खुद अब किसी किशोरी की तरह उसे मिलने के लिए बेताब हो उठी थी.
 
क्रमश: 







शुक्रवार, 11 मार्च 2011

दीपाकी चंद तस्वीरें

२)महाराष्ट्रियन साड़ी में दीपा...जब वो प्रथम अपत्य के समय उम्मीद से थी.  
३)दीपा-लाल साड़ी में..
४)बेटी के जनम पे...
५)बेटे के जनम पे...
६)अपने नन्हें मुन्नों के साथ...
७)सबसे बीचोबीच बैठी,लम्बी चोटियोंवाली बच्ची दीपा!
८)समंदर के किनारे...बच्चों के साथ...उसके साथ हुए 'हादसे'के एकदम बाद...
९)अन्य तीनो तस्वीरें जब दीपा अपने बेटे के समय गर्भवती थी..

गुरुवार, 3 मार्च 2011

दीपा 12

(गतांक :अब समय था,एक हलकी-सी चैन की साँस लेने का,की दीपा का भाई हार्ट attack से चल बसा ! और इस सदमे से परिवार अभी उभरा नहीं था,की, दीपाका बहनोई एक हादसे में चल बसा! दीपा के माता पिता पे अब और  दो बेवाओं की ज़िम्मेदारी आन पडी....एक अपनी बहू...एक अपनी बेटी,जो पती के निधन के बाद अपने मायके चली आयी. दीपा के सभी सहारे टूटते  गए!तीन बहन भाई.....और एक भी परिवार सम्पूर्ण नहीं...सुखी नहीं!

दूसरी ओर दीपा को पता चला की,नरेंद्र अभी भी उसकी आस लगाये बैठा है! 
अब आगे....)
 
दीपाका पूरा परिवार ही सदमों से गुज़र रहा था. उन सदमों में दो और परिवार जुड़े हुए थे. एक तो दीपा के बहनोई का, दूसरा उसकी भाभी के मायके का!! कौन किसे सहारा दे!!
 
इधर जब दीपा को नरेंद्र के बारेमे पता चला तो उसने फिर एक बार साफ़,साफ़ ना कर दी. अब उसे अपनी जवान हो रही बेटी की अधिक चिंता थी. एक भी गलत क़दम बेटी के भविष्य पे असर करता. नरेंद्र ने दीपा का आठ साल इंतज़ार किया,ये बात दीपा के लिए बहुत बड़ी थी.लेकिन समाज के सीमित दायरे में रहते हुए,दीपा को फूँक फूँक के क़दम उठाने थे!मजबूरियाँ थीं! बच्चे हमेशा ही उसकी प्राथमिकता रहे !
 
वैसे,बच्चों में परिपक्वता समय से पहले आ रही थी. बच्चे  नौकरी करते हुए पढ़ रहे थे .  अपनी आर्थिक अवस्था खूब समझते थे. कोई हठ ,कोई फ़िज़ूल खर्ची नहीं करते.
 
प्लाट के जो पैसे मिले थे, दीपा तथा उसके पिताजी ने मिलके,उसमे से एक छोटा-सा फ्लैट खरीदा. कम से कम किराये का झमेला बंद हुआ! बेटा महाविद्यालय में पहुँचा और उसे आठ हज़ार रुपये  माहवार की नौकरी मिली. वो कॉलेज की पढ़ाई बाहरसे ही कर रहा था. उसने ज़िद करके अपनी माँ की नौकरी छुडवा दी.  १५०० रुपयों के लिए,अब माँ क्यों इतना कष्ट करे,यही उसकी भावना थी. घर का सारा काम तो वो करती ही थी. 
 
दिन अपनी गती से बीतते  गए.  बेटी ने कंप्यूटर ग्राफिक्स में पदवी हासिल की और नौकरी पे लग गयी. दीपा को उस के ब्याह की चिंता रहने लगी. इत्तेफाक़न एक संजीदा और आकर्षक युवक को लडकी पसंद आ गयी. लड़के के माता-पिता ज़रा अकडू और पुराने ख़यालात के लोग थे. लड़का बहुत अच्छी तनख्वाह पे नौकरी कर रहा था. ख़ुशमिज़ाज था. दीपा ने अन्य बातें नज़रंदाज़ कर दीं. ब्याह तय हुआ तो घर में खुशी का माहौल आ गया! बरसों बाद ऐसा मौक़ा आ रहा था! सब दिलो जान से जुट गए. 

