( गतांक: इन बातों के चंद रोज़ बाद रहीमा ,ज़ाहिद और बच्चे कहीँ घूमने निकल गए. गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो गयीं थीं और इन्हीं दिनों हमारा सोलापूर के बाहर तबादला हो गया. हमने सोलापूर छोड़ दिया और नासिक चले आए. रहीमा से मेरी फोन पे बातचीत होती रहती.
शायद दो या तीन माह बीते होंगे की एक दिन सोलापूर से हमारे एक परिचित का फोन आया:" ज़ाहिद का बड़े अजीब ढंग से हादसा हुआ है......उसे पुणे ले गए हैं...कोमा में है...हालत गंभीर है...पटवर्धन अस्पताल में ....ICU में है....रहीमा बहुत चाहती है की,आप उसे मिलने जाएँ...!"
मेरे ना जाने का सवाल ही नही उठता था...मै दौड़ी,दौड़ी पुणे पहुँच गयी...अब आगे पढ़ें.)
नाशिक से पुणे के सफ़र के दौरान,ना जाने कैसे,कैसे ख़यालों ने मेरे दिमाग शोर मचाये रखा....क्या कहूँगी मै रहीमा से? किस हाल में होगी वो? साथ,साथ दुआ भी करती जा रही थी...हे ईश्वर! तेरे सदके जाऊं...ज़ाहिद को ठीक कर दे! गर उसे अब कुछ हो गया तो रहीमा पागल ही ना हो जाये...या मेरे खुदा! तू तेरे बन्दों के कैसे,कैसे इम्तिहान लेता रहता है? और क्यों? रहीमा को अभी, अभी तो कुछ चैन और प्यार मिला था...और कितना दर्द रहीमा के क़िस्मत में लिखा है?? वो पाँच, छ: घंटों का सफ़र बेहद तनाव में कटा.
मै सीधे अस्पताल पहुँची. ICU के बाहर रहीमा मिली. रहीमा क्या,मानो उसका अक्स था. मेरे गले लिपट गयी और मेरे कंधों पे उसके आँसूं मुझे महसूस हुए...मै उसे सांत्वना भी देती तो क्या देती? "सब ठीक हो जायेगा...सब्र करो", के अलावा मै और क्या कह सकती थी? और ये अलफ़ाज़ भी कितने बेमायने थे!
तभी डॉक्टर,जिनकी देखभाल में ज़ाहिद था,वहाँ पहुँचे. रहीमा ने मेरा उनसे परिचय कराया. मेरा उनसे पुराना परिचय निकल आया. मैंने उनसे दो मिनट अलग से बात करने की बिनती की.वो मुझे एक ओर ले गए.
मैंने पूछा:" डॉक्टर, आप मुझे सही हालात से वाबस्ता कर सकते हैं?"
डॉक्टर:" हाँ! करनाही होगा...वैसे तो ईश्वर की दया अगाध होती है..हम लोग उसके आगे कोई नही...लेकिन ज़ाहिद के बचनेकी मुझे कोई उम्मीद नही. गर बच भी जाये तो वो ना कभी चल पायेगा ना तो उसका अपने जिस्म पे कोई नियंत्रण ही रहेगा...कोमा की स्थिती में वो कितने दिन काट सकता है,ये तो मै नही कह सकता...उसकी रीढ़ की हड्डी पूरी तरह से चूर,चूर हो गयी है...मस्तिष्क में गहरी चोटें हैं...इस के अलावा पसलियाँ और अन्य हड्डियाँ टूटी हुई हैं..."
शायद डॉक्टर ने और भी कुछ कहा,पर मुझे सुनायी देना बंद हो गया था. उधर रहीमा मेरी तरफ निगाहें गडाए बैठी थी. कहीँ से कोई उम्मीद की किरन नज़र आ जाये...कोई उससे कह दे,की,ज़ाहिद मौत के द्वार से सही सलामत लौट आयेगा...मैंने उसे क्या कहना चाहिये ऐसे समय में?
