गुरुवार, 1 जुलाई 2010

बिखरे सितारे ३ ) वो दिन भी क्या दिन थे !

धीरे, धीरे चलती बैलगाडी, तकरीबन एक घंटा लगाके घर पहुँची...दादी उतरी...बहू की गोद से बच्ची को बाहों में भर लिया...दादा भी लपक के ताँगे से उतरे...दोनों ताँगों को हिदायत थी कि,एक आगे चलेगा,एक बैलगाडी के पीछे...आगे नही दौड़ना..! तांगे वालों को उनकी भेंट मिल गयी...दोनों खुशी,खुशी, लौट गए...



बच्ची को दादी ने तैयार रखी प्राम में रखा...और दादा ने अपने पुरातन कैमरा से उसकी दो तस्वीरें खींच लीं...उसने हलकी-सी चुलबुलाहट की,तो दादी ने तुंरत रोक लगा दी..वो भूखी होगी...बाहर ठंड है...उसे अन्दर ले चलो...अच्छे -से लपेट के रखो...



बहू बच्ची को दूध पिला चुकी,तो दादी,अपनी बहू के पास आ बैठीं...बोलीं," तुम अब आराम करो..जब तक ये सोती है,तुम भी सो जाना..और इसे जब भूख लगे,तब दूध पिला देना..जानती हो, बाबाजानी तो ( उनके ससुर ) घड़ी देख के मेरे बच्चे को मेरे हवाले करते..अंग्रेज़ी नियम...बच्चे को बस आधा घंटा माँ ने अपने पास रखना होता..बाद में उसे अलग कमरे में ले जाया जाता..और चाहे कितना ही रोये,तीन घंटों से पहले मेरे पास उसे दिया नही जाता...अंतमे मेरा दूध सूख गया..जब ससुराल से यहाँ लौटी तो हमने एक माँ तलाशी, जिसे छोटा बच्चा था...हमारे पास लाके रखा..उसकी सेहत का खूब ख़याल रखते...वो अपने और मेरे,दोनों बच्चों को दूध पिला देती...तुम अपना जितना समय इस बच्ची को देना चाहो देना.."



और इस तरह,उस नन्हीं जान के इर्द गिर्द जीवन घूमने लगा..दादा-दादी उसे सुबह शाम प्राम में रख, घुमाने ले जाया करते...उन्हें हर रोज़ वो नयी हरकतों से रिझाया करती...कभी वो चम्पई कली लगती तो, तो कभी चंचल-सी तितली...! उसके साथ कब सुबह होती और कब शाम,ये उस जोड़े को पता ही नही चलता...



गर उसे छींक भी आती तो दादा सबसे अधिक फिक्रमंद हो जाते...एक पुरानी झूलती कुर्सी थी...दादी उसे उस कुर्सी पे लेके झुलाती रहती...और पता नही कैसे, लेकिन उस बच्ची को एक अजीब आदत पड़ गयी...झूलती कुर्सी पे लेते ही उसपे छाता खोलना होता ...तभी वो सोती...! उस परिवार में अब वो कुर्सी तो नही रही, लेकिन वो वाला..दादी वाला, छाता आज तलक है...



दिन माह बीतते गए...और साथ,साथ साल भी...



बच्ची जब तीन साल की भी नही हुई थी, तो उसके पिता को आंध्र प्रदेश में कृषी संशोधन के काम के लिए बुलाया गया..वहाँ दो साल गुज़ारने के ख़याल से युवा जोड़ा अपनी बच्ची के साथ चला गया...दादा-दादी का तो दिल बैठ गया...



बच्ची का तीसरा साल गिरह तो वहीँ मना..दादी ने एक सुंदर-सा frock सिलके पार्सल द्वारा उसे भेज दिया..उस frock को उस बच्ची ने बरसों तक सँभाले रखा...उसके बाद तो कई कपड़े उसके लिए उसकी माँ और दादी ने सिये..लेकिन उस एक frock की बात ही कुछ और थी...