ब्याह अच्छे से हो गया...लडकी बिदा हो गयी...उसी शहरमे...और दीपा भयानक depression में चली गयी. उसका nervous breakdown ही हो गया!  बरसों उसने अपनेआप को सहेजे रखा था...अब वो बिखर,बिखर गयी..
 
क्रमश:
 








मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

दीपा 11

( गतांक : मै केबिन में गयी तो डॉक्टर बोले, मै बिना किसी लागलपेट के सीधी बात कह रहा हूँ.तुम्हारे  पति को AIDS है. उसके बचने की उम्मीद नही है. लेकिन तुम्हें तथा तुम्हारे बच्चों को तुरंत अपना चेकअप कराना होगा.HIV positive होने की शक्यता नकारी नही जा सकती...'
" मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी!  हे भगवान्! बस इतनाही होना बचा था? जाते,जाते हमें ये आदमी  क्या तोहफा दे चला??"
अब आगे....)


दीपाके जीवन का वो सब से भयानक दिन था....पूरी रात,वो तथा बच्चे सो नहीं पाए...एक दूसरे को बिलग के रोते रहे!

अगले दिन खून की जाँच करानी थी...विधी का क्या विधान था??किस जुर्म की सज़ा मिलनेवाली थी? लेकिन अगले दिन दीपा के पती का निधन हो गया. अब जाँच और आगे टल गयी. समाज के नियम थे जो निभाने थे. 
दीपा के येभी ध्यान में आया की बैंक में पैसा बिलकुल नहीं था! गाडी तो दीपा अपने मायके में थी,तभी बिक चुकी थी! नौकरों ने आना बंद कर दिया. सब ज़ेवरात कहाँ गए,उसे कभी पता नहीं चला. बैंक के locker में कुछ भी नहीं था! यहाँ तक की दाल रोटी के भी लाले पड़ते दिखाई देने लगे! 


मकान किराए का था. मकान मालिक भला आदमी था. उसने रसोई में सामान भरवा दिया. ना जाने उसे कैसे इन सब हालात का पता चला?

पति के निधन के दो हफ़्तों बाद खून की जाँच करने की मोहलत मिली. दो दिनों बाद रिपोर्ट मिलनी थी. दीपा और बच्चों का डर के मारे हाल बुरा था! एक तो आर्थिक तौर से पति ने उन्हें बिलकुल निर्धन करके छोड़ा था!ऐसे में HIV positive आता है तो समाज भी धुत्कार देगा!! क्या होगा  भविष्य?कबतक ज़िंदगी मुहाल होगी? और इलाज के लिए पैसे कहाँ से आयेंगे??सारे बुरे विचार दीपा के दिलो दिमाग में आते रहे...कहते हैं,की,जो अपना मन अपने बारे में सोच लेता है,उतना बुरा तो दुश्मन भी नहीं सोच सकता!

ईश्वर की अनंत कृपा की जाँच निगेटिव आयी!इतने दिनों में एक तो अच्छी बात हुई! मकान मालिक ने तकरीबन छ: माह घर में बिना किराये के रहने की इजाज़त दे दी. दीपा ने १५००/- माह की नौकरी पकड़ ली और स्कूल में पढ़ते बच्चों ने ७५०/- रुपये माह की नौकरी कर ली! किसी तरह बच्चों के इम्तेहान पार पड़ गए...

अब मकान मालिक की बेटी हाथ धोके पीछे पड़ गयी घर खाली करने के लिए! २५००/- रुपये किराये का एक फ्लैट लिया जिसका छ: माह का किराया दीपा के भाई ने भर दिया.

इत्तेफ़ाक़ से दीपा के पति का एक plot था,जो उसके रहते बिक नहीं पाया था. दीपा के हाथ वो कागज़ात लग गए! दीपा के पिता ने अपनी ओरसे पूरी सहायता कर उस plot को दीपा के नाम करवा लिया. अब उसे बेचना और वो भी जल्दी,बेहद ज़रूरी था. इससे पहले की उसपे अन्य कोई अपना अधिकार माँग बैठे!!  

दीपा की  बहन भी अपनी तरफ से दीपा को आर्थिक तौरसे थोड़ी बहुत मदद करही रही थी. किसी तरह दौड़ धूप करके दीपा के भाई ने वो plot बिकवा दिया.... अब समय था,एक हलकी-सी चैन की साँस लेने का,की दीपा का भाई हार्ट attack से चल बसा ! और इस सदमे से परिवार अभी उभरा नहीं था,की, दीपाका बहनोई एक हादसे में चल बसा! दीपा के माता पिता पे अब और  दो बेवाओं की ज़िम्मेदारी आन पडी....एक अपनी बहू...एक अपनी बेटी,जो पती के निधन के बाद अपने मायके चली आयी. दीपा के सभी सहारे टूटते  गए!तीन बहन भाई.....और एक भी परिवार सम्पूर्ण नहीं...सुखी नहीं!

