( गतांक: तरूणी की हालात अब मुझसे देखी नही जाती...दृश्य की चौखट बदलनी होगी. उसके प्रियतम को कोई नाम देना होगा. तभी तो वो उसे खोज सकेगी!!क्या नाम होगा उसका??...अब आगे पढ़ें.)
सिर्फ नाम नही...उसे एक चेहरा भी देना होगा! आदित्य ...उसका नाम आदित्य होगा...होगा नही,था...है! चेहरा?
अब वो युवती समंदर के किनारे खड़ी है. फिर रेत पे बैठ जाती है. तर्जनी उठाके वो एक चेहरा गीली रेत पे चित्रित करती है. मुझे साफ़ नज़र नही आता. फिर वो चेहरा एक शरीर बनता है. अब एक पुरुष का बुत दिखाई दे रहा है. नही...ये बुत नही,जीता जागता पुरुष है! उस लडकी की परस्तिश ने उस बुत में जान डाल दी!! उस महजबीं ने अपने दिलरुबा के आगे सजदा किया और करती चली गयी. बंदगी का हक़ वो निभाती गयी...उसकी आरज़ू रंग लाई..अब हिज्र की सदी मुख़्तसर हुई... पूरब में सूरज का लाल गोला निकल रहा है,जिससे पश्चिमा भी रक्तिम हो रही है. उस पार्श्वभूमी पे उस तरुण तरूणी की कया काली-सी परछाई की भांती नज़र आ रही है.
ये मिलन की घड़ी है! एक परछाई ने बाहें फैलाई...दूसरी उसमे खो गयी! तरूणी की कोख से अब गर्भ के जनम का समय आ गया है..सेहर होते,होते,उष:काल के साथ साथ एक नए युग की शुरुआत होगी.
मै तृप्त हूँ! मैंने आँखें मूँद ली हैं...! अपने बालों में साजन की उंगलियाँ महसूस कर रही हूँ...आदित्य मेरे बालों में उंगलियाँ पिरो रहा है...कानों में शहद घोलता,मेरा नाम पुकार रहा है...एक नाम नही...कई नाम! बिछड़े युगों की याद दिलाते हुए...आनेवाली सदियों का एहसास करानेवाले!! मेरे नामों में कितना संगीत है,ये जब तुम उच्चारण करते हो तो आभास होता है! ये संगीत भैरवी बनेगा! नया आगाज़ होगा! नए जन्मे जीवन के लिए सुबह लोरी गायेगी! शबनम होंट चूमेगी! लेकिन जब किसी का जन्म होगा तब और कोई बिदा लेगा! लडकी का इस दुनिया से पुनश्च बिदा होने का समय आ गया है!वो प्रकृती है..वो चिरयौवना है...वो रात है..उसका विनाश नही होता...सिर्फ रूप बदलता है..
हाँ ! मै रात हूँ! नीरवता में मेरा बसर होता है...नीरवता से रहगुज़र करती हूँ! सन्नाटा सुनती हूँ,जीती हूँ...पल,पल,पहर,पहर गुज़रती जाती हूँ!मेरे मुक़द्दर में सेहर है...क्योंकि मेरे गर्भ में दिन है....दिन है,क्योंकि आदित्य है. जब पूरब में लालिमा छाती है...खिरामा,खिरामा रंग बिखरता है,तो मुझे समर्पण करना ही होता है. स्याह अंधेरों में सितारे मेरा सिंगार हैं! चाँदनी रातों में चाँद मेरे माथे का झूमर! चिरयौवना दुल्हन हूँ,फिरभी मर मिटती आयी हूँ युगों से! रूप बदलती हूँ...सदियों से!
समाप्त
( मुझे ये सपना आया था,जिसे मैंने नींद खुलते ही शब्दांकित किया! सपना क्या था,एक अजीब, जीवंत अनुभव था!)
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31 टिप्पणियां:
क्या कहूँ शब्द भी कम पड़ रहे है
.......बेहद प्रभावशाली
लेखनी चलचित्र की तरह बयान करती जा रही है , सुन्दर पकड़ ...मैं कुछ पंक्तियाँ लिखती हूँ ..शमा जलती है सहर होने तक ...शमा की किस्मत में सुबह का सूरज ही नहीं ...मगर आपकी पंक्तियाँ राह दिखाती प्रतीत होती हैं , रात को तो विलीन होना होता है ...सिर्फ रूप बदलता है , या यूं भी कह सकते हैं कि दृश्य बदलता है ...
मै रात हूँ! नीरवता में मेरा बसर होता है...नीरवता से रहगुज़र करती हूँ! सन्नाटा सुनती हूँ,जीती हूँ...पल,पल,पहर,पहर गुज़रती जाती हूँ!मेरे मुक़द्दर में सेहर है...क्योंकि मेरे गर्भ में दिन है....दिन है,क्योंकि आदित्य है. जब पूरब में लालिमा छाती है...खिरामा,खिरामा रंग बिखरता है,तो मुझे समर्पण करना ही होता है. स्याह अंधेरों में सितारे मेरा सिंगार हैं! चाँदनी रातों में चाँद मेरे माथे का झूमर! चिरयौवना दुल्हन हूँ,फिरभी मर मिटती आयी हूँ युगों से! रूप बदलती हूँ...सदियों से!