मैंने उस के पास जाके कहा: " रहीमा...खुदा पे भरोसा रखो...अब जो होना है उसी के हाथ में है...डॉक्टर तो अपनी तरफ से कोशिश कर रहे हैं...ये हादसा हुआ कैसे,ये तुम मुझे बता सकती हो?"
रहीमा:" हाँ...यही मै तुम्हें बताना चाह रही थी...पिछले चंद हफ़्तों के हालात से तुम वाबस्ता नही हो...ज़फर ने हम दोनों को बहुत तंग करना शुरू कर दिया था. उसे,हम जिस घरमे रह रहे थे,वो चाहिए था. मै और ज़ाहिद,मेरे वालिद के एक अन्य मकान में रहने चले गए. वो मकान आधा अधूरा बना हुआ है. तीन कमरे छोड़ बाकी घरपे छत नही नही है. खैर! बात इसी पे आके रुक जाती तो ठीक था. उसने पेट्रोल पम्प पे भी कब्ज़ा जमाना चाहा. मेरे वालिद की वसीयत में पम्प मेरे नाम पे है. ज़ाहिद ने तो कहा की, छोडो,जाने दो..हमें क्या करना है? दे दो उसे जो चाहिए. "
मै:" तो ? तुम क्या कहना चाह रही हो? क्या ज़ाहिद के हादसे के पीछे कोई साज़िश थी? ज़फर की साज़िश? मेरा विश्वास नही हो रहा....!"
रहीमा:" जिस शाम हादसा हुआ,उस शाम ज़फर का धमकी भरा एक फोन आया. उसने ज़ाहिद से बात की. शायद ज़फर ने कुछ ज्यादा ही पी रखी थी. उस ने ज़ाहिद से कहा की वो तुरंत पम्प पे आ जाये और पम्प के कागज़ात उसके नाम करने की प्रक्रिया शुरू करे. उसे लग रहा था,की,मै शायद न मानूँ.
"ज़ाहिद घर से निकलता इससे पहले पम्प पर से हमारे एक पुराने वफादार नौकर का फोन आया की,ज़फ़र तो पम्प को तबाह करने के मंसूबे बना रहा है...ज़ाहिरन,ये केवल तमाशा था..उसे तो पम्प से मिलने वाली आमदनी चाहिए थी...क़र्ज़ में डूब जो रहा था...या शायद उसे पम्प अपने नाम करके बेच देना था...कह नही सकती...मैंने ज़ाहिद को घर से बाहर जाने से रोकना चाहा,लेकिन ज़ाहिद ने मुझे भरोसा दिलाया की,इस तरह कायरों की भांती डरना और घरमे घुसे रहना ठीक नही...मै उसे मिलके इत्मिनान दिला देता हूँ,की,उसे जो चाहिए,वैसाही होगा...हमें बस अब अमन चैन चाहिए...कोई लडाई झगडा नही...."
मै :" तो ?"
रहीमा :" ज़ाहिद अपनी मोबाइक पे निकल पडा. घर के पास से जो रास्ता सोलापूर क्लब के साथ से गुज़रता है,वो वहाँ तक पहुँचा ,तो देखा पीछे से ज़फर तेज़ जिप्सी चलाता हुआ उसके पीछे आ रहा था. गली संकड़ी थी. ज़ाहिद ने अपनी बाईक रास्ते से हटा लेनी चाही,लेकिन उसे मौक़ा ही नही मिला. ज़फर ने पीछे से ज़ोरदार टक्कर लगा दी. ज़ाहिद दूर जाके पटकाया. "
मै:" रहीमा! तुम्हें ये सब किसने बताया? किसी ने इस हादसे को होते हुए देखा? कोई चश्मदीद गवाह है?"