दूसरी ओर दीपा को पता चला की,नरेंद्र अभी भी उसकी आस लगाये बैठा है! 

क्रमश:






















मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

दीपा 10

( गतांक : नरेंद्र ने मुझे आश्वस्त किया!वक़्त इतना बेरहम नही हो सकता! हमें बार,बार मिलाके जुदा नही कर सकता!हमारा भविष्य अब एक दूजे से जुदा नही था! उसने मुझे पूरा यक़ीन दिलाया!
कितने महीनों बाद मुझे एक निश्चिन्तता भरी नींद  आयी!बस अब कुछ ही रोज़ का फासला था,मुझमे और मेरे सुनहरे,हँसते भविष्य में!मैंने अपने भयावह वर्तमान पे,नरेंद्र के सहारे विजय पा ली थी....!!".....अब आगे.)

दीपा के लिए वो दिन बड़े ही स्वप्निल थे! नशीले थे! नरेंद्र का संबल जो प्राप्त था! पर क़िस्मत को ये खुशियाँ मंज़ूर नही थीं! दीपा के पती ने बच्चों को हथिया लिया! और दीपा बच्चों के बिना रह नही सकती थी....बच्चे उसकी प्राथमिकता थे! अगर उसका पति एक अच्छा बाप होता तो भी और बात होती. वो तो बेहद सख्त,बेदर्द और बेज़िम्मेदार पिता था. पिता की दहशत के कारण बच्चों का क्या भविष्य होता,ये तो दीपा सोच भी नही सकती थी!

नरेंद्र का ख़याल छोड़ बेरहम यथार्थ को स्वीकार करने के अलावा उसके पास कोई चारा नही बचा. नरेंद्र फिरभी अपनी ज़िद पे अटल था..."मै इंतज़ार करुँगा...!" बार,बार दीपा को वो यही कहता रहता. लेकिन अब दीपा का निश्चय हो चुका था. उसने भी नरेंद्र को अपना अलग  भविष्य बनाने के लिए गुहार लगाना जारी किया!

अब दीपा का जीवन उसी नरक में सिमट के रह गया. वही मारपीट,वही मानसिक छल. पर दीपा अपने मक़सद से हिली नही. बच्चों की पढ़ाई और उनकी परवरिश....इसके अलावा अब जीवन में कुछ शेष नही था.

बच्चों को कई बार अपनी माँ के खिलाफ भड़काया जाता....कमरेमे बंद किया जाता,ताकि वो माँ से मिल न सकें....बच्चे हालात को खूब समझते थे. वो छुप-छुपके माँ का जनम दिन मनाते! मात्रु-दिवस मनाते!दीपा के लिए अब यही काफ़ी था.

एक बार दीपा को उसके पतिने लोहे की सलाख से  इतनी बेरहमी से पीटा,की,वो खूना खून हो गयी. उस वक़्त बच्चों ने अपनी माँ से कहा," माँ! हमें तुम्हारी ज़िंदगी प्यारी है! तुम्हारा ज़िंदा रहना हमारे लिए सब से अधिक मायने रखता है! हमारी पढ़ाई की चिंता किये बिना तुम चुपचाप,रात को यहाँ से भाग निकालो!"

उसी रात, दीपा, छिपते छिपाते घर से निकल गयी. वो रात उसने अपने एक दूर के रिश्तेदार के घर गुज़ारी. वो लोग उसे डॉक्टर के पास ले गए. टिटनस का इंजेक्शन लगवाया,तथा ज़ख्मों का इलाज कराया. बातों बातों में दीपा ने कहा:
" अडोस-पड़ोस के लोग कई बार मुझे ही दोषी पाते! उन्हें लगता, ये आदमी परिवार को इतना घुमाने फिराने ले जाता है! त्योहारों पे पत्नी को गहनों से लाद देता है! इतना शौकीन है! गाडी है,बंगला है,नौकर चाकर हैं...किसी बात की कमी नही है! ज़रूर कोई तो अंदरूनी बात होगी,जो ये आदमी इतना गुस्सा खा जाता है! कहीँ तो दीपा का क़ुसूर होगा!
लोगों को असलियत क्या पता? और मै किसे बताने जाती? कौन विश्वास रखता? मेरे दो बच्चे जो हो चुके थे!"

