बुधवार, 4 अगस्त 2010

बिखरे सितारे:अध्याय ३ इल्ज़ामे बेवफाई..


(गतांक :बैठे,बैठे एक दिन मैंने किसी नेट वर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाल दिया...मै जो कुछ करती,वो सब लिखा..और मेरा contact नंबर  भी दिया ....सोचा, गर फ्री lancing का तरीका अपना के काम किया जाय तो ठीक रहेगा..नही पता था,की, मुझे इसके क्या परिणाम भुगतने पड़ेंगे..ख्वाबो-ख़याल में जो नही सोची थी, ऐसी परेशानियों का एक सिलसिला मेरे इंतज़ार में था...अब आगे: इस किश्त से तीसरा और  आखरी अध्याय शुरू हो रहा है.गौरव की सेवा निवृत्ती के बाद पूजा की ज़िंदगी का यह अहम हिस्सा है ).

 जीवन के इस हिस्से पे लिखना सबसे अधिक कठिन  है मेरे लिए..इतनी ठहरी  हुई ज़िंदगी..कितने छंद रहे मेरे..लेकिन इतनी लम्बी कालावधी के बाद इन्हीं छंदों को बढ़ाते हुए व्यावसायिक रूप देना नामुमकिन-सा नज़र आ रहा था मुझे..

केतकी के मेल का रोज़ इंतज़ार रहता मुझे..नही,उसकी शादी के बाद,उसकी कभी चिंता नही हुई मुझे..चश्मे-बद-दूर! उसका हमसफ़र बेहद संजीदा था..है..बहुत खुला,दोस्ती भरा रिश्ता..लेकिन वो इतनी दूर..मेरे पहुँच के परे लगती मुझे,की,मै अपनेआप  को बेबस महसूस करती..जानती थी की,मेरी सेहत देखते हुए,मै उसके घर कभी न जा पाऊँगी..

ऐसी ही एक तनहा रात ....करवटें बदल,बदल बीत रही थी...अंत में मै उठी और  इस रचना में अपना दर्द उंडेल दिया..बहुत दिनों से उसकी कोई मेल मुझे नही   मिली थी...मन बहुत ही उदास था..


  तुझसे जुदा होके,
जुदा हूँ,मै ख़ुद से ,
यादमे तेरी, जबभी,
होती हैं नम, पलकें मेरी,
भीगता है सिरहाना,
खुश रहे तू सदा,
साथ आहके एक,
निकलती है ये दुआ

जहाँ तेरा मुखड़ा नही,
वो आशियाँ मेरा नही,
इस घरमे झाँकती
किरणों मे उजाला नही!
चीज़ हो सिर्फ़ कोई ,
उजाले जैसी, हो  जोभी,
मुझे तसल्ली नही!

वार दूँ, दुनिया सारी,
तुझपे  मेरी,लम्हा घड़ी,
तू नज़र तो आए सही,
कहाँ है मेरी लाडली..
ये आँखें भीगी, भीगी,
कर लेती हूँ बंदभी,
तू यहाँसे हटती नही...!

मेरी गिरती हुई मानसिक अवस्था को देख, माँ ने ज़िद की के मै किसी अच्छे मानसोपचार तग्य के पास जाके सलाह मशवरा लूँ.. मै राज़ी हो गयी  ..दवाईयाँ भी शुरू हो गयीं..अपनी नानी से मिलने डॉक्टर  हर हफ्ते हमारे घरके करीब आते रहते..वहाँ से मै अपना ड्राईवर गाडी भेज अपने यहाँ बुला लेती. उनका कहीँ क्लिनिक नही था..या तो वो अपने घरपे मरीज़ को देखते या फिर मरीज़ के घर जाते..