साहित्यिक दस्तावेज सा..
कमाल का लिखा है...
aapka pyara sa sapna jo kahani ban gaya..:)
achchha laga...!
wah kya sapna tha........bahut hee accha chitramkan kiya aapne......
aabhar
wah kya sapna tha........bahut hee accha chitramkan kiya aapne......
aabhar
aapki lekhani shabdon ko sajiv kar deti hai.
पिछली कडी भी आज पढी। आपकी रचना का प्रवाह किसी कविता की तरह है और मै उस प्रवाह मे बह रही हूँ, महसूस कर रही हूँ उस संवेदना को जो सपने के रूप मे शब्द बन कर उकरी है। बधाई बहुत सुन्दर।
एकदम कविता पढने सा रोचक लगा। आभार!
मैंने सोचा सरस्वती जो रेगिस्तान की आगोश में खो गयी !
इस पोस्ट में आपका नया अंदाज़ नज़र आया !
मुझे देर हुई.. जानकर. क्योंकि मैं एकबार ख़ुद उस एहसास से गुज़रना चाहता था. बहुत ख़ूबसूरत एह्सास है. लगता है किसी ने कैनवस पर प्रकृति के सारे रंग बिखेर दिये हों…पहली बार आपकी रचना, आपके मूड से उलट है. बस आप ऐसा ही लिखती रहें...
is baar kahani ko vyakt karane ka andaaj thoda alag hai par laazwaab ...sundar abhivyakti...badhai
दौनो कड़िया उत्कृष्ट
वाह
ताज़ा पोस्ट विरहणी का प्रेम गीत
bahut hee khoobsurat sapna...kavita padhne sa ehsas...badhayi
बेहद प्रभावशाली
That sounds really great! The way you have transformed your dream into words....is praise-worthy.
Ashwani Roy
Likhne ka behad alag andaaaz... sabse alag kehna galat nahi hoga...bahut pasand aaya apka blog..
आपको दीपावली पर्व की बहुत बहुत शुभकामनाये .........................
आपको एवं आपके परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!
देर से आने की माफ़ी चाहूंगी पर खो गई आपकी बातों और सपने में. क्या भाषा और क्या विवरण!!! बेमिसाल!!!! आपको दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाये .
बहुत बढ़िया!!
बहुत ही प्रभावशाली चित्रण है !
आपकी लेखन शैली पाठकों को बांध कर रखने में सक्षम है.!
बधाई!
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
achchhi lagi
bahut dino baad aapke blog par aaya hoon ...kaphi achcha lag raha hai...
सुन्दर शब्दों के साथ प्रस्तुतिकरण अनुपम बन पड़ा है बेहतरीन लेखन .....।
हाँ ! मै रात हूँ! नीरवता में मेरा बसर होता है...नीरवता से रहगुज़र करती हूँ! सन्नाटा सुनती हूँ,जीती हूँ...पल,पल,पहर,पहर गुज़रती जाती हूँ!मेरे मुक़द्दर में सेहर है...क्योंकि मेरे गर्भ में दिन है....दिन है,क्योंकि आदित्य है. जब पूरब में लालिमा छाती है...खिरामा,खिरामा रंग बिखरता है,तो मुझे समर्पण करना ही होता है. स्याह अंधेरों में सितारे मेरा सिंगार हैं! चाँदनी रातों में चाँद मेरे माथे का झूमर! चिरयौवना दुल्हन हूँ,फिरभी मर मिटती आयी हूँ युगों से! रूप बदलती हूँ...सदियों से!
अनुपम अपूर्व के सपने !! दिव्यानुभूतियां! बधाइयां..
मेरे पास कोई शब्द ही नही है कहने को
बहुत खूब
कभी यहाँ भी आइये
www.deepti09sharma.blogspot.com
aapka aabhar yuhi margdarsan karte rahiye dhanyvad
बेहद प्रभावशाली....
अद्भुत...खास कर शब्द चयन कहानी के प्रभाव को बढ़ा देती है...बढ़िया एहसास भरी एक भावपूर्ण प्रस्तुति....बधाई
बहुत सुंदर कथा । कविता की तरह प्रवाहित ।
बरसों पहले मेरे भाई साहब ने इसी विषय पर एक कविता लिखी थी कि रात अपने प्कियकर का सारी रात इन्तजार करती है परन्तु उसके आते ही शरमा कर चली जाती है । उसकी पहली दो पंक्तियां ऐसी थीं ।
गगन सदन के पूर्व क्षितिज पर आया दिन मणि जान
कृष्ण वस्त्रलिपटी रजनी ने किया सलज्ज प्रयाण ।
उसी की याद आ गई ।
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