ऐसी ही नीरस ज़िंदगी बीतती गयी. चंद हफ्ते दीपा घर से दूर रहती,फिर बच्चों की ख़ातिर लौट आती. उसकी अपनी कोई आमदनी तो थी नही! ना कोई नौकरी करने की इजाज़त उसे देता!दीपा ने आगे बताया:
" इसी तरह एक बार बहुत पिटने के बाद मै माँ के घर चली गयी. एकाध माह हो चुका था,की, ख़बर मिली,मेरे पति बहुत बीमार हैं. अस्पताल में भरती कराया गया है. अब के बच्चे भी डर गए. बच्चों ने मुझे बुला लिया. मै चली गयी.
जिस रोज़ अस्पताल पहुँची,उसी रोज़ डॉक्टर ने मुझे अपने केबिन में बुलाया. ....ये कह के की उन्हें मुझ से कुछ बहुत ज़रूरी बात अकेले  में करनी है.पति की गंभीर हालत तो मुझे दिख ही रही थी. पैसा पानी की तरह बह रहा था. मै केबिन में गयी तो डॉक्टर बोले, मै बिना किसी लागलपेट के सीधी बात कह रहा हूँ.तुम्हारे  पति को AIDS है. उसके बचने की उम्मीद नही है. लेकिन तुम्हें तथा तुम्हारे बच्चों को तुरंत अपना चेकअप कराना होगा.HIV positive होने की शक्यता नकारी नही जा सकती...'
" मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी!  हे भगवान्! बस इतनाही होना बचा था? जाते,जाते हमें ये आदमी  क्या तोहफा दे चला??"
क्रमश:


शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

दीपा9

(गतांक :दीपा:" मैंने डिवोर्स  लेने से इनकार कर दिया. और चाराही नही था...!"

मै:" और नरेंद्र?? उसे क्या कहा??"

दीपा:" दिल पे पत्थर रख के मुझे उसे इनकार करना पडा....जहाँ तक बच्चों का सवाल था,मै भावावेग में कोई भी निर्णय लेना नही चाहती थी..."

मै:" ओह! तो नरेंद्र की क्या प्रतिक्रया हुई?"

दीपा:" नरेंद्र ने कहा,मै इंतज़ार करुँगा!"          अब आगे)

दीपा और मै घंटों बतियाते रहते.हम दोनों ही अतीत में खो जाते.दीपाके जीवन में नरन्द्र के प्यारकी शक्ती अथाह थी. इन सब घटनाओं के घटते,घटते नरेंद्र उसे मिलने आया. दोनों की मुलाक़ात,दीपाकी सहेली के घर हुई. उन्हें मिले कई माह हो चुके थे.दीपा को सामने पाते ही उसने बाहों में भर लिया!दीपा से कहा:"मैंने तुमें छोड़ देने के लिए नही थामा है.तुम मेरी ज़िंदगी का अविभाज्य हिस्सा बन चुकी हो!हरपल तुम्हारे संग हूँ.....रहूँगा!"
दीपा:" मैंने उसकी बाहों में अपनेआपको कितना महफूज़ पाया मै बता नही सकती!लगा,सारी मुश्किलें,सवालात अपनेआप हल हो जायेंगे! थोड़े से विश्वास की ज़रुरत है!नरेंद्र ने बच्चों को लेके मुझे निश्चिन्त करने के ख़ातिर कहा,की,वो अपनी जायदाद एक हिस्सा तुरंत बच्चों के नाम कर देगा और मुझे trustee बना देगा! बच्चों  के भविष्य को लेके मुझे होनेवाली हर चिंता का उसने निवारण कर दिया!
कितनी शक्ती थी उसके प्यार में! मेरा हर डर काफूर हो गया!सब कुछ सुनहरा नज़र आने लगा!