रहीमा:" हमारे पम्प का ही एक मुलाजिम वहाँ से साइकल पर से गुज़र रहा था. उसने सब कुछ देखा...! ज़फ़र तो टक्कर मार के उड़न छू हो गया. इस आदमी ने रास्ते पर से एक रिक्शा बुलाई. ज़ाहिद को लेके अस्पताल पहुँचा और मुझे वहाँ से फोन किया. "
मै :" ओह! तो कोई तो गवाह है! वो रिक्शावाला भी बता सकता है की,वो किस हाल में ज़ाहिद को अस्पताल लेके गया...! क्या तुम्हारे मुलाज़िम ने उस रिखे का नंबर लिख लिया था?"
रहीमा :" उस ने नंबर तो लिखा था,लेकिन वो किसी काम का नही.....ज़फर ने बहुत चालाकी की...वो रिक्शा वाला गायब है..! ना जाने ज़फर ने उसे कहाँ भेज दिया...कितने रुपये पकड़ा दिए! "
मै :" और वो मुलाज़िम? जिस ने ये सब होते हुए देखा? उसका क्या? वो तो मूह खोलेगा या नही?"
रहीमा:" वो भी दूसरे दिन से गायब है...और तो और ज़फर का रूसूक़ इतना है,की, पुलिस ने FIR तक दर्ज नही कराया है..! सतारा के DSP बड़ी मेहेर नज़र है ज़फर पे...उनके रहते ज़फर का एक बाल भी बांका नही हो सकता...!"
मै:" गज़ब है! और इस वक़्त ज़फर कहाँ है?"
रहीमा :"वो तो फ़र्ज़ी पास पोर्ट पे कनाडा पहुँच चुका है...उसका तो अब वैसे भी कोई कुछ नही बिगाड़ सकता. हमारे पुश्तैनी मकान का तो सौदा होही गया था...वो सारा पैसा तो उसे मिल गया...यहाँ के लोगों से जो उसने पैसे लिए थे,वो तो सब डुबो दिए....हाँ....! जल्द बाज़ी में पेट्रोल पम्प से हाथ धो बैठा. अब वो डर के मारे कभी नही लौटेगा..."
कैसा अजीब इत्तेफ़ाक़ था! जिस दिन ज़ाहिद का हादसा हुआ,या करवाया गया,वो रक्षाबंधन का दिन था!
मै दो दिन पुणे में रुकी. जब लौटी तो ज़ाहिद के हालत में कोई तबदीली नही थी.
मेरे नाशिक लौटने के दूसरे ही दिन ज़ाहिद दुनिया से चल बसा. मुझे ख़बर तीसरे दिन मिली. मै जनाज़े में तो शामिल हो ना सकी, लेकिन सोलापूर के लिए निकल पडी. रहीमा के आधे अधूरे मकान पे पहुँची. अजीब-सी मनहूसियत छाई हुई थी.
मकान के सहन में कुछ लोग बैठे हुए थे. रहीमा एक कमरेमे थी. मुझे देखते ही लिपट गयी. बोली:" मै ज़ाहिद की मौत के लिए ज़िम्मेदार हूँ...ना हमारी शादी होती ना उसकी जान जाती...मेरे प्यार ने उसकी जान लेली....मै अपराधी हूँ...!"
मै :" ऐसा ना कहो रहीमा! तुम्हें लगता है,इन बातों से ज़ाहिद की रूह को चैन मिलेगा? "
रहीमा:" हमारी शादी को एक साल भी नही हुआ...फिरभी इन चंद दिनों में मुझे ज़ाहिद ने ज़िंदगी भर का प्यार दे दिया...लतीफ़ ने दिया हर दर्द मै भूल गयी...कैसे विश्वास कर लूँ की ज़ाहिद नही रहा?"
मै:" रहीमा! बहुत कम लोगों को ऐसा प्यार नसीब होता है...ये तुम्हारे लिए पूरे जीवन भर का तोहफा है...इन्हीं पलों से तुम्हें अब एक उम्र चुरानी है...बच्चों को बड़ा करना है...पढ़ाना लिखाना है...ज़ाहिद तुम्हें,जहाँ भी होगा हर पल देखेगा...!"