इस घटना के बरसों बाद, दादी ने एक एक बड़ी ही र्हिदय स्पर्शी याद सुनाई," जब ये तीनो गए हुए थे,तो एक शाम मै और उसके दादा अपने बरामदे में बैठे हुए थे...एकदम उदास...कहीँ मन नही लगता था..ऐसे में दादा बोले...'अबके जब ये लौटेंगे तो मै बच्ची को मैले पैर लेके चद्दर पे चढ़ने के लिए कभी नही रोकूँगा...ऐसी साफ़ सुथरी चादरें लेके क्या करूँ? उसके मिट्टी से सने पैरों के निशाँ वाली एक चद्दर ही हम रख लेते तो कितना अच्छा होता....' और ये बात कहते,कहते उनकी आँखें भर, भर आती रहीँ..."



जानते हैं, वो बच्ची इतनी छोटी थी,लेकिन उसे आजतलक उन दिनों की चंद बातें याद हैं...! कि उसकी माँ के साथ आंध्र में क्या,क्या गुजरा...वो लोग समय के पूर्व क्यों लौट आए...और उसके दादा दादी उसे वापस अपने पास पाके कितने खुश हो गए...! वो दिन लौटाए नही लौटेंगे..लेकिन उन यादों की खुशबू उस लडकी के साँसों में बसी रही...बसा रहा उसके दादा दादी का प्यार...



क्रमश:

13 टिप्‍पणियां:

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

दादा और दादी का प्यार चाहे जितनी उम्र हो जाए आदमी भूल नही पाता..इतना दिल से चाहते है माँ और बाप की चाहते भी कम पड़ जाती है...बढ़िया कहानी अगली कड़ी का इंताज़ार है

निर्मला कपिला ने कहा…

अरे इतनी अच्छी कहानी मे भी क्रमश: ??????? ये मुश्किल है आगली कडी का इन्तजार रहेगा। बधाई

उम्मतें ने कहा…

हम अभी सिर्फ पढ़ रहे हैं !

ज्योति सिंह ने कहा…

jindagi ke kitne mod hai aapki kahani me ,har baar hi kuchh naye rang liye aati hai .sundar likhti hai aap ,asal se jyada sood pyara hota hai .

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

आपने इल्तिजा है कहकर मुझे छोटा कर दिया... बिखरे सितारे एक धारावाहिक के रूप में था और मैं बीच में जुड़ा था. पढकर मुझे अच्छा लगा,लेकिन कथा की तारतम्यता नहीं सहेज पाया. मेरे लिए कोई भी पोस्ट पढना सिर्फ टिप्पणी देने की रस्मअदाई तक सीमित नहीं है. पढना मतलब पढना... चलिए अच्छा हुआ आपने दुबारा शुरू किया है. अब आपको शिकायत नहीं रहेगी.. और हाँ आप कलाकार हैं और मैं कलाकार की इज़्ज़त करता हूँ, इसलिए इल्तिजा की बात कभी मत कीजिएगा, मुझे अच्छा नहीं लगेगा.

Apanatva ने कहा…

bahut anhona sa pyaa tareeka hai aapkee lekhan shailee me humko bandhe rakhata hai.........

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

श्रंखला सही चल रही है!

Ashish (Ashu) ने कहा…

अहा..जल्दी कीजिये अगली कडी भी प्रकाशित कीजिये..बहुत अच्छी लगी आपकी ये कहानी..

दीपक 'मशाल' ने कहा…

हमेशा की सी रवानगी दिखी.. रोचक है.. कुछ शब्द जैसे प्राम(बच्चों को बाहर ले जाने के लिए इस्तेमाल कि जाने वाली हाथ गाड़ी) को एकबार हिन्दी में समझाकर लिखें तो ज्यादा लोग समझ सकेंगे..

arvind ने कहा…

बढ़िया कहानी अगली कड़ी का इंताज़ार है .....

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

दादा और दादी का प्यार, बच्चे का सबसे बड़ा उपहार!

रचना दीक्षित ने कहा…

दादा और दादी का प्यार......,बढ़िया कहानी,अगली कड़ी का इंताज़ार है.

Asha Joglekar ने कहा…

अगली कडी के इन्तज़ार में । कहानी अच्छी जा रही है । भारत के अधिकांश नारियों की कहानी ।