हमने जल्द से जल्द ब्याह कर लेने का निर्णय ले लिया!मै बादलों  पे उड़ने लगी.
ये बात जब मेरे पति के कानों पे जा पहुँची तो उसने अपना पैंतरा बदल दिया!उसने फिर न्यायलय में गुहार लगाते हुए कहा,की, बच्चों की माँ बच्चों के पालन पोषण ज़िम्मा नही ले सकती. वो कमाती नही, तो उनका भरण पोषण कैसे करेगी?बच्चों का हक़दार उसने खुद को बताया!
घबरा के मै फिर एकबार नरेंद्र की बाहों में सिमट आयी!वही रास्ता सुझाएगा.....सवालों के जवाब वही ढूँढ लेगा....
नरेंद्र ने मुझे आश्वस्त किया!वक़्त इतना बेरहम नही हो सकता! हमें बार,बार मिलाके जुदा नही कर सकता!हमारा भविष्य अब एक दूजे से जुदा नही था! उसने मुझे पूरा यक़ीन दिलाया!
कितने महीनों बाद मुझे एक निश्चिन्तता भरी नींद  आयी!बस अब कुछ ही रोज़ का फासला था,मुझमे और मेरे सुनहरे,हँसते भविष्य में!मैंने अपने भयावह वर्तमान पे,नरेंद्र के सहारे विजय पा ली थी....!!"
क्रमश:









बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

दीपा 8

( गतांक: और फिर नरेंद्र से बात होती. उसके ख़त मुझे एक सहेली के पते पे आते. उन्हें पढ़ती...उसकी बातें सुनती,तो सारा डर...अनिर्णय की अवस्था हवा हो जाती...लगता,उसके प्यार में वो शक्ती है,जिसके सहारे मै कठिन से कठिन समय का, मुसीबतों का मुकाबला कर सकती हूँ....यही आभास,यही विश्वास मेरे जीने का सहारा बन रहा था. नरेंद्र से दूर रहते हुए भी ज़िंदगी नरेंद्र से जुड़ गयी थी. नरेंद्र मेरा इंतज़ार कर रहा था....और कहता,की,ता-उम्र करेगा! और मुझे उसपे पूरा विश्वास था!उसका ख़याल आते ही मनसे सारी दुविधा दूर हो जाती. एक नयी फुर्ती नस नसमे दौड़ जाती...." अब आगे)

जो भी था,दीपा कश्मकश में ज़रूर थी. अहमदनगर में रहते हुए उसे सोचने का खूब समय मिला.......और  वो भी स्थिती से बाहर निकलके सोचने का...कौनसा पलड़ा भारी पड़ने वाला था? नरेंद्र के प्यार का या सारासार विचार शक्ती का? क्या सही था?

जितना अधिक गहराई  में जाके दीपा सोचती गयी, उतना अधिक दिलो-दिमाग चकराता गया...........

दीपा : " इन्हीं सब बातों के चलते मैंने डिवोर्स केस फ़ाइल कर दिया. माँ और पिता का वैसे तो विरोध था,लेकिन मै रोज़ रोज़ के पिटने से तंग आ चुकी थी. आखिर बरदाश्त की भी एक सीमा होती है. मुझे एक आस की किरन नज़र आ रही थी. शायद नरेंद्र के साथ जीवन बेहतर हो......!
केस चलता रहा महीनों...और अंत में जब फैसला सुनाया गया तो मै दंग रह गयी......मुझे मेरे पतिकी ओरसे केवल ३००/- माहवार मिलनेवाला था! मै और दो बच्चे उसमे कैसे गुज़ारा करते?"

मै: " लेकिन बच्चों की ज़िम्मेदारी तो नरेंद्र निभाने के लिए तैयार था! "

दीपा:" हाँ! तैयार था....पर ज़िंदगी का क्या भरोसा? गर भविष्य में हमारे रिश्तेमे खटास पड़ जाए तो? गर हमें और बच्चें हों और नरेंद्र के मन में तब पछतावा हो ,फिर क्या??मेरा लोगों परसे, रिश्तों परसे,जीवन परसे विश्वास उठता जा रहा था....कमसे कम अपने बच्चों के लिए मै एक सुरक्षित भविष्य चाहती थी..."

मै:" तो फिर?? हमें कहीँ तो विश्वास करना ही पड़ता है! जीवन में कुछ पाने के लिए कुछ दाँव पे भी लगाना पड़ता है!"

दीपा:" ये सब किताबी बातें हैं! हक़ीक़त की धरातल पे आके देखो तो मेरे बच्चे अपनी पिता की जायदाद से महरूम रह जाते,गर मै न्यायालय का फैसला मान लेती....उनका भविष्य, उनकी पढ़ाई लिखाई....इन सब बातों की मुझे सब से अधिक फ़िक्र थी.उनका क्या दोष था??मै अकेली उन्हें वो सब देनेमे समर्थ नही थी,जिसके वो हक़दार थे! "

मै:" तो क्या निर्णय लिया तुमने?"

दीपा:" मैंने डिवोर्स  लेने से इनकार कर दिया. और चाराही नही था...!"