और रहीमा की उम्र बसर होती रही. आफताब बड़ा होके पुलिस अफसर बनना चाहता था,की वो अपने मामा का बदला ले सके! खैर पुलिस अफसर तो नही बना..लेकिन बच्चों ने माँ की मेहनत सार्थक कर दी. दोनों काबिल बन गए. अपने,अपने पैरों पे खड़े हैं. रहीमा ने वो आधा अधूरा मकान ठीक करवा लिया. पेट्रोल पम्प ही उसकी रोज़ी रोटी का ज़रिया बना रहा.
समाप्त
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25 टिप्पणियां:
Read the whole story today! Great narration!
Rahima's tragedies made me cry. Why does so much happen to someone?
मेरी भविष्यवाणी सच निकली..रहीमा बेवा हो गई. लेकिन कहानी इस बार प्रेडिक्टेबल थी. मुझे पिछले एपिसोड में लगा था कि इसको एक हादसा और क़त्ल दिखाया जाएगा अगले एपिसोड में. और हुआ भी वही. अब आपसे एक ख़ूबसूरत सी सुखांत कहानी की उम्मीद है. आप जब अपनी कलाकारी में इतने ख़ूबसूरत रंग भर लेती हैं, तो कहानियों में क्यों नहीं. कोशिश करके देखिये शायद ज़िंदगी और ख़ूबसूरत लगने लगे!! एक बार फिर आपकी आर्ट ऑफ स्टोरीटेलिंग की तारीफ करनी होगी!!
बहुत कम लोगों को ऐसा प्यार नसीब होता है...ये तुम्हारे लिए पूरे जीवन भर का तोहफा है...इन्हीं पलों से तुम्हें अब एक उम्र चुरानी है...बच्चों को बड़ा करना है...पढ़ाना लिखाना है...ज़ाहिद तुम्हें,जहाँ भी होगा हर पल देखेगा...!"jeevan me kisi aadhar ka hona jaroori hai isse jeena aasan ban jata hai .sundar .
मार्मिक कथा - किस्मत के खेल वाकई निराले होते हैं।
रब की मेहर की रहीमा के पास पेट्रोल पम्प बाकी था वर्ना ...
कथा फिलहाल तो पीनें और ना पीनें वालों के दरम्यान की संघर्ष गाथा लग रही है ! पहले लतीफ़ , अब ज़फर , आगे और कौन पीनें वाला सामनें आकर प्राब्लम्स खड़ी करेगा देखते हैं !
apki kahani ka andaaj ek dum nirala hota hai.......ek dum khud se sath jura hua mahsoos hota hai.......badhai
bahut hi maarmik...rahimaa kaa dard asahaney hai.
कुछ कहने लायक छोडा ही नही आपने…………निशब्द कर दिया।
बढिया अन्त. रहस्यात्मकता को समेटे, शानदार रचना.
maaf kijiye lekin kripya apni sweekriti yahan is link par darz karein...
http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html
बहुत कम लोगों को ऐसा प्यार नसीब होता है...ये तुम्हारे लिए पूरे जीवन भर का तोहफा है...इन्हीं पलों से तुम्हें अब एक उम्र चुरानी है..
bahot hi badhiya........Dil ko chu lenewali Rachana......
रहीमा का सुख कितना क्षणिक निकला । कितनी मुश्किलें उठायी होंगी उसने बच्चों को काबिल बनाने में । आप की लेखनी धारदार है पर कहानी में खुशियां कम दर्द ज्यादा क्यूं ।
bahut din ho gaye khabar nahi mili ,aapki tabiyat ab kaisi hai ?kuchh khana shuru kiya .
आज पूरी कहानी पढ़ ली । मन उदास हो गया ,काश कोई दुःख न होते । आपकी गद्य शैली प्रशंसनीय है
बहुत बढ़िया दिल को छूने वाली कहानी थी पड़कर ऐसा लगा की कही न कही मै भी कही न कही उन सब के बीच खड़ा उन्हें सांत्वना दे रहा हु !
