(गतांक: रहीमा और ज़ाहिद ने मुंबई में निकाह कर लिया और सोलापूर रहने आ गए. सब से पहले दोनों मुझे मिलने आए. रहीमा की आँखें भर,भर आतीं रहीं...बेहद ख़ुश थी वो...उस के लिहाज़ से एक दो बातें बहुत बढ़िया थीं...अव्वल तो वो अपने पिता के मकान में थी...पती के छोड़ने के बाद उसे कहीँ और मकान तलाशना नही था. दूसरा,चूंकि वह अपने ही पुश्तैनी मकान में थी, ज़ाहिद के घरवालों के मोहताज भी नही थी. वैसे ज़ाहिद ने नया मकान बनाने या खरीद ने का इरादा ज़ाहिर कर ही दिया था...
क्रमश:
किसे पता था,की,वहशत और दहशत किस भेस में छुप मौक़ा तलाश रही थी??अब आगे पढ़ें.)
मेरी, रहीमा और ज़ाहिद से मुलाक़ातें होती रहीं. रहीमा के बच्चे तो ज़ाहिद से बेहद घुलमिल गए थे. उन्हें पिता का ऐसा प्यार शायद ही कभी मिला था.
एक दिन रहीमा ने ख़बर सुनाई:" लतीफ़ का देहांत हो गया. उसका लिवर शराब के अती सेवन के कारण, पूरी तरह से बरबाद हो चुका था. मैंने बच्चों से पूछा की क्या वो जनाज़े में शामिल होना चाहेंगे? लेकिन उनका तो साफ़ इनकार था. उसके परिवार ने मुझे तो पहले ही अलग थलग कर दिया था. मेरे जाने की कोई तुकही नही बनती थी. चलो,उसकी जान छूटी. "
कुछ दिनों बाद रहीमा का जनम दिन था जो ज़ाहिद और बच्चों ने मिलके बडेही अपनेपन से मनाया. रहीमा को कानोकान ख़बर न होने दी और सारा घर सजा डाला. केक ,मिठाईयाँ, नमकीन, सब हाज़िर हो गया ! रहीमा का कई बार खुद की क़िस्मत पे विश्वास नही होता! उसे अपने बचपन का प्यार इतने बरसों बाद मिल गया था और इसतरह,जैसे कभी वो जुदा हुए ही न हों! बच्चों को उसने कभी इतना ख़ुश नही देखा था! उनके स्कूल के साथियों के साथ ज़ाहिद पूरी तरह घुलमिल गया. उन्हें ये महसूस ही नही हुआ की उनके जीवन में एक बड़ा तूफ़ान आके गुज़रा है.
दिन बीतते रहे. बातों ही बातों में रहीमा ने उसके भाई की,ज़फर की,एक ख़बर सुनायी:" ज़फर ने उस नीग्रो औरत को छोड़ दिया और अब किसी तीसरी लडकी के साथ चक्कर चल रहा है!"
मै: "ओह! अब ये कौन है? "
रहीमा:" अरे तुम विश्वास नही करोगी! उसके अपने जिगरी दोस्त की मंगेतर. लडकी हिन्दू है इसलिए दोनों घरों से इजाज़त नही मिल रही थी. लडकी को इसके दोस्तने भगाकर हमारे घर रखा और इधर इन दोनों ने अलगही चक्कर चला लिया! लडकी को अब ज़फर ने कनाडा भेज दिया है!!"
मै:"उफ़! क्या कमाल है! ऐसाभी होता है! जीवन में दोस्त दोस्तपे भरोसा ना कर सके! उस लड़के पे क्या बीती होगी?"
रहीमा:" हाँ सच! मुझे खुद इतनी शर्मिन्दगी महसूस हुई,लेकिन उससे कौन क्या कहता? उसने तो अब अपना पैंतरा ही बदल दिया है! उसकी निगाहों में तो लतीफ़ 'बेचारा' बन गया है और मै और ज़ाहिद फरेबी!