मै:" और नरेंद्र?? उसे क्या कहा??"

दीपा:" दिल पे पत्थर रख के मुझे उसे इनकार करना पडा....जहाँ तक बच्चों का सवाल था,मै भावावेग में कोई भी निर्णय लेना नही चाहती थी..."

मै:" ओह! तो नरेंद्र की क्या प्रतिक्रया हुई?"

दीपा:" नरेंद्र ने कहा,मै इंतज़ार करुँगा!"
क्रमश:


मंगलवार, 25 जनवरी 2011

दीपा 7

इस कड़ी की देरीके लिए शर्मिंदा हूँ....तहे दिल से माफी चाहती हूँ.बेटे का ब्याह था...उसमे दिन रात का कोई होश नही रहा.
(गतांक: अबतक मुझे उसपे विश्वास हो गया था और मैंने अपने हालात उसके सामने खुलके बता दिए.

एक रोज़ हम चारों सिनेमा देखने गए थे. फिल्म के दौरान अचानक से उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया. मै रोमांचित हो उठी! फिल्म ख़त्म होने के बाद जब हम घर लौटे तो उसने मुझ से कहा,मै तुम से शादी करना चाहता हूँ. तुम्हारे बच्चों में भी मेरा मन रम गया है.....
मै दंग रह गयी!"......अब आगे.)

दीपा बता रही थी और मै सुन रही थी. आगे की बातें जान लेने का कौतुहल था...जिज्ञासा थी.
मै: "ओह! तो ?"
दीपा: " मै सुन के ख़ुश तो बहुत हुई. हम दोनों तथा बच्चे जब कभी इकट्ठे घूमने जाते या फिल्म देखने जाते तो मुझे एक सम्पूर्ण परिवार होने का एहसास हुआ करता. सिनेमा हॉल में वो घंटो मेरा हाथ पकडे रखता और मै रोमांचित हो उठती. एक पुरुष का स्पर्श कैसा होता है,इसका मैंने पहली बार अनुभव किया. हम बहुत करीब आ रहे थे. वो भी मेरे तथा बच्चों के साथ पूरी तरह घुलमिल गया था. मेरे जीवन की खलने वाली,अखरने वाली और फिर निराश करनेवाली कमी उसने दूर कर दी थी. मुझे अपने स्त्रीत्व का एहसास हो रहा था.
उसी साल ज़िद करके मैंने अजय को ब्याह के लिए राज़ी कर लिया था. उसने मेरी बात मान के ब्याह तो कर लिया लेकिन भावनात्मक तौर से वो अब भी मुझसे जुड़ा हुआ महसूस किया करता. उसके ब्याह के बाद  स्वयं मुझे बेहद अकेलापन महसूस हुआ.....एक नितांत खाली पन,जिसे नरेंद्र ने अपने वजूद से भर दिया. अजय की विरह वेदना मै भूल चली. "

मै:" लेकिन उसके सवाल का क्या जवाब दिया?"

दीपा:" बहुत मोह हुआ.होना कुदरती भी था.इस बंदी शाला से मुक्ती की एक हल्की-सी उम्मीद किरन बनके चमकने लगी.  मैंने उस दिशामे सोचना शुरू कर दिया. मेरे पति महोदय कभी कबार आ जाया करते. उन्हें किसी बात की भनक नही पडी. लेकिन एक साल होने के पश्च्यात उन्हों ने हमें वापस पुणे ले जानेका निर्णय ले लिया.
मै मनही मन उनसे डिवोर्स लेनेकी दिशामे विचार करना शुरू किया. नरेंद्र के प्यार में एक मदहोशी थी. मुझे हर मुश्किल आसान लग रही थी.बड़े दुखी मन से नरेंद्र से विदा ली. मैंने उसे विश्वास दिलाया की,मै उस दिशामे ठोस क़दम उठा लूँगी."

मै:" और तुम लोग पुणे लौट आए...उफ़! फिर उसी नरक में!!"

दीपा :" तो और क्या कर सकते थे?फिलहाल तो मै अपने पति की बंधक ही थी! लेकिन पुणे पहुँच के हम दोनों में बहुत अनबन हुई. वही मार पीट. मै अपने बच्चों समेत अहमदनगर चली आयी,जहाँ मेरे पिता की पोस्टिंग थी. पिताजी ने बच्चों का वहीँ के स्कूल में दाखिला करवा दिया. नरेंद्र से खतोकिताबत जारी थी. उसके फोन भी आया करते. वो हमेशा मेरा धाडस बंधाता. हमारे रिश्ते को दो साल हो गए थे. अहमदनगर में रहते,रहते एक साल बीत गया. और पारिवारिक ज़ोर ज़बरदस्ती के कारण मुझे दोबारा पुणे लौटना पडा.