क्षमा जी ! आज रहीम के सातों भाग एक साथ पढ़े ! आपकी शैली रोचक है और पाठक को अपने साथ बहा लेने की क्षमता रखती है !कहानी में " आगे क्या होगा "वाला भाव बहुत महत्वपूर्ण होता है ,इस रोचकता का निर्वाह अंततक होना और पाठक के पूर्वानुमान से परे कुछ हो जाना , कहानी की रमणीयता को और बढ़ा देता है , इस लिहाज़ से कहानी कुछ और मेहनत मांगती है और आप इसमें सक्षम भी हैं ,बस थोडा सा और ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है !...........और अंततः आपका बहुत बहुत धन्यवाद मेरे ब्लॉग पर आकर हौसला अफजाई केलिए
देर से आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ कुछ व्यस्त रही इन दिनों. बहुत मार्मिक हमेशा की तरह
आपकी टिपण्णी और हौसला अफ़जाही के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत बढ़िया और दिल को छू लेने वाली रचना लिखा है आपने! बधाई!
आदरणीया, आपने मेरे ब्लॉग उम्र कैद पर पर टिप्पणी देकर अपने ब्लॉग बिखरे सितारे पर लिखी कहानी/जीवनी पढने के लिये आमन्त्रित किया। इसके लिये आपका दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। वाकई आपने अपनी लेखनी से घटना का सजीव चित्रण किया है। लगता है कि घटना अपनी आँखों के सामने घट रही है। मैंने एक साथ सारी किश्तें पढ डाली हैं। रहीमा का जीवन अपने प्यार के साथ गुजारे एक वर्ष की याद में गुजर जायेगा। ऐसा आपका मानना है, लेकिन जिसके सम्पूर्ण जीवन में एक पल भी ऐसा नहीं गुजरा हो, जिसे मीठी यादें कहा जा सके, उसका जीवन किस सहारे बीते? खैर...!
मैं जिस सेण्ट्रल जेल में रहा, वहाँ पर तकरीबन ३०० कैदी प्रतिदिन नये आते थे और इतने ही प्रतिदिन छूटते थे। मेरा वास्ता उनमें से हजारों से रहा और आपने जो लिखी है, उससे कई गुना अधिक करुणा/दारुण दायिनी सच्ची घटनाएँ मुझे पल-पल याद रहती हैं। जिनके सहारे मैं यही सोच कर कि मेरे जीवन से उनका जीवन कितना भिन्न है। स्वयं को समझाकर उम्र कैद को काट रहा हूँ।
आपसे आग्रह है कि मेरे जीवन से सम्बन्धित जानकारी को जब तक ठीक लगे पढती रहें। मैं दुनिया छो‹डने से पूर्व अपने आपके बारे में और दुनियादारी, सरकार, समाज, प्रशासन, पुलिस, न्यायपालिका आदि के बारे में बहुत सारी बातें उजागर करना चाहता हूँ। देखता हूँ कि यह सम्भव हो पाता है या नहीं? उम्मीद पर दुनिया कायम है।
आपका शुभचिन्तक
उम्र कैदी
ओह! मार्मिक.
शानदार रचना......
आपकी गद्य शैली प्रशंसनीय है!!
बहुत दर्दनाक रही यह रचना कभी-कभी तो लगता है कि जीवन में खुशियाँ तो पल भर की हैं और गम जीवन भर का...
ये तुम्हारे लिए पूरे जीवन भर का तोहफा है...इन्हीं पलों से तुम्हें अब एक उम्र चुरानी है..हमेशा की तरह सुन्दर एवं प्रभावशाली लेखन, आपका मुझे प्रोत्साहित करना मेरे लिये बहुत ही महत्वपूर्ण है आभार के साथ ........।
बेहद ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना! बधाई!
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा रचना लिखा है आपने! बधाई!
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