मैंने जिस नेटवर्क पे अपना वर्क प्रोफाइल डाला था,वहाँ से तो निराशाही हाथ लग रही थी..कई बार बकवास पोस्ट्स आती और उन्हें डिलीट करने के लिहाज़ से मै उसे खोल लिया करती..मैंने चंद दिनों के भीतर वहाँ से अपना फोन नम्बर तो हटा दिया था..लेकिन कुछ लोगों के हाथ वह लग गया था..पर  यह भी सच था..मेरा नम्बर हासिल करना कठिन नही था..मै अपने काम के लिहाज़ से मौक़ा मिलने पे,प्रेज़ेंटेशन  देती रहती...अपने विज़िटिंग कार्ड्स भी देती रहती..कई बार मेरी कुछ गद्य/पद्य  रचनाएँ, किताब या पत्रिकाओं के ज़रिये किसी के हाथ लग जाती..कभी,कभी सम्मलेन   में सहभागी होने के लिए भी फोन आते..

एक दिन गौरव के रहते एक फोन आया और उसे गौरव ने रिसीव किया..और गुस्से में आके पटक भी दिया..हम दोनों कहीं बाहर जानेवाले थे..फोन फिर बजा..फिर गौरव ने उठाया..तमतमा के फिर से  पटक  दिया..तीसरी बार मै पास खड़ी थी,सो मैंने उठा लिया..किसी सम्मलेन की इत्तेला और आमंत्रण देने के लिए यह फोन बज रहा था..मैंने शांती से जवाब दे दिया:" इस वक़्त मै अपने परिवार के साथ व्यस्त हूँ...आप फिर कभी फोन करें..."मैंने भी रख दिया..

गौरव दुसरे दिन लौट गए..मैंने  रात ८ बजेसे लेके ११  बजे तक नियमसे लेखन करना जारी किया था..सलाह मेरे डॉक्टर की थी..उसी दिन रात ९ बजे के करीब एक फोन आया,जिसे मेरी रात दिनकी नौकरानी ने उठाया..जब उसने आके मुझसे कहा,तो मैंने जवाब दिया:" तू उनसे  कह दे मै व्यस्त हूँ...कल सुबह १० या ११ बजे फोन करें.."

 लेखन ख़त्म कर मै  सोने चली गयी.और  फोन बजा..मैंने कहा:" माफ़ करें,देर हो गयी  है ..सोना चाहती हूँ.."
इतना कह मैंने रिसीवर रख दिया..फोन फिर बजा..इस वक़्त मैंने बिना बात किये बंद कर दिया..यह लैंड लाइन का नंबर था..कुछ रोज़ पहले ही लगा था..उसमे उपलब्ध सुविधाएँ मैंने नही देखी थीं..इन जनाब को पता नही क्या सूझ गयी थी,की,वो करतेही चले जा रहे थे..अंत में मैंने उसे एक रजाई के नीचे दबा दिया..! उसे स्विच ऑफ़ कर सकते हैं,यह दूसरे दिन मेरे डॉक्टर ने मुझे बताया..मैंने सहज भाव में उन्हें रातवाली घटना बता दी थी..

तीन दिनों बाद गौरव का फिर आना हुआ..हम दोनों किसी दोस्त के घर भोजन के लिए गए..वहाँ देर लगते देख मै पहले निकल आयी...मेरा भाई मुझसे कुछ देर मिलने आना चाह रहा था..हमारी बिल्डिंग के लिफ्ट के बाहर ही भाई और उसके साथ अपनी बहन को भी देख मै कुछ हैरान भी हुई और ख़ुश भी..बहन के आने का मुझे कोई संदेसा,अंदेसा नही था..

हम तीनो जाके मेरे कमरे में बैठ गए..बहन बोली: "आपसे कुछ बात करनी है..जीजाजी का कहना है,की,आप रात बेरात गैर मरदों से बातें करती हैं..लेकिन गर आपको सच में किसी से emotional attachment है,तो हम आपका साथ देंगे.."
मै हैरान रह गयी..बोली:" क्या बात करते हो? ऐसा कुछ भी नही है...! होता तो सबसे पहले तुम दोनों को और माँ को बता देती..किसी सती सावित्री का अभिनय नही कर रही हूँ...मुझे कभी कोई मिलाही नही..!"