अब मै निराश होने लगी. इस जीवन को छोड़ नरेंद्र के साथ उर्वरित ज़िंदगी बिताना मुश्किल नज़र आने लगा. सब से अधिक चिंता मुझे बच्चों की होती...खासकर बिटिया की. बच्चों को समाज में ताने सुनने पड़ेंगे...स्कूल में अपमानित होंगे. बड़े होने बाद बिटिया के ब्याह में मुश्किलें आ सकती थीं. समाज को किस मूह से असलियत बताती? और जहाँ जनम देनेवालों ने विश्वास नही किया वहाँ समाज क्या विश्वास करता? मै बदचलन कहलाती. लोगों ने कहना था,ये अपनी हवस का शिकार हो गयी...बच्चों के बारेमे भी नही सोचा...कलको शायद मेरे बच्चे भी यही कहते!!क्या करूँ? क्या न करूँ??

और फिर नरेंद्र से बात होती. उसके ख़त मुझे एक सहेली के पते पे आते. उन्हें पढ़ती...उसकी बातें सुनती,तो सारा डर...अनिर्णय की अवस्था हवा हो जाती...लगता,उसके प्यार में वो शक्ती है,जिसके सहारे मै कठिन से कठिन समय का, मुसीबतों का मुकाबला कर सकती हूँ....यही आभास,यही विश्वास मेरे जीने का सहारा बन रहा था. नरेंद्र से दूर रहते हुए भी ज़िंदगी नरेंद्र से जुड़ गयी थी. नरेंद्र मेरा इंतज़ार कर रहा था....और कहता,की,ता-उम्र करेगा! और मुझे उसपे पूरा विश्वास था!उसका ख़याल आते ही मनसे सारी दुविधा दूर हो जाती. एक नयी फुर्ती नस नसमे दौड़ जाती...."
क्रमश:

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

दीपा 6

(गतांक: मेरे बारे में ये बात मेरी उस सहेली ने मेरे बचपन के दोस्त,अजय को भी बता दी. अजय ने ब्याह नही किया था. वो अचानक एक दिन मेरे पास पहुँचा और कहने लगा, तुम अपने बच्चों को लेके इस घर से निकल पड़ो. छोड़ दो ऐसे आदमी को...अलग हो जाओ...मै तुम से ब्याह करूँगा....अब तो मेरे पास अच्छी खासी नौकरी भी है. तुम्हारे बच्चों को पिता का प्यार भी मिलेगा....!"
मै:" ओह! अजय ने तो सच्चा प्यार निभाया! तुम्हारे साथ  को परे कर खड़ा हो गया! आगे क्या हुआ?"
दीपा:" बताती हूँ...बताती हूँ...!"
अब आगे....)

दीपा प्रसंगों का नाट्यमय रीती से बयान कर रही थी.  मै एकाग्रता से सुन रही थी. कैसी अजीबोगरीब ज़िंदगी थी....!
दीपा: " अजय ने मुझ से बहुत इसरार किया की,मै उसके साथ चल पडूँ.  अजीब मन:स्थिती हो रही थी मेरी! एक ओर मोह हो रहा था की,सबकुछ छोड़,अपने बच्चों के साथ चली जाऊं. दूसरी ओर ये भी समझ में आ रहा था,की, ये सब इतना आसान नही.
अजय ने अपने घर पे केवल उसकी भाभी को बताया था,पर भाभी ने अन्य सदस्यों को आगाह कर दिया. अजय की माँ ने उधम मचा दिया. अजय को इन सब बातों का पता फोन के ज़रिये चल रहा था. उसकी माँ का रक्तचाप बढ़ गया और उसे अस्पताल में भरती कराया गया. अजय उसका सब से लाडला बेटा था. अजय को भी माँ बहुत प्यारी थी. अंत में अजय ने मुझे और दो तीन साल रुकने के लिए इल्तिजा की और चला गया.
इधर मेरे पती को लगातार ये शक हो रहा था की मैंने बहुत से लोगों को उस घटना के बारेमे बताया होगा या बताने का इरादा होगा. उस ने मेरी और ज़्यादा मार पिटाई शुरू कर दी. घर से बाहर निकलने पे पाबंदी लगा दी. घर में सास ससुर थे. सब तमाशबीन बने बैठे रहे. बात क्या हुई थी,ये तो किसी को नही पता था. लेकिन मेरी पिटाई होना कोई नयी बात तो थी नही! बच्चे डरे सहमे रहते.
एक दिन छिपते छुपाते मैंने अजय को एक ख़त लिखा और पोस्ट करने के लिए मेरी उसी सहेली के पास दे दिया. मैंने लिखा,
"प्रिय अजय,
मैंने तुम्हारी बातों पे काफ़ी गौर किया. सब छोड़ छाड़ के, बच्चों समेत तुम्हारे पास रहने आना बेहद मुश्किल है. मेरा पती मुझे डिवोर्स तो देगा नही. हम लोगों को न जाने समाज के कितने ताने सुनने पड़ें! साथ बच्चों को भी लोग ताने मारेंगे! दुनिया ऐसे मामलों में बड़ी बेरहम होती है. उनका तो भविष्य बिगड़ जायेगा.
तुम अपना ब्याह कर लो और ख़ुश रहो. "

