बुधवार, 22 सितंबर 2010

रहीमा 4

(गतांक: लतीफ़ की धमकी सुन,मैंने  हमारे गेट पे तैनात पहरे को इत्तेला दी,की,गर कोई बंदूक लेके घर के परिसर में घुसना चाहे तो रोक देना...चाहे वो कोई भी हो और कुछ भी कहे. बंदूक ना भी तो भी, गेट से अन्दर,बिना मेरी इजाज़त के कोई घुस ना पाए. "...अब आगे पढ़ें).

दिनभर लतीफ़ के इस तरह धमकी बहरे फोन आते रहे. मैंने अपने मकान के बाहर खुलने वाले तक़रीबन सब दरवाज़े बंद रखे.

ज़रा देर शाम जनाब घर के गेट पे पहुँच ही गए. मुझे इत्तेला दी गयी. बंदूक तो साथ नही थी. मैंने intercom पे बात करते हुए लतीफ़ से कहा," आप रहीमा से बात कर सकते हैं,लेकिन मै ग्रिल के दरवाज़े  बंद रखूँगी. वो अन्दर रहेगी. आपको बाहर से जो कहना कह देना."
जनाब ने थोड़ी अड़ियल बाज़ी  तो की लेकिन मै अपने कहेपे अडिग रही.
बातचीत का सारांश यह था,की,रहीमा किसी तरह घर लौट आए. कभी कुरआन की कसमे खा रहे थे तो कभी बच्चों के सरकी. शराब तो चढी हुई थी ही.

कुछ देर बाद मैंने अन्दर से दरवाज़ा बंद कर लिया और उन्हें जाने के लिए कह दिया. अब अगले दिनका हमें इंतज़ार था जब रहीमा के बहनोई और भाई पहुँचने वाले थे. वो लोग दोपहर २ बजे पहुँचे.

बातचीत के दौरान मैंने उन तीनों को एक कमरेमे छोड़  दिया और वहाँ से हट गयी. कुछ देर बाद रहीमा बाहर आयी तो मैंने उससे नतीजे के बारे में जानना चाहा.
रहीमा ने कहा," जीजा जी के ख़याल से तो औरत ने हर हाल में अपने शौहर के साथ रहना चाहिए...चाहे वो उसे मारे या पीटे! चाहे जहन्नुम जैसे हालात में रखे!"

मै दंग रह गयी! ये आदमी अमरीका जैसे देश से उठके केवल ये बात कहने आया था? उसी रात वो मुंबई लौट रहा था. उसे रहीमा के घरमे न तो रुकना था,न उसकी सुरक्षा की कोई ज़िम्मेदारी उठानी थी.अब जो कुछ दारोमदार था वो ज़फर, रहीमा के भाई पे था.
उसने मुझ से कहा," मेरे रहते लतीफ़ उसे मार पीट तो नही सकता!"
मै:" लेकिन इस तरह कबतक चलेगा? मेरे विचार से तो अब पानी सर से गुज़र चुका है. रहीमा और बच्चे उसके साथ महफूज़ नही. आपने अब लतीफ़ पे तलाक़ का ज़ोर डालना चाहिए!"
ज़फर:" वो इतनी आसानी से माननेवाला नही. कुछ हिकमत ही काम आ सकती है."
मै:" तो तबतक रहीमा और बच्चों को यहाँ से कहीँ और ले जाना चाहिए. "
ज़फर:" आप ठीक कहती हैं...लेकिन लतीफ़ बहुत उधम उठा देगा. ये बात उससे छुप के करनी पड़ेगी."

मै खामोश हो गयी. इनके लौटने का समय भी करीब आ रहा था. रहीमा ज़फर के साथ अपने घर लौट गयी.
इन सब दिनों में एक बात जिसने रहीमा को सब्र दे रखा  था वो था ज़ाहिद का उसके लिए प्यार. रहीमा अब कोई  नवयुवती या सुन्दरी तो नही रही थी, अच्छा खासा ८० किलो से ऊपर उसका वज़न हो गया था. लेकिन ज़ाहिद का वही बचपन वाला प्यार बरक़रार था. इतनी दुःख तकलीफ़ में भी उसका प्यार था जो रहीमा के होटों पे मुस्कान खिलाये हुए था.

खैर! मैंने रहीमा के साथ अपना संपर्क जारी रखा. दिन में दो तीन बार उसे फोन करही लिया करती. जिस दिन ज़फर ने मुंबई लौटना था,उस दिन लतीफ़ ने उससे वादा किया की,वो ज़ाहिद के साथ सुलह कर लेगा. उसे घर बुलाके माफी माँग लेगा. ज़ाहिद ने भी सोचा होगा की बच्चों को मद्दे नज़र रखते हुए शायद यही ठीक था. लतीफ़ एक और मौक़ा देना. दरअसल बच्चों को तो अपने पिता से कोई लगाव नही था,लेकिन स्कूल में ये बातें गलत असर कर  देतीं हैं.