"उसने हमारे वालिद के नाम का भी बड़ा नाजायज़ फ़ायदा उठाया है. सोलापूर में कम्प्यूटर के पार्ट्स बनाने की फैक्ट्री का ऐलान कर,यहाँ के कई रईसों से उसने पार्टनर शिप के नाम से पैसा इकट्ठा किया है. मुझे तो कुछ फैक्ट्री बनती नज़र नही आती. "
ज़फरका ये बड़ा ही घिनौना चेहरा मेरे सामने आ गया. खैर!
इन बातों के चंद रोज़ बाद रहीमा ,ज़ाहिद और बच्चे कहीँ घूमने निकल गए. गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गयीं थीं और इन्हीं दिनों हमारा सोलापूर के बाहर तबादला हो गया. हमने सोलापूर छोड़ दिया और नासिक चले आए. रहीमा से मेरी फोन पे बातचीत होती रहती.
शायद दो या तीन माह बीते होंगे की एक दिन सोलापूर से हमारे एक परिचित का फोन आया:" ज़ाहिद का बड़े अजीब ढंग से हादसा हुआ है......उसे पुणे ले गए हैं...कोमा में है...हालत गंभीर है...पटवर्धन अस्पताल में ....ICU में है....रहीमा बहुत चाहती है की,आप उसे मिलने जाएँ...!"
मेरे ना जाने का सवाल ही नही उठता था...मै दौड़ी,दौड़ी पुणे पहुँच गयी...
क्रमश:
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15 टिप्पणियां:
एक ख़ूबी है आपकी क़िस्सागोई की...एक साथ कई अफसाने चलते रहते हैं और सारे के सारे अहम...इन सबको निभाना बहुत मुश्किल होता है, मगर आप बहुत आसानी से कर लेती हैं...
अब लगता है रहीमा को दुबारा बेवा होना होगा..
इंतज़ार रहेगा!!
waah ek nai kahani ,achchhi lagi ,main bhopal chali gayi rahi aur lauti to kitni kisto ko dala paya .
रोचकता बनी है। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
पिछले भाग की आख़िरी पंक्ति(चेतावनी) ने अपना प्रभाव अभी तक नहीं छोड़ा... हर शब्द पर यह अहसास बना रहा कि कुछ बहुत बुरा होने वाला है.. ओह्ह जाहिद ठीक तो है!!! कहीं ज़फर के दोस्त ने दुश्मनी तो नहीं निकाल ली?? कई सवाल मन में हैं. पर उसकी भी तो गलती है कि 'इक बेवफा से प्यार किया..'
aaj kee kadee rahat laaee please Raheema kee khushiyo par aanch naa aae .
कब कौन विलेन बन जाये कहा नहीं जा सकता ! अब कनाडा जा चुकी मोहतरमा ज़फर के चक्कर में हैं तो उनका पहला प्रेम 'क्या' था ?
शायद जिंदगी ऐसे ही आकर्षणों और उनसे उपजे छल फरेब में डूबती उतराती ...और उनकी ही पनाह में परवान चढती रहती है !
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
बदलते परिवेश में अनुवादकों की भूमिका, मनोज कुमार,की प्रस्तुति राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
किस्सा काफ़ी रोचक होता जा रहा है अब तो अगले भाग का इंतज़ार है।
kaafi rochak kahaani chal rahi hai.....bahut dino ke baad aapke blog par aa sakaa maaf karen.....agle bhaag kaa intejaar hai.
बांधकर रखने वाली लेखन शैली.
सुन्दर प्रस्तुति, अगले भाग का इंतज़ार है।
किस्सा काफी इंटरेस्टिंग बन रहा है । अब इस जफर को क्या हुआ एक अच्छा इन्सान बुरे मे कैसे तबदील हो गया ।
कहानी की गंभीरता व रोचकता बरक़रार है अगले भाग का इंतज़ार है।
अगली किश्त भी पढ़ूंगा.
जिंदगी का कुछ पता नही किस ओर करवट लें...बढ़िया रोचक कहानी...अब आगे क्या होगा ...इंतज़ार है..
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