मै:" वैसे तो तुमने ठीक निर्णय लिया. गर डिवोर्स मुमकिन होता  तो बात फर्क थी.  अजय को दुःख तो हुआ होगा!"
दीपा:" हाँ! अजय को दुःख हुआ. उस ने शादी नही की.उसे हरवक्त मेरा इंतज़ार रहता. उस के ख़त मुझे बाकायदगी से मिलते रहे. सहेली के पते पे वो ख़त लिखता था.
इन्हीं सब बातों के चलते मेरे पती ने हमें अहमदाबाद ले जाके रखने का फैसला कर लिया. किसी को बताने की इजाज़त नही थी मुझे,लेकिन मैंने अपने माता-पिता को बता दिया. वो लोग मिलने आए. इतनी तसल्ली हुई की,कमसे कम उन्हें तो पता है!इस इंसान का तो कतई विश्वास नही था. कुछभी कर सकता था!

कुछ ही दिनों में हम अहमदाबाद रहने चले गए. बच्चों को वहाँ स्कूल में दाखिल किया. पती अहमदाबाद आते जाते रहते. जब भी आते,मेरी किसी न किसी बात पे पिटाई हो जाती.हमारे सामने वाला परिवार बहुत अच्छा था. उनका बड़ा बेटा ऐसे में मेरे बच्चों को स्कूल छोड़ आया करता.
ऐसे ही एक दिन पती महाशय मुझे मारपीट के चल दिए. उस दिन पड़ोस में कुछ धार्मिक कार्यक्रम था. अचानक से मेरे दरवाज़े पे एक अजनबी आवाज़ सुनायी दी. आवाजमे बेहद कशिश थी. कुछ पल मै असंजस में पड़ गयी.कौन हो सकता है? इतने में उस व्यक्ती ने कहा, मुझे तुम्हारे पड़ोसी रंजन ने भेजा है! आज उसे बच्चों को स्कूल ले जाने का समय नही है...मै ले जाता हूँ! आप डरिये मत और दरवाज़ा खोल दीजिये!
मैंने दरवाज़ा खोला. एक विलक्षण आकर्षक व्यक्तिमत्व का आदमी सामने खड़ा था!उस ने मेरे बच्चों को स्कूल पहुँच भी दिया और लेके भी आ गया. साथ,साथ मेरे चोटों पे लगाने के लिए मरहम भी ले आया. मुझे इतनी चोट आयी कैसे ये बात उसकी समझ के परे थी और मै बताने में अपनी तौहीन समझती थी!
लेकिन उस दिन के बाद से हम दोनोमे दोस्ती हो गयी जो धीरे,धीरे घनिष्टता  में परिवर्तित होने लगी.  मुझे उसका सहवास अच्छा लगने लगा. बच्चे भी उसके साथ हिलमिल गए. वो उनकी पढ़ाई भी ले लेता....हम सब को घुमाने भी ले जाया करता.
अबतक मुझे उसपे विश्वास हो गया था और मैंने अपने हालात उसके सामने खुलके बता दिए.

एक रोज़ हम चारों सिनेमा देखने गए थे. फिल्म के दौरान अचानक से उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया. मै रोमांचित हो उठी! फिल्म ख़त्म होने के बाद जब हम घर लौटे तो उसने मुझ से कहा,मै तुम से शादी करना चाहता हूँ. तुम्हारे बच्चों में भी मेरा मन रम गया है.....
मै दंग रह गयी!"