मै अपना जुमला ख़त्म ही कर रही थी,की,गौरव वहाँ पहुँच गए...अपने कमरे से कुछ कागज़ के परचे उठा लाये...बोले:" इसपे सभी नंबर और समय दर्ज है...सब अपनी आँखों से देख लो...इन में कई नंबरों की तहकीकात भी हो चुकी है..."
कहते हुए उसने परचे मेरे सामने धर दिए..सच तो यह था,की,उसमे से एकभी नंबर मेरे परिचय का नही था..! इसके अलावा मेरे मोबाईल पे आए और  किये गए फोन भी इनके पास दर्ज थे! इन में भी ज़्यादातर नंबर मेरे परिचित नही थे..मैंने गर किये भी  होते तो,उन्हें याद रखना मुमकिन न था..

गौरव को मेरी किसी बात पे यक़ीन नही हो रहा था..मेरे छोटे भाई बहन, घरकी नौकरानी, ड्राईवर ...इन सब के आगे मुझे ज़लील करने से पहले गौरव ने एक बार सीधे मुझसे बात तो करनी थी..यह बातें मेरे मन ही में रह गयीं...सुबह तडके गौरव चला गया...और कह गया की,अब वो मुझ से रिश्ता रखना नही चाहता..

दिनमे ११ बजे डॉक्टर आने वाले थे..उस समय भाई  वहीँ था...डॉक्टर से बोला:" मै अब जाता हूँ...शायद यह मेरे सामने खुलके बात नही करेगी.."
मैंने तो बिस्तर ही पकड़ लिया था..सर दर्द से फटा जा रहा था..पर अपने भाई को मैंने रोक लिया,कहा:" तू कहीँ नही जाएगा...यहीं बैठ..मुझे कुछ छुपाना नही है..छुपाने जैसा कुछ हैही नही..!"
मै बेतहाशा रोने लगी...इस तरह का इलज़ाम मेरी कल्पना के परे था..क्या से क्या हो गया था..जिस परिवार के ख़ातिर ,बच्चों की ख़ातिर मै हर तकलीफ़ सह गयी,उनमे से कोई मेरे पास न था..क्या करूँ? क्या करूँ? कहाँ  जाऊं? कौनसी ऐसी जगह थी इस दुनियामे,जिसे मै अपना कह सकती थी? जहाँ से निकल जाने के लिए मुझे कोई न कहता? मेरी बेटी के ससुरालवाले क्या सोचेंगे..?

यहभी नही जानती थी,की,यह तो एक भयानक सिलसिले की शुरुआत भर है....

क्रमश:

8 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

संवेदनशील प्रस्तुति।

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार मे आपका योगदान सराहनीय है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत बढ़िया संस्मरण और सुन्दर कविता!

उम्मतें ने कहा…

मुझे लगता है कि पिछली बार ये संस्मरण यही से शुरू हुआ था मेरे लिए ! इसके बाद की सारी कड़ियाँ पढ़ी हैं मैंने !

शारदा अरोरा ने कहा…

मेरे घर में झाँकती किरणों में उजाला नहीं ...आह ये पंक्तियाँ वियोग का कितना बड़ा दुःख बयाँ करती हैं । और फिर बाकी कथा जैसे क़दमों तले की जमीन ही खिसका दी गयी हो । कहने के लिए कुछ भी नहीं है बचा ।

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

hmm!! jindagi bhi kya mod dikhati hai................

dekhen aage kya hota hai/

ज्योति सिंह ने कहा…

वार दूँ, दुनिया सारी,
तुझपे मेरी,लम्हा घड़ी,
तू नज़र तो आए सही,
कहाँ है मेरी लाडली..
ये आँखें भीगी, भीगी,
कर लेती हूँ बंदभी,
तू यहाँसे हटती नही...!
आज तो सीधे आपकी कविता पर नजर पडी और पढकर मै भाव विभोर हो उठी ,

Manish ने कहा…

ये जो बिना मतलब के इल्जाम थोप दिये जाते हैं… कितना बुरा लगता है…
कितना भोलापन था कि रोना शुरू कर दिया था… दो तीन देना चाहिये था जमा के…

किसी बात की हद भी होती है… कोई बात किसी को बुरी लगती है तो साफ साफ आकर बोले… पूरी डाटा शीट दिखाने की क्या ज़रूरत थी…

कितनी बेतुकी हरकत थी यह… जब किसी पर विश्वास नही करने की ठान ही ली है तो कोई क्या करे?