जो भी हो,दूसरे दिन रहीमा से मेरा संपर्क नही हो पाया. तीसरे दिन जब उसने फोन उठाया तो कहा," तुम अगर घर आ सकती हो तो अच्छा हो."
मै उसके घर चली गयी. रहीमा मुझे बच्चों के ऊपरवाले कमरेमे ले गयी और लतीफ़ और ज़ाहिद के मुलाक़ात का किस्सा बताने लगी,"ज़ाहिद  मेरी ख़ातिर हर बात करने के लिए राज़ी था. शाम को वो जैसे ही हॉल के अन्दर प्रवेश करने लगा,लतीफ़ ने उसके सर और मूह पे ज़ोर से hockey स्टिक दे मारी और उसे खूना खून कर दिया. अब वो  बेचारा  साथवाले अस्पताल में पड़ा है.    मै उसे मिलने भी नही जा सकती. इस जानवर का वहशीपन  ना जाने हमें कहा ले जायेगा??"

अब के रहीमा के आँखों से आँसू निकल पड़े. मै खुद दंग रह गयी..ज़ाहिद का तो पूरा घर वैसे ही रहीमा के खिलाफ हो गया था. रहीमा को राहत  मिले तो आखिर कैसे?

क्रमश:

अगली किश्त में मै रहीमा की एक या दो तसवीरें ज़रूर पोस्ट कर दूँगी.

14 टिप्‍पणियां:

दीपक 'मशाल' ने कहा…

औरतों पर हुक्म चलाना और उनकी दुःख-तकलीफ को ना समझना ही कुछ लोगों के लिए मर्दानगी होती है.. पर मेरी राय में ये नपुंसकता है. अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए कुछ पुरुष किसी भी हद तक चले जाते हैं, उन्हें हैवान बनने से भी गुरेज़ नहीं होता.. आपने इस तरह लिखा कि लगा जैसे सब आँखों के सामने हो रहा है.. अगली कड़ी का इंतज़ार है.

उम्मतें ने कहा…

मेरे ख्याल से ज़ाहिद की मौजूदगी फसाद को हवा दे रही है उसे लतीफ से मिलनें की ज़रुरत ही नहीं थी !

राजभाषा हिंदी ने कहा…

रोचकता बरकरार है। अगले अंक की प्रतीक्षा। बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्‍ता भारत-2, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

मंजुला ने कहा…

आपने इस तरह लिखा कि लगा जैसे सब आँखों के सामने हो रहा है.. अगली कड़ी का इंतज़ार कर रही हूँ....

संजय भास्‍कर ने कहा…

अगली कड़ी का इंतज़ार है.

संजय भास्‍कर ने कहा…

KSHMA MAA PARNAAM JI

रचना दीक्षित ने कहा…

कहानी की गंभीरता व रोचकता बरक़रार है अगली कड़ी का इंतज़ार है

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

बदमिजाज़ और शराबी शौहर अगर बेरोज़गार भी हों तो शक्की अपने आप हो जाते हैं. ऐसे में, अगर हालात सुधर न पाएँ तो कम स कम बिगड़ने नहीं चाहिए. एक मर्द के दिल से सोचकर लिखता हूँ कि ऐसे में अगर शौहर कलाम पाक की क़सम उठाकर भी किसी पुराने दोस्त (जो इश्क़ करता है अभी भी उसकी बीवी से) को मिलनेको कहे तो मुनासिब नहीं मिलना, चाहे सारे घर की मौजूदगी में ही क्यूँ न हो.

Urmi ने कहा…

बहुत ही सुन्दरता और रोचकता के साथ आपने कहानी प्रस्तुत किया है! जैसे जैसे पढ़ती गयी ऐसा महसूस हुआ मानो आँखों के सामने घटी हुई घटना है! अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा!

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

following up now...!!!

मैत्रेय मनोज ' एम ' ने कहा…

Insaano ke sur jindgi ke geet se alag kyon par jaate hein aakhir?

pragya ने कहा…

क्षमा जी, जब पूजा की दास्ताँ खत्म हुई तो जब भी ब्लॉग पर आती थी एक खालीपन लगता था, आज रहीमा को देखा तो जाने क्यों एक और दास्ताँ पढ़ने की खुशी से ज़्यादा एक अजीब से भाव मन में आता रहा कि जाने कितनी ऐसी दर्दनाक दास्तानें हैं जो एक-के-बाद-एक आपके ब्लॉग पर आने का दम रखती हैं, लेकिन यह दम वे गर्व से नहीं बल्कि सर झुकाकर, रोती पलकों से भरती हैं....

Asha Joglekar ने कहा…

आज बडे दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आई अब सारी किश्तें पढ रही हूँ । बहुत अच्छा हुआ रहीमा को जाहिद मिल गया । अब कहानी शायद नया मोड ले ।

निर्मला कपिला ने कहा…

कहानी अपने प्रवाह मे चले जा रही है। शायद आज का मोद कहानी की रोचकता इतनी बढा दे कि इन्तजार करना मुश्किल लगे। आज एक बार फिर से पिछली किश्तें पढी। धन्यवाद
कृप्या मेरा ये ब्लाग भी देखें।
http://veeranchalgatha.blogspot.com/